Saturday 15 October 2016

मुझे चाहिए कुछ ऐसा "यूनिफार्म सिविल कोड"!

1) IAS / IPS / IRS इत्यादि सिविल परीक्षाएं, इन नौकरियों में एंट्री के लिए नहीं अपितु प्रमोशन के लिए होवें। हर विभाग में सबसे छोटी पोस्ट से एंट्री का प्रावधान हो। यह सिस्टम इंग्लैंड, फ्रांस में तो मेरी जानकारी में लागू है। इसकी महत्वता इसी बात से समझी जा सकती है कि IIT व् IIM पास किये हुओं को भी कॉर्पोरेट सेक्टर में इंटर्नशिप यानी ट्रेनिंग से शुरू करना पड़ता है| उन्होंने IIT या IIM किया है, सिर्फ इस वजह से सीधे मेनेजर या टीम लीडर की पोस्ट पे नहीं बैठा दिया जाता।

2) जैसे पुजारी-पंडित-पूछा-पत्री-सत्संग-प्रवचन वाले अपने काम का पैसा खुद निर्धारित करते हैं, जैसे व्यापारी-कारोबारी अपने उत्पाद-सर्विस का दाम खुद निर्धारित करते हैं, जैसे मजदूर-कारीगर अपनी दिहाड़ी खुद बढाते-घटाते रहते हैं; ठीक ऐसे ही किसान की फसल के दाम तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ किसान का हो।

3) सरकारी गैर-सरकारी हर विभाग में A - B - C - D ग्रेड की नौकरियों का पेमेंट स्केल एक होना चाहिए।

4) बेचना हो या खरीदना, दोनों ही सूरत में किसान को मंडी या व्यापारी के दर पर जाना पड़ता है; यह बन्द होना चाहिए। किसान अपने उत्पाद को अपनी मार्किट बना के वहाँ बेचे, जैसे अन्य व्यापारी करते हैं। और वहाँ खरीदार आवें, फिर चाहे वो सरकारी खरीददार हों या प्राइवेट। या फिर किसान को मंडी-स्थल तक माल पहुंचाने का लोजिस्टिक्स/ट्रांसपोर्टेशन खर्च मिले। हालाँकि गन्ने की फसल में ऐसा प्रावधान है, परन्तु यह हर फसल के लिए लागू हो।

5) मीडिया को अपराध को अपराध दिखाने की हिदायत हो; अपराध की आड़ में किसी समुदाय-जाति-क्षेत्र को घसीटने-बदनाम करने की सख्त मनाही हो।

6) एससी/एसटी एक्ट की भांति हर जाति-वर्ण के पास ऐसा कानून हो, क्योंकि भारत में जातिसूचक शब्द हर वर्ग के लिए प्रयोग होते हैं।

7) हर सरकारी सेवा/सुविधा जनता को 5-7 किलोमीटर के क्षेत्र में मुहैया करवाई जाए; उसके लिए दफ्तर-विभाग गाँवों में उठा के ले जाने पड़ें, ले जाए जाएँ। 10 किलोमीटर से ज्यादा दूर जनता को सरकारी काम के लिए जाना हो तो सरकार उसका किराया व् खाना का खर्च भुगते।

8) अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-इंग्लैंड-आयरलैंड की भांति नौकरियों में आरक्षण सिर्फ और सिर्फ प्रतिनिध्त्वि व् प्रतिभागिता ही माना जाए, इसको गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम ना बनाया जाए। इसलिए जनसँख्या के अनुपात में जिला स्तर को पैमाना मानकर हर जाति-समुदाय का बराबरी से उस जिले-राज्य-देश की हर सरकारी गैर-सरकारी नौकरी में आरक्षण हो। इस पैमाने पर चलते हुए हर नौकरी की दो बार अधिसूचना निकाली जाए; फिर भी पद रिक्त रह जाएँ, तो रिक्त पदों के लिए जनरल भर्ती की जाए।

9) देश में सेना के होते हुए, किसी भी प्राइवेट संगठन-संस्था-एनजीओ को हथियार रखने या अपने कैडर को हथियारों की ट्रेनिंग देने की इजाजत ना होवे।

10) हर गाँव-शहर को एक स्वंतंत्र अर्थव्यवस्था माना जाए व् इस अर्थव्यवस्था को चलाने का हक़ उस गाँव-शहर की स्थानीय संस्था को होवे। सरकारी कर्मचारी उस व्यवस्था को सविंधान के अनुसार चलाने हेतु सहयोग हेतु होवे, ना कि आदेश हेतु।

11) भारत की न्याय-व्यवस्था में "सोशल ज्यूरी सिस्टम" लागू हो। सामाजिक, आर्थिक व् धार्मिक परिवेश के किसी भी मुदकमे को सुलझाने में अगर छह महीने से ज्यादा वक्त लग जाए, तो उस जज के खिलाफ ऑटोमेटिकली "शो-काज" नोटिस जारी हो।

12) जैसे अमेरिका का वाइट-हाउस हर एक लाख हस्ताक्षर पाने वाली याचिका पर तुरन्त कार्यवाही करता है; ऐसे ही भारत में राष्ट्रीय पर एक लाख हस्ताक्षर पाने वाली याचिका पर विधायिका-न्यायपालिका तुरन्त एक्शन लेवें। राज्य स्तर पर यह पैमाना जनसँख्या के अनुपात के अनुसार रखा रखा जावे।

13) अमेरिका-फ्रांस-इंग्लैंड की भांति हर प्रकार के धर्म को सिर्फ धर्म-स्थलों की परिधि में कार्यवाही की आज्ञा हो। गलियों-मोहल्लों में इनके कार्यक्रमों पर पाबन्दी हो। क्योंकि धार्मिक प्रतिनिधि उन्मादी होते हैं और उन्मादी व्यक्ति आम जनजीवन को दिशाहीन कर देता है; जिससे आमजन की शांति-सौहार्द-आजीविका में खलल पड़ता है।

14) हर धर्म के अंदर भी "यूनिफार्म सिविल कोड" हो; यह नहीं कि पुजारी के बेटा पुजारी और लाचारी का बेटा लाचारी कहलाये। सिख-मुस्लिम-ईसाई कैसे करेंगे इस पर उनके धर्म वालों से पूछा जाए। क्योंकि मैं हिन्दू जीवन शैली ((धर्म नहीं जीवन-शैली)) की मूर्ती-पूजा विरोधक आर्य-समाजी शैली से आता हूँ और "दादा खेड़ा भगवान्" का उपासक हूँ और क्योंकि दादा खेड़ा भगवान के दर पर ना ही तो कोई पुजारी बैठता और ना ही वहाँ आया प्रसाद-दान एक पुजारी या ट्रस्ट की भांति चुनिंदा लोग ले जाते। अपितु वहाँ बैठे गरीब लोगों को उपासना करने वाले अपने हाथों से दे जाते हैं। इसीलिए यही चाहूंगा कि जहां दान-चन्दा चुनिंदा व्यक्तियों या ट्रस्टियों के पास जाता है, वहाँ वह लोग उसका साप्तहिक-पाक्षिक-मासिक सार्वजनिक ब्यौरा प्रस्तुत करें और सरकार को टैक्स व् धर्मस्थल के रखरखाव के अलावा वह चन्दा कितना किधर लगेगा, यह उस धर्मस्थल के प्रभावक्षेत्र में आने वाले लोगों की आमराय के अनुसार ही खर्चा जाए; ताकि ऐसे पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े ना रचाये जा सकें। हर धर्म संस्थान में एक निर्धारित टीम हो, जिसमें 50% पुरुष और 50% औरतें हों। इस टीम में सवर्ण-दलित-किसान-पिछड़े की बराबर की भागीदारी हो। काम भी बराबर बंटे हों। जैसे एक दिन सवर्ण मन्दिर में धुप-बत्ती करेगा और दलित झाड़ू-पोंछा करेगा तो अगले दिन दलित धुप-बत्ती करेगा और सवर्ण झाड़ू-पोंछा।

इससे होगा वाकई में "यूनिफार्म सिविल कोड" की भावना लोगों में लाने का उद्गम।

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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