Thursday, 25 July 2019

पाश्चात्य सभ्यता इतनी समृद्ध-संम्पन-खुशहाल-विकसित क्यों है?

क्योंकि यह उन बातों के प्रैक्टिकल करते हैं, जिन पर हमारे समाज या कहिये देश में सिर्फ थ्योरी चल रही हैं वह भी आज भी| हमारे वालों को यह कथावाचकों-जागरण आदि वालों के मुख से थ्योरी ही पसंद हैं, प्रैक्टिकल की बात करो तो औकात एक झटके में "सांप की केंचुली" की भांति धरा पर| क्या प्रक्टिकल्स हैं जो पाश्चात्य सभ्यता को इतना खुशहाल बनाते हैं, कुछेक इस तरह:

1) कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता, सब समान होते हैं - यहाँ पुजारी से ले व्यापारी, कर्मचारी से ले जमींदारी, मजदूरी से ले जमादारी; सबकी न्यूनतम आय वह भी बराबर अनुपात में ही फिक्स है| हम इंडिया में कितना देते हैं काम वाली बाई को? पूरे दिन का 5 से ले 10 हजार हद मार के? कोई 40-50 हजार भी कमाता हो तो काम वाली बाई आराम से अफ़्फोर्ड कर ले| लेकिन यहाँ, न्यूनतम शुरुवात ही 1500 यूरो यानि लगभग 1 लाख 10 हजार से शुरुवात होती है, यानि अगर आप 3000-4000 यूरो भी महीने के कमाते हो तो दस बार सोचना पड़ता है बाई रखने से पहले| इसको बोलते हैं वाकई में काम-छोटा बड़ा नहीं होना| प्लम्बर हो या कोई एमबीए किया हुआ प्रोफेशनल, शुरुवाती स्टार्ट सबका लगभग एक अनुपात का, यह नहीं कि प्लम्बर करियर शुरू कर रहा है 4000-5000 से और एमबीए वाला 60-70 हजार या लाखों से| वैसे इंडिया में आज के दिन सबसे कम कमाने वाला किसान है, मजदूर जितनी दिहाड़ी बराबर बचत नहीं उसको, खासकर अगर 2-4 एकड़ की जोत वाला है तो| नए जमाने के दलित तैयार हो रहे इंडिया में जिनका नाम है "किसान"| पता नहीं यह लोग बने किस मिटटी के हैं कि इतने घाटे सह के भी खेत जोतते ही जाते हैं| बड़ी जोत ना हो तो खेती करना सबसे बड़ा अभिशाप आज के दिन इंडिया में| परन्तु इसकी सरकारी व् किसान की खुद की भी, दोनों तरह की वजहें हैं, उस बारे फिर कभी|

2) पुलिस-एडमिनिस्ट्रेशन की है सर्विस की जॉब एंट्री लेवल यानि कांस्टेबल लेवल से शुरू होती है| कोई भी डायरेक्ट एसपी/डीसी नहीं बन सकता यहाँ| चौक-चौहारों पर कांस्टेबल वाला डंडा सबको लहराना पड़ता है पहले|

3) पादरी की पोस्ट्स पर कोई जातीय-वर्णीय बैरियर प्रैक्टिकल में ही नहीं है| असल तो यहाँ वर्ण सिस्टम ही नहीं तो वर्णवाद आना ही कहाँ से था| यह है प्रैक्टिकल बराबरी|

4) जेंडर सेंसिटिविटी में तो फ्रांस जैसे देश को पूरे विश्व की सभ्यता की माँ बोला जाता है| सबसे ज्यादा जीती हैं यहाँ की औरतें| सबसे ज्यादा हक व् खुलापन है औरत को यहाँ| इसके कहीं आधे-पद्धे भी मैंने ऐसा प्रैक्टिकल में देखा है तो इंडिया की "उदारवादी जमींदारी" जातियों के यहाँ देखा है, अन्यथा पूरे इंडिया में औरतों को यहाँ की अपेक्षा 10% भी आज़ादी नहीं 99% औरतों को|

अब कम-से-कम वह लोग यहाँ के प्यार के इजहार में इस्तेमाल होने वाले खुलेपन पर ही सारी तोहमत चेप कर पल्ला ना झाड़ लेना कि तुम ही इनसे श्रेष्ठ हो| ऐसे-ऐसे चिकलाते चिघनान काटते हमने ओटडे कूद, उन्हीं रिश्ते-मर्यादाओं में मुंह मारते देखे जिनको समाज के आधार-स्तम्भ बताया| और यहाँ वालों में आपस   में इतना संयम व् डिसिप्लिन है कि कोई जोड़ा किस कर रहा हो तो सबको अपने काम से काम है, कोई ध्यान भी नहीं देता कि कौन जोड़ा गले मिला या किसने किस किया|
 
कमाल की बात तो यह देखी कि एनआरआईयों को सुविधाएँ को यूरोप की ही चाहियें, परन्तु दिमाग में वर्णवाद का कचरा वही रखना जो हमारे समाज का सबसे बड़ा कलंक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Tuesday, 4 June 2019

सीएम खटटर खुद को जाट बोल/बुलवा रहे हैं तो आप क्यों बौरा रहे हैं?

ऐसी कुछ रिएक्शंस आई हैं मेरे पर्सनल बॉक्स में मेरी कल वाली इस विषय पर लिखी पोस्ट को लेकर, जिसमें मैंने कही है कि अगर सीएम वाकई जाट हैं और वह राजनीति से परे सच्ची नियत रखते हुए खुद को लोकल जाट जाति में शामिल करना चाहते हैं तो इस पर जाट को भी विचार करके, बड़ी पंचायत कर लेनी चाहिए|

जैसा कि मैंने उस पोस्ट में कही यह दूसरी बार है जब सीएम जैसा यह प्रयास हो रहा है| पहला प्रयास जब 1947 में आये थे तब भी हुआ था| इस पर सीएम की बात को आगे रखते हुए, एक बार बैठ कर ऑफिसियल स्तर पर विचार कर लेना चाहिए| अगर सिर्फ पोलिटिकल स्टंट होगा तो वह भी पता चल जायेगा और अगर वाकई में वह जाट हैं वह भी सामने आ जायेगा| और ऐसे ही यह तमाम जातियां डिकोड होकर अपनी-अपनी स्थानीय जातियों में मर्ज हो जाती हैं तो इसके फायदे बहुत हैं:

1) 35 बनाम 1 का मुद्दा अपनी मौत खुद मर जायेगा|
2) इस 35 बनाम 1 के चलते आज हरयाणा, पंजाब के 1984 जैसे हालातों से गुजर रहा है और एक ऐसी भट्टी पर धधक रहा है कि एक छोटी सी करेली (छड़ी से दबी आग को उभारना) भी पूरी स्टेट को लपेटे में ले सकती है और अगर ऐसा हुआ तो सब ओर अव्यवस्था व् अराजकता फ़ैल जाएगी| और कहीं ना कहीं सीएम को इस बात का भान है शायद इसलिए वह ऐसा प्रयास करते होते हो सकते हैं; वही बात जो बार-बार दोहरा रहा हूँ कि क्या पता उनकी मंशा सच्ची हो| कम-से-कम इस पर एक पंचायत बुलाने में क्या हर्ज है? वरना कल को प्रदेश 1984 वाले आतंकवाद वाली मारकाट में उलझ गया तो कौन जिम्मेदार होगा?
3) कई कह रहे हैं कि फिर सर छोटूराम ने जिन सूदखोरों व् ढोंगी-पाखंडी फंडियों के खिलाफ किसान-मजदूरों-व्यापारियों के हकों बाबत आंदोलन किया था उनका क्या? उनसे इसी शैली में सवाल है कि जिन किसान-मजदूरों-व्यापारियों के लिए आंदोलन किया था क्या वह उधर वाले पंजाब में नहीं थे? थे ना, तो किधर हैं वो आज? कुछ मुठ्ठीभर की वजह से अलगाव रख के रहना कहाँ तक जायज है? वही सर छोटूराम वाली बात, उनको पहचानों और उनसे बचो; बाकियों को क्यों एक ही लपेटे में ले रहे हो? और ऐसे लोग क्या तब के इधर वाले पंजाब में नहीं थे या आज नहीं हैं?

मेरा तो अनुरोध रहेगा अगर कोई सामाजिक-पंचायती आदमी इस पोस्ट को पढ़ रहा हो तो बेशक इस लेख को किसी भी आम या खास पंचायत को पहुंचवा दीजिये और कहिये कि सीएम की इस एप्रोच पर एक बार बैठकर विचार जरूर करें| इससे दोनों ही बातें हो जाएँगी, अगर यह मिथ्या प्रचार होगा तो यहीं के यहीं थम जायेगा अन्यथा वही बात हरयाणा में नए सामाजिक समीकरण उभरेंगे जो 35 बनाम 1 के मुद्दे को तो बैठे-बिठाये निगल जायेंगे| और वैसे भी यह प्रयास सीएम की तरफ से है वह भी दूसरा ऐसा प्रयास; तो एक बार बैठ के बतलाने में क्या हर्ज?

मैं तो पूरा सहयोग करने को तैयार हूँ इस मुद्दे पर| जो शोध या स्ट्रेटेजी बनानी हो इस पहलु की सत्यता हेतु उस पर विचार को भी तैयार व् योगदान को भी| बाकी जिनको नाज के बहल की मारणी है, वह मारते रहें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अगर जैसा फैलाया जा रहा है वैसे मनोहरलाल खट्टर वाकई में जाट हैं तो!

बात थोड़ी मेरे बचपन से: हमारे गाम में एक दुकान को "पाकिस्तानी की दुकान" बोला जाता था| मेरी दादी जी जब भी मेरे से कुछ सामान मंगवाती तो कहती कि "पाकिस्तानी वाली दुकान" से लाना, ताकि उसकी कुछ आमदन हो जाए और उसका घर ठीक से चलता रहे| इसको दादी जी की मानवता ही कहूंगा| जात-बिरादरी समझने की जब तक अक्ल ना आई तो यही समझता रहा कि जाट-बाह्मण-कुम्हार आदि की तरह पाकिस्तानी भी कोई जाति ही होगी| परन्तु जब जानने लगा कि पाकिस्तान एक देश है तो एक दिन दादी से ही पूछा कि ऐसा है तो फिर उस दुकान वाले पाकिस्तानी ताऊ की बिरादरी क्या है?

तो दादी ने बताया कि जातियां तो इनकी भी हमारी तरह ही हैं, अन्यथा कौनसा पाकिस्तान बॉर्डर के उधर जातियाँ नहीं थी; परन्तु क्योंकि जब यह आये-आये थे तब इनके प्रयासों के बावजूद यहाँ लोगों ने इनको अपनी-अपनी बिरादरियों में जाति बताने के बाद भी स्वीकार नहीं किया तो यही इनकी पहचान बन गई|
दादी से पूछा कैसे प्रयास?

तो दादी बोली कि जब यह लोग वहां से आये थे तो यहाँ अपनी-अपनी जातियों के लोकल लोगों के साथ रिश्ते चाहते थे और अपनी-अपनी जाति में मिक्स होना चाहते थे| परन्तु स्थानीय लोगों ने उस वक्त के अविश्वसनीय माहौल को देखते हुए, इनको मिक्स करने में झिझक दिखाई| अन्यथा हिन्दू समाज के वर्णों के अनुसार चार वर्ण व् एक अवर्ण इनमें भी हैं| मैंने कहा चार वर्ण तो हुए बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व् शूद्र, यह अवर्ण कौन हैं? दादी बोली कि जाट अवर्ण हैं यानि हम, हमारे पुरखे इस चतुर्वर्णीय व्यवस्था को नहीं मानने वाले रहे हैं| और इसी वजह से ऋषि दयानन्द जैसे समझदार बाहमण हमें "जाट जी" व् "जाट देवता" कहते-लिखते-बोलते आये हैं|

खैर, यह तो है इस पहलु का वह इतिहास जो मेरी दादी जी से सुना-जाना| अब बात, फ़िलहाल चल रही सोशल मीडिया पर इस बात कि "हरयाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर खुद को जाट प्रचारित करवा रहे हैं" की|
इसके दो हवाले खुद सीएम के मुख से सुनने को आये हैं|

एक अभी निबटे लोकसभा चुनाव-प्रचार के दौरान उन्होनें रोहतक के निंदाना गाम की सभा में वहां के जाटों को यह कहा है कि, "हूँ तो मैं भी जाट ही, परन्तु पाकिस्तान से आया होने की वजह से आप लोग नहीं मानते वह अलग बात है"|

दूसरा वाकया रोहतक के ही मदीना गाम के सरपंच के साथ उनके सामाजिक संबंधों से निकल कर आता है, जहाँ इनके दूर के मामा भी रहते हैं जो कि ढिल्लो गौती जाट हैं|

खैर, मेरे लिए यह अचरज की बात नहीं क्योंकि चौधरी भजनलाल भी गैर-जाट की राजनीति करते-करते अंत में जाट ही निकले जो कि वह हैं भी| बस जाति छुपाकर गैर-जाट राजनीति करते रहे|

अब ऐसे मौके पर जबकि चार महीने बाद हरयाणा में विधानसभा चुनाव सामने खड़े हैं, उस वक्त पर सीएम खट्टर का यह जाट-प्रेम किन मंशाओं के चलते है बारीकी से समझने की बात है|

अगर यह सिर्फ जाट वोट लेने के चक्कर में है तो फिर जाट बनाम नॉन-जाट व् 35 बनाम 1 क्यों होने दिया हरयाणा में? होने दिया सो होने दिया, इसको अब खत्म करवाने हेतु क्या प्रयास रहेंगे सीएम के? और क्या यह सिर्फ आगामी विधानसभा में वांछित बहुमत के लिए जाट वोट कितना अहम् है यह भान के हो रहा है, प्रचारित करवाया जा रहा है?

राजनीति के परे अगर यह वाकई में सामाजिक स्तर पर मिक्स होने की दूसरी कोशिश (पहली कैसे हुई थी उस बारे ऊपर बताया) है तो सीएम को इसके लिए बाकायदा एक समिति बना के इस पर पूरी शोध करवानी चाहिए व् उन परिवारों से इसकी सत्यापना करवानी चाहिए जो आज के इंडिया-पाक बॉर्डर के दोनों तरफ के 100-50 किलोमीटर के दायरे में रहते थे व् आपस में वैवाहिक रिश्ते थे| यही वह परिवार हैं जो इस बात को सही से हल करवा सकते हैं| उस वक्त वाले प्रयास सिरे ना चढ़े हों परन्तु क्या पता अब वाले चढ़ जाएँ अगर वाकई में इसको लेकर सीएम की सोच व् नियत सूची है तो|

परन्तु कहीं यह इलेक्शन के वक्त का सीएम का जाट प्रेम इनकी पार्टी की पॉलिटिक्स तो नहीं ले डूबेगा? पता लगा जाट बनने के चक्कर में जाट बनाम नॉन-जाट हुआ पड़ा सारा माहौल ही पलटी मार गया और सब बीजेपी को छोड़ अन्यत्र चले गए? कितने जाट फेस सीएम नहीं चाहने वाले लोगों को झटके लगेंगे यह जानने पर कि भजनलाल की तरह यह भी जाट निकले?

अगर यह प्रचार कोरी राजनीति से प्रेरित है तो नहीं ही हो तो बेहतर अन्यथा अगर सीएम इसको सामाजिक बँटवारा पाटने हेतु कर रहे हैं तो यह विचारणीय कदम है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 3 June 2019

यह "भाऊ को भी हाऊ" कहने वाला कल्चर है, इसको ना जान्ने वाले बुरा ना मानें!

बड़े चौटाला साहब द्वारा हरयाणा सीएम को खटटर कहने के प्रकरण पर यह मेरी दूसरी व् अंतिम पोस्ट है|
इसमें है हरयाणा लाइव टीवी वाली महिला एंकर को मेरा जवाब, जो हरयाणवियों को मानवता-सभ्यता का पाठ पढ़ा रही थी|

मीडिया व् राजनीति में बैठे जितने भी लोग चौटाला साहब के बयान को बेवजह का तूल दे रहे हैं उनको बता दूँ कि यहाँ व्यक्तियों-क्षेत्रों-बोलियों के अपभृंश व् उपहास करने का विश्व का सबसे श्रेष्ट कल्चर है, इसलिए बुरा ना मानें|

यहाँ तो पानीपत की तीसरी लड़ाई जीतने को अपनी औरतों समेत आये सदाशिवराव भाऊ के जुल्म-क्रूरता-निर्दयिता को देख हमारी औरतों ने "हाऊ" शब्द घड़ लिया था| आज भी औरतें छोटे बच्चों को देर-सवेर बाहर निकलने या रात को सोते वक्त, वक्त से नहीं सोने पर यह कह के सुला देती हैं कि, "सो जा नहीं तो हाऊ खा ज्यांगे"| और उनके पास इसकी सबसे बड़ी वजह थी बिना युद्ध जीते, अपनी औरतें साथ ला, उनपे दुश्मन के जुल्म ढलवाने व् उनके कत्ले-आम व् बलात्कार होने की वजह बनना| यह तो जाट थे यहाँ सो मरहम पट्टी करके इनको बचा लिया वरना अब्दाली ने तो एक-एक तो मार देना था| और क्योंकि यह विश्व की सबसे बड़ी मूर्खता थी कि युद्ध जीते नहीं और अति-आत्मविश्वास की अति करते हुए औरतों-बच्चों को भी हाँक लाये| इसलिए हरयाणवी औरतों के मुख से "भाऊ" की जगह "हाऊ" कहलाये|

तो इस कल्चर ने तो ऐसे-ऐसे खब्बी-खां मजाक के पात्र बनाने से नहीं बख्शे तो आप क्यों मुंह सुजा रहे हो? आप क्यों इसको सभ्यता-मानवता-शालीनता का मुद्दा बनाते हो? और गजब की बात तो यह है कि इसको मुद्दा मीडिया में बैठी उस वर्ग की औरतें ज्यादा बना रही हैं जो यदाकदा जाटों के यहाँ औरतों की स्थिति को भी ऐसी दयनीय बता के दर्शाने से बाज नहीं आती हैं कि जैसे जाट तो औरत के मामले में सबसे क्रूर लोग हैं विश्व के|

जबकि इनके खुद के समाजों में इनकी इतनी भी औकात नहीं कि अपने मर्दों से मंदिरों में 50% पुजारी की पोस्टों पर पुजारनों का हक मांग सकें| 100 में असल तो 100 नहीं तो 99% पुजारी पोस्टों पर मर्द कब्जे किये बैठे हैं परन्तु इनको फिर भी औरतों के हक-हलूल दूसरों के यहाँ सही नहीं हैं वही दीखते हैं| चिंता ना करो अपने मर्दों से अपने यह हक तक नहीं मांग सकने तक की गुलामों, जाटों ने तो अपने "दादा नगर खेड़ों" में पूरा 100% पूजा-धोक का हक दे ही अपनी औरतों को रखा है| मर्दवाद को तो हम पूजा-पाठ के मामले में घुसने भी नहीं देते|
हाँ, यह टीवी सेरिअल्स, फ़िल्में और जगराते-भंडारे-चौंकियों की बहकावे में पड़ बहुत सी जाटणियां अपने कल्चर की इस ख़ूबसूरती से उल्टी हटी हुई सी दिखती हैं| क्योंकि शायद इनको मेरे जैसे ऐसे मानवीय पहलु दिखाने वाले जाट समाज में ही बहुत कम हैं तो कमी हमारी ही है| वरना जिस दिन हमने अपनी जाटणियों को अपना कल्चर उतनी सीरियसनेस से बताना शुरू कर दिया जितनी से तुम्हारे वाले तुम्हें बता के भी तुम्हारा 50% पुजारन का हक नहीं देते, उस दिन हमारे वाली तो थारे तोते उड़ा देंगी|

खैर, लब्बो-लवाब यही है कि "अधजल गगरी छलकत जाए" वाले ढकोसले कम-से-कम हमारे सामने तो करो मत| तुम में, तुम्हारे समाजों-वर्णों में मानवता-सभ्यता का क्या अर्श है और क्या फर्श है भलीभांति जानते हैं| वही बात जाओ पहले अपने हक ले लो अपने मर्दों से, फिर चाहे तुम "गोल बिंदी गैंग वाली हो" या मेरी दादी की भाषा में "चुंडे पाटी हुई हो" या लटूरों वाली हो| हमें पता है हम क्या हैं, यूँ ही नहीं सारा भारत तुम्हारी मीडिया वाली ही भाषा में कही जाने वाली "जाटलैंड" पर मजदूरी-दिहाड़ी-रोजगार-व्यापार करने चला आता है| यहाँ तक कि मुंबई में बाल ठाकरों व् राज ठाकरों से पिटे-छीते हुए व् गुजरात से भर-भर ट्रेनें उत्तर-पूर्व को भगाये हुओं को भी यही मीडिया की भाषा वाली "जाटलैंड" अंतिम आसरा दिखती है|

हरयाणवियों, यह लेख उस हरयाणा लाइव वाली एंकर को भेज देना जिसका बोलने का लहजा भी उत्तर-पूर्व भारत का है| और वहां अपनी स्टेट सुधारने हेतु वहीँ रह के कुछ करने के बजाये, चली है यहाँ आ के हरयाणवियों को शालीनता-सभ्यता सिखाने| अपने टूक खा लो टिक कें, हरयाणा से यू आड़े भाऊ का हाऊ बनाते आये, थमनें क्यों मुंह सुजाये?

"कह दो इन भांड-भंडेले-बेसुरों को कि तुम्हारी कहबत में ना हम अपने हास्यरस व् हास्यरंग का गला घोटेंगे, यूँ ही ठहाके म्हारे पुरखों ने ठोकें और यूँ ही हम ठोकेंगे"! वरना थारी कहबैत में तो हम अपनी बहु-बेटियों को साउथ इंडिया की भांति देवदासी बना के मंदिरों में पंडों के लिए परोस तक दे तो सभ्य व् शालीन ना कहलाएं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"हमें दिमाग की ताकत के साथ शरीर की ताकत भी चाहिए होगी" - बंच ऑफ़ थॉट्स पुस्तक में आरएसएस संस्थापक गोलवलकर के विचार|

इन्हीं को फॉलो करके, कितना भी बड़े दिमाग वाला हो वह भी आरएसएस की दी लाठी काँधे पर रख मार्च पास्ट करता देखा गया है| परन्तु सलंगित अख़बार को देखिये, यह शारीरिक बल का मजाक उड़ा कर सीएम साहब क्या गोलवलकर की बात का उलंघन व् अनादर नहीं कर रहे हैं? और दिमाग की ताकत पर इनको भी भरोसा नहीं तभी रोज आरएसएस में लाठियां भांजते हैं, वही शारीरिक ताकत हासिल करने को जिसका यह खबर मजाक उड़ा रही है? यानि एक हिसाब से स्वीकार रहे हैं कि हममें शारीरिक बल तो है ही नहीं, दिमाग की ताकत भी उतनी नहीं कि लाठी का सहारा ना लेवें? यानि घूम फिर के दिमाग की सारी तिगड़म लगा के भी आखिरकार आरएसएस की शाखाओं में पकड़ते तो वही लाठी हैं, जिसका फूफा लठ हर हरयाणवी के घर में बाई-डिफ़ॉल्ट रखा होता है?

तो बताओ अक्ल बड़ी या लाठी? गोलवलकर के अनुसार तो दोनों ही जरूरी| तो जब दोनों ही जरूरी तो यह चिढ़ कैसी? इस हिसाब से तो बल्कि हरयाणवी दोनों का बेजोड़ मेल हुआ? वरना क्या बिना अक्ल ही हरयाणा देश की सबसे अमीर स्टेट कहलाती, देश के सबसे ज्यादा करोड़पति ग्रामीणों की स्टेट कहलाती? अक्ल होगी तभी तो जोड़ा होगा? और लठ तो बाई-डिफ़ॉल्ट ट्रेडमार्क है ही हरयाणा का|

हाँ, हरयाणवी लोकतान्त्रिक होते हैं, बाँट के खाना-खिलाना जानते हैं, मुसीबत में पड़े को अपने रिसोर्सेज दे बसाना जानते हैं तो इसका मतलब यह थोड़े हुआ कि वह कंधे से ऊपर कमजोर हो गए; यह तो मानवता हुई ना?
सो टेंशन नहीं लेने का, सीएम साहब, आपके गुरु का जो नियम आरएसएस की शाखाएं भी ज्वाइन करके लोग हासिल नहीं कर पाते यानि बुद्धि व् लाठी दोनों की ताकत, एक हरयाणवी वह बाई-डिफ़ॉल्ट ले के पैदा होता है प्लस में वह तीसरी ताकत लोकतान्त्रिक मानवता भी लिए होता है| जिसके चलते मुंबई-गुजरात से पिट-छित के आये उत्तरी-पूर्वी भारतीय भी हमारे हरयाणा में ही सबसे ज्यादा सेफ रोजगार पाते हैं|

अत: जिस लेवल की अक्ल व् कंधे से ऊपर की मजबूती का शायद आप इशारा (चार-सौ-बीसी, दगाबाजी, टैक्सचोरी, 99 का फेर आदि-आदि) कर रहे हैं वह हमें चाहिए भी नहीं| वैसे भी हमें अपने लठ की ताकत से खुद ही डर लगता है इसलिए इसको आप भी मत जगाएं| यह सोई हुई ही अच्छी है, अन्यथा जब-जब जागी है तो शिवजी उर्फ़ दादा ओडिन-जी-वांडरर की भांति धरती के सारे जहर को साफ़ कर-कर गई है|

और ऐसे विचार रखकर भी आप "हरयाणा एक, हरयाणवी एक" जैसे नारे कैसे दे लेते हैं? इस खबर से साबित होता है कि हरयाणा में पैदा होकर भी हरयाणवी नहीं बन पाए आप तो| ऐसी धूर्तता अगर आपके अनुसार दिमागी ताकत है तो यह आपको ही मुबारक| वह चूहे-बिल्ली वाली बात| बिल्ली ने मारा झप्पटा चूहा जा घुसा बिल में, बिल्ली को उसकी पूँछ ही हाथ लग पाई| बिल्ली ने चूहे को बिल के अंदर आवाज लगाई कि, "आ जा रे चूहे तेरी पूंछ जोड़ दूँ"| चूहा बोला, "ना री मौसी रहने दे, हम तो यूँ लांडे ही खा कमाएंगे"| तो इतनी हद से ज्यादा अक्ल का भी क्या करना सीएम साहब जो समाज में तानाशाही/वर्णवादिता की परिचायक बन जाए|

वो जैसे कहते हैं ना कि साइंस तभी तक भली जब तक उसका पॉजिटिव प्रयोग हो, नेगटिव प्रयोग होव तो विश्व का विनाश कर दे साइंस| ऐसा ही मसला दिमाग की ताकत का है, पॉजिटिव व् मानवीय दिशा में इस्तेमाल करें तो सार्थक नहीं तो सब निरर्थक|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Sunday, 2 June 2019

ना मरया रे बेटा सींक-पाथरी, ना मरया रे आहुलाणे-मदीनें; अर जा मरया रे बेटा गैभाँ के निडाणे!

लेख का कनेक्शन हरयाणा सीएम को चौधरी ओमप्रकाश चौटाला जी द्वारा "खट्टर" कहने से है| वास्तविक हरयाणवी कल्चर क्या है, यह भी आपको इस लेख में बारीकी से जानने को मिलेगा, अत: पूरा पढियेगा|

यह ऊपर शीर्षक वाला क्रंदन आज से पांच-छह पीढ़ी पहले जागसी गाम में हुए नामी धाड़ी दादा निहाल सिंह की मेरे गाम निडाना में मौत होने पर उनकी माँ ने उनकी लाश देखकर चीत्कार किया था| हरयाणा में बदमासी के नाम से सबसे मशहूर गामों में नाम है गोहाना वाली जागसी का| "गैभाँ" शब्द का शुद्ध हरयाणवी भाषा में अर्थ होता है, "शुरू-शुरू में लड़ाई से डरने वाले, कन्नी काटने वाले, एक जगह कमा के मानवता को सर्वोपरि रख के बसने वाले परन्तु सर पे आई पे उठा-उठा पटकने वाले"| और ऐसा हुआ भी है, इसी निडाना में| दादा चौधरी सहिया सिंह मलिक (सांजरण पान्ने की उदमी क्लैन में हुए हैं) जैसे 100-100 घोड़ों से सजी गाम लूटने चढ़ने वाली धाड़ को अकेले वापस मोड़ने वाले अमर यौद्धेय निडाना के खेड़े में हुए हैं और धाड़ों से आमने-सामने की टक्कर में 18-18 को अकेले मौत के घाट उतारने वाले दादा चौधरी गुलाब सिंह मलिक (भंता पान्ने से, अक्सर पूछा करता हूँ कि इस भंते शब्द का बुद्ध धर्म वाले भंते से कोई कनेक्शन लगता है) भी हुए हैं| इस गाम के लोग वह हैं जिनसे प्रेरणा पा यहाँ के बाह्मणों तक ने अपनी विधवा बेटियों के पुनर्विवाह शुरू किये| आज से लगभग सौ साल पहले दादा जी गूगन बाह्मण ने उनकी विधवा बेटी (म्हारी बुआ, 36 बिरादरी की बेटी-बुआ, म्हारी बेटी-बुआ, यह सगी बुआ-बेटी के पैरलेल होती हैं) का पुनर्विवाह किया तो उनको गाम के बाह्मणों ने पंचायत कर जात-बिरादरी से गिरा गाम निकाला दिया तो गाम के जाटों ने गाम में मलवे ठोले की तरफ अपनी जमीनों पर बसाया व् खेती-बाड़ी को जमीनें दी| परन्तु गाम नहीं छोड़ने दिया क्योंकि दादा गूगन ने मानवता का वह काम किया था जिसके लिए जाट समाज पूरे विश्व में जाना जाता है|

यह रेपुटेशन रही है हरयाणा में जिला जिंद के निडाना नामी गणतंत्र, निडाना नगर खेड़े की| इस नगर शब्द को वह लोग अच्छे से समझ लें जो खामखा अपने को ग्रामीण कहते हैं, यह नगर शब्द हमारे गाम-खेड़ों के साथ तब से है जब जींद हो, रोहतक हो, सोनीपत हो, दिल्ली हो या 1947 में बसा कुरुक्षेत्र (इससे पहले कुरुक्षेत्र नाम के शहर का कोई रिकॉर्ड नहीं इंडिया में, किसी को बहम हो तो दूर कर लेना) हो, यह या तो बसे नहीं थे या गाम यानि हमारे नगर खेड़ों जैसे ही थे| जिसको इन बातों पर बहस करनी हो खुला स्वागत है| हरयाणवी कल्चर ना ग्रामीण कभी था ना आज है, आगे आपने धक्के से इसपे ग्रामीण का ठप्पा लगवाना हो तो नादानियों से लगवाते रहो| और ऐसी ही कहावतें-सामाजिक रुतबे व् आंकलन की बातें/कहावतें/लोकोक्तियाँ यहाँ हर गाम-नगर खेड़े रुपी गणतंत्र की हैं| जब तक आप हरयाणा के इस गणतंत्र रुपी कांसेप्ट को नहीं समझेंगे यहाँ के कल्चर के हास्यरंग व् हास्यरस आपको समझ नहीं आएंगे| अगर आप "गैभ" हैं तो यह कल्चर आपको गैभ ही कहेगा यही इसका बेबाकपना व् स्वछंदता है|

हरयाणवी भाषा की आठ मुख्य बोलियाँ हैं व् दस इसके जियोग्राफिक घेरे हैं जो यह हैं बाँगरू (बांगर), बागड़ी (बागड़), देशवाली/खादर, खड़ी बोली (नया शब्द कौरवी), रांगड़ी, ब्रजभाषा, मेवाती, अहिरावती| मेरा गाम पड़ता है बांगर व् खादर के बॉर्डर पर, ठेठ बांगर वाले हमें खादरी बोलते हैं और ठेठ खादर वाले बांगरू|

तो यह तो है यहाँ की कल्चरल सरंचना की कुछ बेसिक सी बातें| अब आते हैं विवादों में चल रहे "खट्टर" शब्द पर:

खट्टर हरयाणवी कल्चर में गौत भी है जो अरोड़ा/खत्री, जाट व् राजपूत तीनों में तो पक्के से पाया जाता है और आवारा पशु व् नालायक इंसान को भी यहाँ "खट्टर" ही कहते हैं व् कंडम हो चुकी बस-गाड़ी को "खटारा" कहते हैं|

सर छोटूराम की यूनाइटेड पंजाब सरकार में यूनियनिस्ट गवर्नमेंट के 2 दफा प्रीमियर रहे जनाब सर सिकंदर हयात खान, "खट्टर" गौती मुस्लिम जाट थे|

हरयाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर भी खुद को बार-बार जाट बता रहे हैं| ताजा मामला अभी लोकसभा चुनाव प्रचार में रोहतक के गाम निंदाना व् मदीना में उनकी जुबानी ही सुनने को मिला है| जिसमें निंदाना में उन्होंने चुनावी सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि पाकिस्तान से आया हूँ इसलिए आप नहीं मान रहे परन्तु मैं हूँ जाट ही| मदीना में तो सीएम के मामा हैं जो ढिल्लो गौती हैं, दूर के मामा हैं शायद|

अब बात उनकी जो "खट्टर" शब्द पर चौटाला साहब की टिप्पणी को व्यर्थ का मुद्दा बना रहे हैं|

एक तो यह वही लोग हैं जिन्होनें जब 2005 में चौटाला साहब की जगह हुड्डा साहब सीएम आये थे तो कहा था की "टांग-टांग बदली, बाकि तो वही है" यानि लंगड़िये की जगह दो टांग वाला आया है परन्तु है जाट ही| तो अभी चौटाला साहब के बयान पर मान-मर्यादा-सभ्यता का उवाच करने वाले, यह मात्र 15 साल पहले की अपनी सभ्यता ना भूलें और "नई-नई डूमणी अल्लाह ही अल्लाह पुकारे" की तर्ज पर ज्यादा सभ्य दिखाने और वास्तविक सभ्य होने में क्या फर्क हैं यह समझ लें|

दूसरा हरयाणा में चौटाला शब्द लंगड़े का प्रतीक भी माना जाता है और इसको ऐसा पकाने में सबसे ज्यादा योगदान जाट समाज का ही है|

चौधरी बंसीलाल के जमाने में जब भी किसी के यहाँ भैंस को कटड़ा होता था तो सब कहते थे कि बंसीलाल हुआ है|

मेरे जुलाने हल्के व् जिंद जिले में हुए दादा दल सिंह को "पानी का बादल" व् "भिंडा झोटा" कहते थे|

और आज के दिन गली-गोरों पर घुमते आवारा सांडों को क्या गाम वाले और क्या शहर वाले सब देखते ही बोलते हैं "खट्टर आ गया"| ना बोलते हों शहरों वाले भी तो बता दो?

जहाँ तक व्यक्तिगत बदजुबानी की बात है तो खुद सीएम खट्टर का 3 साल पहले का वह बयान भूल गए क्या जिसमें उन्होंने कटाक्ष किया था कि "हरयाणवी कंधे से ऊपर कमजोर व् नीचे मजबूत होते हैं"? तब तो किसी मीडिया ने हल्ला नहीं मचाया था यूँ?

वैसे बता दूँ, हरयाणवी दोनों ही से मजबूत होता है| बस थोड़ा लोकतान्त्रिक ज्यादा होता है, जिसको आपने उसकी बौद्धिक कमजोरी समझ लिया है| आपकी समस्या क्या है कि आप सिर्फ बुद्धि से मजबूत हैं शरीर से नहीं, इसलिए आपको बुद्धि ही सब कुछ दिखती है| परन्तु ऐसा होता तो आरएसएस के संस्थापक गोलवलकर उनकी पुस्तक "बंच ऑफ़ थॉट्स" में यह नहीं लिखते कि, "हमें दिमाग व् शरीर दोनों की ताकत संचित करनी होगी, चाहिए होगी"| और आपको बचपन से शायद चिड़ यह लगी कि हरयाणवी मानुष गोलवलकर महाशय की इस परिभाषा पर बाई-डिफ़ॉल्ट सेट बैठते हैं| आपको अपने ही गुरु का दिया मंत्र याद नहीं रहता, आखिर क्यों? यह कौनसी कमजोरी की निशानी है, दिमागी या शारीरिक?

यहाँ बाँगरू का मजाक बागड़ी बनाते हैं और बागड़ी का खादरी व् खादरों का खड़ी बोली वाले व् खड़ी बोली वालों का ब्रज वाले व् ब्रज वालों का अहिरावती वाले और अहिरावती वालों का बाँगरू| और ख़ास बता दूँ, यह लेग-पुल्लिंग करने वाले भी सबसे ज्यादा हरयाणवी चाहे किसी भी बिरादरी के हों और सबसे ज्यादा नकल घड़ने वाले भी हरयाणवी|

यह विश्व की सबसे लोकतान्त्रिक धराओं में से एक है, यहाँ "अनाज के ढेर पर बैठा जाट, राजा को उसका हाथी के बेचे है के" कहते रहने का कल्चर रहा है| यहाँ जिसको आप-हम अल्ट्रा मॉडर्न एडवांस कॉर्पोरेट कल्चर में बैठ "सर/मैडम" की बजाये डायरेक्ट नाम से बोलने को सिविलाइज़ेशन कहते हैं, यह हरयाणवी कल्चर में सदियों से रहा है| इसलिए यहाँ "आ जाट के", "आ बाह्मण के" बोल के आपको एक चमार जाति वाला बुलाता रहा है और "आ धानक के", "आ कुम्हार के" बोल के झीमर व् जाट बुलाते रहे हैं| ग्लोबल गूगल (Google) कंपनी में जो "एम्प्लायर-एम्प्लोयी" की बजाये "वर्किंग पार्टनर" का कल्चर है वह हरयाणा में "सीरी-साझी" शब्द के नाम से सदियों-युगों से चलन में है|

तो यहाँ यह राजशाही/तानाशाही/वर्णवाद की उच्चता-नीचता ना तो ढूंढना, ना कभी एक्सपेक्ट करना और ना ही थोंपने की कोशिश करना| और यह संदेश इस मुद्दे को बेवजह इतना तूल दिए हुए मीडिया के गैर-हरयाणवी भांड अच्छे से समझ लें| इन बातों पर ऐसे-ऐसे लजवाना कांड हो जाते हैं जिनके बारे आज भी पंजाब-पटियाला में कहावत चलती है कि, "लजवाने रे तेरा नाश जाईयो, तैने बड़े पूत खपाये"| जब तक बिखरे चलते हैं चलते हैं परन्तु जब सर जोड़ते हैं तो कटटर दुश्मनी वाले दादा भूरा सिंह व् दादा निंघहिया सिंह की तरह जोड़ते हैं व् पूरी की पूरी रियासत के ग्रास का काल बन जाते हैं|

आप हमारा कल्चर सीखना नहीं चाहते, हमारी भाषा बोलना नहीं चाहते, इससे नफरत भी करते हैं तो भी हमारे लिए चलेगा| कोई भी हिंदुस्तानी नागरिक देश के किसी भी कोने में रोजगार कर सकता है रह सकता है सिर्फ इस तर्ज पर हरयाणा में अपने अस्तित्व व् रिहायश को जस्टिफाई करने वालो हमें कोई दिक्क्त नहीं आपसे, परन्तु याद रखना यही हिंदुस्तान का कानून हमें हमारे कल्चर-मान-मान्यता को बचाने-बढ़ने व् प्रचारित रखने का भी अधिकार देता है| आप हमारे मुँहों पर ऐसे पट्टी नहीं रख सकते|

और रखने का बहम भी कभी मत पालना| क्योंकि हम महाराजा सूरजमल के अंश हैं, सहते हैं जब तक सहते हैं और जब विदा करने पर आते हैं तो हम मुंबई के बाल ठाकरों व् राज ठाकरों की भांति पीटते नहीं, गुजरात वालों की तरह गाड़ियां भर के भी नहीं भेजेंगे, अपितु पानीपत की तीसरी लड़ाई वाले पेशवों की जैसे मरहमपट्टी करके धुर घर तक छुड़वाए थे ऐसे छुडवायेंगे| तब ना रो पाओगे और हंस पाओगे| हमारे कल्चर-मान-मान्यता के उपहास या इसको कुचलने व् खत्म करने के सपनों में सिर्फ ग्याभण ही हुए रह जाओगे|
इधर थोड़ा हरयाणवियों से भी अनुरोध है कि मीडिया या सरकार के हर एजेंडा में गंडासे में चढ़ते गैरे की ढाल मत चढ़ा करो| कुछ देर इनके तमाशे भी देखा करो, इनको फूं-फ़ां करके शांत होने का मौका दिया करो| उससे भी जरूरी, कोई मुद्दा कितना दूरगामी है वह आंकलन करके अपने स्टाइल में प्रतिक्रिया दी जाए तो बेहतर व् इनके शब्द अपने मुंह में रखे जाने से खुद को बचाया जाये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 26 May 2019

अब गोळ लो, पहले नहीं गोळा तो!

जिस समाज की सामाजिक थ्योरी व् सरंचना धराशायी होनी शुरू हो जाए उस समाज को राजनीति करने से जरूरी अपनी इस सरंचना को दुरुस्त करना चाहिए| अख़बारों में देख ही रहे होंगे कि जाटलैंड पर फलानों का कब्जा, धकड़ों का कब्जा? पहले तो इनको कोई यह समझा दे कि जाट ने यूँ ही कब्जे करके सिर्फ अपने को ही ऊपर रखना होता तो अल्लाउद्दीन खिलजी के बाद सन 1300 से 1550 तक जब अधिकतर गामों के "दादा नगर खेड़े" बसाये तो जाट उसी जमाने से किसी अन्य को बसने नहीं देते और ना यह एरिया हिंदुस्तान का सबसे धनाढ्य व् हराभरा बन पाता|

कोई एक ऐसा गाम नहीं, जो जाट बाहुल्य हो व् उसमें बसने वाली अन्य जाति यह कह दे कि हम जाटों से पहले इस गाम में बसे| सब जाटों के पीछे-पीछे आये, जाट ने पहले गाम के "दादा नगर खेड़े" बांधे फिर अन्य कामगार-कास्तकार-मजदूर-व्यापारी वर्ग/जातियां आते गए और बसते गए| यह बसासती विरासत है मीडिया की परिभाषा में "जाटलैंड" कही जाने वाली इस धरती की| नवयुवा पीढ़ी के बालको भूलना मत इस बात को|

"बार्टर-सिस्टम", "सीरी-साझी वर्किंग कल्चर", "उदारवादी जमींदारी सभ्यता", "विधवा विवाह", "देहल-धाणी की औलाद माँ का गौत रखे", "शादी से पहले बाप के घर, शादी के बाद पति के यहाँ आजीवन सम्पत्ति अधिकार (पति पहले मर जाए तो भी, उसको पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर अन्यों की भांति विधवा आश्रमों में नहीं बैठाते जाट)" के विधानों के जनक हैं जाट| "धर्मस्थलों-पूजा में औरत को 100% लीडरशिप", "धर्मस्थलों में मर्दवाद वर्जित" रखने वाले हैं जाट| आज भी जाट को "दादा नगर खेड़ों पर धोक-पूजा इसके घर की औरतें लगवाती हैं, जबकि अन्य स्थलों पर मर्द खड़े होते हैं वह भी यह डंडा ले कर कि औरत कब इन धर्मस्थलों में घुसेगी और कब नहीं, यह उनके मर्द निर्धारित करेंगे| दुनिया की सबसे बड़ी व् पुरानी इंजीनियरिंग थ्योरी के जनक हैं जाट| कम्युनिटी गेदरिंग का इकलौता सिस्टम "परस-चौपाल-चुप्याड" जो सिर्फ जाटलैंड में पाई जाती हैं, पूरे इंडिया में, इस वर्ल्ड थ्योरी के भी जनक हैं जाट| अन्यथा जाटलैंड के बाहर पेड़ों के नीचे होती हैं कम्युनिटी सभाएं, जबकि जाटों के यहाँ इस फोर्ट्रेसनुमा हालों में| सबसे प्राचीन सोसाइटी मैनेजमेंट सिस्टम "बगड़" (जिसको मॉडर्न भाषा में RWA बोलते हैं) के जनक हैं जाट|

जाटों में जाटलैंड वाला गुरुर होता तो आज भी जाटलैंड, बिहार-बंगाल की भांति उजड़ी स्टेट होता वह भी बावजूद जाटलैंड की अपेक्षा बिहार-बंगाल की तरफ ज्यादा नदियां व् ज्यादा उपजाऊ जमीनें होने के| और जाटलैंड वाले बिहार-बंगाल जा रहे होते मजदूरी-दिहाड़ी-रोजगार करने ना कि वहाँ वाले यहाँ आ रहे होते|
तो सबसे पहले तो जाट इस मिथ्या प्रचार की अब कम-से-कम आलोचना करे जिसको पढ़-सुन-देख के यह फीलिंग आती है कि जैसे जाट तो यहाँ लठ के दम मात्र पर बसे हों व् इनके पास ना तो कभी कोई सोशल विज़न था, ना सोशल इंजीनियरिंग और ना जेंडर सेंसिटिविटी| इन चीजों को जिसको कि शायद आजतक जाट यह बोल के साइड करता आया है कि "के बिगड़े सै भोंकें जाएंगे"," कूण गोळे सै लिखे जांगे"; अब वक्त आ गया है कि इनकी आलोचना की जाए| वरना शर्म-शर्म में और "काका कहें काकड़ी नहीं मिला करती" वाली सूखी तर्ज की लय पर "भाईचारा-भाईचारा" चिल्लाते रहे तो ऐसे लिखने-बोलने-प्रचार करने वाले लोग तुम्हारे हारे की राख भी साहमर ले ज्यांगे|

यह वह लोग नहीं जिनके आगे तुम शर्म दिखाओ या चुप्पी साधो, तुम्हारी इस शर्म व् चुप्पी को ऐसे लोग "अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया" वाली लय पर अपनी जीत मानते हैं| और गंभीर समस्या यह है कि गाम तो गाम, शहरी व् एनआरआई जाट तक इन मुद्दों पर दड़ मारे चल रहा है| दड़ तोड़िये और हुई-हुई जायज बात पर तो कम से कम बोलिये, वर्ना क्या तो अपने बच्चों को दोगे कल्चरल विरासत के नाम पर और क्या ऊपर पुरखों को मुंह दिखाओगे?

मेरी विनती आरएसएस में बैठे जाटों से भी रहेगी कि वहां अपने सलूक-समीकरण-व्यवहार-संबंध का इस्तेमाल करें व् उनके जरिये मीडिया में बैठे अपने प्रभावशाली मित्रों से अनुरोध करवाएं कि जाट, जाटलैंड, जाट बनाम नॉन-जाट की यह बेवजह की छींटाकसी बंद करे मीडिया व् ऐसी मति के गैर-मीडिया लोग| आखिर हो तो आप भी उसी हिन्दू वर्ग का हिस्सा जिसके लिए आरएसएस दिनरात काम करने का दम भरती है? किसी भी सामाजिक-राजनैतिक संगठन में रह लो, अपनी जातीय पहचान से खुद को छुपा या बचा लोगे क्या? अंत दिन जाने तो जाट होने के नाम से ही जाओगे, चाहे बेशक आरएसएस में रहो या कहीं किसी अन्य संगठन में? और हर चीज राजनीति के लिए नहीं हुआ करती, कुछ समाज के लिए भी करना होता है|

मेरे से नहीं होगी राजनीती कभी ऐसे बिगड़े सामाजिक हालातों में, मैं तो इन बिगड़े हालातों को ही कुछ या पूरा ठीक कर जाऊं तो अगली पीढ़ियों में नामलेवा होऊं व् पुरखों को शक्ल दिखा सकूं| जाने कैसे हो चले हैं लोग जिनको ना आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपनी जवादेही की चिंता ना पुरखों को मुंह दिखाने की फ़िक्र|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 6 May 2019

बॉलीवुडिये गुंडे!

मोदी बाबू, जिन शौर्यपूर्ण हालातों में पूर्व पीएम राजीव गाँधी की शहादत हुई थी, आप तो उसका रिहर्शल यानि मॉक-ड्रिल भी करोगे तो पायजामा गीला कर बैठोगे! इतना तो छोडो आप राजीव गाँधी की तरह बिना सिक्योरिटी के दो ढंग ही पाड़ के दिखा दो अगर वास्तव में इतने लोकप्रिय हो तो? बताता चलूँ कि राजीव गाँधी ने बिना सिक्योरिटी के चलने का यह जज्बा ताऊ देवीलाल की शैली से प्रभावित होकर अख्तियार किया था| परन्तु ताऊ देवीलाल जी की हस्ती के बराबर जा बैठने की ललक में अपनी सिक्योरिटी हटवा बैठे और मानवबॉम्ब का शिकार हुए!

बाकी मोदी बाबू का इतना गिरा हुआ स्तर देखकर मुझे आज उस सवाल का जवाब मिल गया जो बॉलिवुड के विलेन्स को देखकर बचपन से जेहन में उठता था, कि आखिर यह ऐसे विलेन और ऐसे गुंडे वास्तव में होते कहाँ हैं| मुझे क्या पता था कि 1950 से यह बॉलिवुड वालों की कल्पना वाला गुंडा कच्छाधारी समाज तोड़ प्रयोगशाला में यूँ तैयार हो रहा था|

बाकी, जहाँ तक इसको या इस जैसों को ट्योटणे की बात है तो मेरे बचपन वाला हरयाणा अगर आज भी होगा तो उल्टे पैर लौटा देगा इनको|

बचपन वाला कैसे?: हुआ यूँ कि मेरे गाम का एक बणिया भैंस-व्यापारी बन गया| गाम के जाट-जमींदारों के रसूख की साख पर गाम-गुहांड की 30 के करीब भैंसे बिसाह ली, वह भी उधारी पर| दो भैंस म्हारी भी ले गया| बात 1990 के आसपास की हैं, उस वक्त दो भैंस के 24 हजार ठहरे थे, आज की कीमत में कम-से-कम 2.4 लाख| 30 भैसों का पैसा घुप्प करके गाम की उनकी दोनों हवेलियां छोड़ परिवार समेत पुणे जा बसा|

मेरे पापा पांच-छह बार गए परन्तु हर बार मन कर देता| एक बार तो पापा को पुणे से निडाना बीच रस्ते मरवाने तक की धमकी दे दी यह कहते हुए कि "अगर दोबारा आया तो ऐसा कर दूंगा"| हमारा परिवार नरमी खानिया परन्तु सारे थोड़े ही| एक और जाट जिसकी 4 भैंसे ले गया था, करीब 10 साल पैसे मिलने के इंतज़ार के बाद उन्होंने बणिये की एक हवेली पर कब्ज़ा कर लिया| पुणे में बनिये को पता लगा तो लेकर 4 मुम्बईया गुंडे आ गया हवेली खाली करवाने|

अमूमन हरयाणवी कल्चर ऐसा है कि ऐसी हालत में बणिया निर्दोष होता तो उसका साथ देता परन्तु किसी ने साथ नहीं दिया| वजह ऊपर वाले पहरों से आसानी से समझ सकते हो| जब गाम के युवकों को पता चली कि बणिया आया है वह भी मुंबईकर गुंडे लेकर तो सबने लठ और गंडास धर लिए निकाल के| ये जाटों के छोरे, जिनका खून इतना गाढ़ा कि खून दान देने जावें तो डॉक्टर की खून निकालने की सुई में ही न चढ़े, वजह अजी इसका तो खून गाढ़ा ही बहुत ज्यादा है| मेरे अंकल हैं गाम में, उनका तो आज भी इतना गाढ़ा है किसी डॉक्टर की सुई में चढ़ता ही नहीं|

तो जैसे ही बणिये के गुंडों ने कब्जा करने वाले परिवार पर हमला बोला, बालकों ने धरे चारों आगे ले के| छातों-छात चढ़ा दिए| एक गुंडा तो जान बचाता, छतों कूदता 20 घर दूर म्हारे घर की छात पर आ लिया| म्हारा घर तीन-मंजिला, आगे दो तरफ सदर गली, पीछे डॉक्टर की सुई में भी खून ना चढ़े इतने गाढ़े खून के उबाल में उसकी मौत बनके नाचता आ रहा म्हारा काका| गुंडा तो जान बचाने का मारा तीसरी मंजिल से सीधा गली में छलांग लगा गया| बेचारे की टांग टूट गई| बालकों ने चारों गुंडे और बणिया धर बंदी बनाये|

खैर, पंचायत हुई, बणिये को डांट लगी कि 30 तो भैंस ले कर भाज रह्या तू गाम-गुहांड की, 10 साल हो लिए एक की पाई ना लौटाई और ऊपर से यह गुंडे; दिखै पुणे में बॉलीवुड की घनी फ़िल्में देखण लाग गया? फिर भी पंचायत ने अपनी न्यायप्रियता दिखाते हुए कहा कि या तो 30 भैंस दे दे जिस-जिसकी ली हुई हैं या भैंसों की जो कीमत ठहरी थी उसका मूल ही दे दे, ब्याज नहीं भी देगा तो भी तेरी हवेली की सुरक्षा की गारंटी पंचायत की| 

बणिये ने वक्त माँगा, परन्तु मुड़ के फिर ना निडाना आया कभी|

अब उसी टाइप के गुंडे यह हैं, देखें हरयाणा वाले कितना झेलेंगे इनको|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 26 April 2019

जाट मतदाता को ब्राह्मण मतदाता से सीखना चाहिए कि कौम-प्रेम क्या होता है व् उससे भी जरूरी कैसे संभाल के रखा जाता है!

पोस्ट का सार: एक सीट पर एक से अधिक सजातीय उम्मीदवार आ जाने की स्थिति में ब्राह्मण हैवीवेट और जिताऊ को जिताता है, वह कैसे उसके लिए पूरी पोस्ट पढ़ें|

हर ब्राह्मण को पता है कि ताऊ रमेश कौशिक ने भाड़ नी फोड़ा सोनीपत लोकसभा में विकास के नाम पर| हर ब्राह्मण को पता है कि ताऊ अरविन्द शर्मा ने रोहतक की तरफ लखाणा भी नहीं था अगर टिकट न मिलती तो, शायद वापिस कांग्रेस या बसपा में भी जा लेता| हरयाणा में जमींदार से ले खिलाडी तक भी हैं ब्राह्मण और बीजेपी सरकार ने दोनों की उतनी ही बराबर से बिरान माट्टी करी है जितनी कि अन्य जाति वालों की|

लेकिन क्या इसके बावजूद किसी एक भी ब्राह्मण ने सोशल मीडिया या धरातल पर कौशिक या शर्मा का विरोध किया? यह बात अब आम है कि अंदरखाते खुद ब्राह्मण दोनों को पसंद नहीं कर रहे| लेकिन फिर भी इनके प्रचार प्रसार में ब्राह्मण कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे| सोशल मीडिया पर रोज ब्राह्मण लड़कों की कौशिक और शर्मा के पॉजिटिव प्रचार की धड़ाधड़ पोस्टें देखता हूँ| और बावजूद इसके कि दोनों सीटों पर 7-8% ही वोट हैं ब्राह्मण के| परन्तु लग्न क्या है कि चाहे जैसे भी हैं जिताने हैं|

हाँ, एक बात जरूर नहीं हुई कि एक सीट पर दो-दो नहीं हैं, एक ही है| करनाल व् सोनीपत पर संभावना थी कि दो की टक्कर होती; तब शायद एक नया अध्याय देखने को मिलता कि ब्राह्मण किस पर ज्यादा झुक रहे हैं| परन्तु ऐसी सीटों व् स्थितियों पर इनकी मैनेजमेंट देखी-सुनी है मैंने| जिस भी सीट पर एक से ज्यादा ब्राह्मण आ जाते हैं वहाँ सिर्फ दो ही स्ट्रेटेजी होती हैं इनकी| एक तो यह देखते हैं कि कौनसे वाला कितना हैवीवेट है यानि कितना सीनियर है, स्टेट या सेण्टर का न्यूनतम मिनिस्टर प्रोफाइल है या नहीं| और दूसरी बात कहते हैं कि जिताऊ यानि सीट निकालू है कि नहीं, यानि दो ब्राह्मण के अलावा जो अन्य जाति वाले खड़े हैं उनपर कौनसा भारी पड़ रहा है व् सीट निकाल सकता है|

उदाहरणार्थ: नरेश दुहन भाई बताते हैं कि हरयाणा का पुण्डरी विधानसभा हल्का, रोड समुदाय बाहुल्य है| हर बार दो-तीन ब्राह्मण खड़े होते हैं और पूरा इलेक्शन रोड बनाम नॉन-रोड पर लड़ा जाता है| परन्तु दो-तीन ब्राह्मण उम्मीदवार होने पर भी अंत में सारे चढ़ते एकमुश्त हैवीवेट व् जिताऊ पर हैं|

और हर प्रकार की स्थिति में इनकी आपस की खटास या नापसंदगी यह कौम से बाहर शायद ही जाने देते हों, कम-से-कम मैंने तो कभी ऐसी तू-तू-मैं-मैं नहीं सुनी जैसे अन्य जातियों में सुन जाती है| जिसको भी जिताना या हराना होता है हैवीवेट और जिताऊ के आधार पर जिताते-हराते हैं और रोहतक-सोनीपत की भांति हो ही जाति का एक कैंडिडेट तो योग्यता-मान्यता को साइड रखते हुए उसको ही जिताते हैं|

और क्योंकि हरयाणा में यह एक सीट पर एक से अधिक सजातीय कैंडिडेट होने की समस्या सबसे ज्यादा जाट फेस करते हैं तो इस बारे में कैसे यह चीजें मैनेज की जाएँ ऊपर दिए उदाहरणों व् व्याख्याओं से सीखा व् समझा जा सकता है| यादव भी गुड़गाम्मा सीट पर इस समस्या से जूझ रहे हैं, गुज्जर फरीदाबाद पर, दलित अम्बाला व् सरसा पर| जाट सबसे ज्यादा रोहतक-सुनपत-कुलछेत्र-हिसार-भ्याणी-महेंद्रगढ़ पर|

इन सबमे भी सोशल मीडिया पर अपनी ही कौम वाले परन्तु दूसरी पार्टी वाले उम्मीदवार के लत्ते उतारने में जाट ही सबसे ज्यादा मशगूल हैं| शायद 10% भी सोशल मीडिया सिपाहियों को फरवरी 2016 याद हो, कैसे इनकी लुगाई खाद के कट्टों के लिए थानों में लाइन लगवा दी थी याद हो, कैसे फसल बीमा योजना के तहत दसियों हजार करोड़ का किसान की जेब लूट का सीधा घोटाला अकेले हरयाणा में हुआ याद हो, कैसे झूठे केसों में बच्चे आज भी जेलों में सड़ रहे याद हो, कौम-स्टेट को आगे ले जाने इसके मान-सम्मान को सहेजे रखने की 10 साल की दूरगामी सोच कोई से पे हो; हरयाणा को 35 बनाम 1 बना रख छोड़ने वालों से बच वापिस 36 को एक बनाने की चिंता हो, जबकि यह अहसास लगभग हर एक को है कि बीजेपी दोबारा आ गई तो 36 तो क्या 35 में भी राड़ लगवायेगी|

कोई बदले की राजनीति का एजेंडा प्रचारित कर रहा है, कोई बेहड्डा लिख के किसी को कोस रहा है; जबकि सब कहूँ या 99% इस बात पर तो सहमत हैं कि बीजेपी से मुक्ति चाहिए परन्तु आपसी लेग-पुल्लिंग इस मुक्ति की राह में कितनी घातक है शायद ही कोई विचार रहा हो|

20 दिन के लिए यह लेग-पुल्लिंग छोड़ के ब्राह्मण की तरह कौम भक्त (अपना मुंह मत चिढ़ाना या चढ़ाना, परन्तु यह सच है आज के दिन 95% जाटों में ब्राह्मण की आधे जितनी भी कौम व् स्टेट भक्ति नहीं) बनो और जो हैवीवेट और जिताऊ हो उस पर जुटो| तुम-हम इधर इस तू-तू-मैं-मैं उलझे हैं और उधर ब्राह्मण को देखो प्रतिशत में इकाई का आंकड़ा होते हुए भी, खुद को एक करके दूसरी जातियों से कैसे अपनी जाति वाले पर वोट चढ़वानी हैं उसकी पूरी स्ट्रेटेजी में जुटे हैं| भाईयो सोशल मीडिया पर इस आपस की जंग को बंद करो, ओवर-कॉन्फिडेंस से बचो, बदले व् नफरत की राजनीति के एजेंडों से बचो और जिताऊ की तरफ खुद भी बढ़ो और अन्य जातीय दोस्तों का एक-दो-चार-पांच जितने भी वोट हों उस पर फोकस करो|

विशेष: यह पोस्ट एक ही जाति के भीतर एक या एक से ज्यादा उम्मीदवार को कैसे मैनेज करें, उस पर है| आउट ऑफ़ सेम कास्ट, लाइक माइंडेड जातियों समूहों जैसे कि 'अजगरम' आदि को इस परिवेश में कैसे मैनेज करें; इस पर अगली बार लिखूंगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 26 March 2019

आदरणीय सैणी समाज अगर नहीं चाहता कि "आदरणीय ज्योतिबा फुले" का वैसे ही करैक्टर-अस्सेसिनेशन हो जैसे राजकुमार सैनी पिछले 2-3 साल से "सर छोटूराम" पर अटैक कर करने की कोशिश कर रहा है तो कृपया उसको लगाम लगाइये!

सलंगित स्क्रीनशॉट: Crispin Bates लिखित पुस्तक "Mutiny at the Margins: New Perspectives on the Indian Uprising of 1857" के अध्याय दो का है जिसमें साफ़-साफ़ लिखा है कि महात्मा ज्योतिबा फुले ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ देने पर महार रेजिमेंट को बधाई दी थी| यह पंक्ति पढ़िए इस स्क्रीनशॉट की ध्यान से, ""It is not surprising that Jyotiba Phule congratulated the Mahars for aiding the British in suppressing the 1857 Revolt".

इसी सिलसिले में ज्योतिबाफुले का एक और वक्तव्य है जिसमें वह कहते हैं कि "अभी 1857 की जरूरत नहीं थी, देश पर कुछ साल और अंग्रेजों का राज रहना जरुरी है तभी देश में सुधर हो सकता है"|

और ऐसी ही बहुत सी बातें निकल आएँगी अगर और ज्यादा "चूचियों में हाड ढूंढने" की भांति मेरे जैसे भी ठीक वैसे ही महापुरुषों के करैक्टर असेसिनेशन पर उतर आये तो जैसे राजकुमार सैनी जब दांव लगता है चला आता है और "हिरै-फिरै गादड़ी और गाजरों म्ह को राह" की तर्ज पर जाट समाज पर लगता है बरगलाने|

और अबकी बार यह दांव लगा 23 मार्च 2019 को बरवाला में जननायक जनता पार्टी द्वारा किये गए शहीदी दिवस सम्मान समारोह में मुंहफट पंडित रामकुमार गौतम द्वारा आज़ादी के वक्त के 'सर', 'राव', राय-बहादुर आदि उपाधि मिले महापुरुषों को अपनी बेलगाम व् बेसोची जुबान द्वारा गद्दार बोलने व् कुर्सी के लालच में अंधे हुए अपने सगे दादा को दरकिनार गौतम में नया दादा ढूंढते हुए उनकी हाँ-में-हाँ मिलाने वाले दुष्यंत के बाद तुकबंदी जोड़ते हुए राजकुमार सैनी ने फिर से महापुरुषों के खिलाफ जहर उगला|

राजकुमार सैनी कितना ही फंडियों का भोंपू बन ले परन्तु एक बात याद रखना जाट-समाज जितनी रेपुटेशन और ओहदा आप तो क्या आपके तो फ़रिश्ते भी नहीं पा सकते| और इस ओहदे की ऊंचाई इस स्तर की है कि जाटों को तो महर्षि दयानन्द जैसे समझदार बाह्मणों तक ने अपने ग्रंथों में "जाट जी" और "जाट-देवता" लिखा-कहा और गाया है| यह ऐसा रुतबा जो बाह्मण उसके सबसे चाहते राजपूत तक को भी आजतक नहीं दिया, जाट के लिए उसके मुंह से निकलता आया| तो जाओ सैनियों के लिए लिखवा दे बाह्मणों से "सैनी जी" और "सैनी देवता" फिर बात करना जाटों से| एवीं खामखा लेते हैं और उठ के चले आते हैं| खैर कोई ना समंदर है जाट समाज, तेरे जैसे गंदंगी के नाले भी समेट लेंगे| परन्तु एक बात गौर फरमाए सैनी समाज|

मेरे जैसे समाज की ऐसी बातों पर नजर रखने वाले, राजकुमार सैनी जैसों की नादानियों को सिर्फ इसलिए दरकिनार करते आ रहे हैं क्योंकि हम उन फंडियों का भोंपू नहीं जिनका भोंपू बनके राजकुमार सैनी पिछले 2-3 साल से बदजुबानी किये जा रहा है| और इन महाशय के निशाने पर जाट समाज, सर छोटूराम और जाट रेजिमेंट यदाकदा चली आ रही हैं| अगर राजकुमार सैनी को जाट समाज के किसी व्यक्ति विशेष से कोई दिक्कत है तो उस व्यक्ति का सीधा नाम लेकर अपनी दिक्कत दूर करे; अगर वह दोषी होगा तो समाज सैनी के साथ होगा| परन्तु यह कौनसी भड़ास है कि कभी जाट रेजिमेंट, कभी जाट समाज में जन्में परन्तु सर्वसमाज के महापुरुष? वह भी उस इतिहास के जिस वक्त यह जनाब पैदा भी नहीं हुए थे?

हमारे पुरखों ने इस हरयाणा को बड़ी कुर्बानियां दे-दे इन फंडी-पाखंडियों से बचा के रखा हुआ है| जितनी सीधी टक्कर जाट समाज ने इनकी ली है सदियों से उसके राजकुमार सैनी जैसे तो पासंग भी नहीं| जहाँ आपके यहाँ फंडियों से टक्कर लेने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले जैसे इक्का-दुक्का ही हुए, वहीँ यह जाट समाज है यहाँ फंडी को फंडी कहने और ताड़ने का साहस तो जाट का बच्चा-बच्चा करता आया है| और जिन सर छोटूराम के खिलाफ इतनी लम्बी जुबान हुई जाती है उन जितनी खुली वाट तो फंडियों की पूरे हिंदुस्तान में कोई नहीं लगा सका| यहाँ तक कि बाबा साहेब आंबेडकर से ले ज्योतिबा फुले तक इनसे गच्चा खा गए थे परन्तु सर छोटूराम इनको आजीवन पटखनी दी| और जाट समाज इस मर्म को भलीभांति समझता है इसलिए राजकुमार सैनी की बकवासों पर चुप है| अन्यथा उसकी तरह बदजुबानी और अनादर करने पर उतरे तो ज्योतिबा फुले तक को घेर सकते हैं, उदाहरण ऊपर दिया है सबूत समेत|

ऐसे में मैं जिला जिंद हरयाणा में सैनी खाप के प्रधान दादा दरियाव सिंह सैनी जी (जिसने मैं 23 फरवरी 2017 को रोहतक मे खापलैंड वेबसाइट के लांच के वक्त मिला था) से अनुरोध रहेगा कि सैनी समाज या सर्वसमाज (जिसकी भी जरूरत पड़े) की खाप पंचायत बुलाकर राजकुमार सैनी की बदजुबानी को लगाम लगवाएं, अन्यथा हम आपके बालक यही मानेंगे कि आप जैसे समाज के मौजिज लोगों की भी इस मुंहफट को शय है| दादा जी तक मेरी यह चिट्ठी पहुँचाने वाले वाले का शुक्रिया| मैं खुद भी उन तक इसको पहुंचाने की कोशिश करूँगा|
अनुरोध सिर्फ इतना है कि हम नहीं चाहते कि राजकुमार सैनी जैसों के जरिये समाज को "डिवाइड एंड रूल" पर ले जाते हुए दांव लगाए बैठे फंडी का कोई और नया मौका लगे|

हम रामकुमार गौतम से सफाई लेते हुए नहीं डरे क्योंकि हमें पता है वह ना कभी हमारा था और ना होगा, चाहे जजपा वाले उसने घी में तो गाड़ लियो और दूध में नुहा लियो और गूगा बना लियो| इसीलिए शहीदी दिवस पर काटी उनकी बदजुबानी को लेकर उनके पीछे पड़े और पंडित रामकुमार गौतम एक ही दिन में फेसबुक पर आ कर सफाई दे गए| दूसरा सलंगित स्क्रीनशॉट उनकी सफाई की पोस्ट का है| परन्तु हम राजकुमार सैनी को घेरने से पहले इसलिए सोचते हैं क्योंकि फंडी ताक में बैठा है, ताक में बैठा है राजकुमार सैनी जैसों के जरिये समाज में पड़ी फूट को और गहरी करवाने को|

और यही फर्क समझा दिया जाए राजकुमार सैनी जैसों को कि पूरा सैनी समाज पिछड़ा नहीं है परन्तु तेरे जैसों की सोच के चलते समाज पर पिछड़ा होने का ठप्पा लगता है|

आशा करता हूँ कि सैनी समाज इस मर्म को समझेगा और राजकुमार सैनी जैसे फंडियों के भोंपुओं को समझायेगा|

विशेष: इस पोस्ट में प्रस्तुत किये गए महात्मा ज्योतिबा फुले के दोनों प्रसंग, इस मसले की गंभीरता को समझाने हेतु प्रयोग किये गये हैं, इसमें उनका कोई अपमान या उपहास ना देखा जावे| यह सिर्फ इस तौर पर पेश किये गए हैं कि अगर सामने वाला पक्ष भी ऐसी ही बेशर्मी पर उतर आवे जैसी पर राजकुमार सैनी उतरा हुआ है तो बेशर्मी उससे भी भारी बन जाए|

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जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Tuesday, 19 March 2019

जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये!

विषय: जाट व् इसके समकक्ष जातियों की सबसे बड़ी समस्याएं!

सबसे बड़ी समस्या: इन जातियों को अपना जातीय अभिमान संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होती| जिसकी वजह से यह बाहुबल के साथ-साथ बुध्दिबल का प्रयोग अपने साधन-सम्पदा संजोने की बजाये, उनको बाँटने, इस्तेमाल होने देने व् बिखरेने में ज्यादा करते हैं| और यह संभालने की इच्छाशक्ति नहीं होने की वजह से इन जातियों के जो कुछ एडवांस्ड लोग होते हैं वह दूसरी जातियों के साथ बिना-सोचे समझे, बिना किसी मिनिमम कॉमन एजेंडा के मर्ज हो अपनी असली एथनिसिटी-कल्चर बिसरा के जीवन जीने को ही क्लास मानते हुए जीवन व्यतीत कर देते हैं|

जातिगत प्रेम को जातिवाद का नाम दे के चिढ़ने और बिदकने वाले जाट से कोई पूछे कि क्या आप अमूमन ब्राह्मण-बनिया-दलित आदि से भी बड़े जातीय-अभिमान रखने वाले हो या उनसे भी ज्यादा जातिवाद-वर्णवाद नस्लीय ऊंच-नीच की भावना रखने वाले हो (यहाँ बात कम-ज्यादा की कर रहा हूँ किसी पर इल्जाम नहीं लगा रहा हूँ, वरना जातिवाद-वर्णवाद से रहित लोग इन जातियों में बहुतायत में होते हैं), तो जवाब मिलेगा बिलकुल भी नहीं| तो फिर जो सबसे ज्यादा जातिवाद या जातीयप्रेम रखने वाले हैं आप उनकी तरह आश्वस्त होकर क्यों नहीं चलते हो? आपको ही क्यों 36 बिरादरी भाईचारे टाइप की चीजों की सबसे ज्यादा चिंता रहती है? चिंता क्या, लगभग इसका झाल्ला ही अपने सर उठाये से रहते हो, कि जैसे तुमने इसको नहीं संभाला तो दुनिया खत्म| कम-ऑन रिलैक्स दो अपने कंधों और सर को इससे|

तो जो जातीय प्रेम, स्वाभिमान, अभिमान, सम्मान व् बहुतेरे मामलों में जातिवाद-वर्णवाद वाले जो हैं वह कैसे इन चीजों को जाट जैसी जातियों से भी ज्यादा अच्छे से करते हुए सबकुछ संभाल के रख लेते हैं और समाज को अपने चॉइस के फ़ील्ड्स में लीड कर लेते हैं?

मेरे अनुभव व् सूझबूझ से जवाब ढूंढता हूँ तो कुछ यूँ चीजें निकलकर सामने आती हैं:

1) ब्राह्मण-बनिया लोग सबसे पहले जातीय अभिमान-स्वाभिमान-घमंड आदि नाम की जो मृग की खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध का नशा होता है उसको बचपन में ही साइड में रखना सिखाते हैं, मैनेज करना सिखाते हैं| जबकि जाट व् इसके जैसी जातियों इसकी कमी है| और वजह होती है इसको लेकर इच्छाशक्ति ना होना| 'देख ल्यांगे', 'देखी जागी', 'के बिगड़े सै' टाइप वाला ऐटिटूड, जो कि खुद की कस्तूरी रुपी सुगंध वाले जातीय अभिमान को मैनेज करने की इच्छाशक्ति नहीं होने के चलते आता है|

यह जातीय अभिमान, घमंड में तब्दील हो जाए इसके लिए विरोधी प्रोपेगंडा भी करते हैं; ताकि आप इसके घमंड में ही उलझे रहें और वह अपनी राहें आसान करते चले जाएँ| इन समाजों में इन प्रोपेगंडा व् इनको रचने-बचने वालों के पास क्या हल होते हैं, शायद कुछ भी नहीं? यह प्रोपेगंडा खेत में बिना बाद की खड़ी फसल पर आवारा जानवरों द्वारा हमला करने जैसा होता है| यह बाड़ कौन करेगा? आखिर क्यों फसल तक की बाड़ करने की सूझ-बूझ-हिम्मत-जज्बा रखने वाले लोग, जातीय स्वाभिमान को सॉफ्ट-टारगेट नहीं बनने देने बारे बाड़ क्यों नहीं करते या कर पाते? जवाब अमूमन मृग की कस्तूरी वाला ही है|

2) ब्राह्मण-बनिया लोग इस कस्तूरी रुपी नशे को अपनी जाति के लिए नाम-प्रसिद्धि-संसाधन-सत्ता-पावर को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जोड़ते चले जाने में लगाते हैं| इसकी जरूरत इनको जातीय अभिमान की कस्तूरी के नशे में टूलने से ज्यादा सिखाई जाती है इसलिए यह जातीय प्रेम पर किसी भी अन्य जाति से ज्यादा संगठित होते हैं| ना होते हों तो बता दो| और इनकी इन क्वालिटीज़ का मैं कायल भी हूँ|

और क्या कहूं| फ़िलहाल इतना ही बहुत| लेख का निचोड़ यही समझिये कि जातीय प्रेम की सुगंध रुपी कस्तूरी के नशे से पार पाईये! इसके नशे में चढ़ टूलने, रिफल्ने, बिफरने या बिगोने की जरूरत नहीं होती अपितु इसको सही दिशा में प्रयोग करने की और चलना चाहिए|

इस नशे से पार नहीं पाने की स्थिति में विरोधी के हमले होने पर आप डिफेंसिव होते हो और डिफेंसिव हुए तो समझो सॉफ्ट-टारगेट हुए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 7 March 2019

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है, कुछ "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में महिलाओं व् उनके स्थान बारे बतला लें!

मैं जाट हूँ, मैं हरयाणवी भी हूँ और मेरी एक खाप भी है| गठवाला (मलिक) खाप, हिंदुस्तान की सबसे बड़ी खाप| ऐसी खाप जिसके गढ़ गज़नी से ले लिसाढ़-शामली तक गढ़-गढ़ी-खेड़े-खेड़ी-किस्से-कहानी बिखरे पड़े हैं|
अब पढ़ क्या रहे हो? पढ़ के डरो मुझसे| क्योंकि एक तो मैं जाट, ऊपर से हरयाणवी और सबसे बिघन की बात "खाप वाला जाट"; खाप यानी खौफ?

माफ़ करना परन्तु तुमको नेशनल मीडिया से ले, तथाकथित एनजीओ, तथाकथित गोल बिंदी गैंग, तथाकथित जाट बनाम नॉन-जाट, तथा कथित 35 बनाम 1, तथाकथित फंडी-पाखंडियों ने जाट-खाप-हरयाणा इन तीन शब्दों से दशकों से डराया ही इतना जो हुआ है! अरे सिर्फ तुम क्या, आधे से ज्यादा तो खुद जाट इन तीनों पहचानों से परेशान हैं| इतने परेशान कि बहुतेरे तो खुद को जाट ही कहने से घबराते हैं, बहुत से हरयाणवी शब्द से कन्नी काटते हैं और खाप शब्द तो बाजे-बाजे सुनना ही नहीं चाहते| और जहाँ मैं पहुँच चुका हूँ यानि पेरिस-लिल्ल-फ्रांस में, यहाँ बैठ के जाट-खाप-हरयाणा पे बात करूँ तो इसको पिछड़ापन कहने वाले भी बहुतेरे हैं कि देखो इस मूर्ख को, वहां बैठ के भी जाट-खाप-हरयाणा करता रहता है|

परन्तु मैं ठहरा जन्मजात प्रचारक| वर्णवादियों की तरह किसी से ना खुद को बड़ा बताता और ना किसी को छूत-नीच-गंवार कहता| बस प्रचार करता हूँ, इस जूनून की वजहें पूरा लेख पढ़ के समझ आएँगी| इसलिए पढ़ने लग तो गए ही हो 2-4-5 मिनट लगा के अंत तक पढ़ना|

बहुत बार सोचा करता हूँ कि नेशनल मीडिया द्वारा इतना एंटी जाट-खाप-हरयाणा प्रचार के बावजूद भी आज के दिन सारे भारत के हर कोने की ओर से कामगारों-मजदूरों-रेफुजियों-शरणार्थियों-व्यापारियों का माइग्रेशन इसी "जाट-खाप-हरयाणा" की छाप से बाहुल्य धरा की तरफ है| कमाल है मीडिया इनको इनसे इतना डराता है और यह फिर भी यहीं खिंचे चले आते हैं? तो कुछ तो है जालिम इस "जाट-खाप-हरयाणा" में कि ऊपर गिनाए आधा दर्जन-भर से ज्यादा इन शब्दों से नफरत वालों के बावजूद भी हर कोई इन्हीं की तरफ खिंचा चला आता है| तो ऐसा क्या माद्दा-जज्बा है यहाँ कि यह धरती सबको आसरा देती है, उनको भी जो कभी टीवी के डब्बों में तो कभी सामाजिक नफरतों में "जाट-खाप-हरयाणा" को पानी पी-पी के कोसते हैं?

बस ओये फूल कुमार बहुत हो चुका, अब पाठकों को मुद्दे की बात पर ले आ| और बता तेरे यहाँ हॉनर किलिंग, भ्रूण हत्या आदि की बदनामी के अलावा औरतों के नाम पर कुछ पॉजिटिव भी है या नहीं? तो चलिए आज "अंतराष्ट्रीय महिला दिवस" के अवसर पर जानते हैं कि इस "खाप-खेड़े-खेत" में औरतों के लिए मुस्कराने व् गर्व करने जैसा क्या है|

यूरोप में एक कहावत है कि जेंडर न्यूट्रैलिटी (यह लोग औरत को देवी या दुर्गा कहने की कभी नहीं कहते, बस उसको अपने बराबर मान लो वही बहुत है) जितनी ज्यादा रखोगे उतने समर्थ-समृद्ध और शालीन बनोगे| अब सोचोगे कि "जाट-खाप-हरयाणा" और "जेंडर न्यूट्रैलिटी"; क्यों मजाक करते हो साहेब|

मजाक नहीं, दावा भी नहीं परन्तु इतना कहैबा जरूर करूँगा कि जो कोई हिंदुस्तान में यह दावा करता हो कि हिंदुस्तान में उनके समाज-समूह-राज्य में सबसे ज्यादा जेंडर न्यूट्रैलिटी है या रही है, वह "जाट-खाप-हरयाणा" वाले समाज में औरत बारे एक बार यह नीचे लिखे पहलु जरूर पढ़ लें|

वैसे आगे बढ़ने से पहले मैं "जाट-खाप-हरयाणा" शब्दों को "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" टर्मिनोलॉजी से बदल कर इस लेख की असली आत्मा में जाना चाहूंगा| दरअसल "जाट-खाप-हरयाणा" तो इसको मीडिया व् इसके एंटी लोगों ने बना छोड़ा है| अन्यथा यह है "खाप-खेड़ा-खेत" यानि "उदारवादी जमींदारी, दादा नगर खेड़ा व् सर्वधर्म सर्वजातीय सर्वखाप" का कल्चर|

तो यह रही हैं "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में औरत के मान-सम्मान-स्थान-किरदार-हैसियत-हस्ती की स्वर्णिम बातें-रीतें-रवाजें:

1) धोक-पूजा-पुजारी का विभाग शुद्ध रूप से है ही औरतों का इस कल्चर में: दादा नगर खेड़ा (दादा भैया, गाम खेड़ा, ग्राम खेड़ा आदि) में मूर्ती नहीं होती, पूर्वजों को ही भगवान माना है इस कल्चर ने| इन खेड़ों में कोई पुजारी नहीं होता| दिया-ज्योत सब औरतें करती हैं, खुद करती हैं| यहाँ तक कि मर्दों को बच्चे से वयस्क और वयस्क से ब्याहता होने तक के तमाम मुख्य पड़ावों पर मर्द की पूजा (धोक मारना) तक औरत करवाती हैं| है ना गजब की बात? पूरे विश्व में यह इतनी सुंदर परम्परा व् औरत के महत्व की बात मैंने तो आज तक नहीं देखी| और यही वजह रही कि यहाँ कभी देवदासी कल्चर नहीं मिलता| क्योंकि पूजा-धोक आदि के कार्य में पुरुष ने कभी दखलंदाजी ही नहीं करी इस कल्चर में| परन्तु जहाँ-जहाँ करी वहां देख लो दक्षिण-पूर्वी-मध्य भारत में देवदासियों से ले प्रथमव्या व्रजसला की सामूहिक सीलभंग के रिवाज जैसी कितनी घिनौनी हरकतें होती हैं धर्मस्थलों के गृभगृहों में| और हमारे पुरखे पुरुष को पुजारी बनाने के यह नेगेटिव पहलु जानते थे इसीलिए कभी दादा खेड़ों की पूजा पुरुष के सुपुर्द नहीं की बल्कि आज भी यह महिलाओं के ही हाथ में है|

2) माँ का सरनेम (गौत) औलाद का सरनेम हो सकता है: और पूरे विश्व में यह अद्भुत सिस्टम इस "खाप-खेड़ा-खेत" वाले कल्चर वालों के यहाँ पाए जाने वाले "ध्याणी-देहल की औलाद" व् "दादा नगर खेड़ा के जेंडर न्यूट्रैलिटी" नियम के तहत होता है| बताओ और कहीं होता हो तो पूरे हिंदुस्तान तो क्या विश्व तक में?

3) स्वेच्छा से विधवा पुनर्विवाह अथवा दिवंगत पति की सम्पत्ति पर आजीवन बसे रहना: यह बात अपनी विधवा बेटी-बहुओं को उसके दिवंगत पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर वृन्दावन व् गंगा के घाटों वाले विधवा आश्रमों में भेजने वालों या विधवा को मनहूस बता ताउम्र काल-कोठरियों में गुजरवा देने वालों को जरूर अटपटी लगेगी| परन्तु यह होता है "खाप-खेड़ा-खेत" कल्चर में| और यह होता है "शादी से पहले बेटी का हक बाप के और शादी के बाद पति के" नियम के तहत| शादी के बाद पति का हक वाकई में उसका रहता है फिर चाहे पति पहले मर जाए या बाद में| मेरे कुनबे-ठोले में मेरी चार काकी-ताइयाँ ऐसी हैं जो विधवा होते हुए भी स्वेच्छा से पुनर्विवाह नहीं करते हुए, अपने दिवंगत पतियों की प्रॉपर्टी पर शान से बसती हैं| कोई माई का लाल उनको उनके पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में बिठवाने की कह के तो दिखा दे, जो ना खाल तार लें तो साले की|

4) तलाक का गुजारा भत्ता: हिंदुस्तान में तो तलाक पर गुजारे भत्ते हेतु कानून 2014 में आया परन्तु इस कल्चर में "दो जोड़ी जूती व् नौ मण अनाज" के नियम के तहत यह कानून सदियों से चलता आया| तो सोचो जो कल्चर तलाक के बाद भी औरत के हक-हलूल बारे सदियों पहले से जागरूक रहा हो, उसमें औरत का सम्मान किस दर्जे का रहा है? और ये काल के कुतरु, 2014 में इस पर कानून बनवा के औरतों के अधिकारों के मसीहा बनने को फिरते हैं और चले आते हैं इस कल्चर को औरत के हक-हलूल सिखाने| यह तो मेरी दादी वाली वही बात हो गई कि "छाज तो बोले, छालणी भी क्या बोले जिसमें बहतर छेद"|

5) गाम-गौत-गुहांड की बेटी सबकी बेटी (यह जट्टचरयता का नियम है): कोई कहता है कि ब्रह्मचारी रहने हेतु औरतों से दूर रहो, ब्रह्मचर्यता करो; कोई कहता है कि गुरुकुलों में रहो; परन्तु "गाम-गौत-गुहांड" का नियम यानि जट्टचरयता कहता है कि समाज में रहते हुए जट्टचारी रहो और बस मुझे निभा दो, संयम-सामर्थ्य-संकल्प-साहस सब सहसा ही आ जायेगा| बताता चलूँ कि ऐतिहासिक वजहों से कई गाम ऐसे भी हैं जो गौत को छोड़ते हैं, गाम व् गुहांड को नहीं| तो कह रहा था कि जरूरत ही नहीं कान फड़वाने या दर-दर मंगता बनने की| बस गौत भी छोड़ दो, गुहांड-गाम छोड़ दो तो और भी बढ़िया| बाकी, कृपया हमारे इस नियम को योगी आदित्यनाथ के "एंटी रोमियो स्क्वैड" या "बजरंगदल" वालों से मत तोलना| क्योंकि "गाम-गौत-गुहांड" छोड़ के सबसे ज्यादा लव-मैरिज हमारे यहाँ ही होती हैं| चार लव मैरिज तो मेरे ही परिवार में हैं| दो और होती, परन्तु उनके अपने गलत व् जल्दबाजी भरे चुनाव के चलते सिरे नहीं चढ़ पाई| हाँ तो अब चार लव मैरिज कह दी तो क्या सबकी लव-मैरिज ही हो जाएगी, कोई गलत चॉइस करेगा तो पीछे भी हटना पड़ जाता है|

बाकी यह भ्रूण-हत्या जैसी चीजें सब एक्स-रे व् अल्ट्रा साउंड की मशीनें आने के बाद के चोंचले हैं| मेरी आठ बुआ हैं, मेरे बाप-काका-ताऊ-फूफा-मामा वाली पीढ़ियों में सबकी 5-5, 6-6 बहनें हैं| तो बताओ पुराने जमाने में किधर थी भ्रूण हत्या या बेटियों को जिन्दा होते ही मारने की रवायतें? यह सब अभी के नए चोंचले हैं और वह भी तथाकथित पढ़े लिखों के ज्यादा|

अक्सर महसूस करता हूँ कि "जाट-खाप-हरयाणा" में औरतों इतनी ज्यादा दुखी या प्रताड़ित होती जितनी कि इनकी एंटी-ताकतें दिखाती हैं तो प्रकृति ही नहीं बनाती इस धरा को इतना समृद्ध व् हरा-भरा|

बिंदु-पहलु और भी बहुत हैं, परन्तु लेख बड़ा ना हो जाए इसलिए यहीं विराम ले रहा हूँ| इस लेख का उद्देश्य ध्यान में रखते हुए हरयाणा में औरतों की बुरी दशाओं बारे किसी अन्य लेख में लिखूंगा| आशा करता हूँ कि लेख को पढ़ना सार्थक रहा होगा| आपको आपकी कल्चर बारे सुखद अहसास व् गर्व अनुभव करने की बातें जानने को मिली होंगी|

बस एक चीज सीखी जगत में, कल्चर से मत भटको; भटके तो खुद को यूँ जानो ज्यूँ बिना पते की चिठ्ठी| फिर चाहे गाम में रहो, शहर में या विदेश में; अपने कल्चर को अपनी पहचान को ओढ़ के चलो| रोजगार-व्यापर आदि के चलते जरूरत पड़े तो नफरत करने वालों को इसे मत दिखाओ, बेशक उनसे छुपा के रखो परन्तु दिल-आत्मा-दिमाग में सजा के रखो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 23 February 2019

ऐसा क्या है कि हरयाणा में जो दलित व् ओबीसी, जाट के इतने विरुद्ध हुआ जाता सा दीखता है या विरुद्ध किया जा रहा है?

जनवरी 2019 में निबटे जिंद (जिंद ले गया दिल का जानी वाला जिंद) उपचुनाव से पहले मैं इस मुद्दे को छूने से परहेज करता रहा हूँ| परन्तु इस पर लिखने की फरवरी 2016 से ही दिमाग में थी| तब से अब तक इसलिए नहीं लिख रहा था क्योंकि लोग कहते कि जब देखो यह भी क्या जहर घोलने जैसी बातें उठाये रहता है| परन्तु जिंद उपचुनाव ने मेरे को वह वजहें दी हैं जो मुझे यह लेख लिखने का साहस करने हेतु चाहिए थीं|

और वह दिया लोसुपा अध्यक्ष राजकुमार सैनी के जिंद उपचुनाव बारे 'मेरा रिपोर्टर' संग दिए साक्षात्कारों में सामने आये उनके निम्नलिखित बयानों ने; महाशय सैनी की जुबानी:

1) हरयाणा में जाट, भाजपा-आरएसएस के लिए ऐसे ही हो चुका है जैसे यूपी में मुस्लिम| यानि आप जाट को भाजपा-आरएसएस के लिए हरयाणा में मुस्लिम समझिये|
2) हम जिंद उपचुनाव में और ज्यादा वोटें लेते अगर चुनाव से ऐन पहले दिन व् उसी रात, सारे शहर में यह हाय-तौबा नहीं मचाई होती कि बीजेपी को वोट दे दो अन्यथा जाट कैंडिडेट जीत रहा है| यानि दिग्विजय चौटाला जीत की और अग्रसर थे|
3) हरयाणा में सरकारी नौकरी सिर्फ 1% हैं बाकी 99% रोजगार प्राइवेट है|

असली मर्म की बात पर आने से पहले, थोड़ा हमारे समाज का सामाजिक-व्यवसायिक परिवेश का परिदृश्य रखते हुए चलूँगा| हमारे समाज में मुख्यत: चार प्रकार की रोजगार-कारोबार केटेगरी हैं:

1) पुजार - यानि मंदिरों-मठों-डेरों-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्चों से होने वाली आवक व् इससे मुठ्ठीभर लोगों को मिलने वाला रोजगार| हिन्दू परिपेक्ष्य में 90% एक ही समुदाय का आधिपत्य है| हरयाणवी परिपेक्ष्य में यह शायद 60 % है, 40 % अन्य जातियों जिनमें कि मुख्यत: जाट ही हैं उनके पास है|

मेरे यहाँ जिन "दादा मोलू जी महाराज, खरकरामजी" टिल्ले की मान्यता है, उस पर 90 % वाला ना तो चढ़ता और ना ही उसका चढ़ना शुभ माना जाता| बल्कि पूर्णिमा के दिन 90% वाले समुदाय के दर्शन भी अपशकुन माने जाते हैं| खीर-पकवान आदि भी दलित जाति में धाणकों को देते हैं, 90% वाले को नहीं| यह 90% वाले को दर्द का बिंदु है, क्योंकि इससे उसकी पुजार के फील्ड में मोनोपोली टूटती है| और यही मोनपोली हासिल करने की लड़ाई भी बनी हुई है जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये हरयाणा में| लेकिन यह हासिल करने का प्रयास है दलित-ओबीसी को जाट से छिंटकवाने के जरिये|

2) व्यापार - यानि हर प्रकार के क्रय-विक्रय से उत्पन होने वाले रोजगार| मुख्यत: दो व् कृषि संबंधी व्यापारों को जोड़ें तो कृषि से जुड़ा लगभग हर समुदाय इस केटेगरी में आता है|

3) कृषक-जमींदार - यानि खेती से उत्पन होने वाला रोजगार| हरयाणा में मुख्यत:जाट-यादव-गुज्जर-राजपूत-रोड आदि व् कुछेक जगह बाहमण जातियां इसमें आती हैं|

4) मजदूर-कारीगर - पुजार-व्यापार-कृषक-जमींदार के यहाँ मजदूरी व् कारीगरी से संबंधित प्राइवेट नौकरी/रोजगार/दिहाड़ी व् इसमें अफसर-कर्मचारी वाली सरकारी नौकरी/रोजगार/दिहाड़ी और जोड़ लीजिये| इसमें 1% सरकारी वाले निकाल दें तो 99% प्राइवेट में 80% से ज्यादा ओबीसी व् दलित बिरादरी आती हैं|

अब आते हैं असली मर्म की बात पर:

आखिर ओबीसी व् दलित में, जाट के प्रति इतना जहर-गुस्सा-तनाव विगत के 2-4-5-10 सालों में उभर के क्यों आया है?

मोटे तौर पर जड़ जो पकड़ में आती है वह यह है कि, "जाट आसानी से सॉफ्ट-टारगेट बनाया जा सकता है" और वह बनाया जा भी रहा है| यह तो अब खुद राजकुमार सैनी जैसे जाट-विरोधी भी पब्लिक इंटरव्यू तक में बोलने लगे हैं|

जाट "सॉफ्ट-टारगेट" क्यों, कैसे और किसलिए बन रहा है या बनाया जा रहा है?:

पहले जाट क्यों सॉफ्ट टारगेट बन रहा है या बनाया जा रहा है:

1) जाट जितनी सिद्द्त से खेती की बाड़ कर उसकी सुरक्षा करना जानता है, उतना ही अपनी सामाजिक पहचान की सुरक्षा करने बारे उदासीन है| जबकि इसको दलित-ओबीसी से जो टारगेट करवा रहे हैं (नाम नहीं लिखूंगा, क्योंकि जो इस विषय बारे जरा भी जानता होगा वह भली-भांति जानता है कि वह कौन वर्ग, कौन लोग हैं) वह तानाशाह-क्रूर-विश्व के सबसे बड़े नश्लवादी-वर्णवादी-छूआछूति लोग हैं| "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" की आज के दिन जाट को सबसे ज्यादा जरूरत है| उसको अपना पैसा-संसाधन आज के दिन इस पर सबसे ज्यादा लगाने की जरूरत है| क्योंकि सामाजिक परिवेश में आपकी सामाजिक पहचान की बाड़ आपकी कौम की "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" से ही होती है| सनद रहे व्यर्थ में जाट एकता, जाट-जाट चिल्लाना "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" में नहीं आता| पहले खापें (सर्वजातीय सर्वखाप में उसके नीचले लेवल पर जो सजातीय सर्वखाप विंग होती है उसकी बात है यहाँ, वरना खाप 36 बिरादरी की रही हैं) यह काम भलीभांति करती थी परन्तु इनमें जब से "ठू-मच राजनीति" घुसी है, तब से इस कौम की हालत सुन्नी गोखड़ जैसी हो गई है; जिसको राह चलते कुत्ते भी काटने को दौड़ रहे हैं| इस पर काम हो जाए तो 70 % मसला हल हो जाए|

2) जाट अपनी औरतों के साथ बैठ कभी यह बातें उनसे साझा नहीं करता कि जाट समाज की मान्यताओं में "जेंडर इक्वलिटी व् जेंडर सेन्सिटिवटी" बारे क्या प्रावधान रहे हैं| जैसे कि "दादा नगर खेड़ों" 100% में पूजा का अधिकार औरतों को होना (विश्व में कोई अन्य ऐसी मान्यता व् समाज नहीं, जो पूजा-पाठ का 100% आधिपत्य अपनी औरतों को दे के रखता हो; बाजे-बाजे तो अपने धर्मस्थलों को पुरुषों के ही अधीन रखते हैं; औरतें कब क्यों उनमें चढ़ेंगी यह भी पुरुष ही तय करते हैं), "देहल-धाणी की औलाद का कांसेप्ट", "तलाक में बेटी-बहु के हक क्या रहे हैं", "खेड़े का गौत का कांसेप्ट कैसे जेंडर न्यूट्रल है", "गाम-गौत-गुहांड" नियम की पाजिटिविटी क्या हैं, "गाम की बेटी 36 बिरादरी की बेटी" का क्या महत्व है" आदि-आदि| पहले के साथ इस बिंदु पर भी काम हो जाए तो समझो जाट को "सॉफ्ट-टारगेट" बनाने की 99% समस्याएं हल| इनमें बिंदु और भी हैं जोड़ने को, परन्तु फ़िलहाल यह दो भी जाट समाज कर ले तो बहुत होगा|

3) तीसरा मुख्य कारण है कि शहरी व् धनाढ्य जाट की अपनी मान-मान्यताओं से तो दूरी बनी ही, साथ ही उसकी उसके पुरखों की भांति अपनी कोई विचारधारा अभी तक उभर कर नहीं आ पा रही है| यह पहलु भी बहुत सीरियस है|

दूसरा जाट को कैसे सॉफ्ट-टारगेट बनाया जा रहा है:

मोटे तौर पर देखा जाए तो जाट के दलित या ओबीसी के साथ सभी प्रकार के जितने भी झगड़े-लफड़े-कलह आदि होती हैं उनमें 95% कारोबारी मसलों को लेकर होती रही हैं| खेत में सीरी है तो ठीक से काम नहीं करने पर कहासुनी| दिहाड़ी पर मजदूर आया तो वक्त पर उसकी दिहाड़ी नहीं दी तो कहासुनी| सनद रहे यहाँ कोई-कोई अवैध शारीरिक संबंधों को भी वजह बताएगा, परन्तु इनमें भी 95% अवैध संबंध रजामंदी के देखे गये हैं| धक्काशाही के मिले भी तो वह वाली धक्काशाही तो नहीं ही मिलती जो दक्षिण-पूर्व भारत के मंदिरों में "देवदासी (दो टूक कहूं तो मंदिरों में पुजारियों की रखैल)", "प्रथमव्य व्रजसला कन्या-भंजन (इसमें मंदिर के पुजारी प्रथम बार व्रजसला हुई लड़की की मंदिर के गर्भगृह में सामूहिक सील-भंग करते हैं, ज्यादा जानकारी के लिए 2002 में आई "माया" फिल्म देखें)" या "विधवा आश्रमों (हरिद्वार से ले हुगली तक के गंगाघाटों के विधवा आश्रम देख आईये, नर्क को जितना बुरा बताते हैं उससे भी बुरा इन आश्रमों में विधवाओं का हाल न कहो तो कहियेगा)" में मिलती है|

अब एक गजब और देखिये, किसान यानि जमींदार जाट से ज्यादा जुल्म दलित-ओबीसी मजदूर-कारीगर को व्यापारी की फैक्ट्री-ऑफिस में झेलने को मिलते हैं| वहां वह ऐसा कभी करने को तैयार नहीं होता कि मुख्य व्यापारिक जातियों को नाम लेकर उनसे नफरत अभियान चला दे?

इनसे भी बड़ा गजब इन वर्णवाद-जातिवाद-नक्शलवाद-छुआछूत फ़ैलाने वालों का देख लीजिये| जाट के साथ तो 95% झगड़े कारोबारी हैं दलित-ओबीसी के| परन्तु इनके साथ तो 95% झगड़े-मनमुटाव, वर्णवाद-जातिवाद-नक्शलवाद-छुआछूत के हैं| परन्तु कभी नहीं देखा हरयाणा में इनके खिलाफ कभी इतना खुला बिगुल फूंके, जितना जाट पे आँखें तराये हुआ सा नजर आता है?

और दलित-ओबीसी को यह फूंक मार कौन है रहा है?

दो बातें:

एक - यह फूंक मार रहे हैं जिनको पुजार में मोनोपॉली चाहिए व् जिनको खेती को सबसे कम आवक का धंधा बनाना है; यह दो|

दूसरी - जाट का ऊपर बताये "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" व् अपनी औरतों से "जाट समाज में जेंडर इक्वलिटी व् सेंसिटीवी पर डाइलॉगिंग" करने के प्रति उदासीनता भी इस फूंक मारने के माहौल में फूंक मारने वालों को हौंसला देता है कि जाटों को अपनी ब्रांड प्रोटेक्शन तो करनी नहीं तो लगे रहो दलित-ओबीसी को इनके खिलाफ भरने-भड़काने पे| पहले तो बुड्ढी-ठेरी यह जानकारियां पास कर दिया करती थी परन्तु आजकल जब 24 घंटे टीवी के डब्बे ही जानकारी का मुख्य स्त्रोत हों और उनमें भी फंड-पाखंड का कल्चर जितना चाहे उतना ढूंढ लो, उतना परोसा जा रहा हो तो जाट औरतों को जाट कल्चर से जोड़े कौन रखेगा? उसके प्रति जागरूक कौन रखेगा? जाहिर सी बात है जाट समाज के पुरुष|

और यह सब किसलिए हो रहा है, उसकी एक तो मुख्य वजह पुजार वालों को पुजार में मोनोपोली बता ही दी, इसलिए| दूसरा कृषि को लूट के खाना है| तीसरा जाट को आधुनिक जमाने का अछूत बनाना है| हालाँकि धन-दौलत से तो अछूत नहीं बना पाएंगे, परन्तु सोच से दीनहीन बनाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है|

जो जाट या नॉन-जाट चाहता हो कि हरयाणा व् वेस्ट यूपी रुपी धन-धनाढ्यता, उदारवादी जमींदारी के कल्चर का यह डाहरा बचा रहे, वह एक्टिव हो जावें| फंडी ने जहर बहुत भर दिया है हरयाणा में| और दलित-ओबीसी को यह भान भी नहीं है कि वह इन फंडियों के बहकावे में आकर उनके और इन फंडियों के बीच सदियों से रहे जाट रुपी सुरक्षा कवच को तोड़ कर बहुत भारी भूल कर रहे हैं| जाट ना होते यहाँ तो शायद दक्षिण-पूर्व भारत वाला देवदासी कल्चर यहाँ भी होता| जाट तो किसी तरह इस बवंडर को खे जायेंगे, परन्तु जब तक दलित-ओबीसी सम्भलें तब तक शायद बहुत देर हो चुकी हो| इसलिए उठिये और जागिये व् जगाईये| इस लेख जैसे विचार लिखिए और फैलाइये| इस लेख को भी ज्यादा से ज्यादा फैलाइये| क्योंकि यूँ हाथ पर हाथ धरे बाड़ नहीं रहने वाली समाज की|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक