Monday, 18 April 2022

फंडियों के लिए कहीं मात्र टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनकर तो नहीं रह गए हो सोशल मीडिया पर?

मात्र फंडियों की हरकतों पर टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनकर कमेंट करने तक मत सिमटिये| इनको इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता बल्कि इस फीडबैक से यह अपना आगे का रास्ता निर्धारित करते हैं, जिसमें आप इनकी ही सीधा-सीधा मदद कर रहे हो| इनकी सोच व् रास्ते को कुंध करना है तो एक तो इनके बारे ऑब्जरवेशन-मोड में आ जाईए व् दूसरा वहां जुड़िए जहाँ जुड़ने से फंडियों से बाड़ बनाने के, 35 बनाम 1 की डिकोडिंग के, अपने स्पीरिचुवल, कल्चरल, इकोनॉमिकल मॉडल्स विकसित करने के कार्य हो रहे हैं| वरना अंत दिन हताशा के अंधेरों में जाओगे; जब अहसास होगा कि तुम्हारे कमैंट्स व् पोस्टों से ना तो फंडी रुका, ना ही तुम उसका अपना स्थाई समाधान खड़ा कर सके| अपनी इस ऊर्जा-वक्त-ज्ञान-संसाधन की अहमियत को इनके टीकाकार-टिप्पणीकर्ता बनने पर ज्याया ना करें| करें तो ऐसे कमेंट व् पोस्ट्स करें जो इनको कंफ्यूज करे, डिफूज करे|   


यह देश को आग लगाएंगे, नर्क में झोकेंगे तो यह तुम्हारे कहे से रुकने वाले नहीं| ऐसे में बेहतर है इन बारे इनके ही गोलवलकर की वह लाइन दोहराओ, "अंग्रेज हिंदुस्तान या हिन्दुओं के साथ क्या करते हैं, हमें इससे मतलब नहीं; हमें सिर्फ मनुवाद (हिंदुत्व के चोले में जो छिपा है स्वर्ण-शूद्र में बांटने वाला सनातनी मनुवाद) पर काम करना है"| तो आप भी अपने कल्चर-किनशिप पर फोकस बनाए रखिए व् उसको बढ़ाने पर ही अपनी फॅमिली-प्रोफेशनल लाइफ से फ्री वक्त को लगाइए| तभी 5-10 साल बाद अपनी जिंदगी से संतुष्टि फील करोगे कि उस दौर में यह नीति ही हमें बचा पाई| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Sunday, 17 April 2022

Father of Green Revolution Dr. Ramdhan Hooda!

"जिस महामानव के कारण 60 के दशक में दुनिया के 100 करोड़ लोग भूखे मरने से बचे, आओ आज उनको जानें…"

आज हम बात कर रहे हैं "हरित क्रांति" के अग्रदूत विश्व विख्यात कृषि वैज्ञानिक राव बहादुर डॉ रामधन सिंह हुड्डा जी की:-
1 मई 1891 में रोहतक जिले के किलोई गांव में साधारण किसान के घर इस असाधारण बालक ने जन्म लिया। हमारी किसान बिरादरी से शायद पहले होंगे जो लंदन कैम्ब्रिज में पढ़ने गए, प्राकृतिक विज्ञान और कृषि में PhD करने के बाद 1925 में Punjab Agriculture College & Research Institute, Layallpur में प्रिंसिपल लगे, 1947 में रिटायरमेंट तक वहीं रहकर भारत ही नहीं दुनिया के लिए गेहूं, जौ, धान, दाल, गन्ना की नई नई किस्में इज़ाद की।
गेहूं की किस्में:
Pb-518, Pb-591 (1933-34)
C-217, C-228, 250, 253, 273, 281और C-285
Canada और Mexico ने सबसे पहले इनकी गेहूं Pb-591 अपनाई और पैदावार के रिकॉर्ड बनाये।
जिस C-306 गेहूं को सबसे स्वादिष्ट माना जाता है उसे भी डॉ रामधन सिंह जी ने इज़ाद किया था।
चावल की किस्में:
Basmati-370, Jhona-349, Mushkans-7 & 41, Palman Suffaid 246 (मैदानी इलाकों के लिए)
Ram Jawain 100, Phul Patas-72 और Lal Nankand 41 (पहाड़ी इलाकों के लिए)
संसार में मशहूर बासमती चावल 370 और Jhona 349 भी डॉ रामधन जी की ही देन है।
जौ की किस्में:
T4, T5, C138, C141 और C155
दालों की किस्में:
Moong No.54, 305 और Mash Variety No.48
1961 में जब Lyallpur Agriculture College के गोल्डन जुबली समारोह में भाग लेने पहुंचे तो पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान ने डॉ रामधन सिंह जी को राष्ट्रपति गोल्ड मैडल से सम्मानित किया और वह यह सम्मान पाने वाले पहले भारतीय बने।
उनके योगदान का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हो कि जब Mexico से नोबल पुरस्कार विजेता डॉ Norman E Borlog 1963 में डॉक्टर रामधन सिंह जी से Sonipat उनके घर पर मिलने आएं और रामधन सिंह जी के पैर छू कर कहें ''आपने संसार को बेहतर किस्में देकर 100 करोड़ लोगों को भूखे मरने से बचा लिया" और खुशी से रो पड़े।
1965 में लाल बहादुर शास्त्री जी ने डॉ रामधन सिंह जी को किसी भी राज्य के Governor बनने के लिए कहा था लेकिन डॉक्टर रामधन सिंह जी ने कहा ''राज्यपाल बनने से ज्यादा भला मैं वैज्ञानिक के तौर पर कर सकता हूँ देश का'' और उन्होंने ऐसा किया भी।
17 अप्रैल 1977 को भारत के महान सपूत डॉ रामधन सिंह जी इस संसार को अलविदा कह गए लेकिन सबको जिंदा रहने के लिए अथाह अनाज भंडार दे गए।
डॉ रामधन सिंह हुड्डा जी अमर हैं… 🙏
Courtesy: Arvind Pal Dahiya





Wednesday, 13 April 2022

"35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र का पटाक्षेप", सीरीज पोस्ट - 1

 "35 बनाम 1 यानि जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र का पटाक्षेप", सीरीज पोस्ट - 1

("Decoding of 35 vs. 1 i.e. Jat vs. Non-Jat Propaganda", Series Post -1):

इस सीरीज में 17 ओबीसी-दलित जातियों के ऐतिहासिक उधोगों व् कारोबारों की प्राचीनकाल से ले वर्तमान स्थिति व् इनका जाट जैसी किसान-जमींदार जाति के साथ बरतेवा-भाईचारा कैसे रहा व् इसको किसने डंसा व् किसपे इल्जाम लगा इसका एक-एक करके रोज एक पोस्ट के जरिए पटाक्षेप करूँगा| आज पेश है:

नाई व् जाट के कारोबारी-बरतेवे के प्रोफेशनल संबंध व् भाईचारे के सामाजिक संबंध:

पहले 35 बनाम 1 का मुख्य उद्देश्य जान लेते हैं: ओबीसी-दलित बिरादरी में आने वाली तमाम जातियों की अपनी-अपनी ख़ास कारीगरी रही व् उस कारीगरी पर आधारित कुटीर उधोग व् छोटे कारखाने रहे| जिनको एक चालाकी के तहत उनसे छीन बड़े उधोग वालों ने अपने कब्जे में ले लिया| व् इस कब्जे को कहीं ओबीसी बिरादरी पहचान व् समझ ना ले इसलिए फंडियों के जरिए प्रोपेगंडा पोषित करवा के उसको जाट बनाम नॉन-जाट में उलझा दिया गया है या धक्के से 35 बनाम 1 के नारे में फंडियों ने ओबीसी/दलित को 35 में शामिल कर लिया है या शामिल मान लिया है| हकीकत में शायद नाई बिरादरी भी इसके पक्ष में ना हो|

अब जानते हैं नाई व् जाट के कारोबारी संबंध: सलंगित तस्वीर को देखिए; यह खोज "खाप-खेड़ा-खेत किनशिप" पुस्तक के पृष्ठ 19 से 24 में पब्लिश हुई है; उसी के हवाले से ली गई है|




इसको पढ़ के आपको स्पष्ट होगा कि इन दोनों जातियों में प्रोफेशनल फ्रंट पर मौखिक अथवा फौरी तौर पर कुछ भी लेनदेन नहीं होता था| हर कार्य-सेवा-सर्विस के मानक तय थे व् खापलैंड की बहुतेरी ग्रामीण अंचल में आज भी चल रहे हैं|

तो यहाँ जानने-समझने की बात यह है कि जब यह सब इतना स्पष्ट रहा है तो नाई के कारोबार को सबसे ज्यादा किसने खाया? जाट ने, या शहरों में बने बड़े-बड़े हेयर-शलून व् ब्यूटी-पार्लर्स ने? और सबसे ज्यादा कौन चलाते हैं इनको, कौन मालिक हैं इनके; जाट या कौनसी बिरादरियां?

बस यही बात एक जाट व् एक नाई को स्पष्ट होनी चाहिए| और सर छोटूराम वाला असली दुश्मन सिर्फ किसान को ही नहीं ओबीसी बिरादरियों को भी देखने-समझने की जरूरत है| हाँ, अगर उस दुश्मन को जानते-पहचानते हुए भी अगर आप उसका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे हैं तो जाट जैसी जाति से अपने पीढ़ियों पुराने भाईचारे की ताकत में वापिस आईये (सर छोटूराम ही थे वो जिन्होनें नाईयों की कतरन की लाग यानि टैक्स हटाया था); एक दूसरे की आमदनी का जरिया बनिए; क्योंकि बेरोजगारी की समस्या जाट से कम नहीं आपके यहाँ भी| फंडियों के पास से बहकावे-उकसावे से फ़ालतू कुछ मिला हो या मिलता हो तो इसका भी आंकलन करिए|

नोट: जितना इन तथ्यों को शेयर करोगे, उतनी अपने ओबीसी/दलित - जाट भाईयों की भावना वापिस जुडी पा सकोगे| अगर फंडियों के प्रचार के वेग के आगे आपका प्रचार वेग कम है तो भी घबराना नहीं; कम-से-कम कल को उलाहना या मलाल तो नहीं रहेगा कि दोनों तरफ की नहीं पीढ़ियों को यह साझी विरासत की जानकारी नहीं थी; अन्यथा क्यों फंडियों के बहकावे-उकसावे में रहते|

जय यौधेय! - फूल मलिक

"जाट-रे-जाट, 16 दूणी 8" की कहावत का मतलब!

अंतर्राष्ट्रीय जाट दिवस पर विशेष!

यूनिटेड पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के राज का दौर, उसके बाद हरित क्रांति, फिर श्वेत क्रांति व् दोनों में तथाकथित बड़ी औद्योगिक क्रांति का तड़का लगा तो, रूस से ट्रेक्टर आने लगे| इस बड़ी क्रांति ने गाम के ख़ातियों-बढ़इयों का बुग्गी-रेहड़ू-गाडी बनाने का व् लोहारों का कृषि के औजार बनाने का औद्योगिक काम; ट्रॉलीयां व् खेती के औजार बनाने के जरिए, ख़ातियों-लोहारों से छिन शहरों में शिफ्ट हो गया| इन आत्मनिर्भर छोटे उधोगों को खत्म करने पर किसी सरकार, किसी नेता ने जो कभी आजतक आवाज भी उठाई हो तो; बेशक खाती-लुहार के घर-के-घर तबाह हो गए हों|
खैर, तब व् आज भी ट्राली जब बनती है तो उसके फर्श में 16 फ़ीट लम्बी मोटी लोहे की चद्दर, दोहरी करके लगती है; दोहरी करने पर वह 8 फुट की रह जाती है| तो इसी से सेठ लोग हंसी उड़ाने लगे कि देखियो इब जाट आवैगा और 16*2 = 8 फ़ीट वाली चददर ट्रॉली में लगाने को कहेगा|
बस इतना सा ही गणित है 16*2 = 8 का| और लॉजिकली यह हकीकत भी है| 16 फ़ीट लम्बी चददर को मोड़ के दोहरी मोटाई की करोगे तो लम्बाई 8 फ़ीट ही रहेगी उसकी|
खैर, यह जाट, बनियों के हंसी-ठट्ठों के तरीके हुआ करते थे| ऐसे ही बनियों की हंसी उड़ाने पर भी बहुतेरे किस्से हैं| परन्तु जनाब आज ऐसा उल्टा दौर है; एक आधी लिख दी तो कोई ना कोई बनिया मुझपे पंचायत बिठाएं मिलेगा|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 10 April 2022

रामचंद्र जांगड़ा जी 1956 के पटवारखाने के रिकार्ड्स व् कानून उठा के पढ़ो, शामलाती जमीन मालिकाना जमीन है, पंचायती या सार्वजनिक नहीं!

आपको सार्वजनिक के नाम पर कुछ बंटवाना ही है तो धर्मस्थलों के दान-चंदा की कमाई व् इनमें धर्मप्रतिनिधि की पोस्टों पे ओबीसी समेत दलित-किसान सबको बैठवाईये; इससे ज्यादा भला होगा ओबीसी समेत अन्यों का भी| अकेले ओबीसी को क्यों बहकाते हो?

या वह जमीनें ओबीसी ही क्या दलित व् किसानों तक को वापिस दिलवाइए जो सरकारों ने कॉर्पोरेट के नाम पे दशकों से अवरुद्ध करके रखी हुई हैं परन्तु खाली पड़ी हैं| या उन डेड फैक्टरियों की जमीनें वापिस लिवा लीजिये जहाँ आज कोई प्रोडक्शन नहीं होती|
खामखा क्यों अपने ही कल्चर-किनशिप के दुश्मन बनते हो जिसमें सीरी-साझी कल्चर के तहत; किसान-जमींदार अपने साझियों के ब्याह-वाणों तक में साथ निभाते आए| पहले यह तय कर लो कि यह विचार खुद का है या फंडियों के बिसाहे दूसरे राजकुमार सैनी या रोशनलाल आर्य बनने चले हो? और चले हो तो पहले इन दोनों का हाल देख लो, बीजेपी-आरएसएस ने दोनों इस्तेमाल करके ऐसे फेंक रखे हैं कि पोलिटिकल करियर बचाए रखने के संघर्ष पे जिंदगी आई हुई है इनकी| राजकुमार सैनी जिसको कुरुक्षेत्र से सर्व-किसान समाज मिलके एमपी बनाता था, आज एमएलए की सीट निकालने के लाले हैं|
या स्वाभिमान से ज्यादा हीनता तंग कर रही है? वह हीनता है तो उन लोगों की दी हुई है जो आपको स्वर्ण-शूद्र में बांटते हैं; किसान-जमींदारों की दी हुई नहीं| तो यह हीनता तो इनसे ही सीधी टक्कर लेने से मिटेगी; किसान-जमींदारों के क्यों खसो हो इसके लिए? मत अपने ही स्टेट के कल्चर- किनशिप का इन फंडियों के बहकावे में आ के मलियामेट करो| होंगी बुराई किसान-जमींदारों में भी पर इतनी भी नहीं जितनी कि उनमें हैं जिनके दिमाग से आप चल रहे हो| वही बात, जरा स्वर्ण स्टेटस ही मांग के देख लो उनसे; पता लग जाएगा इनके आगे हैसियत का भी व् बिसात का भी|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday, 8 April 2022

फंडियों की सीख तुम्हारे कौम-कल्चर-किनशिप की गोभी खोद रही है; वक्त रहते घर-कुनबे के मर्द-औरत साथ बैठ के मंत्रणा करो व् अपने-अपने साझे नॉर्म्स निर्धारित करो!

करनाल के छोटे से बच्चे जस की निर्मम हत्या को देख के भी, जिसका ढोंग-पाखंड-आडंबर-फंडी-फलहरी-पाखंडी से व् उसकी कथाओं-गपेड़ों से हटने का मन नहीं करता तो समझो अगला नंबर थारे घर का भी हो सकता है|


वक्त रहते सम्भल जाओ, पुरखों के सिद्धांतों की सुध ले लो; वह पागल नहीं थे जो इन फंडी-फलहरियों के टकणों पर लठ मारा करते थे या इनको झलकारे दे-दे ताहा करते थे| वो इंसान की औकात-बिसात-नियत-जात सब जानते-पिछाणते थे जबकि उनके ऐवज में तुम इतने बड़े मंदबुद्धि व् दबीबुद्धि होते जा रहे हो कि सगा भाई ही भीतर-ही-भीतर कब इन फंडी-फलहरियों का बहकाया थामने सेध जा, यह तुम्हें तो क्या खुद उस सेधने वाले को काण्ड करने के बाद पता लगता है; इतना खतरनाक जहर है इन फंडियों का तथाकथित ज्ञान-गपोड़|

जितना हो सके अपने परिवार-कुणबे-ठोले को दूर रखो इनसे| आपस में बैठ के बतलाओ इन विषयों पर, भाइयों में बैठो; घर की लुगाईयों बीच बैठ के इन मसलों पर खुली चर्चा करो व् निर्धारित करो अपने ठोले-कुनबे के नॉर्म्स|

भक्त बने बाहर सिर्फ माइनॉरिटी धर्म वालों में नार-चुकार निकालने को ही सामाजिक ड्यूटी मत मान लेना; यहाँ फंडियों की सीख तुम्हारे कौम-कल्चर-किनशिप की गोभी खोद रही है|

जय यौधेय! - फूल मलिक

शहरी RWA वाले, गाम के बगड़ों के कांसेप्ट कॉपी कर गए परन्तु इन्हीं गामों केे "नगर खेड़ों" वालों ने ही यह कांसेप्ट बिसरा दिए!

पहले तो "नगर खेड़ों वालों" में नगर शब्द नोट करो; तुम्हारे गाम थे ही नगर, बस तुम उस प्रोपगंडा वाले प्रचार का मुकाबला नहीं कर पाए; जिसके तहत तुम में धक्के से ग्रामीण होने की भावना ठूंसी गई; वरना तुम नगर वालों से पहले ही नागरिक व् नगर वाले थे|

दूसरा आज की शहरों में RWA सोसाइटी में कोई मंगता-भिखारी-फंडी-फलहरी-बाबा रंगा घुसता देखा है क्या? झाँक भी नहीं सकते? जो-जो आज के दिन 30-40 या इससे ऊपर की उम्र के हैं, क्या तुमने यही सिस्टम थारे गामों के बगड़ों का नहीं देखा? मंगता-भिखारी तो खापलैंड के गामों में वैसे ही नहीं होता आया, कोई फंडी-फलहरी-पाखंडी-बाबा रंगा आता था तो बगड़ के बाहर तक ही आ पाता था; क्या मजाल जो वो बगड़ में पैर धर जाता? वो तो क्या चूड़ी बेचने वाला मनियार तक बगड़ में घुसने से पहले, बगड़ के बूढ़ों की इजाजत लेता था; जैसे RWA की कमिटी वाले बूढ़े यह तय करते हैं कि RWA में कौन घुसेगा और कौन नहीं?
यह कैसी हंगाई लगी तुम "बगड़ के कल्चर" वालों को कि ऐसे पहले से ही सदियों के विकसित मॉडर्न सिस्टम्स को धत्ता बता के; इन फंडियों ने जो मॉडर्न बता दिया बस "भेड़ दौड़" में उसी को गले लपेटते रहे? हर समाज, हर कल्चर अपनी लाइन पे है, एक तुम "दादा नगर खेड़ों" वालों को छोड़ के; बस इसी वजह से 35 बनाम 1 भी भुगत रहे हो व् थारी धरती तुम्हें छोड़, सबको चैन से बसाने का अड्डा बन चुकी है; बेचैन हो तो सिर्फ तुम|
देखो जरा इस "बगड़ कल्चर" जैसी चीजों को रिएलाइज करके, इनपे ठहर के, क्या पता चैन आ जाए| दिमाग-सोच में स्थाईत्व आ जाए? कम-से-कम यह थोथी फील तो निकलेगी कि तुमने अपने पुरखों से कुछ अच्छा कल्चर डेवेलोप किया है? किया करो ऐसे-ऐसे तुलनात्मक एनालिसिस; पता लगेगा कि वो तुम्हारी अपेक्षा तथाकथित अक्षरी ज्ञान से अनपढ़ व् तथाकथित ग्रामीण होते हुए भी, कितने बड़े कम्युनिटी मैनेजर (community manager) थे और तुम कितने बड़े कम्युनिटी डिस्ट्रॉयर (community destroyer) साबित हुए हो या होते जा रहे हो|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 5 April 2022

मानसिक शूद्रता/दरिद्रता का बदलता चेहरा!

हरयाणवी समाज के जमींदारों का कोई परिवार शहर में निकलेगा या इनमें एक को ढंग की नौकरी लग जाए तो सबसे पहले फंडी-फलहारी के पाखंडों में रिफल-रिफल के भाग लेगा| व् साथ-की-साथ पीछे गाम का सारा कुनबा-ठोला इसमें लिपटवाने की कोशिश करेगा| और यह जो लॉबी बन रही है जमींदारों में, यही आने वाली शूद्र कहलाने वाली है, अगर इन्होनें यह रिफलने नहीं छोड़े तो| इनके घर के मर्द-औरतों ने बैठ के आपस में डाइलॉगिंग नहीं की तो|

जबकि हरयाणवी समाज के मजदूर बिरादरियों का कोई परिवार शहर में निकलेगा या इनमें एक को ढंग की नौकरी लग जाए तो उतना ही फंडी-फलहारी के पाखंडों से दूर हटता व् अपनों को हटाता जाएगा|
अपवादों को छोड़ दो तो देख लो तुम किधर जा रहे हो|
और यह फर्क औरतों की एकाग्रता व् उनके सामूहिक संगठनों का फर्क है| जमींदारों के पास कौन है ऐसा संगठन? आज के दिन इन्होनें खुद में राजनीति व् फंडी-फलहरी की कहबत इतनी ज्यादा डाल ली है कि आदमी माथा पीट-पीट बावला हो जाए| और यह फंडी-फलहरी इनको 35 बनाम 1 के अलावा जो कुछ भी दे रहे हों तो|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 4 April 2022

लोकल लेवल पे वोकल हो जाओ, अगर 35 बनाम 1 को फंडी बनाम नॉन-फंडी में तब्दील चाहो!

समस्या कितनी बड़ी खड़ी कर दी है फंडी ने आपके आगे यह तो देख ही रहे होंगे; वह भी स्वधर्मी होते हुए? तुम किसी के इतने बड़े भी दोषी नहीं हो, जितना बड़ा बना के फंडी ने तुम्हें परोस दिया है| तुम्हारी कौम-कल्चर-किनशिप को राह चलती उस बेचारी अकेली लाचार लड़की की तरह बना डाला है, जिसपे गुंडे किसी भी वक्त टूट पड़ते हों व् बच के निकल भी जाते हो? कब तक होने दोगे यह खुद के साथ? 


इसका इलाज ज्यादा मुश्किल नहीं है, गाम-कस्बे के हर उस भाई को जिसको फंडी अछूत-पिछड़ा-शूद्र की श्रेणी में रखता है व् दूसरी तरफ उसको 1 के खिलाफ भी भड़का के रखता है (उसी एक के खिलाफ, जिसको मुंह पे यही फंडी जजमान-जजमान करता नहीं अघाता) उसको यह फंडी इन्हीं अछूत-पिछड़ों बारे क्या सोच रखता है उससे सिर्फ रूबरू मत करवाओ; बल्कि इस सोच को खत्म करने हेतु फंडी की भाषा वाले (हमारी भाषा में तो वह हमारे सीरी-साझी हैं) अछूत-पिछड़े के कानों में फूंकें फंडी के जहर को साफ़ करते चलो, अपने-अपने गाम-कस्बे-शहर की जिम्मेदारी लेते हुए, फिर देखो चीजें कैसे 180° पलटती जाएंगी| वरना यूँ ही हाथ-पे-हाथ धरे बैठे रहे तो फंडी अछूत-पिछड़े को तो मार ही रहा है, मार तुम्हें भी रहा है|

ऐसे ही चलता रहा तो, ना तुम्हें नेता बनने लायक छोड़ेंगे ना पंचायती| वक्त है, सम्भल के सर जोड़ लो व् इस फंडी को पहले झटके तोड़ लो| फंडी, भांप के धधकते उस बुलबुले की तरह होता है, जो सतह पर आते ही फुस्स और वह सतह है तुम्हारा सरजोड़|

जब तक फंडी को उसी की स्याणपत यानि polarisation (35 बनाम 1) व् manipulation (यानि मुंह पे कुछ, पीठ पीछे कुछ) से नहीं मारोगे; भूल जाओ पुरखों वाली बुलंदी के आसपास भी फटक सकोगे| और यह काम तुम फंडी से न्यूनतम 10 गुणा आसानी से कर सकते हो, अगर करने पर आओ तो| इस खामखा के idealism व् घणा मीठा बनने की राह से उल्टा हटना होगा; वरना तब तक तुम में से न कोई ढंग का नेता निकलेगा ना कोई पंचायती; तुम्हारे पुरखों के ऐवज में इंटरनेशनल, नेशनल व् स्टेट तो छोड़ो; जिला लेवल तक कोई निकल जाए तो कहना|  

बस इतनी सी करेक्शन कर लो: आपस में बंद कमरों में सरजोड़ के, अपनी "जियो और जीने दो" की नीति में इतना डाल लो कि "जियो और जीने दो परन्तु जो तुम्हें ना जीने दे, उसको बिखेर के रखो"; क्योंकि फंडी की थ्योरी "जियो व् परन्तु दूसरों को भिड़ा के रखो" इसी तरह काबू आ सकती है; दूसरा अन्य कोई रास्ता नहीं| आज अपना लो, या 5-10 साल थपेड़े खा के सरजोड़ के अपना लेना| 

जय यौधेय! - फूल मलिक 

Friday, 1 April 2022

साइलेंस में बहुत ताकत होती है - matter of Chandigadh!

 राजनीति में बैठे घाघों के कोई भी मुद्दा उछालते ही, उसको उड़ते तीर की तरह नहीं लेना चाहिए| इन्होनें चंडीगढ़ बोला और आपने सोशल मीडिया पर झड़ी लगा दी| स्पष्ट राय अपनों को दो, दुनिया को नहीं; क्योंकि दुनिया में फंडी भी हैं| यह आपकी रिएक्शन के आधार पर मिनट में अगला स्टेप निर्धारित कर लेते हैं व् आपको ऐसे ही अगले-से-अलगे स्टेप की पिच पे खिलाते चले जाते हैं| जबकि आप भ्रम में रहते हो कि मैंने पब्लिकली बोल के समाज को चेता दिया, अपना फर्ज निभा दिया| यूं निभाए फर्ज, गली में भोंकते कुत्ते से ज्यादा कोई अहमियत व् असर नहीं रखते होते| 


13 महीने किसान आंदोलन लगा के, दोनों स्टेटस ने जो आपसी भाईचारा बनाया, क्या उसको यूँ एक क्षण में इनकी भेंट चढ़ा दोगे? ऐसे इनके उछाले मुद्दों में कूदने से पहले रत्ती भर भी नहीं सोचना दिखाता है कि आपकी उस 13 महीने लगा के बनाए भाईचारे को बचाये रखने के प्रति कितनी एकाग्रता है| 


यह नेता तो चंडीगढ़ बनते ही इसको मुद्दा बनाते आ रहे यहीं, परन्तु निकला क्या और क्या निकालोगे? इससे अच्छा हाईकोर्ट की भांति राजनधानी के भी रीजनल सेंटर्स मांग लो, टंटा खत्म| नेताओं को भी पता लगे कि जनता क्या चाहती है व् क्यों अब तुम्हारी बनाई पिचों पर नहीं खेलेगी| इनको आपकी बिछाई पिच दो, तब बात बनेगी| 


वैसे भी फंडी अब इस पर काम कर रहे हैं कि दोबारा ऐसा किसान आंदोलन फिर ना हो तो उसके लिए क्या किया जाए? और यह चंडीगढ़ का राग उसी की एक स्ट्रेटेजी है, आपकी एकता को तोड़ने की| आपकी आपसी समझ व् तालमेल खत्म करने की| ऊपर से आगे 2024 में इनको फिर सरकार चाहिए, जिसके लिए आपकी एकता व् समझ फिर से खतरा इनके लिए| इन बातों को समझ के ही सोशल मीडिया पर लिखा करो| 


कुछ सौदा ना है इन फंडियों का, अगर आप इनको अपने साइकोलॉजिकल वॉर गेम में उलझाने हेतु लिखने लगो तो| कोई दिमाग भी नहीं है इनमें और ना बुद्धि है; बस यह सर्वाइव ही आपकी ऐसी जल्दबाजी पर करते हैं, जैसे पिछले दो दिन से चंडीगढ़ वाले मुद्दे पर मचाते हो| 


थोड़ा ठहरो, सोचो व् चुप रह के चिंतन करके ही आगे बढ़ो; यह सब मलियामेट होते जायेंगे| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Thursday, 31 March 2022

"नेग में सबसे बड़ा बूढा होता था ठोळों-बगड़ों का कॉउंसलर"!

दादा चौधरी दरिया सिंह मलिक: मेरे पड़दादा थे, उम्र में मेरे दादा, असल में कई दादाओं से छोटे; परन्तु नेग में एक पीढ़ी ऊपर| उनको मैंने मेरे ठोळे व् बगड़ (जिनको तुम आज शहरों में RWA कहते हो) की सभी छोटी-बड़ी औरतों की मासिक अथवा तिमाही रूटीन में कॉउंसलिंग मीटिंग लेते हुए देखा है| सभी की समस्याएं सुनी जाती थी, गलत को गलत व् सही को सही बताया जाता था| जो गलत होती थी उसको डांट पड़ती थी| फंडी-फलरहियों से एकमुश्त दूर रहने की सबको हिदायत होती थी| बूढ़े मानते थे कि औरत ही घर की मुदई होती है, उसकी कॉन्सलिंग होती रहे तो छोटे बच्चे, कल्चर-किनशिप सब सही रहता है| 


परन्तु वह मेरे बगड़ का आखिरी दादा था; जिसको मैंने ऐसे अपने बच्चों में, औरतों के साथ बैठ, अपनी किनशिप को ट्रांसफर करते देखा था| हालाँकि कई औरतें उनकी ज्यादा सख्ती से खफा भी रहती थी व् इस बात की शिकायतें भी करती थी, अपने बेटे-पतियों को| परन्तु सबको पता होता था कि कल्चर-किनशिप कायम  रखनी है तो इतना अनुसाशन तो चाहिए ही| ऐसी औरतों को सख्ती व् अनुसाशन में फर्क बताया जाता था या बताने की कोशिश मैंने देखी हैं| 


यही होता है एक "स्वर्ण" समाज| आज किधर खड़े हो तुम, खुद देख लो| स्वर्ण से कितने गिर के शूद्र बन चुके हो; आईना सामने हैं| यही गति से गिरते रहे तो आने वाले जमाने के अति-पिछड़े, महा-शूद्र तुम ही कहलाओगे; फिर बेशक कितने ही चमकते-दमकते महले-दुमहलों में बैठे रहना|


जय यौधेय! - फूल मलिक  

स्वर्ण क्या है, व् शूद्र क्या है?

स्वर्ण: जो अपनी जाति-समुदाय के भीतर सम्पूर्ण लोकतंत्र रखे व् बाहरी जाति-समुदायों में तोड़फोड़ मचवाये रखे| या जो अपनी सोशल-आइडेंटिटी की प्रोटेक्शन का ठेका स्वर्ण को दे दे व् बदले में स्वर्ण को चंदा-चढ़ावा देता रहे; परन्तु व्यक्तिगत नहीं उसकी पूरी जाति-बिरादरी की सोशल प्रोटेक्शन का| इन प्रोटेक्शन का ठेका देने वालों को स्वर्ण, आधा-स्वर्ण कहता है| 


शूद्र: जो अपनी छोड़, अपने परवार-ठोले-कुनबे-पान्ने-जाति की छोड़ बाकी सभी के लोकतंत्र की चिंता करे| अपनी के लिए सिर्फ व्यक्तिगत प्रोटेक्शन हेतु छुपे रूप से स्वर्ण को यह समझ के चंदा-चढ़ावा चढ़ाए कि वह उसकी सोशल आइडेंटिटी की रक्षा करेगा| परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है| स्वर्ण उसको प्रोफेसर बनने पर भी स्वर्ण में शामिल ना करके, शूद्र ही कहते-मानते रहते हैं| स्वर्ण की चुसाई छद्म राष्ट्रवाद व् धर्मवाद की घूंटी यही सबसे ज्यादा पिए होते हैं|  


और यह नई सदी के नए शूद्र, तमाम उन बिरादरियों के लोग हैं, जो दो-तीन जनरेशन पहले तथाकथित स्वघोषित अर्बन हुए हैं| इनके पुरखे जब ग्रामीण थे तो अपने-अपने गाम के स्वर्ण थे, परन्तु यह मूढ़मति 99% अर्बन तो हुए परन्तु स्वर्ण वाला स्टेटस खो चुके| जबकि फंडियों ने जो ट्रडीशनली शूद्र घोषित किये हुए थे, वह कुछ-ना-कुछ स्वर्णता को अर्जित करते जा रहे हैं| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

पूंछ पाड़ैगा मेरी!

यही क्रेडबिलिटी है इस रंग वालों की| तुम ऐसे ही इनके चढ़ाए, ताड़ पे टँगते रहना; यह इतनी ही सिद्द्त से तुम्हें नीचे पटकते रहेंगे| तुम्हारा सब कुछ काबू करेंगे और अंत में तुम्हें बोलेंगे, "पूंछ पाड़ैगा मेरी"| और यह तो था भी उस वर्ग से जिसको फंडी, शूद्र बोलते हैं; इनके असली वर्ण वाले कितने खतरनाक होंगे; अंदाजा लगा पा रहे हो या नहीं?


बस, अपने दिमाग के बहम वक्त रहते ठीक कर लो; वरना इन्होनें तो वो दिन तुम्हें दिखाने ही हैं, जब यह तुम्हारी बहु-बेटियों को दक्षिण-पूर्व भारत के धर्मस्थलों के जैसे "देवदासी" बना के पब्लिकली नचाएंगे व् तुम इसको धर्म-भाग्य मान के भीतर-ही-भीतर सड़ते रहोगे| यह है इनके सब सब्जबागों की आखिरी मंजिल| और यह इसके लिए पीढ़ियां लगा के इंतज़ार करते हैं; कदे न्यू कहो फलाना न्यू कहवा था,परन्तु मैं तो मरने को भी आ लिया पर इब लग तो होया भी कोनी|

ये जो खापों के लोकतान्त्रिक गुण के तप से उत्तर-पश्चिम भारत बचा हुआ था, इसको संभाल लो, वरना देवदासियां बना के देने को तैयार रहें अपनी बहु-बेटियों को; यह कह जाना अपनी अगली पीढ़ियों को|

जय यौधेय! - फूल मलिक