विशेष: इस लेख में सिर्फ कड़वी सच्चाई है, विद्रोह तो हम भगवान के सिवाए किसी का किया ही नहीं करते, क्योंकि हम उस कौम से आते हैं जो अपने खेत बीच खड़ा हो ऊपर वाले से आँखें मिला उसको धमकाने से भी नहीं कतराती| जिसको इस कौम की यह फिलोसॉफी सही-सही समझ आती होगी, वह इस लेख को समझ पाएगा/गी|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Thursday, 17 February 2022
यूं ही कैसे भुला दें 19-20-21-22 फरवरी 2016 की शाहकाली थोंपी गई दंगाई रातों को; कोई सनातनी शूद्र थोड़े हैं!
Monday, 14 February 2022
शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष!
कृषि-दर्शनशास्त्र, युद्ध-दर्शनशास्त्र व् वैवाहिक-दर्शनशास्त्रों के प्रख्यात हरयाणवी शेक्सपियर, शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष:
Friday, 11 February 2022
कोक्को व् हाऊ!
चौधरी राकेश टिकैत जी को धन्यवाद जो उन्होंने शुद्ध हरयाणवी भाषा के ऐसे शब्द पुनर्जीवित करने का विगत एक साल से जैसे सिलिसला सा चला रखा हो, जो गैर-हरयाणवी पत्रकार लॉबी व् हरयाणवी को हिंदी का सबसेट समझने की भूल करने वालों को सक्ते में डाल दे रहे हैं| जैसे कि "गोला-लाठी दे देंगे", "बक्क्ल तार देंगे", "भुरड़ फेर देंगे" व् कल बोला "कोक्को ले गई"| कोक्को की केटेगरी का एक शब्द और है "हाऊ"| आइए थोड़ा इन बारे विस्तार से जानते हैं|
"कोक्को" व् "हाऊ" शब्द ऐसे विचार का प्रतिबिम्ब होते हैं जो आसपास की कई चीजों का सामूहिक दर्पण होता है| जो चीजें हम देख सकते होते हैं व् उनका अस्तित्व भी होता है; परन्तु वह डरावनी होती हैं| जैसे कि
"कोक्को": यह ऐसे पक्षियों की केटेगरी का नाम है जो आपके सर पर हमला कर देते हैं, आपकी थाली से रोटी उठा ले जाते हैं| बच्चों की थाली व् हाथ से तो जबरदस्ती उठा के या छीन के ले जाते हैं| जैसे कि कव्वा-कव्वी, चील, काब्बर आदि| काब्बर हालाँकि हमला नहीं करती, परन्तु आपकी थाली के पास मंडराती रहती है व् आपके इधर उधर होते ही या आपकी नजर इधर उधर होते ही चुपके से खा जाती है या उठाने लायक टुकड़ा हो तो ले के उड़ जाती है| और बच्चों के दिमाग में ऐसे पक्षियों के इम्प्रैशन का फायदा बड़े-स्याणे बच्चों से कोई चीज छुपाने को करते हैं व् नाम "कोक्को" का लगा देते हैं ताकि बच्चे को यकीन हो जाये कि वाकई में कोक्को ही ले गई|
हाऊ: कपास के खेतों में, गोदामों में, धतूरे-आक-आकटे के पेड़ों-बोझड़ों के पास छोटी गेंद के आकार का सफेद रंग का बालों का चमकीला झुण्ड सा उड़ता हुआ देखा होगा? किसान व् खेत-मजदूरों के बालकों ने तो अवश्य ही देखा होगा? उसी को हाऊ कहते हैं| इसको सफ़ेद भूतों की केटेगरी में रखा जाता है, क्योंकि इसको छूने पे यह अटपटा सा अहसास देता है; उब्क या उल्टी या ग्लानि सी आने का| हानिकारक नहीं होता परन्तु इसका चिपकना किसी को अच्छा भी नहीं लगता| स्पर्श में अति-मुलायम व् सफ़ेद भूतों जैसा अहसास करवाता है|
यह ज्यादा मशहूर तब हुआ था जब 1761 की पानीपत लड़ाई में आये पुणे के पेशवे भाउओ (भाऊ) से भी हमारी औरतों ने इस हाउ को जोड़ दिया| क्योंकि यह लोग भी यही गलानि व् ग्लीजता का अहसास दिलाते थे; इसीलिए हरयाणवी औरतों ने कहावत शुरू कर दी कि, "गैर-बख्त बाहर मत जाईयो, नहीं तो हाउ यानि भाउ उठा ले जायेंगे"|
यह हरयाणवी भी कमाल की भाषा है, एक शब्द बोल दो; तथाकथित ज्ञानियों को इतने में ही दस्त लग जाते हैं|
बाकी पहले दौर की कल हुई वोटिंग में गठबंधन 40 सीटें (हो सकता है ज्यादा भी जीते) तो आराम से जीत रहा है; बस यह फंडी लोग एडमिनिस्ट्रेटिव मशीनरी का दुरुप्रयोग नहीं करेंगे तो|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Tuesday, 25 January 2022
सावधान: हिन्दू-मुस्लिम फ़ैल होने के बाद, भूमिहीन जातियों को भूमिवान जातियों के खिलाफ भिड़ाने की साजिश पर फंडियों का संघठन दिन-रात काम कर रहा है!
यूपी-पंजाब-उत्तराखंड फंडी हारे या जीते, परन्तु फंडियों के संघठन का समाज में तोड़फोड़ मचाए रखने का अगला एजेंडा तैयार है| अगर हारे तो यह एजेंडा पूरे देश में आजमाया जाएगा, अगर जीते तो इसकी सबसे पहली प्रयोगशाला हरयाणा को बनाया जाएगा| जिसके कि लिटमस-टेस्ट शुरू भी किए जा चुके हैं|
और इसमें ख़ास टारगेट पर हैं खाप पंचायतों के चौधरी| चौधरियों के बोले एक-एक शब्द में विवाद तलशवाये जा रहे हैं|
2024 के चुनाव आने तक फंडियों के संघठन से जुडी सारी फंडी बिरादरियों को, हरयाणा में 35 बनाम 1 लगभग खत्म होने की कगार पर पहुँचने के बाद (किसान आंदोलन की बदौलत), व् राष्ट्रीय स्तर पर "हिन्दू-मुस्लिम" मृतपर्याय (यूपी इलेक्शन इसको साबित कर रहे हैं) होने के बाद, अब आजमाया जाना है "भूमिहीन बनाम भूमिवान"| ध्यान से पढ़िए, "मंदिरहीन बनाम मंदिरवान" या "फ़ैक्टरीहीन बनाम फ़ैक्टरीवान" नहीं अपितु "भूमिहीन बनाम भूमिवान"|
और इनके इस एजेंडा की काट इसी फार्मूला में छुपी है| इससे पहले यह "भूमिहीन बनाम भूमिवान" को इतना विशाल बना दें कि भूमिवान फिर हाथ मलने के अलावा कुछ ना कर सकें; भूमिवानों को 3 पहलुओं को ले कर भूमिहीनों को स्पष्ट करने की मुहिमें चलानी होंगी|
मुहीम एक: वर्णवाद के चलते मंदिरों में वर्ग-विशेषों का कब्जा क्यों है? समाज के पैसे से यह बनते हैं परन्तु इनकी कमाई सर्वसमाज की बजाए वर्ग विशेष ही क्यों खाता है? उसपे वर्ण के नाम पर इनमें सबसे ज्यादा नश्लीय शोषण दलित व् पिछड़े का क्यों है? भूमिवानों को फंडियों द्वारा समाज में फैलाई इस असमानता पर वक्त रहते; गाम-गाम बातें कर, दलित-पिछड़ों को मंदिरों में उनके प्रतिनिधित्व की बात उठानी होगी| अन्यथा फंडी तो फिर भूमिवानों को घेरने निकल ही चुका है| जो कि दोहरे तौर से अन्यायसंगत है; एक तौर पर यह नश्लवाद यानि वर्णवाद फैलाएंगे; दूसरे तौर पर "नेक कमाई व् अथक मेहनत (दान नहीं) से भूमि जोड़ने वाले यानि भूमिवानों के लिए मुसीबतें खड़ी करेंगे|
मुहीम दो: भूमिहीनों को यह कह के भूमिवानों के खिलाफ भड़काया जा रहा है कि तुम जमीनों पे मजदूर ही क्यों? और इसमें फंडियों की व्यापारी बिरादरी नीचे-नीचे सबसे ज्यादा आग लगा रही है| किसी को यह बात टेस्ट करनी है तो भूमिहीन तबके का बन के किसी फंडी की दुकान पर इसके इर्दगिर्द बात करके चेक कर ले| इस पर भूमिवानों को चाहिए होगा कि वह इनकी बातों में आने वालों में प्रचारित करवाएं कि मजदूर तो फैक्ट्री व् दुकान में भी होते हैं तो क्या करेंगे फैक्टरियों वाले फैक्टरियों में मजदूरों की मलकियत या हिस्सेदारी? खेती की मजदूरी से तो ज्यादातर आसान व् आरामदायक ही होती है फैक्ट्री की मजदूरी (फिर चाहे वह मैनेजर की पोस्ट पे बैठा मजदूर हो या सबसे नीचे स्तर वाला तकनीशियन या दिहाड़ीदार)?
मुहीम तीन (पहले दो से भी जरूरी): प्रचारित करवाया जाए कि कैसे भूमिवानों के पुरखों ने अपनी मेहनत से जमीनें कमाई हैं| व् मुग़ल रहे या अंग्रेज या आज वाले; हर जमाने में इन जमीनों के टैक्स, खिराज, मालदरखास सब भरी हैं; तब जमीनें थमीं हैं| साथ ही यह भी बताएं कि सबसे ज्यादा भूमिहीनों में जमीनें भी सर छोटूराम सरीखे लोगों ने बंटवाई हैं, 100-100 गज के प्लॉट पंचयती जमीनों पे दिए हैं (फंडियों की सरकार ने बाँटें क्या कभी?)| व् जब-जब इतिहास में भूमिहीनों को जमीनें देने पर सरकार की पॉलिसियाँ बनी, भूमिवानों ने हमेशा उनका समर्थन किया है| उदाहरण के तौर पर 1980 के दशक में एक पालिसी आई थी भूमिहीनों को किसान-जमींदार बनाने की, जिसके तहत पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी के हर गाम में बहुत से दलित परिवारों में प्रति-परिवार पौने-दो एकड़ जमीन दी गई थी| इस पालिसी के तहत लेखक के गाम में 84 किल्ले धरती आवंटित हुई थी| कभी इसका विरोध नहीं किया किसी ने|
गाम-गाम गेल "धरती-उत्सव", "उदारवादी जमींदारी उत्सव" करवाइए; इनसे भला होगा भूमिवानों का, ना कि फंडियों के बताए उत्त्सवों से|
अब इस नए एजेंडा के जरिए ऐसी भूमिवान जातियां फिर से फंडियों के निशाने पर हैं, जिन्होनें हमेशा अपने सीरी-साझियों के ब्याह-वाणे तक ओटने के भाईचारे निभाए| इसलिए सावधान हो जाईए; वरना नर-पिसाच फिर आ लिए हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Sunday, 23 January 2022
इंडिया गेट के नीचे से "अमर-जवान ज्योति" को हटाए जाने केपीछे "mercenaries" वाला कारण देना; बहुत ही बेहूदगी भरे अंध-अहंकार की प्रकाष्ठा है!
वैसे तो नहीं बोल रहा था इस ज्योति को नेशनल वॉर मेमोरियल में समाहित करने बारे; एक अच्छी भावना से ही देख रहा था| परन्तु जब आर्मी के ही दो बड़े अधिकारीयों के ट्वीट्स का सलंगित स्क्रीनशॉट (see attachment) देखा तो माथा ठनका कि यह फंडी इस देश की आत्मा को खोखला करने की कौनसी अप्रत्याशित व् अमर्यादित हदों के पार जा चुके हैं|
क्योंकि किसी भी देश की सेना उसकी सरकार के हुक्म की पाबंद होती है; फिर चाहे वह किसी भी काल के शासक-सरकार का युग रहा हो; आज़ाद युग रहा हो अथवा गुलाम युग| आज भी तो पता नहीं कहाँ-कहाँ अरब-अमेरिका-अफ्रीका में कभी नाटो के कहे पे तो कभी किसी अन्य शांति-बहाली के नाम पर भारतीय सेना जाती रहती है; तो क्या कल को उनको भी यही बोल दिया जाएगा कि यह देशभक्त नहीं थे अपितु "पैसे के लिए भाड़े पे गए लोग थे"? ऐसे ही विश्व युद्ध - 1 व् 2 में सेना गई थी|
ऐसे तो फिर क्या अकबर के दरबार के नौ रत्नों में जो 4 या 5 हिन्दू बताए जाते हैं; उनको यही लोग महान, रत्न आदि कहना-लिखना-बताना बंद कर चुके हैं? अंग्रेजों से प्राप्त 300 से ज्यादा "सर" की उपाधि वाले लोगों में 98 से ले 99% फंडी वर्ग से आते हैं; क्या उनको भी यह इस विकृत मानसिकता के लोग, इसी "mercenaries" वाली श्रेणी में रखेंगे? यह लोग महानिकम्मे व् मक्कार लोग हैं; इनसे समाज जितना जल्दी पिंड छुड़वा ले उतना बेहतर|
और "पैसे के लिए" इस दुनिया कौनसी नौकरी नहीं की जाती है, जो यह लोग इस चीज को एक "निंदनीय अतिश्योक्ति" के रूप में बयाँ कर रहे हैं? इस हिसाब से तो इनके ही एक बड़े नेता अमित शाह ने ब्यान दिया था कि, "व्यापारी भी बड़ा देशभक्त होता है"? क्यों भाई, किस बात का देशभक्त व्यापारी; वह तो अपने नफे-नुकसान यानि पैसे के लिए काम करता है; खटता है; या नहीं? तो कहें फिर हर व्यापारी को भी mercenary?
सेना वालों की देशभक्ति देश की सरकारों के हुक्म से निर्धारित होती है| सरकार उनको जहाँ कहेगी, उनको वहां खड़ना होता है| यह किसी पोलिटिकल पार्टी, किसी नेता विशेष या फंडियों की मनमाफिक परिभाषाओं की पाबंद कैसे हो जाएगी? यह लोग ऐसा करके ना सिर्फ डिफेंस वेटरंस में तनाव पैदा करना चाहते हैं अपितु विदेशों में बसने वाले WW-1 व् WW-2 की पीढ़ियों की NRI फैमिलीज़ में को भी शर्मिंदा व् हताश करना चाहते हैं| स्थानीय वॉर-वेटरंस तो इनके निशाने पर हैं हीं|
कितनी आसान स्टेटमेंट बना दिया है इन्होनें डिफेंस में काम करने को, कि उसको मात्र पैसे पे ला के तोल दिया है? उस भावना, उस वीरता, उस जिगरे, उस शारीरिक फिटनेस की कोई कीमत नहीं, जिसपे कि पास होने को फंडियों के तो 99% बच्चे, भर्ती लाईनों में खड़ा होने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं?
अरे फंडियों, और नहीं तो उस इजराइल से ही सीख लेते; ऐसे जहर फैलवाने से पहले, जिनको तुम हर बात में आदर्श मान फॉलो करते दीखते हो? सीख लेते कि क्यों वह अपने हर सिटीजन को न्यूनतम 2 साल सेना में लगवाते हैं? लगता है अब मुद्दा यह उठना चाहिए कि देश का हर नागरिक न्यूतम 2 साल डिफेंस में लगाएगा; तब जा कर ऐसे लोगों को पट्ट खुलेंगे|
फंडी अपनी बेशर्मी व् बदनीयती के चरम पर है| अगर इनको नहीं रोका गया तो समझो इनका क्रूरतम तो अभी देखना बाकी है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Friday, 14 January 2022
संकरात: त्यौहार देसी, तारीख अंग्रेजी (14 जनवरी); ऐसा क्यों?
या फिर यह 14 जनवरी 1761 को पुणे के पेशवाओं की घायल सेना पर सर्वखाप द्वारा की गई मानवीय उदारता की प्रकाष्ठा के "सर्वखाप मानवता दिन" को समाज से छुपाने का चोला है? या यह दो त्यौहार हैं व् पड़ते एक ही तारीख को हैं?
विषय विवेचना:
1) अंग्रेज उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत आए 1600 में; तो इससे पुराना तो अंग्रेजी कैलेंडर हो नहीं सकता भारत में; या था?
2) अगर संकरात देसी त्यौहार है तो यह अंग्रेजों से पहले कौनसी तारीख को मनता था? मनता था तो कोई देसी तारीख ही रही होगी? वह देसी, इस अंग्रेजी तारीख से क्यों, कब से व् किसलिए बदली गई?
3) तर्क आते हैं कि सर्वखाप तो सिर्फ उत्तरी भारत में है परन्तु यह त्यौहार तो लगभग पूरे ही भारत में मनता है| यह तो फैलाया गया भी हो सकता है, जैसे सन 1891 में गंगाधर तिलक द्वारा मुंबई से शुरू किया गया "गणेश चतुर्थी" लगभग सवा एक सदी में ही इतना फ़ैल गया| 1947 में पाकिस्तान से आया त्यौहार "नवरात्रे" व् "करवा-चौथ" हो या बिहारी प्रवासी मजदूरों के साथ आया नया-नया "छट पूजा" या बंगालियों के साथ आई "दुर्गा पूजा" यह तो अभी हाल ही के ताजा उदाहरण हैं; जो इतने कम समय में इतने फ़ैल गए, तो संकरात तो 14 जनवरी 1761 से शुरू हुआ; वह तो फ़ैल ही जाएगा| तो यह तर्क भी इसका जवाब नहीं|
4) और इसको सूर्य के उत्तरार्द्ध में आने से जोड़ के और पुख्ता सा बनाने की कोशिश भी सही नहीं लगती| क्योंकि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार तो सूर्य 25 दिसंबर (उनका बड़ा दिन कहते हैं इसको) से उत्तरार्ध में आना शुरू हो जाता है|
हालाँकि यह ऐसी विवेचना है जिससे लोगों की धारणाएं चैलेंज होती हैं जो कि लेखक का उद्देश्य कतई नहीं है| लेखक सिर्फ इतना चाहता है कि इस तारीख के दिन ही इतिहास में सर्वखाप-किनशिप का वह सबसे महान दिन हुआ था जिस दिन मानवता सबसे ज्यादा बरसी थी (शायद विश्व भर की तारीखों में सबसे ज्यादा मानवता वाली तारीख हो यह); उस दिन को भी मनाया जाए| मनाया जाए अगर "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के तंज नहीं सुनने व् "35 बनाम 1" नहीं झेलना तो|
तो क्या है हर साल 14 जनवरी को मनाया जाने वाला "सर्वखाप मानवता दिन"?:
किस्सा जुड़ता है 14 जनवरी 1761 को हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई से| ज्यादा डिटेल्स में नहीं जाऊंगा परन्तु इतना जानते हुए चलते हैं कि इस लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली ने पुणे की पेशवाई सेना को हरा दिया था| यह सेना यहाँ के स्थानीय राजाओं को हटा, खुद राज करने आई थी; जैसे अब्दाली आया था| और इनकी इस छुपी बदनीयत का परिचय इसके सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने उस वक्त के उत्तर भारत सबसे ताकतवर शासक महाराजा सूरजमल (जो कि इनसे मिलकर पानीपत लड़ने हेतु संधि बनाने को इनके कैंप में इनसे मिलने आए थे) को ही बंदी बनाने की अपनी कोशिशों से जाहिर कर दी थी| जाहिर सी बात है कि ऐसा दम्भी व् अल्पमति इंसान फिर अकेला ही रह जाता है व् ऐसा ही हुआ; यानि पानीपत की लड़ाई पेशवा हार गए|
14 जनवरी 1761 को क्योंकि इस मानवता की शुरुवात हुई थी तो स्थानीय लोग इसको एक याद एक रूप में उसी अंदाज में मनाने लगे| और धीरे-धीरे इस बात ने एक त्यौहार का रूप ले लिया व् हर साल 14 जनवरी को ठंड में ठिठुरते लोगों को गर्म वस्त्र व् खाने की सामग्री देने से चलता-चलता घर के बड़ों को मानाने हेतु भी ऐसे कंबल-खेस-शॉल देने का चलन बढ़ चला|
अब फंडियों को इससे कुलमुलाहट हुई; क्योंकि यह ठहरे "बदले की भावना" से काम करने वाले जींस के लोग; आप इनके लिए गर्दन भी काट के रख दो तो यह उसको आपका अहसान की बजाए इनका हक मानते हैं तो इनको कहाँ यह अहसान सदियों-सदियों ज्यों-का-त्यों याद रहने देना था| इसलिए चढ़ा दिया इस यह दूसरा लेप; जिसमें ना सर्वखाप की महानता बताई जाती ना उसका जिक्र ही होने दिया|
परन्तु खैर कोई नहीं, यह चीजें कब तक छुपेंगी| हम हैं ना सर्वखाप के बेटे-बेटी| जो आ गए हैं अपनी "किनशिप" की चीजों को संजों के रखने की महत्वता को समझने की मति लिए| इनको बिना शिकायत किये, बिना उलाहना दिए; हम मनाएंगे इसको "सर्वखाप मानवता दिन" के रूप में| तो आप सभी को "सर्वखाप मानवता दिन" की भी बधाई|
Monday, 3 January 2022
अधिनायकवाद, सबसे बड़ी मूर्खता है; जिसको फंडी सिद्द्त से पालते हैं!
और खुद तो लोकनिंदा का सबब बनते ही हैं साथ ही देश-समाज-सभ्यता का स्तर भी दुनिया में गिरा देते हैं| मेघालय के राज्यपाल महामहिम सत्यपाल मलिक ने भक्तों के अधिनायक से मुलाकात बारे कल जो कहा है अगर यह सत्य है तो यह अधिनायक अब एक ऐसा बेलगाम घोडा बन चुका है जो अब ना तो इसको बनाने वाली आरएसएस के काबू का रहा और ना किसी शंकराचार्य के बस का| इनके बस का होगा भी तो यह काबू नहीं करना चाहेंगे क्योंकि इनकी अल्पमति अनुसार अब इसको रोकना, इनके लिए इन सबके सर्वविनाश तुल्य यह मानते हैं| अधिनायक नाम का जिन्न खड़ा करते-करते इन्होनें अपनों के ही इतने टेटवे दबाए हुए हैं (वो भी लम्बे समय से) कि इसको रोकने में सक्षम होते हुए भी यह यूं डरते हैं कि अगर इसको रोका तो नीचे वाले भी बोलने लग पड़ेंगे व् इनका खड़ा किया तथाकथित स्वयंसेवकों का जखीरा ताश के पत्तों की भांति बिखर जाएगा| लखीमपुर खीरी वाले अपराधी गृह-राजयमंत्री को नहीं हटाने के पीछे भी तो यही डर है| इसलिए देश डूबो-बिको या बंटों, देश की विश्वपटल पर हंसी उड़े या ठिठोली; इन गिरोह बना के लूट करने वालों को चुप रहना बेहतर लगता है बस इतना ही खोखला राष्ट्रवाद इनका|
इसी एपिसोड में अमितशाह ने मोदी बारे जो महामहिम को कहा अगर यह भी सत्य है तो अब यह घोडा अपने घनिष्टम मित्र के कहे से भी बाहर जा चुका है| यानि आरएसएस व् शंकराचार्यों को तो छोडो, खुद अमितशाह इसके आगे असहाय हो चुका दीखता है|
ऊपर से यह सर्वखाप जैसी मध्य-मार्गी संस्था के उभार से इतना घबराते हैं कि दादरी दौरे में कुछ ही किलोमीटर दूर उसी दौरे के दौरान हुई सर्वखाप पंचायत में महामहिम द्वारा शामिल होने बारे पहले मंजूरी दे कर फिर दूरी बनावाना भी इन्हीं फंडियों की चाल की साजिश लगती है| अन्यथा महामहिम को नहीं आना होता तो वह आना स्वीकार ही क्यों करते? फंडियों ने ऐसा करवाया होगा ताकि इनके शामिल होने से सर्वखाप की साख और ज्यादा ना बढ़ जाए, जो कि फंडियों के लिए परेशानी का सबब हो सकती थी| दूसरा इन्हीं ताकतों ने इनको धर्म के डेरे पर जाने से नहीं रोका, क्योंकि यहीं से इनके एजेंडा समाज में उतरते हैं| व् यह जगहें समाज की नजरों में ऊंचीं ले जाना इनका उद्देश्य है| वरना जो तर्क दे कर राजयपाल ने खाप की पंचायत में आने से मना किया, वही तर्क धर्म कीजगह पर जाने बारे बल्कि ज्यादा सटीक बैठता था|
परन्तु यह 10% वैचारिक भिन्नता को आपसी दूरी की 100% वजह बना के अलग-अलग चलने की आदत इस सर्वखाप फिलॉसोफी को सबसे ज्यादा तंग कर रही है; 90% समान विचार होते हुए भी, यह 10% भिन्नता वाले मिलकर इस बात की वजह ढूंढने व् भविष्य में ऐसा फिर कभी ना हो इसके लिए जरूरी मंत्रणा कर कदम उठाने की बजाए इस सर्वखाप पंचायत में राजयपाल के नहीं आने का मन-ही-मन ठीकरा इस पंचायत के आयोजकों फोड़ राजी हो रहे होंगे| यह शायद ही कोई सोच रहा होगा कि यही कल को तुम्हारे आयोजित कार्यक्रम के साथ बनी तो? यही आदत इस फिलोसॉफी वालों से 35 बनाम 1 झिलवाती है|
लेकिन यह कमी ठीक कर ली जाए तो कुल मिलाकर मार्ग खाप-खेड़े-खेतों वाले पुरखों वाले ही सबसे उपयुक्त हैं| "सर छोटूराम मार्ग" अगर चंद शब्दों में कहूं तो|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Friday, 31 December 2021
ऐतिहासिक सर्वखाप किसान क्रांति दिवस - 1 जनवरी 1670!
विशाल हरयाणा के उदारवादी जमींदारों की वह क्रांति जिसने 1907 के "पगड़ी संभाल जट्टा" किसान आंदोलन व् 2020-21 के किसान आंदोलन की भांति ही पूरे विश्व में ख्याति पाई थी व् देश के हालातों व् आयामों को नई दिशा दी थी|
उसी क्रांति के नायक
यौधेय समरवीर अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज व् 21 खाप चौधरियों के बलिदान दिवस (01/01/1670) पर उन ज्योतिपुंजों को कोटि-कोटि गौरवपूर्ण नमन
के साथ उनको समर्पित है यह विशेष आर्टिकल!
गॉड-गोकुला के नेतृत्व
में चले इस विद्रोह का सिलसिला May 1669 से लेकर December 1669 तक 7 महीने चला और अंतिम निर्णायक युद्ध तिलपत,
फरीदाबाद में तीन दिन चला| यह हिंदुस्तान के उस वर्ग यानि सर्वखाप की
कहानी है जिसमें मिलिट्री-कल्चर पाया जाता है|
कहानी बताने का कुछ
कविताई अंदाज से आगाज करते हैं:
हे री मेरी माय्यड़ राणी,
सुनणा चाहूँ 'गॉड-गोकुला' की कहाणी,
गा कें सुणा दे री माता,
क्यूँकर फिरी थी शाही-फ़ौज उभाणी!
आ ज्या री लाडो, हे आ ज्या मेरी शेरणी,
सुण! न्यूं बणी या तेरे
पुरखयां की टेरणी!
एक तिलपत नगरी का जमींदार,
गोकुला जाट हुया,
सुघड़ शरीर, चुस्त दिमाग, न्याय का अवतार हुया!
गूँज कें बस्या करता,
शील अर संतोष की टकसाल हुया,
ब्रजमंडल की धरती पै हे
बेबे वो तै, जमींदारी का सरताज हुया!!
यू फुल्ले-भगत गावै हे
लाडो, सुन ला कैं सुरती-स्याणी!
1) यह खाप-समाजों में पाए
जाने वाले मिल्ट्री-कल्चर की वजह से सम्भव हो पाता है कि जब-जब देश-समाज को इनके
पुरुषार्थ की जरूरत पड़ी, इन्होनें रातों-रात
फ़ौज-की-फौजें और रण के बड़े-से-बड़े मैदान सजा के खड़े कर दिए (एक उदाहरण विगत 28 जनवरी 2021 को ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर हुआ था, अभी तरोताजा होगा ही दिमाग में)| आईये जानें उसी मिलिट्री कल्चर से उपजी एक ऐतिहासिक लड़ाई की
दास्ताँ, जिसकी अगुवाई करी थी 1 जनवरी 1670 के दिन शहीद हुए 'गॉड-गोकुला जी महाराज' ने|
यह हुई थी औरंगजेब की
अन्यायकारी किसान कर-नीति के विरुद्ध ‘गॉड गोकुला’ की सरपरस्ती में|
जाट, मेव, मीणा, अहीर, गुज्जर, नरुका, पंवारों आदि से सजी
सर्वखाप की हस्ती में||
2) राणा प्रताप से लड़ने
अकबर स्वयं नहीं गया था, परन्त "गॉड-गोकुला”
से लड़ने औरंगजेब तक को स्वयं आना पड़ा था।
3) हल्दी घाटी के युद्ध का
निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था| पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हो गए थे, परन्तु तिलपत (तब मथुरा में, आज के दिन फरीदाबाद में) का युद्ध तीन दिन चला
था| यह युद्ध विश्व के
भयंकरतम युद्धों में गिना जाता है|
4) अगर 1857 अंग्रेजों के खिलाफ आज़ादी का पहला विद्रोह
माना जाए तो 1669 मुग़लों की कृषि
कर-नीतियों के खिलाफ प्रथम विद्रोह था|
5) एक कविताई अंदाज में तब के
वो हालत जिनके चलते God Gokula ने विद्रोह का बिगुल
फूंका, इस प्रकार हैं:
सम्पूर्ण ब्रजमंडल में
मुगलिया घुड़सवार, गिद्ध, चील उड़ते दिखाई देते थे|
हर तरफ धुंए के बादल और
धधकती लपलपाती ज्वालायें चढ़ती थी|
राजे-रजवाड़े झुक चुके थे;
फरसों के दम भी जब दुबक चुके थे|
ब्रह्माण्ड के
ब्रह्मज्ञानियों के ज्ञान और कूटनीतियाँ कुंध हो चली थी|
चारों ओर त्राहिमाम-2 का क्रंदन था, ना इंसान ना इंसानियत के रक्षक थे|
तब उन उमस के तपते शोलों
से तब प्रकट हुआ था वो महाकाल का यौद्धेय|
उदारवादी जमींदार समरवीर
अमरज्योति गॉड-गोकुला जी महाराज|
6) इस युद्ध में खाप
वीरांगनाओं के पराक्रम की साक्षी तिलपत की रणभूमि की गौरवगाथा कुछ यूँ जानिये:
घनघोर तुमुल संग्राम छिडा,
गोलियाँ झमक झन्ना निकली,
तलवार चमक चम-चम लहरा,
लप-लप लेती फटका निकली।
चौधराणियों के पराक्रम
देख, हर सांस सपाटा ले निकलै,
क्या अहिरणी, क्या गुज्जरी, मेवणियों संग पँवारणी निकलै|
चेतनाशून्य में
रक्तसंचारित करती, खाप की एक-2 वीरा चलै,
वो बन्दूक चलावें,
यें गोली भरें, वो भाले फेंकें तो ये धार धरैं|
7) God Gokula के शौर्य, संघर्ष, चुनौती, वीरता और विजय की टार और
टंकार राणा प्रताप से ले शिवाजी महाराज और गुरु गोबिंद सिंह से ले पानीपत के
युद्धों से भी कई गुणा भयंकर हुई| जब God Gokula के पास औरंगजेब का संधि प्रस्ताव आया तो
उन्होंने कहलवा दिया था कि, "बेटी दे जा और संधि
(समधाणा) ले जा|" उनके इस शौर्य भरे उत्तर
को पढ़कर घबराये औरंगजेब का सजीव चित्रण कवि बलवीर सिंह ने कुछ यूँ किया है:
पढ कर उत्तर भीतर-भीतर
औरंगजेब दहका धधका,
हर गिरा-गिरा में टीस उठी
धमनी धमीन में दर्द बढा।
8) राजशाही सेना के साथ सात
महीनों में हुए कई युद्धों में जब कोई भी मुग़ल सेनापति God Gokula को परास्त नहीं कर सका तो औरंगजेब को विशाल
सेना लेकर God Gokula द्वारा चेतनाशून्य
उदारवादी जमींदारी जनमानस में उठाये गए जन-विद्रोह को दमन करने हेतु खुद मैदान में
उतरना पड़ा| और उसको भी एक के बाद एक
तीन हमले लगे थे उस विद्रोह को दबाने में|
9) आज उदारवादी जमींदारी
(सीरी-साझी कल्चर वाली व् समातंवादी जमींदारी के विपरीत जमींदारी) की रक्षा का तथा
तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय
मनमानी की दिशा मोड़ने का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल 'गॉड-गोकुला' को है।
10) 'गॉड-गोकुला’ का न राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली
मुग़ल-सत्ता, दीनतापूर्वक, संधी करने की तमन्ना लेकर गिड़-गिड़ाई थी।
11) हर धर्म के खाप विचारधारा
(सिख धर्म में मिशल इसका समरूप हैं) को मानने वाले समुदाय के लिए: बौद्ध धर्म के ह्रास
के बाद से एक लम्बे काल तक सुसुप्त चली खाप थ्योरी ने महाराजा हर्षवर्धन के बाद से
राज-सत्ता से दूरी बना ली थी (हालाँकि जब-जब पानी सर के ऊपर से गुजरा तो ग़ज़नी से
सोमनाथ की लूट को छीनने, पृथ्वीराज चौहान के कातिल
मोहम्मद गौरी को मारने, कुतबुद्दीन ऐबक का विद्रोह
करने, तैमूरलंग को हराकर
हिंदुस्तान से भगाने, राणा सांगा की मदद करने
हेतु सर्वखाप अपनी नैतिकता निभाती रही)| और ऐसे में 1669 में जब खाप थ्योरी का
समाज "गॉड-गोकुला" के नेतृत्व में फिर से उठा तो ऐसा उठा कि अल्पकाल में
ही भरतपुर और लाहौर जैसी भरतपुर और लाहौर के बीच दर्जनों शौर्य की अप्रतिम
रियासतें खड़ी कर दी| ऐसे उदाहरण हमें आश्वस्त
करते हैं कि खाप विचारधारा में वो तप, ताकत और गट्स हैं जिनका अनुपालन मात्र करते रहने से हम सदा इतने सक्षम बने
रहते हैं कि देश के किसी भी विषम हालात को मोड़ने हेतु जब चाहें तब अजेय विजेता की
भांति शिखर पर जा के बैठ सकते हैं|
12) हर्ष होता है जब कोई
हिंदूवादी या राष्ट्रवादी संगठन किसी भी अन्य नायक के जन्म या शहादत दिवस पर
शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं| परन्तु जब यही लोग "गॉड गोकुला" जैसे अवतारों को (वो भी हिन्दू होते
हुए) याद तक नहीं करते, तब समझ आता है कि इनकी
दोगली नियत है व् यह अपने धर्म के कल्चरों में भी भेदभाव करते हैं| ऐसे में इनकी धर्मभक्ति व् राष्ट्रभक्ति थोथी
लगती है| दुर्भाग्य की बात है कि
हिंदुस्तान की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख, दरबारी टुकडों पर पलने वाले तथाकथित
इतिहासकारों ने नहीं किया। बल्कि हमें इनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के
वृतान्तों से होती है। अब ऐसे में आजकल भारत के इतिहास को फिर से लिखने की कहने
वालों की मान के चलने लगे और विदेशी लेखकों को छोड़ सिर्फ इनको पढ़ने लगे तो मिल लिए
हमें हमारे इतिहास के यह सुनहरी पन्ने| खैर इन पन्नों को यह लिखें या ना लिखें (हम इनसे इसकी शिकायत ही क्यों करें),
परन्तु अब हम खुद इन अध्यायों को आगे लावेंगे|
और यह प्रस्तुति उसी अभियान का एक हिस्सा है|
आशा करता हूँ कि यह लेख आपकी आशाओं पर खरा उतरा
होगा|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Saturday, 18 December 2021
Conscious mind व् unconscious mind और धर्म!
धर्म की परिभाषा: आपके दिए दान-दया के बदले अगर आपका धर्म आपकी सामाजिक व् एथनिक स्वायत्तता, सुरक्षा, पहचान, सम्मान की सुनिश्चतता व् निरंतरता नहीं करता है तो वह धर्म नहीं है अपितु वह आपके unconscious mind को hypnotize करके उसमें छुपे भय, ईर्ष्या, काल्पनिकता, अधूरी इच्छाओं को भड़का कर आपका मानसिक-आर्थिक-सामाजिक दोहन करने का धंधा मात्र है| निचौड़ की बात यह है कि धर्म में जहाँ जवाबदेही ना हो, वहां करप्शन एथिक्स बन जाती है|