Wednesday, 28 April 2021

जब तक अपनी औरतों और फंडियों के बीच तार्किकता की बाड़ नहीं करोगे, फंडी को नहीं हरा सकते!

मैं इस नोट का लेखक, जाट-जमींदार है मेरा पिछोका; मेरे नानके के यहाँ "काकी भल्ले की बाह्मणी" रसोई का रोटी-टूका करने व् बर्तन-भांडा मांजने आती थी| मेरे दादा जब मेरी माँ को देखने गए थे तो इन काकी ने खाना बनाया था व् दादा ने खाना खा कर नाना को काकी के खाने की तारीफ करते हुए कहा था कि, "चौधरी, मिश्राणी खाना तो सुवाद बनावै सै"| यहाँ यह बात मैं उन काकी के खाने की तारीफ़ हेतु लिखी है व् समाज को यह बताने के लिए लिखी है कि सामाजिक-समरसता का बैलेंस मत बिगाड़ो, किन्हीं विशेषों को अति-विशेष बना के या समझ के; कोई इसको अन्यथा ना ले| और ले तो ले, सच्चाई लिखी है किसी फंडी की तरह फंड नहीं रचे| जब इतना भिग्न समाज में मच चुका है तो यह सच्चाइयां सामने लानी जरूरी हो चुकी हैं| खासकर उन घमंडी व् नखरैल लोगों के लिए जो बना के वर्णवादी व्यवस्था समाज को ऊंचे-नीचे वर्णों में बांटने को आमादा हुए फिरते हैं| इन नीचों की बेशर्मी की हद देखो कि जिनके यहाँ यह चीजें कहने को रही हैं वह इन बातों को तवज्जो नहीं देते परन्तु जिनके यहाँ कभी थी ही नहीं, जमीनें तक दानों में पाई हैं वह समाज को वर्ण-व्यवस्था समझाते हैं|

इस खून व् पिछोके का मैं, इसीलिए इनकी बकवासों से कभी प्रभावित नहीं होता| अब सुनिए दो ऐसे ही किस्से जो मेरे घर में मेरी दादी व् मेरे पिता की जिंदगी से सीखे; अपने घर के उदाहरण दे कर यह बातें इसलिए समझा रहा हूँ ताकि आपको इस लेख के शीर्षक की महत्वता समझ आए|
मैं आठवीं में पढ़ता था, तब एक बार मेरी दादी को दो बाणनी व् एक विधवा बुआ जाटणी बहका के मेरे पिता-दादा से छुपा के निडाना गाम की कोकोबगड़ी में सतसंग में ले गई थी| इसका पता लग गया मेरे पिता को| मेरे पिता ने दादी को सिर्फ एक ही बात कही थी कि, "माँ, जिनके यहाँ रात बिता के आई है; क्या उनके घरों की औरतें भी किसी गैर के घर, गैर बख्त गाती-बिगोती-मटकती हांडें सैं? जो अगर इनके घरों में इहसा ही भगवान उतर रह्या सै तो इनके मर्द म्हारे गेल क्यों ना मुंह-माथा होते; यु कुणसा मतलब सै घर की लुगाईयों के जरिये म्हारे घरों में पाड़ लगाने का? के उनके एक भी मर्द नैं नहीं कही तेरे ताहिं कि, "ए फलाने की बहु, फलाने की माँ; बेटी गैर टेम दूसरे बगड़ किहसी आई"? सुबह का वक्त था, बाबू धार काढ़ के घर देने आया था; दूध ले के आता था सुबह बाबू तो रुक्के मारया करता, "माँ, उठ लो धार काढ़ ल्याया सूं"| जिसके साथ ही मैं भी उठ जाया करता था| यूँ कहो कि बाबू का सुबह के 5 बजे के अड़गड़े का यह रुक्का मेरा मॉर्निंग-अलार्म होता था| वो दिन था और दादी का मरण-दिन, आजीवन कभी किसी सतसंगी की चौखट नहीं देखी| हालाँकि बाबू, दादी से पूरा एक महीने अनबोल रहा था, उस वक्त|
ऐसा नहीं है कि सिर्फ बेटा (यानि मेरा बाप) ही अपनी माँ के साथ इतना वोकल था| माँ (मेरी दादी) अपने बेटे पे इससे भी ज्यादा वोकल थी| दादी बताती थी कि थम छोटे हुआ करते थे, तो घर-कुनबे के ही कुछ जलकंडों ने तेरे बाप को दारु पीने की राह पर डालने की जी-तोड़ कोशिशें करी| परन्तु वह तो मैं इतनी चौकस हुआ करती थी कि थारे दादा तक बात जाने से पहले ही थारे बाप को सीधा कर देती थी| एक बार हुआ यूँ कि कुनबे के जलकंडों के यहाँ कोई सी छोरी का बटेऊ आया हुआ था और वह दारु पी रहे थे तो चुपके से तेरे बाप को भी ले गए बुला के| तेरे बाप को ले के मुझे पूर्वाभास हो जाते हैं कि जरूर किते गलत जगह गया है| रात के 8 बजे, आसुज का महीना, बाजरा पैर (खलिहान) में पड़ा तो मैंने पहले तो सीरी उधर दौड़ाया कि जा देख के आ वहां पहुंचा कि नहीं, क्योंकि जब पैर लगते थे तो तेरे बाप की सोने की ड्यूटी वहीँ की लगा करती थी, सुबह की धार-डोकी तेरा दादा देखा करता| सीरी खाली हाथ आया तो मेरा माथा ठनका, भंते में तेरे ताऊ तेलु होर के खन्दाया तो उड़ै भी ना पाया| तब मैं खुद लिकड़ी, न्यूं छटपटाती हुई ज्यूँ बिन बाछ्डू गाय हो जाया करै; उन जलकंडों के घर भी पूछी, जड़ै बिठा के दारु प्यावें थे तेरे बाप नैं; पर वें मना कर गए कि बेबे (दादी की जेठानी) उरै तो कोनी आया| तो मैं फेर पैर कानी भाजी, मखा पैर में ही पहोंच लिया हो? बाखै पै नाइयां आळे कोणे पै, तेरे बाप की अर मेरी सेटफेंट| वो चेतु आळी गली तैं लड़खड़ाता चाल्या आवै और मैं मैदान आळी सदर गाळ में| मैंने देखते ही बोल्या, "कड़ै हांडै सै तिगना (दामण) ठाएं इस गैर-टेम?" मैंने उसकी बांह पकड़ कें झिड़कते हुए कही कि, "कोए ना, क्यों छोह मान रह्या इस बात का; इन्हें राह्यं रह्या तो दुनियां ए ठा देगी इस तिगने नैं तो| और मेरे-मेरे नैं के तेरी बाहणां अर बहु के नैं भी ठावैगी|" बस इतनी सुणी थी तेरे बाप नैं अर सीधा पैर में जा कें पाछा देखा, एक शब्द और नहीं लिकड़ा मुंह तें| फेर मेरे कुणसा चैन, बेरा पाड़ कैं छोड्डी अक किन ठाईगिरा की करतूत थी| वें दारु प्यानिये तो पाछै देखे पहल्यां वो बटेऊ को ही सुनाई अच्छी-अच्छी जिसके आने की ख़ुशी में वा पार्टी हो री थी और फेर सुनाई उस जेठानी को| वो बटेऊ तो फेर जिंदगी भर स्याहमी नहीं आया मेरै| सबेरै तेरा बाप आया, पैर म्ह तैं; मेरी आँख बळें और जाड करड़ावें| अपने हाथां घी में रोटी बेल्ले में दाब कें धरया करती और आ कें मेरे पै ही मांग्या करता| इहसा जी नैं क्लेश करया था कई दिन; वें दिन सैं अर आज का दिन, कदे फेर दारु के हाथ नहीं लगाया| और यह सच भी है मेरा पिता जी दारु-स्मोकिंग, यहाँ तक कि घर पर तो चाय भी नहीं पीते|
अब नोट कीजिए: इन दोनों किस्सों को; किसी ओपरी-पराई का साया मान के, या घर में क्लेश मान के खुद घर-की-घर में हैंडल करने की बजाए मेरा बाप या मेरी दादी, फंडियों के चक्करों में पड़ते तो क्या कभी यूँ इतने प्रेरणादायक तरीके से अपने घर को सहेज पाते? बस डायलॉगिंग रखिये अपने घरों में| आपके तर्क में दम होगा तो चाहे घर में गलत कोई औरत हो या मर्द; सब लाइन पे रहेंगे| और जो उदारवादी जमींदार हो गया या इस किनशिप का हो गया; वह गृहस्थ रहते हुए भी साधू है, उसके घर रोज सतसंग है| कम्युनिकेशन गैप पैदा ना करें, अपने घर के सदस्यों से; कुछ गुबार हो भी जाए आपस में तो कुवाड़ मार के भीतर बैठ के निकाल लें|
यह फंडी कोई सौदा नहीं, चढ़ी में चाँद तक और उतरी में थारी जूतियों में| समत्व भाव निष्काम कर्मयोग के असली वारिस भी हम ही हैं; फंडी नहीं| फंडियों का आपको बौद्धिक-आर्थिक तौर पर बर्बाद व् कंगाल करने का सबसे बड़ा "modus-oprendi" होता है आपके यहाँ आपकी औरतों के जरिए सेंधमारी करना| और वह घर इनके पहले निशाने होते हैं जिन घरों में धन है और क्लेश भी है| अपने क्लेश मिटा के रखो घर-की-घर में| और किसी आध्यात्मिक विचारधारा को मानना भी है तो उसको जो आपके दान-पुण्य के बदले आपको सोशल सिक्योरिटी व् बराबरी का सम्मान दे; उन उठाईगीरों को नहीं जो आपके दिए दान से ही आप पर आपके समाज पर ही "जाट बनाम नॉन-जाट" यानि 35 बनाम 1 रचते फिरें|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 24 April 2021

सरदार चौधरी कमांडेंट हवा सिंह सांगवान जी - 21वीं सदी में खापलैंड पर सिखिज्म की लहर के प्रणेता!

खाप-खेड़ा-खेत कैलेंडर में शामिल होने लायक सबसे प्रमुख जीवित हस्ती - एक देदीप्यमान रौशनी भरे मार्ग के दिग्गज प्रणेता|
इस बार का खाप-खेड़ा-खेत कैलेंडर जब बन रहा था तो "उदारवादी जमींदारी" के परिवेश की "लिटरेचर से संबंधित जिन जिन्दा हस्तियों" का नाम आया उसमें सबसे प्रमुख नाम है "सरदार चौधरी कमांडेंट हवा सिंह सांगवान जी"| परन्तु क्योंकि कैलेंडर में जीवित हस्तियों को जगह नहीं दी जानी थी इसलिए नाम कैलेंडर में नहीं आया| आगे जिन वजहों से आप इस कैलेंडर में स्थान पाएंगे वह हैं:
1) फंडियों की पोल खोलती व् उदारवादी जमींदारों के दिमाग-पट्ट खोलती आपकी लिखी किताबें| आपकी लेखनी ने मेरी समझ दुरुस्त करी कि जैसे फसलों को आवारा जानवरों से बचाने हेतु बाड़ की जरूरत होती है, ऐसे ही नश्लों को फंडी रूपी आवारा जानवर से बचाने हेतु, इनसे नश्लों की बाड़ की जरूरत होती है| आपकी ही लिखी किताबें थी जिनसे मुझे यह समझ आई कि इस विश्व में वास्तविक शूद्र-नीच-अछूत कोई है तो वो जो खुद को वर्णवादी व्यवस्था का धोतक बोलता है| विदित रहे जो इंसान को बराबर का इंसान मानता हो वह अपना भाई, वरना तलाक्की नहीं लगता चाहे जिस वर्ण का हो|
2) आरक्षण की चिंगारी को गाम-गाम गली-गली सबसे पहले व् सबसे व्यापक स्तर पर फ़ैलाने वाली हस्ती के नाम से|
3) इक्कीसवीं सदी में सबसे पहले सिख धर्म अपना कर, समाज के लोगों को इन फंडियों को दुत्कारने की शक्ति व् प्रेरणा बनने के कारण| बेशक कोरोना के चलते आप लोगों को हरमिंदर साहिब की तरफ से कम संख्या में आने का सुझाव था व् आप लोगों ने उसको माना भी परन्तु आप लोगों के इस कदम ने एक बार फिर से समाज को सिखी की तरफ जाने का मार्ग प्रसस्त कर दिया; जिसके कि आने वाले वक्त में व्यापक नतीजे मिलने वाले हैं|
आप को हमेशा साभार याद व् आने वाले इतिहास में हम हमेशा अमर रखेंगे, यह सुनिश्चितता हम आपको देते हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Thursday, 22 April 2021

सैद्धांतिक बात कहूंगा - पिछले हफ्ते जिस नेता ने मोदी को किसानों के लिए खत लिखा था!

उनको यह वैश्विक सत्यता दरकिनार नहीं करनी चाहिए कि, "किसी के गहणे धरा इंसान, कदे मालिकों के फैसले ना करवाया करता, कि वो आपको इतनी तवज्जो देगा कि आपके लिखे खतों के अनुसार व् समय रहते एक्शन लेगा| और आपने तो ऐसा राजा गले डाल लिया कि ताउम्र उसकी चौखट पे क़ुरबानी-पे-क़ुरबानी भी चढ़ाते रहोगे तो भी उसकी नजरों में इस लायक तक नहीं बन पाओगे कि क़यामत के वक्त वह तुम्हारे जनाजे पर "नजर-ए-मेहरबानी" तक फरमाने भी झांक जाए|

अर्थात कहीं बहम में मत रहना कि सरकार बचवा दी तो यह आपका कोई बड़ा अहसान मान रहे होंगे; आप तो छोटी सी कुर्सी पे हो; आपके तो पड़दादा को "डिप्टी पीएम" की कुर्सी से ऐसा नेस्तोनाबूत किया था इन्होनें कि पड़दादा जी को उसके बाद बोहड़ के संसद में भी राजयसभा के रास्ते चढ़ना पड़ा था| सच्चाई कड़वी है, आपके इर्दगिर्द वाले बताएंगे नहीं परन्तु हम अपना मानते हैं आज भी कहीं-ना-कहीं तो अंतर्नाद रोता है आपकी "कैद में है बुलबुल" टाइप हालत देख के| आपके पड़दादे के साथ क्या करी थी इन्होनें यह देख के भी इनके साथी हुए जाते हो, और तो और पड़दादा को "नेचुरल संघी" तक बता जाते हो? जबकि इनके किये उस धोखे के अक्स उस अलाही इंसान के चेहरे पर ताउम्र यूँ झलकते रहे जैसे "ठाड्डा हुलिया किसान के पैर नैं उड़ा दिया करै"| इस नोट के शब्दों से ज्यादा इस बात के मर्म को समझना|
थारी एक ही सूरत है अपना भविष्य बचाए रखने की कि बाहर आ जाओ इस सरकार से अब भी| किसान-मजदूर इतना गुस्सा जरूर रखेंगे कि 2024 में शायद थमनें ना हेजैं परन्तु 2029 में बोहड़ आओ इस लायक जरूर रह जाओगे; नहीं तो 2039 तक भी बोहड़ना ना बने| भूलें कोनी, अरड अणखी किसान सैं हरयाणा के, देखा नहीं 2019 में इनपे "फरवरी 2016 का 35 बनाम 1" करने वाले व् उनके साथ जा खड़े होने वाले कैसे चुन-चुन के हराए थे? सबसे बड़ा उदाहरण सीम-के-सीम लगती सफीदों-जुलाना का देख लो, सफीदों दी कांग्रेस को और जुलाना आपको सिर्फ इसलिए कि बीजेपी वाला हराना था| लहर थारी 2019 में ही ना थी, वरना होती तो सफीदों भी जीतते| और बीजेपी को हराने के चक्कर में इन्होनें तुम्हें जितवा दी नारनौंद तक, नहीं तो जिह्सा थमनें उड़ै कैंडिडेट दिया था, वो ताउम्र जीत नहीं सकै था वहां से| न्यूं भी मत ना मानियो कि नारनौंद से कैप्टेन अभिमन्यु थमनें हराया, ना फरवरी 2016 का गुस्सा ही इतना था कि बीजेपी उड़ै किसी और को भी खड़ा करती तो उसको भी ऐसी ही पटखनी मिलनी थी; कटबाढ़े हराए थे सारे; बस खटटर-विज बचगे क्यूकरे; विज तो कांग्रेस की इंटरनल पॉलिटिक्स के चलते बच गया वरना मिल जाती चौधरी निर्मल सिंह या उनकी बेटी को वहां से टिकट, विज तो बिठा दिया था पढ़न बाकियां के गैल ही, ज्युकर रोहतकिया बिठाया| फेर कैप्टेन पर तो डबल-डबल गुस्सा था एक बीजेपी से होने का, दूसरा उनका अपने कौमी बच्चों के प्रति तब तक के रूख का|
थारे चक्कर में 10 नहीं बल्कि 20 सीट खराब गई थी, जो थारी एब्सेंस में जानी ऐसी साइड थी कि बीजेपी की सरकार कम-से-कम रिपीट ना होती किसी भी सूरत से| और अब तो आप जितनी देरी करते जा रहे हो, किसान बीजेपी से भी डबल गुस्से पे आपको धरते जा रहे हैं| और इनके गुस्से का सैंपल 2019 में देख ही चुके हो| आखिर डरते किस बात से हो? संशय किस बात का है? मार के ठोकर बाहर क्यों नहीं आ जाते? इस कौम के भूल ना पड़ा करती; कहावत है इसपे कि, "ये किसी का घाल्या न्योंदा उधारा नहीं राख्या करते" फिर चाहे उल्टा नयोंदने में देर कितनी ही हो जावे| इन्नें तो बख्शें नहीं किसी सूरत में, फरवरी 2016 बहुत भारी हो के गुजरेगा इस जमात पे, चाहे गुजरियों कितना ही वक्त ले के| आ जाओ वक्त रहते बाहर, वही बात 2024 की तो कहता नहीं परन्तु 2029 में लोग थमनें फिर तैं सुन लेंगे इस लायक रह जाओगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 17 April 2021

समाज के इतिहासकारों से अनुरोध!

हमारे आध्यात्म व् कल्चर में किसी भी कार्यक्रम का आगाज व् समापन "बोल नगर खेड़े की जय" उद्घोष से होता आया है और युगों-युगों से होता आया है| सिंधु सभ्यता व् हड़प्पा सभ्यता हमारी रही है के पर्याप्त सबूत मिलते हैं आर्कियोलॉजिकल भी व् लिखित भी[ सिंधु व् हड़प्पा खुदाई की साइट्स पर बसासत के लेआउट हमारे पुरखों की अद्भुत नगर-गाम बसाने की कला की धाती हैं| कुछ लोग इनको आज वाले शहरियों मात्र की सिद्ध करने पर लगे हुए हैं जो कि वह बहुत भयंकर भूल कर रहे हैं|

हमारे समाज का इतिहास लिखने वाली शुरूआती खेप के लेखकों ने एक बहुत बड़ी गलती पहले ही कर रखी है कि इनकी लेखनी में हर दूसरा लेखक हमारे इतिहास को ले-दे-के अंत में घुमा-फिरा के माइथोलॉजी में घुसाए मिलता है; जिसको अब रेक्टिफाई करने का हमें एक्स्ट्रा काम करना पड़ रहा है| और इस गलती का मैं खुद भुगतभोगी भी रहा हूँ, मेरे लेखन के शुरुवाती सालों में; क्योंकि अपनों ने लिखा है तो सच ही लिखा होगा का प्रभाव उतरते-उतरते व् गलती अपनों से भी हो सकती है लेखन में, यह समझ थोड़ी देर से बनी|
आप इस आज की खेप वाले लेखक इस बात पर तो
बधाई
के पात्र हैं कि आपने माइथोलॉजी की लाइन से हट के वास्तविक इतिहास लिखने की राही पकड़ी परन्तु इस "नगर" शब्द को ले कर आप भी पहली खेप जैसी ऐसी भूलें कर रहे हो जो शायद हमें रेक्टिफाई करनी या करवानी ना पड़ जाएँ| कृपया इससे बचें| आज की पीढ़ी अपने इतिहास में मिलावट के प्रति फंडियों से भी ज्यादा सतर्क है| यह वक्त की कमी के चलते आप जितना समर्पित वक्त तो हर वक्त नहीं दे सकते होंगे, परन्तु जब भी इन चीजों पर बैठते हैं तो इतनी बारीकी से पढ़ते हैं कि पढ़ाई से पहले एनालिसिस निकाल लेते हैं कि कुणसी खूंट में लिख-बोल गया फलाना लेखक|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 15 April 2021

कोई गरीब-गुरबा घर-संसारी मर्द-औरत इस लामणी के सीजन थारे खलिहान आ जावे तो खाली झोली मत जाने देना!

कोई गरीब-गुरबा घर-संसारी मर्द-औरत, इस लामनी के सीजन आपके खेत में गेहूं कटाई के बाद खाली पड़े खेत से "बालें" चुगने आवे तो उसको दुत्कारना मत, चाहे वो किसी जाति-बिरादरी का हो| मैंने कोई फुल-टाइम खेती तो नहीं की जिंदगी में परन्तु स्टूडेंट-लाइफ में हर सीजन की छुट्टियां खेतों में काम करते हुए ही कटती थी| आठवीं क्लास से ले फ्रांस आने तक गेहूं निकालते वक्त ट्रेक्टर पर अक्सर ड्यूटी हम तीनों भाईयों में से ही कोई से की लगती थी| दोनों भाईयों की ड्यूटी होती तब तो ऐसा होता ही था परन्तु जिस दिन मेरी ड्यूटी लगती थी तो ख़ास निशानी होती थी खलिहान में आ "अनाज का झलकारा लगवाने वालों" को कि आज तो "फत्तन का बीचला पोता सै कढ़ाई पै", चालो|

वैसे उस दौरान जितने भी म्हारे सीरी रहे सारे ही ख़ास थे मेरे लिए, परन्तु दादा भूंडू चमार मेरे लिए ऐसी बातें लाने की CID था और मेरे पैर में आते ही कहता था कि देख इब लैन लाग जागी| कोई बोर मारने या घमंड की बात नहीं कह रहा परन्तु अगले एक तसला मांगते थे अनाज का तो दो डालता था| परन्तु जो आ जाता कोई फलहरी-फंडी परजीवी तो उसके पीछे तो लठ ले ऐसा पड़ता था कि जैसे खड़ी फसल में आवारा जानवर आन घुसा हो|
दान दो वहां जहाँ से दुआ मिले (सुपात्र को), वहां नहीं जो हरामी (कुपात्र) उसी दान दिए अनाज-धन से शारीरिक-मानसिक व् आर्थिक ताकत पा आप पर ही 35 बनाम 1 रचें| बहम में मत रहियो कि फरवरी 2016 तुमपे किसी मुसलमान या आसमानी ताकत ने किया था, नहीं; इन्हीं उठाईगिरे फंडियों की कारस्तानियां थी सारी| समाज में अगर कोई वास्तव में शूद्र-अछूत-नीच समझे जाने लायक हैं तो ये फंडी-फलहरी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 13 April 2021

किसान जरा सरकार की 'फसलों की पेमेंट उनके खातों में सीधी डालने' की क्षणिक ख़ुशी देने वाली काईयां चाल को समझें!

अडानी-अम्बानी जैसे हर छोटे से ले बड़े व्यापारी के सर पर लगभग हर वक्त इतना कर्जा व् लोन होते हैं कि अगर बैंक इनके कंपनी खातों से यह कर्जे अगली पेमेंट पड़ते ही सीधे काटने लग जाएँ तो इनके अपने कर्मचारियों को तनख्वाह देने को इनमें से किसी विरले के पास पैसे ही बचें और यह रोड पर आ जाएँ| इनके मामले में कानून यह है कि इनकी मर्जी जाने बिना बैंक इनके खातों से पैसे नहीं काट सकते|

"किसान आंदोलन" की काट ढूंढने के चक्कर में व् अभी तक सरकार की काईयां चालों से अनिभज्ञ किसानों को कुछ विशेष ख़ुशी देने की ट्रिक अपनाते हुए सरकार ने किसान की मर्जी जाने बिना, इस सीजन से बेची गई फसलों के पैसे सीधे किसानों के बैंक खातों में डालने शुरू किये हैं, वह भी जैसे व्यापारी की मर्जी के बिना उनके खाते से बैंक पैसा नहीं काट सकता, ऐसी कोई सुविधा या कानून हुए बिना| और क्योंकि व्यापारियों की ही भांति हर दूसरा किसान बैंकों का कर्जदार है तो फसलों की पेमेंट सीधी खातों में आने का नतीजा यह हो रहा है कि खाते में पैसे आते ही बैंक अपनी किस्तें/कर्जे काट ले रहे हैं| इसका नतीजा यह हो रहा है कि किसानों को सीधा पैसा मिलने की ख़ुशी दिन-के-दिन उसी वक्त फुर्र हो जाती है जब उनको मेसेज आता है कि बैंक ने लोन के इतने पैसे काट लिए|
बहुत किसानों की ऐसी शिकायतें आनी भी शुरू हो चुकी हैं| कोई किसान इसको आढ़तियों से जोड़ के देखे तो वह इतना जान ले कि आढ़ती को उसका सर्विस कमीशन ज्यों-का-त्यों जा रहा है| बस इतना फर्क पड़ा है कि बैंक की बजाए किसान को पैसे आढ़ती के जरिए मिलते तो वह अपने घर के पहले से मुंह-बाए खर्चे निबटा लेता| अब उनसे भी गया| तो सरकार की यह काईयां एप्रोच आढ़तियों का कुछ नुकसान नहीं करेगी, मारे किसान जाएंगे|
अभी गुरनाम चढूनी जी की एक किसान के साथ यह ( https://www.youtube.com/watch?v=j4hc-tpECM0) वीडियो देख रहा था कि कैसे बैंक में डलते ही बैंक ने 24000 रूपये एक किसान के खाते से झट से काट लिए बिना उसकी आज्ञा लिए|
इसलिए जरा सम्भल के व् सरकार को यह आह्वान कीजिए कि या तो बैंक व्यापारियों की भांति हमारी भी मर्जी जाने बिना पैसा ना काटें अन्यथा हमें कैश दिया जाए| आपके साथ भी ऐसा हो तो सयुंक्त किसान मोर्चा को भी अवगत करवाएं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 12 April 2021

धर्म वह जो आपके काबू का हो, वह नहीं जिसके आप काबू हो जाएँ!

ईसाईयत में 4 त्यौहार खेती से संबंधित मनाए जाते हैं|

सिखी का हर दूसरा त्यौहार खेती से संबंधित होता है|
परन्तु ग्रेटर हरयाणा वालों में कितनों को पता है कि आज 'मेख का त्यौहार है'? मेख यानि बैशाखी का हरयाणवी वर्जन; सिर्फ शब्द का फर्क बाकी कांसेप्ट 100% वही|
गलती किसकी? तीज-त्यौहार मनवाने व् लोगों के जेहन में तरो-ताजा रखने की जिम्मेदारी किसकी? क्या धर्म की नहीं?
अत: स्पष्ट है कि धर्म अंधे हो कर फॉलो करने की चीज नहीं होती अपितु इनका पाळी बन इनको हाँकने की भी ठीक वैसी ही जरूरत होती है जैसे गाय/भैंसों को एक पाळी हांका करता है| तो इस धर्म रुपी गाय/भैंस को हाँको, ना कि इसके द्वारा हाँके जाओ|
भूलो मत तुम उन पुरखों की औलादें हो जिनके बारे कहा गया है कि, "जाट, रोटी भी खिलाएगा तो गले में रस्सा डाल के"; यह रस्सा डला रहना चाहिए इनके गले में अन्यथा यही रस्सा यह तुम्हारे गले में डाल देंगे; और आजकल इनकी यह कोशिश पुरजोर पर है, देख भी रहे होंगे|
वह धर्म किसी काम का नहीं जो तुम्हें sociocultural-economical रूप से कोई लाभ नहीं करवा सकता हो| यह तुम्हें दिन-रात रुक्के मार-मार कभी वेस्ट से कभी मुस्लिमों से तो कभी तुम्हारे ही भीतर 35 बनाम 1 में आइसोलेट तो बड़े कर देते हैं; तुम्हारे यह वास्तविकता आधारित त्यौहार क्यों नहीं याद रखवाते, आगे बढ़वाते?
इंटरेस्ट लो इन बातों में, अगर नहीं चाहते कि दुनिया तुम्हें 'कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर ............" की खिल्ली उड़ाए तुम्हारी|
इंटरनेशनल जाट दिवस, बैशाखी, मेख, विक्रमी संम्वत, खालसा स्थापना दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं!
व् सबसे जरूरी जलियांवाला कांड की बरसी पर सभी शहीदों को नमन/प्रणाम!
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मुझे यह लाइन सबसे वाहियात लगती है कि, "दुनिया में क्या ले के आए, और क्या ले के जाना"?

ऐसे बदबुद्धियों को बताया करो कि, "माँ-बाप-खानदान-जाति-कौम-धर्म-देश" का नाम व् रूतबा ले के आया/आई" व् जाते वक्त "अपने कर्मों के जरिये कमाए अच्छे-बुरे नाम-रुतबे-बुलंदी ले के जाऊंगा/जाउंगी"| ऐसी बुलंदियां जो सिर्फ मेरे नाम से रहती दुनिया तक जानी जाएँगी, चाहे वो देशभक्ति के जरिये कमाऊं, धन/व्यापार जोड़ के कमाऊं, डॉन बन के कमाऊं या समाज सुधारक बन के कमाऊं|


और यह जवाब दे के, ऐसे प्रवचन देने वाले कथानक के पे मुंह पे रैह्पटा मारा करो तसल्ली का और बांह पकड़ के चलता करा करो ऐसे हरामी परजीवियों को| ऐसे वाहियात प्रवचन करने वाले, सारी प्रेरणा मार देते हैं खुल के जीने व् कमाने की|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 30 March 2021

21 अप्रैल को सिख धर्म में जा रहे एक जाट व् एक फंडी का वार्तालाप!

फंडी (अपना प्रतीकात्मक घड़ियाली अटूट प्रेम दिखाते हुए): जजमान, थम हमनें छोड़ जाओगे तो हम तो भूखे मर जाएंगे?

जाट: हमारे पुरखों ने तुमको खाने-कमाने को दान में जो धौळी की जमीनें दी थी, हम कौनसी वह वापिस ले जा रहे हैं? उनसे कमाते-खाते रहो|
फंडी: नहीं, नहीं जजमान; फिर भी हमनें थारी जरूरत सै?
जाट: म्हारे ऊपर 35 बनाम 1 रचवाने को या तुम्हारे बनाए वर्णवाद से प्रताड़ित दलित को उसकी प्रताड़ना का दोषी हमें बताने को? यानि हमें समाज का विलेन दिखा के खुद समाज का स्याणा बने रहने को?
फंडी: नहीं, नहीं?
जाट: तो और क्या हमारी वोटें ले के राजनैतिक व् प्रसाशनिक सत्ता अपने कब्जे में बनाये रखने हेतु जाट की जरूरत है तुम्हें?
फंडी (मन-मन में; कहवै तो सुसरा ठीक सै, और नहीं तो हमने के अचार घालणा इनका): नहीं, नहीं जजमान; अपने हिन्दू धर्म के अस्तित्व के लिए|
जाट: थम ही तो कहा करो कि सिखी भी हिन्दू धर्म का ही हिस्सा है? अपितु यह तक कहते हो कि सिखी तो हिन्दू धर्म की सस्त्र सेना है?
फंडी: अरे नहीं, वो तो हम सिखों का मनोबल नीचे रखने को फैलाते रहते हैं|
जाट: तो जाट का मनोबल नीचे रखने को क्या-क्या फैलाते हो?
फंडी: तुम सीखी में जाओगे तो खालिस्तान को बढ़ावा मिलेगा|
जाट: किसने उठाया खालिस्तान का मुद्दा? संत भिंडरावाला ने उठाया कभी? दिखा सकते हो कोई रिकॉर्ड?
फंडी: नहीं, वह तो दशम गुरुवों के बराबर की पवित्र आत्मा थे; वह तो सत्ता का विकेन्द्रीकरण मात्र चाहते थे जैसे USA व् यूरोप के देशों की तरह|
जाट: तो फिर किसने उछाला खालिस्तान?
फंडी: हमारे ही एजेंट हैं, एक पाकिस्तान में चावला है व् एक अमेरिका में अरोड़ा है| जनता में खामखा की भड़क व् भय बिठाये रखने को ऐसे फ्रंट्स हम ही खड़े किया करते हैं|
जाट: यानि तुमको फंडी खामखा ही नहीं कहा गया है?
फंडी: खुद की धर्म व् राष्ट्र रक्षा हेतु करना पड़ता है|
जाट: इसमें कौनसी धर्म व् राष्ट्र रक्षा होती है?
फंडी: वो देखो मलोट, पंजाब में हिन्दू एमएलए पीट दिया? हम यूँ बिखरे तो कल को हम भी पिटेंगे|
जाट: उस मामले की FIR में पहला नाम किसी शर्मा का है, यह कैसे सम्भव हुआ? और बिखरने की चिंता करने वाले तुम कब से हुए; जो सिस्टम ही बिखराव व् अलगाववाद से चलाते हो?
फंडी: हम कैसा अलगाववाद करते हैं? बल्कि हम तो हिन्दुओं को एक रखने को बड़े-बड़े अभियान चलाते हैं| हिन्दू एकता व् बराबरी के नारे लगाते हैं|
जाट: और फिर नारे लगा के उन्हीं हिन्दुओं को वर्णवाद व् छूत-अछूत, शूद्र-दलित-स्वर्ण में बाँट देते हो?
फंडी: नहीं वह तो कर्म आधारित व्यवस्था है? जैसा जिसका कर्म वैसा उसका वर्ण|
जाट: अच्छा इतना सिंपल है तो बताओ तुम्हारा "कर्म के आधार पर वर्ण" के सर्टिफिकेट बांटनें वाला दफ्तर कहाँ है? मैं एक IAS अफसर हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ, खाली वक्त में टीचिंग भी कर लेता हूँ तो मुझे दिलाओ "ब्राह्मण होने का सर्टिफिकेट"| व् मेरी रिस्तेदारी में एक कजन है मेरा, वह ऑटो-रिक्शा चलाता है उसको दिलाओ "शूद्र" का सर्टिफिकेट?
फंडी: क्या मजाक करते हो जजमान, यह सब तो कहने की बातें होती हैं?
जाट: तो फिर धर्म क्या है तुम्हारे लिए, अगर यही सब कहने मात्र की बातें हैं तो?
फंडी: मतलब थम मानो कोनी?
जाट: तुम हमें मनाना ही क्यों चाहते हो? कोई और तर्क व् वजह? अभी तक जो वजहें दी, वह तो तुम्हारे आगे नंगी कर दी|
फंडी, चुप|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 28 March 2021

भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का!

भाभियों बिना क्या रंग-चा फाग का,

भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी जो हमारे घर की मूरत है,
घर हमारे की उनसे जन्नत सूरत है|
कोरड़े तो बेचारी से जैसे लगते ही नहीं,
हाथ ऐसे मुड़ते हैं जैसे चलते ही नहीं||
पर इसके पीछे ध्यान देवर का, ज्यूं बेटा भाग का,
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी होती थी खुंखार बड़ी,
फागण आते ही हो जाती विकराल बड़ी!
ले कोरड़ा हाथ, क्या खाल उतारती थी,
छंट जाते सब पानी ज्यूँ, जब ललकारती थी||
ना हुआ कोई सामी, जो उसके आगे टाड ग्या|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी तो थी इतनी मसीह,
उससे ना देवर का दुःख जा सही|
कोरड़े तक भी ऐसे सालती थी,
देवर की खाल नहीं, आरती उतारती थी||
मुलायम देखा दिल बहुत, पर उस भाभी से टाळ का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी कहने को गाँव तिहाड़ की थी,
पर उसके कोरड़ों में मार से ज्यादा बाड़ सी थी|
सबसे बड़ी भाभी वो मेरे घर-परिवार की थी,
उसके कोरडों की मार भी पुचकार सी थी||
वो समां मुड़ आ जाए, बचपना स्वांग का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी अजायब वाली, धमकते सूरज सी छवि निराली,
पूरा फागण कोरड़ा संग रखती, घर-कुआँ या खेत-खलिहानी|
खो गया वो बचपन सारा, पहन दामण पुरुषों की रेल बनानी,
फुल्ले भगत तड़पत है, हुई बंद शीशों में जिंदगानी||
भाभियों को सलाम पहुंचे, लिल्ल बैठे इस ढाक का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
भाभियों बिना क्या त्यौहार फाग का,
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
लेखक: फूल मलिक

Saturday, 27 March 2021

हमारा कल्चर नहीं कि हम किसी लुगाई को आग में जला के उसके इर्दगिर्द "झींगा ला-ला हुर्र-हुर्र" करें!

फिर भले वह लुगाई अच्छी थी या बुरी थी| अगर वह हकीकत में थी भी तो आप कौन होते हो उसको आए साल जलाने वाले? मर ली, मरा ली; हो ली, जा ली| जंगली-वहशी हो आप जो ऐसे करते हो?

होळ-होळा-फाग मनाइए, किसी लुगाई को जला के नहीं अपितु आपके पुरखों (उदारवादी जमींदार) की भांति आपके खेतों में पकने को आई चणे की फसल के कच्चे दानों को आग में भून के बनने वाले "होळ" खा के, रंग-गुलाल-मिटटी-गारा (कीचड़ नहीं) लगा के; भाभियों संग फाग खेल के|

खामखा, देखो फंडियों की कुबुद्धि व् आपकी गैर-जिम्मेदारी ने एक अच्छे-खासे त्यौहार का क्या कुरूप बना दिया है| कहाँ पुरखे आग में होळ भून के खाते थे और कहाँ आप लुगाई भूनने लगे? तीज-त्यौहार-मान-मान्यता के नाम पर इससे पहले कि बिल्कुल ही वहशी जानवर बना दिए जाओ या बन जाओ; सम्भालो अपने पुरखों के तर्क व् मानवता से भरी "Kinship" को|

बताओ जिनकी खाप पंचायतों ने आज तक किसी को हत्या की सजा नहीं सुनाई; उनकी औलादें औरतों को आग में जलाने को त्यौहार मान बैठी हैं| Have self-check!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 26 March 2021

आज अहमदाबाद, गुजरात में किसान नेता चौधरी युद्धवीर सिंह जी को मात्र प्रेस-कांफ्रेंस करते हुए ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया!

राजनैतिक तौर की बजाए धार्मिक थ्योरियों व् सोशल इंजीनियरिंग मॉडल्स के हिसाब से जब तक समस्याएं पकड़नी शुरू नहीं की जाएंगी, राह नहीं मिलेंगी|

आप-हम एक ऐसे देश के वासी हैं जहाँ धर्म को जो "इस हाथ ले और उस हाथ दे" नीति से चलाते हैं, वही राज करते हैं| और जो ऊलंढों की तरह खालिस भावना के आधार पे सिर्फ "दे ही दे" के सिद्धांत पे धर्म पोषित करते हैं, वही 35 बनाम 1 से ले शुद्रपणा, नीचपणा सब झेलते हैं|
सीधे-सीधे समझ आती हो तो सीधे समझ लो, नहीं तो लुट-पिट-छित के समझोगे परन्तु तब तक इतनी देर हो चुकी होगी कि बंधुआ बने रहने में ही भलाई समझोगे| और उस वक्त तक मानसिक तौर पर इतने टूट चुके होंगे कि पछताने को भी अपनी तौहीन समझोगे|
इंडिया में दो तरीके के धर्म व् सोशल इंजीनियरिंग हैं:
एक जो कोरी सामंती विचारधारा पोषित करते हैं: फंडी पोषित तमाम धार्मिक व् सोशल इंजीनियरिंग मॉडल्स|
एक जो उदारवादी विचारधारा पोषित करते हैं: सिख, बुद्ध, ईसाई, इस्लाम, दादा नगर खेड़ा/भैया/भूमिया/जठेरा आध्यात्म (जिसके मूल-सिद्धांत मूर्तिपूजा नहीं करने पर आर्य-समाज स्थापित है) व् सर्वखाप सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम|
अब लगा लो अंदाजा, किसान आंदोलन के इतने पीक पर होने पर भी, किसान आंदोलन के चोटी के नेताओं में एक चौधरी युद्धवीर सिंह जी को जिस राज्य में गिरफ्तार किया गया है; वहां सामंती प्रभाव ज्यादा हैैं या उदारवादी?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 24 March 2021

सांड व् झोटे (भैंसा) की शालीनता व् चेतना में जमीन-आसमान का फर्क देखिए!

लेख का निचोड़: आप कितने introvert हो या extrovert यह शायद इस पर भी निर्भर करता है कि आप किस जानवर का दूध पीते हो|

हरयाणवी में एक कहावत है, "गा का पिछोका, गोक्का देखे ना मसोहक्का"| सारा निचोड़ इसी में है| गा यानि गाय, पिछोका यानि वंश, मसोहक्का यानि भैंस का जाया हुआ (पैदा किया हुआ) भैंसा व् गोक्का यानि गाय का जाया हुआ सांड| हालाँकि बहुत से लोग इस कहावत को इस तरह भी कहते हैं कि "गोरखनाथ का पिछोका, गोक्का देखे ना मसोहक्का", जो कि मुझे नाथ परम्परा को बदनाम करने को जोड़ी गई ज्यादा प्रतीत होती है|
इस कहावत की व्याख्या कहती है कि जब सांड को कामान्धता चढ़ती है तो वह ना गाय देखता है और ना भैंस; जो सामने दिखी उसी से मेटिंग कर लेता है| जबकि झोटा यानि भैंसा कितना ही कामुक हो रखा हो, परन्तु इतने होशो-हवास में हमेशा होता है कि सम्भोग के लिए सिर्फ भैंस पर ही जाएगा; चाहे 70 गाय इर्दगिर्द खड़ी हों| और यही कामांधता सबसे बड़ी वजह रही है सांड को हल का बैल बनाने के लिए उसकी सहवास नलिका बींध के उसको उन्ना बनाने की, क्योंकि बिना उन्ना किये उसको हल में जोतोगे और उसको कामुकता चढ़ आये तो वह बेकाबू हो इतना कूदता है कि हल की फाळी अपने पैरों में खा बैठता है| जबकि झोटे को आप चाहे बुग्गी में जोड़ो या हल में, उसको पता होता है कि कब काम करना है और कब मस्ती| हालाँकि बैल को उन्ना करने के पीछे वजह यह भी दी जाती है कि इससे वह लम्बे समय तक हल जोतने के लायक रहता है|
एक फर्क और जानिए: गाय के बच्छड़े व् सांड इतने introvert होते हैं कि या तो जोहड़ों-गोरों पर एक-एक झुण्ड में 10-10 बैठे रहेंगे परन्तु लड़ेंगे नहीं, परन्तु जब लड़ेंगे तो इतने भयंकर कि छुड़वाने मुश्किल हो जाते हैं| एक बार दुश्मनी ठहर गई तो बाद में कुदरती आमना-सामना हो गया तो फिर लड़ लेंगे परन्तु ना सीम बांटते (यानि एरिया) और ना ही पैड (पदचाप) सूंघ ढूंढेंगे| जबकि झोटे यानि भैंसे स्वभाव से extrovert व् introvert दोनों ही होते हैं| यानि झुण्ड में 2 नहीं खटाएंगे, जैसे भाई-लोग बैठते ही चियर्स करने लग जाते हैं, यह भिड़ना शुरू कर देते हैं; परन्तु छुड़वाने पर अलग-अलग भी हो जाते हैं| यह तो है इनका extrovert यानि hi-hello वाला hangout स्वभाव| अब इनका introvert भी समझिये| हल्के-फुल्के सींग भांजते इनकी अगर तगड़ी ठन गई तो फिर समझो आजीवन की ठन गई| और सरकारी छोड़े हुए गामी झोटे हुए तो इस स्तर तक ठनती है कि गाम की बसासत से ले खेतों में घूमने-फिरने के दायरे तक बंट जाते हैं, सीमाएं खींच लेते हैं; कि यह तेरी सीम व् यह मेरी| एक ने अगर दूसरे के देखते हुए दूसरे की सीमा में पैर भी रखा तो रात-रात भर झोटों की खैड़ बजती हैं| और इतनी तगड़ी बजती हैं कि रात के सन्नाटों में तो किलोमीटरों दूर तक सुनती हैं| किसी बुग्गी वाले यानि घरेलू झोटे से बैर बंध जाए तो उसके घर की ऐसी निशानदेही करते हैं कि या तो मालिक को बुग्गी वाला झोटा बेच के दूसरा बदलना पड़ता है या किवाड़ों की जोड़ी बदलवाने पे लगे रहो क्योंकि बैर-बिसाहा गामी झोटा बार-बार आपके झोटे की पैड सूंघता आपके घर-घेर तक आ, आपके किवाड़-दरवाजे तोड़ेगा ही तोड़ेगा और तोड़ता रहेगा जब तक आप बुग्गी वाले को बेच नया नहीं बदल लोगे|
अगर दूध नाम की कोई चीज है जिससे इंसान का चरित्र प्रभावित होता है तो फर्क सामने है|
गाय के दूध के कुछ गुण भी सुन लीजिये: बड़े बूढ़ों की ऑब्जरवेशन कहती है कि, "गर्म करने पर ऊँटनी के दूध पर भैंस के दूध से तीन से चार गुना ज्यादा मलाई आती हैं, भैंस के दूध पर गाय के दूध से तीन से चार गुना ज्यादा मलाई आती है"| यानि FAT के मामले में भैंस का दूध गाय के दूध से 3-4 गुना गाढ़ा होता है| इसीलिए जब कभी छोटे दुधमुँहें बच्चों को माँ के ना होने या माँ में कम दूध होने के चलते उनको बाहरी दूध पिलाना पड़ता है तो गाय का रिकमेंड किया जाता है अन्यथा भैंस का पिलाना पड़े तो उसमें चार गुना ज्यादा पानी डाल के पिलाना होता है| गाय के घी के कुछ बेहतर गुण बताये जाते हैं जो कुछ ख़ास बिमारियों के इलाज में सार्थक होते हैं व् ऐसे ही भैंस के घी के भी अपने ख़ास गुण होते हैं जो कुछ ख़ास बिमारियों के इलाज में सार्थक होते हैं|
फंडियों का दुष्प्रचार: अब सितम एक यह भी देखिए कि फंडियों ने एक जानवर यानि गाय को माता ठहराए रखने हेतु दूसरे की यानि भैंस की बदनामी कैसे फैलाई? "भैंस के आगे बीन बजाना" जैसी कहावतें बना के| जबकि भैंस नार्थ-वेस्ट इंडिया का "ब्लैक-गोल्ड" कहलाती है, व् ऊपर लिखित comparative analysis को देखो तो भैंस, गाय से 20 ही बेशक पड़ती हो 19 नहीं| इसलिए गाय की भी जय बोलिये और भैंस बारे भी बोलिये कि, "जय काळी हरयाणे आळी; दूध के बाल्लट, बाळकां म्ह हांगा भरने आळी"| गाय के दूध व् स्वभाव में भी बहुत गुण होते हैं परन्तु किसी बात को ले के समाज में अतिश्योक्ति स्थापित करना मूढ़ता है, पाखंड है; यह बात समझिए व् इन फंडियों को समझाइए|
आह्वान: कोई तथाकथित ज्ञानी-ध्यानी-ब्रह्मज्ञानी इन तथ्यों पर बहस करना चाहता हो तो स्वागत है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक