कुछ भाईओ कौ गलतफहमी है कि जाट 300 साल पुराने या 250 साल पुराने जमीनदार है तो जब मुगलो नै जब भारत मे पैर रखा तो उनके सामने उतरभारत मे जमीनदार और राजा एक ही कौम थी वो थी जाट. राजस्थान मे भी जाट बडे जमीनदार थे और राजा 1490 तक थे जो खाप स्टाईल मे शासन करते थे पर खाप नही थे. उस समय जगलादेश मे राजपुत भुमिहिन थे और फिर अकबर ने उनको पहले जमीनदार बनाया फिर जागीर का राजा पर वो जागीरदार आजाद स्टेट कभी नही बना पाये. बिकानेर से झुनझुनु तक का इलाका जाटो ने आपस मे लडकर राजपुत शासको को एक गोदारा जाट राजा ने दिया और बाकि राजस्थान के बहुत इलाको मे जमीन राजपुतो को अकबर ने दी.
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Friday, 17 February 2023
Jats Landholding and Royalty 1595
Thursday, 16 February 2023
कम्प्टीटर्स तो तुम्हारी कमजोरी पर अपना खेल खेलेंगे ही, फिर उसको 'विदेशी हमला' या 'राष्टवाद पर हमला" कह के क्यों खिसिया रहे हो?
निचौड़: यह गोलवलकर की थ्योरी व् अधिनायकवाद का सबसे बड़ा असफल एक्सपेरिमेंट है, "अडानी को उभारना व् फिर उसका ताश के पत्तों की तरह ढह जाना"|
यूपी के एक यादव साहब जो अनेक इतिहास खोजते रहते हैं उनकी एक पोस्ट ज्यों की त्यों शेयर कर रहा हूँ!

Thursday, 9 February 2023
मोहन भागवत "जाति, पंडितों ने बनाई" के साथ यह भी बता देते कि यह नार्थ-इंडिया में हाथ जोड़ के नमस्ते करने व् पाँव छूने किसने आळ लाये लोग; खासकर खापलैंड पे?
मेरे बाबू नैं कदे उसके बाबू-दादों के पाँव छुए ना; म्हारे दादे नैं कदे उनके बाबू-दादों के पाँव छुए ना और ना कदे हाथ जोड़ नमस्ते करी|
यह सब जो यह पिछली एक-डेड पीढ़ी शहरों में ज्यादा गडी ना, इसमें 80% शुद्ध जाट-बुद्धि छोड़ के शूद्र-बुद्धि में जो तब्दील होते गए व् गाम वालों पे अपने आपको श्रेष्ठ-ज्ञानी व् तथाकथित सभ्य (कल्चर्ड) दिखाने हेतु फंडियों ने जो अड़ंगा इनके पल्ले मढ़ा सारा फैलाते गए. उसकी मचाई खुरगाई है| और इसीलिए फरवरी 2016 तक आते-आते यह तथाकथित जाट-बुद्धि छोड़ शूद्र-मति बने सभ्य इतने बिरान हुए कि जो कदे इनके बाबू-दादे-पड़दादों को "जाट देवता" व् "जाट जी" लिखते-गाते-बिगोते नहीं थका करते, उन्हीं के हाथों 35 बनाम 1 में आन घिर बैठे|
मेरे दादा ने कभी इन पहलुओं पर मुझे दादा होने वाला दम्भ नहीं दिखाया| इंडिया में था तो किसी शहर में पढ़ा या जब विदेश आया, कभी नहीं| जब भी फ़ोन करता था और दादा से बात होती थी तो मेरे बोलने से पहले आगे से रटी-रटाई सी आवाज आती थी दादा की, कि, "नमस्ते फूल, ठीक सै बेटा (कभी-कभी भाई या पोता)"| मतलब मेरे भले पुरख दादे नैं कदे इस बात की बाट ना देखी फ़ोन-कॉल पे अक मैं आगे तैं पहले नमस्ते करूँगा तो ही अगला नमस्ते करेगा| इतने ओपन-माइंड थे म्हारे बूढ़े; ऐसी बातों से ही समझा देते थे कि कोई उम्र, नाते या ओहदे में बड़ा है, उसको सिर्फ इसलिए नमस्ते नहीं करी जाती; बड़ा भी पहले कर सकता है| आह्मा-स्याह्मी भी क़दे हाथ जोड़ के नमस्ते नहीं करी, दादा को; सलूट करने वाली नमस्ते होती थी (थैंक्स टू मिल्ट्री-कल्चर ऑफ़ खापलैंड) व् आगे से दादा का हाथ सीधा सर पे होता था| और यह रीत सिर्फ मेरे सगे दादा की नहीं थी, उस पीढ़ी के सारे बूढ़ों की थी; चाहे वो गाम-गुहांड के थे या रिश्तेदारियों के|
यह देखा-देखी भतेरी हो ली इब; इस देखा-देखी में अपने कल्चर की "गधी आळी लीदरी" सी कढ़वा ली| इसीलिए मोहन भागवत ने जैसे उसकी बात में सुधार किया है, आज से मैं भी कर रहा हूँ; और वह यह कि "अपने कल्चर-किनशिप वाले किसी को भी ना हाथ जोड़ के नमस्ते करूँगा और ना पाँव छुऊंगा; सिर्फ सलूट वाली नमस्ते हुए करेगी| हाँ, कल्चर से बाहर किसी का कल्चर इसकी मांग करता है तो उनके कर देंगे; जो शरीफ होंगे उनके शराफत के साथ व् जो डेड-सयाने होंगे उनको इस भरम में रखने हेतु कि हम उनके भुकाये में ही चलते हैं आज भी हाहाहाहा; ताकि वो इसी भरम में राजी रहें|
वैसे भी म्हारे कल्चर में पांवों की तरफ हाथ ल्फाणे का मतलब होता है अगले को टांगों से उलाणना!
जय यौधेय! - फूल मलिक
Monday, 6 February 2023
6 फरवरी 1858: वह तारीख जिस दिन हरयाणा देस यानि खापलैंड के दो टुकड़े कर दिए गए थे!
एक टुकड़ा यानि आज का हरयाणा, पंजाब में मिल दिया गया था|
सन 1881 के रोहतक गजटियर के अनुसार रोहतक में निम्नलिखित शहर/नगर होते थे!
बेरी, कलानौर, महम, काहनौर, सांघी, झज्जर, बहादुरगढ़, खरखौदा, बुटाना, गोहाना, बरोदा, मुंडलाना|
इनमें काहनौर, सांघी, बुटाना, बरोदा, मुंडलाना आज गाँव कहलाते हैं; कौन जिम्मेदार है इस डिग्रडेशन का?
और यही वजहें होती थी कि हमारे दादा खेड़े, "दादा नगर खेड़े" कहलाते आये हैं| अब सोचो तुमसे इसमें "नगर" शब्द हटवा सिर्फ "दादा खेड़ा" कहने की आदत किसने डाली?
कभी सोचा करो इन बातों पर| शहरी मिजाज व् अंदाज के लोग थे थारे पुरखे, थम ग्रामीण कैसे बन गए?
जब इन पे सोचना शुरू करोगे तो 35 बनाम 1 जैसे ड्रामे के सारे तार खुलते नजर आएंगे| व् जो धक्के से खुद को कबीला-कबीला करके सभ्यता के नाम पर जंगलों तक में धकेलने को उतारू हैं; उनको भी शायद कुछ समझ आये| वैसे भी कबीलों में गाम-गौत-गुहांड के नियम नहीं होते; तो ब्याह लो आपने बालक गाम-गौत में ही, के दिक्क्त सै?
शुक्र है, यह अंग्रेज भले वक्तों में इन बातों को डॉक्यूमेंट कर गए, नहीं तो लोगों को उनके अतीत का सही आभास करवाना कितना मुश्किल काम होता; इन फंडियों की भरी गप-गपोड़ वाली पोथियों के बीच|
आज की पीढ़ी की सोच की पंगुता का आलम इतना हो चुका हैं कि आगे तो क्या ही सभ्यता जोड़ेंगे; जो पुरखे खड़ी करके गए थे, उसी को संगवा लो तो गनीमत|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Tuesday, 31 January 2023
Interesting facts about History of Rohtak district!
























Tuesday, 24 January 2023
सुसरा, कुछ तो है इस जाट शब्द में!
जिसनैं देखो ओहे पाछै पड़ रह्या सै!
Monday, 23 January 2023
बीबीसी की डाक्यूमेंट्री व् मोदी का 'पठान' फिल्म पर ब्यान!
जब वेस्टर्न वर्ल्ड वाले कान खींचते हैं तो कुछ इस अंदाज में खींचते हैं कि उधर बीबीसी ने गोधरा काण्ड पर मोदी के रोल बारे इंग्लैंड में डॉक्यूमेंटरी का फर्स्ट पार्ट जारी किया और इधर मोदी ने खुद आगे आ कर, भक्तों से "पठान" फिल्म का विरोध नहीं करने की ही कह डाली| लगता है पूंछ पर पैर जोर से धरा गया| यही ऐसे ही कनेक्शंस हमारी किनशिप को बचाने हेतु, मैं हमेशा कहता भी हूँ व् इसी कोशिश में लगा भी हूँ कि हमारी कौम में इतने NRI हैं, बस एक-दो यहाँ से मजबूत कनेक्शन निकाल लो जैसे सर छोटूराम ने निकाल रखे थे; यह फंडी और इनकी तथाकथित 1 बनाम 35 सी टाइप की नौसिखियाँ तो खिंडी-खिंडी हॉन्डेंगी| यह क्या कभी "जाति-विशेष" और "जाट बनाम नॉन-जाट" किये फिरते हैं आज के दिन; यह तो वापिस इनके पुरखों की भांति जाटों की स्तुति में "जाट-जी" व् "जाट-देवता" लिख-लिख ग्रंथ पाथते हाँडेन्गे|
मैंने तो आज के दिन तमाम धरातलीय कोशिशों के साथ-साथ यहाँ ख़ास ध्यान धर रखा है; खासतौर से फरवरी 2016 के बाद से| चीजें इतनी बिगड़ चुकी हैं हमारी अपनी आंतरिक खामियों के चलते कि शायद सर छोटूरामी टाइप के नेटवर्क खड़े करते-करते ही ज्यादातर वक्त ना गुजर जाए| परन्तु शुकून व् तसल्ली इस बात की है कि भक्त बने मेरी ही बिरादरी के लोगों की भांति मुझ जैसों में भटकन नहीं है; सही राह पर हैं इसकी तसल्ली शत-प्रतिशत% है| और इसीलिए फरवरी 2016 के बाद से उन जमानों वाली पोस्टें लिखने पे ध्यान कम है जिनपे 300-400 लाइक्स व् 50इयों शेयर्स औसतन आते थे; फरवरी 2016 से समझे हुए हैं कि यह शेयर्स व् लाइक्स वाली पोस्टें तो कभी भी लिख लेंगे परन्तु "कल्चर-किनशिप" के नाम पर होमवर्क करने का जो बैकलॉग का ढेर लग चुका है पहले वह निबटवाया जाए; अपनी व्यक्तिगत व् प्रोफेशनल लाइफ चलाने के साथ-साथ|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Sunday, 22 January 2023
"जाति-विशेष" ना हो गई, सुसरा; दूसरे विश्वयुद्ध वाले यहूदी हो गए, जिसको देखो हिटलर-मुसोलिनी-हिरोहितो की भांति लपेटे फिर रहा है!
धन्यवाद है तुम सब नौसखियों का तुम हमें यहूदियों की तरह तुम्हारी हमारे प्रति नफरत की धोंकनी में झोंक के इतना पका रहे हो कि उस विश्वयुद्ध के बाद यहूदियों ने कैसे सबको काबू किया; उसके आज तक सब मुरीद हैं| मत भूलो," हम पिछोके से किसान हैं, बोने से बेहतर काटना जानते हैं"! किन्हीं जमानों में, किन्हीं जमानों से याचकों को अपने यहाँ शरण दे-दे हमने ही बसाया है, हमें तुम्हारे पॉजिटिव व् नेगेटिव सब पता हैं; बस सूचियां बन रही हैं कि किधर से किसको मरोड़ना है| हमें भले ही आरएसएस की भांति 5 पीढ़ियां नहीं लगेंगी; 1-2 पीढ़ी में ही सुधार लेंगे; हमारी अति-उदारवादिता को|
"जाति-विशेष" इस दौरान ठहर के बस इतना जान ले कि हिटलर से मार खाने वाले जमाने में जो हालत यहूदियों के कल्चर-भाषा-किनशिप की थी आज वही तुम्हारी है| उन पर हिटलर-मुसोलिनी-हिरोहितो सिर्फ इसीलिए चढ़े-चढ़े आते थे क्योंकि उन जमानों यहूदियों ने उनकी "कल्चर-भाषा-किनशिप" ऐसे ही बिसरा रखी थी जैसे आज तुमने; भाषा के नाम पर तुमने तुम्हारी हरयाणवी बिसरा रखी है; कल्चर के नाम पर हरयाणत बिसरा रखी है व् किनशिप के नाम पर "खाप-खेड़ा-खेत" बिसरा रखे हैं| हैं, कुछ ग्रुप्स इस जाति-विशेष में जो इन्हीं पहलुओं को वापिस समेट; अपनी कल्चर-भाषा-किनशिप पर दिन-रात काम कर रहे हैं| हालाँकि कुछ छोटे-मोटे स्टेप्स क्रियान्वित हो चुके हैं; उनका प्रचार-प्रसार व् अभ्यास जारी है|
तुम नौसिखियों को तुम्हारी ही भाषा में बड़े अच्छे जवाबों की तैयारी फरवरी 2016 की उन चार रातों के बाद से हो ही रही हैं| इन कोशिशों का पहला बड़ा रिजल्ट आने में अब बस साल भर का वक्त भर लगना है|
विशेष: यहूदी किन्हीं और वजहों से हिटलर जैसों से मार खाए थे, जाति-विशेष किन्हीं और वजहों से खा रही है; परन्तु अब अपनी उन वजहों को करेक्ट करने की नींव डल चुकी है; कार्य दिन-रात जारी है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Saturday, 21 January 2023
बृजभूषण सरण इनको "जाति-विशेष" नहीं "सर्वखाप मिल्ट्री कल्चर" से ऑर्गेनिकली निकलने वाले पहलवान कहो!
बृजभूषण शरण द्वारा पहलवानों को "जाति-विशेष" का कहना इस आदमी की उस हताशा व् हीनता को दिखाता है जिसके तहत जब से (पिछले 11 साल से) यह रेसलिंग फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (WFI) का अध्यक्ष चला आ रहा है तब से ले के आज तक; इसकी तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह जाट-पहलवानों (इसके अनुसार "जाति-विशेष) के विल्कप नहीं ढूंढ पाया; ना तो इसके इलाके से और ना लगभग पूरे इंडिया से ही| इसकी इस हीन-भावना से पता चलता है कि इस आदमी ने कितनी कोशिशें नहीं की होंगी, "जाति-विशेष पहलवानों" जैसे ओलिंपिक मटेरियल ढूंढने की; व् शर्तिया बात है यह कि अगर इसको विकल्प मिल जाते तो पक्का; इसने जाति-विशेष पहलवान साइड करके, वह आगे बढ़ाने-ही-बढ़ाने थे| जो एक-दो आगे बढ़ भी पाए तो वह उसी हरयाणा देस (वर्तमान हरयाणा, वेस्टर्न यूपी के "सर्वखाप मिलिट्री कल्चर") के तहत गाम-गेल चलने वालों अखाड़ों से आते हैं जहाँ से तमाम जाति-विशेष के पहलवान निकलते हैं; अन्य जाति पहलवानों में उदाहरणार्थ योगेश्वर दत्त व् दिव्या काकराण|
Friday, 13 January 2023
सवाली: मिस्टर फूल मलिक, तुम नौसिखिया हो चुके हो!
सवाली: मिस्टर फूल मलिक, तुम नौसिखिया हो चुके हो, जो रोज-रोज खामखा के ऐसे त्यौहार घड़ ले आते हो जो पहले कभी थे ही नहीं! चाहते क्या हो तुम? ऐसे तो जिनको तुम फंडी बोलते हो उनमें व् तुम में क्या फर्क? आज ही देख लो, आज के दिन तुमने यह "सर्वखाप अनुकम्पा दिन" ला खड़ा किया? क्या औचित्य है इसका? हमें बाकी समाजों के साथ रहने दोगे या नहीं?
14 जनवरी 1761 - सर्वखाप अनुकम्पा दिवस की आपको लख-लख बधाई!
(आप इसको अनुकम्पा की जगह दयालुता, उदारता, मानवता या जो भी शब्द ज्यादा जचे वह बोल-लिख सकते हो)
जीते हुए पक्ष की परवाह ना करते हुए युद्ध में घायल हारी हुई सेना की मरहमपट्टी करने व् उनको आसरा देने का विश्व का सबसे बड़ा उदाहरण है यह| शायद ही अन्यत्र कोई इतना बड़ा उदाहरण विश्व में देखने को मिलता है|
तारीख थी 14 जनवरी 1761, लड़ाई का मैदान था पानीपत, लड़ने वाले दो पक्ष थे पेशवा व् अब्दाली; लगभग दोपहर 2 बजे तक युद्ध का फैसला हो गया था; हारने वाला पक्ष था पेशवा, जीतने वाला पक्ष था अब्दाली; अब्दाली के भय से कोई विरला ही घायल-बदहवास माह-पोह की ठंड में ठिठुरते-भागते-पनाह ढूंढते सैनिकों को, मैदान में घायल पड़े सैनिकों को मदद देने की हिम्मत जुटा पा रहा था|
ऐसे में सब अटकलों को विराम देते हुए, सामने आई तो उदारवादी जमींदारों की विश्व की सबसे प्राचीनतम सामाजिक संस्थाएं यानि खापें व् इन्हीं जमींदारों की सबसे मजबूत रियासत यानि लोहागढ़ जाट रियासत|
कहते हैं महाराजा सूरजमल ने अकेले राज-खजाने से उस जमाने में 10 लाख रूपये इन घायल पेशवाओं की फर्स्ट-ऐड पर खर्च कर दिए थे; आज के दिन उस वक्त के 10 लाख रूपये कितने अरब-खरब बैठेंगे; किसी CA से पूछ लीजिये| इसके अतिरिक्त मुज़फ्फरनगर से ले कर धुर लोहागढ़ तक फैली खाप व् पालों ने गाम-गेल कितनी मदद की थी उसकी गिनती तो शायद कोई विरला ही कर सकता है|
कुल मिलाकर इतनी ज्यादा कि शायद ही विश्व में आज तक ऐसी मदद हुई हो और वह भी तब जब जीतने वाला अब्दाली वहीँ सर पर बैठा था यानि दिल्ली में था| परन्तु पेशवाओं को हराने वाले की उसकी हिम्मत न पड़ी कि जाटों व् खापों को हारी हुई सेना की मदद करने से रोक देता| यह दिखाता है क्या रूतबा-रूआब रहा उदारवादी जमींदारों के सिस्टम का|
यह तो पेशवाओं ने अपने अहम् में आ के मदद को आये महाराजा सूरजमल को ही बदनीयती दिखाई व् बंदी तक बनाने की हिमाकत की परन्तु महाराजा सूरजमल बच निकले उनके षड्यंत्र से; इसीलिए इतिहासकारों द्वारा एशिया के ओडीसूस व् प्लेटो कहलाये, लिखे गए|
खैर, अपनी पीढ़ियों को यह गर्व का पन्ना जरूर पास करें; व् कुछ इसी अंदाज में पास करें कि वह अपनी किनशिप-कौम-कल्चर पर विजडम से भर जाएं!
जय हो खाप-खेड़े-खेतों के इस सिस्टम की, जो ऐसे वक्तों में बैरी के भय से डर के दुबकने की बजाये, खापलैंड यानि दर पे पड़े घायलों की मदद को दौड़े| क्यों नहीं इस अध्याय को किताबों में पढ़ाया जाता? क्यों नहीं इस अध्याय पर फ़िल्में बन सकती व् क्यों नहीं इस अध्याय को भारत की संस्कृति की उच्चतम प्राकाष्ठा के उदाहरणों में जगह दी जाती?
🌳🌳शक की रात यानि शकरात💐के पावन पर्व, जो कि 14 जनवरी 1761 को🌲 खापों व भरतपुर रियासत (रोहतक-मेरठ से ले भरतपुर-मैनपुरी तक फैली) के 💐महाराजा सूरजमल जी द्वारा 💐💐पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली से हारे हुए पेशवाओं की घायल सेना की अब्दाली से भी ना डर खाते हुए फर्स्ट-ऐड करने की इंसानियत से शुरू हुआ, व् आज भी उसी नेक भावना के प्रतीक बड़ों को कंबल-शॉल दे के मनाया जाता है; उस वक्त यह कंबल-शाल पेशवाओं की घायल सेना को दिए गए थे खापों व् जाट रियासत भरतपुर द्वारा; जो कि प्रतीकात्मक तौर पर फिर घर-रिश्तेदारी के बड़े बुजुर्गों को दिए जाने लगे इसी दिन के अवसर पर|
💐💐💐आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ
जय यौधेय! - फूल मलिक