इतिहासकार David E. Ludden के अनुसार, जाटों ने सिंध और पश्चिमी पंजाब से उत्तर की ओर आकर, 11वीं से 16वीं शताब्दी में सूखे स्थानों को खेती योग्य बनाया और कृषिप्रधान जमीन पर अपना कब्ज़ा बनाया।
Sanjrann (सांजरण)
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Thursday, 30 October 2025
जाटों ने सिंध और पश्चिमी पंजाब से उत्तर की ओर आकर
Saturday, 18 October 2025
राजनीति का अपना आर्थिक दर्शन भी होना चाहिए।
गांधी का ग्राम स्वराज, नेहरू का औद्योगीकरण, मनमोहन का "ईज आफ बिजनेस" माडल वही आर्थिक दर्शन है।
Friday, 17 October 2025
IPS पूरण कुमार व् ASI संदीप लाठर आत्महत्या मामलों से 180° घूमती हरयाणे की राजनीति!
निचोड़: फरवरी 2016 से ले आज तक साढ़े नौ साल जिस 1 से नफरत-भय-द्वेष की राजनीति से चाक्की चलाई, आज उसी 1 की गोदी चढ़ने को आतुर हुए फिरते हैं! जिसको भविष्य की राजनीति करनी है, उनको आगे की दिशा दिखा गया यह दोहरा आत्महत्याकाण्ड!
हिसार सुशीला कांड हो, जिंद का जितेंद्र पहल कांड हो आदि-आदि; यह ऐसे ही हत्याकांड रहे जैसा "IPS पूरण कुमार व् ASI संदीप लाठर आत्महत्या मामलों" वाला; बस फर्क है तो सिर्फ इतना कि पहले वालों में सिर्फ नेता-अफसरी नेक्सस व् गैंगों की लड़ाई थी; जबकि अब वाले में नेता-अफसरी नेक्सस व् गैंगों के साथ-साथ नेता-अफसरी नेक्सस में घुस चुके वर्णवाद व् जातिवाद अहम्-दंभ साफ़ सामने आए हैं और हत्याकांडों की बजाए अब वाले आत्महत्या के मामले बने| जिनके कि विश्लेषण से सोशल मीडिया की वाल्स अंटी पड़ी हैं| परन्तु इन्होनें हरयाणा की गाम-गली-मोहल्ले की राजनीति इतनी प्रभावित नहीं की थी; जितनी यह दो आत्महत्याएँ कर रही हैं| आईए जानें कैसे:
1) हरयाणा में फरवरी 2016 से "तथाकथित 35 बनाम 1" में "तथाकथित 35" के झंडबदार बने हुओं के मुंह से नकाब उतर गए जब पता चला कि नायब सिंह सैनी को इतनी भी पावर नहीं कि वह एक चपड़ासी की भी बदली कर सके| "तथाकथित 35" इसलिए कहा क्योंकि हकीकत में 35 में भी कई जातियां तो मेजोरिटी में इनके साथ नहीं| और जो-जो इनके साथ हैं वो ऐसे हैं जिन्होनें धक्के से शूद्रता अपने ऊपर ओढ़ी हुई है| तभी तो बोलता कोई नहीं, इतना बड़ा पटाक्षेप होने के बाद भी; परन्तु भीतर-ही-भीतर सदमा सभी को लगा हुआ है|
2) विधानसभा चुनाव 2024 में दलित से अलग कर DSC बना तो लिया, परन्तु एक DSC IPS पूरण कुमार द्वारा आत्महत्या करने पर इन "तथाकथित 35" के झंडबदार बने हुओं का कैसा पर्दफ़ाश हुआ; इसको देख के खुद DSC वाले सकते में हैं| क्योंकि इतने वर्णवादी तो वह भी नहीं जितना उनपे वर्णवाद का जनक होने के नाते इल्जाम लगता है; जितना "तथाकथित 35 के झंडबदार" निकले|
3) हरयाणे में जब 1 वाले सीएम हुआ करते थे, तो इल्जाम लगते थे सारे असफर इनके व् बला-बला; जबकि हकीकत में ऐसा कभी नहीं रहा कि 1 वाले उनकी जनसंख्या अनुपात से सवाई भी ज्यादा रहे हों, A व् B ग्रेड जॉब्स में तो जनसंख्या अनुपात तक भी नहीं हुए कभी| परन्तु हो-हल्ला ऐसा रहता था कि जैसे 100% पोस्ट्स पर 1 वाले ही बैठे हैं|
4) हरयाणा में फरवरी 2016 से "तथाकथित 35 बनाम 1" में "तथाकथित 35" के झंडबदार, IPS पूरण कुमार पर रीझने की अपेक्षा 1 वाला जो ASI आत्महत्या कर गया, उस पर टूट के रीझे हुए हैं, खुद सुपर-सीएम तक घोषणाएं कर रहा है, रोहतक में आ के खुद उपस्थित हो रहा है? मतलब लगभग साढ़े-नौ साल जिस 1 के खिलाफ "तथाकथित 35" में भर-भर नफरत-द्वेष-भय-भ्रम भर व् आगजनी कर-कर के सत्ता पाई; आज उसी 1 की गोदी में आने को आतुर हो रहे? तो फिर इन "तथाकथित 35" वालों का क्या होगा; जिनको पिछले 9 साले से फद्दू बनाए हुए थे? मतलब जब लगा कि कहीं DSC-दलित-ओबीसी इन "तथाकथित 35 के झंडबदारों की हकीकत जान" इनपे टूट न पड़े तो लगे 1 की गोदी चढ़ने?
1 वालों समेत तमाम इनके इस घेरे मारे हुए "तथाकथित 35" में जो आज भी इनसे दूर हैं, वह सभी बचना इनसे; बूढ़े इसलिए इनको 'उघाड़े' कहा करते! तब सिर्फ सुनते थे, इस केस से प्रैक्टिकल भी देख ही लिया होगा? बल्कि अब मौका है गाम-गाम गली-गली इनकी फैलाई नफरत-द्वेष-भय-भ्रम के तमाम जालों, बहम, बवालों का पटाक्षेप कर अपने हरयाणे को वापिस इसकी सही वाली राजनैतिक लाइन पर लाने का! और ये तमाम विपक्षी पार्टियां कर लो अपने कैडर को एक्टिव ग्राउंड पे अभी से; वरना भूल जाओ 2029 भी अगर यूँ हाथ-पे-हाथ धरे बैठे रहे व् इलेक्शन से तीन महीने पहले मात्र आ के एक्टिव हुए तो! और जो-जो अभी एक्टिव हैं, वह जरा अपनी राजनैतिक दशा व् दिशा का आंकलन करके चलो; अन्यथा कोई फायदा नहीं अगर उन्हीं की subsidiary की लाइन वाली बातों के साथ ग्राउंड पे रहना है तो; फिर थारा किते कोई बट्टा-खात्ता नहीं! और एक काम यह भी हो कि तुम्हारे बारे जो-जो भरमजाल फैलाए गए हैं, उनके खुद को स्पष्टीकरण तैयार कर, पब्लिक में लटका दो; ताकि तुम्हारे विरुद्ध तुम्हारी पीठ-पीछे 'कान-फुंकाई' करने वाली गैंग डिफ्यूज की जा सके! अन्यथा कोई रास्ता नहीं!
जय यौधेय! - फूल मलिक
Sunday, 12 October 2025
कन्ना-खच्चर-कुल्लर-कतूर = खेल अब खुलता जाएगा:
कन्ना-खच्चर-कुल्लर-कतूर = खेल अब खुलता जाएगा:
इतना ही कहूंगा कि सर छोटूराम के जमाने में जो था, इनका वही दर्शन आज है; घोर मनुवादी मानसिकता, उसमें भी यह सभी के सभी शुद्रमति केटेगरी से ज्यादा कुछ सौदा नहीं! बस 10-11 साल 35 बनाम 1 वाले मसले में 1 की बुराई करके ही भले बन पाए हैं ये! अब जब असली आमना-सामना हुआ है इनकी मानसिकता में छिपी वर्णवादिता का तो इनके साथ खुद को तथाकथित 35 में काउंट करने वाले दलित-ओबीसी भाई भी सकते में हैं| हाँ, हैं कुछ 1 वाले भी, परन्तु आइडियोलॉजिकली नहीं, अपने बच्चों की नौकरियों व् कारोबारों के लालच में; वरना जो समाज तीसरी बार भी लगातार विधानसभा में 78% तक इनके विरुद्ध वोट किया हो तो वह तो इनसे स्याणा ही गिना होना चाहिए!
चोखा, ये तथाकथित एक वाले सीएम थे तब इतना repression तो कोई-से ने भी नहीं किया था कि IPS ADGP स्तर वालों को आत्महत्याएं करनी पड़ी हों! अभी भी अक्ल को हाथ मारो; या स्थिति जब वही आर्थिक-तंगी वाली हो जाएगी, जब यह तुम्हें इतना आर्थिक तौर लूटते हुए जमीन-जायदाद तक हाथ भरते थे तो सर छोटूराम ने आ के इनसे पिंड छुड़वाए थे; तब अक्ल को हाथ मारोगे?
कुछ सौदा ना है इनका; पैसा तो वेश्या व् भड़वे के पास भी होता है; इतना भर बना लेने से रुतबा-साख-इज्जतें समाज में कायम रहती तो यह दोनों सबसे ज्यादा इज्जतदार होते; वही हालत है इन कन्ना-खच्चर-कुल्लर-कतूरों की! या फिर सर छोटूराम को मानना व् अपना कहना छोड़ दो!
Saturday, 4 October 2025
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमें !!!
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमें !!!
Tuesday, 30 September 2025
होते होंगे अंतर्जातीय विवाह के फायदे भी; परन्तु अगर इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम कहीं देखना है तो भरतपुर रियासत के शहजादे को देख लो!
क्या भसड़ मचा के डाल दी है; खुद को कैसे वर्णशंकर साबित करने पे लगा हुआ है; होती जो इनकी माँ एक ही बिरादरी की तो इसके मुंह पे पहला रैह्पटा वही मारती! अब वाली जो माँ हैं, वो भी तो मार सकती हैं; आखिर वो क्यों नहीं डांट रही इसको? घर के सदस्यों में कोई मनमुटाव हैं तो इसका मतलब यह थोड़े ही होता होगा कि तुम अपनी जात-बिरादरी छोड़ के, किसी के दत्तक कहलाने को फिरो? तो क्या इसका मतलब यह मान लिया जाए कि माँ इतनी दूर जा चुकी अपने ससुर, दादा-ससुरों के कीर्तिमानों की आभा व् कांतियों से कि उनको यह तक नहीं दीखता कि उनका बिगड़ैल किधर ले के जाना चाहता है; खाप-परम्परा से उठ के बनी इस रियासत के गौरव को?
किसी से द्वेष व् मान-अपमान नहीं है यहाँ, बात उस स्वाभिमान की है जिसके चलते सरदार पटेल तक ने पूरी 565 रियासतों में से सिर्फ इसी रियासत का खुद का झंडा यह कहते हुए नहीं उतरवाया था कि, 'यह जाट रियासत अकेली ऐसी रियासत है पूरे भारत की जिसको ना मुग़ल जीत सके, ना अंग्रेज (और ना कोई और); तो जब इसका झंडा वही नहीं उतार सके तो ऐसे स्वाभिमान को चिरकाल के लिए प्रसस्त रखा जाए|
इस नादाँ को समझाया जाए कि तुझे शौक है कहीं और जा के किसी की दत्तक औलाद बनने या कहलवाने का तो शौक से जा; परन्तु इस रियासत को अपनी बपौती मत समझ; जिन पुरखों ने यह खड़ी की थी, वह शुद्ध खाप-खेड़ा-खेत कल्चर के लोग रहे हैं; यह चीज समझ ले अच्छे से| वरना भरतपुर का नाम तो यूँ ही चलेगा; परन्तु तुझे कोई पूछने वाला भी ना होगा; ऐसे इतिहास के पन्नों से मिट जाएगा!
कोई कह रहा था, कि इस सब के पीछे भी फंडी ही हैं, क्योंकि किसी रियासत को हड़प के उसके वारिस-होल्ली-सोल्ली-पिछोके-ब्योंक बदल देने के यही तो तरीके होते हैं इनके| ब्रज व् भरतपुर वालो जरा सम्भालो मसले को, संजीदगी व् शालीनता से सम्भलता हो तो उस तरीके से अन्यथा कोई और जाब्ता सही लगे तो उससे!
जय यौधेय! - फूल मलिक
Monday, 29 September 2025
नवनिर्माण - नई हरयाणवी रागनी
नवनिर्माण - नई हरयाणवी रागनी
Sunday, 28 September 2025
"हरयाणवी-साँझी" मनाने का पुरखाई-तरीका ऐसा अद्भुत रहा है कि हरयाणवी इसकी सीखों से बाकियों को तीज-त्यौहार पे नाम पर कूड़ा-कचरा कैसे मैनेज किया जाता है; वह सीखा सकते हैं; परन्तु!
*"हरयाणवी-साँझी" मनाने का पुरखाई-तरीका ऐसा अद्भुत रहा है कि हरयाणवी इसकी सीखों से बाकियों को तीज-त्यौहार पे नाम पर कूड़ा-कचरा कैसे मैनेज किया जाता है; वह सीखा सकते हैं; परन्तु:*
परन्तु यह कि पहले तो खुद ऐसे लोगों को फॉलो करना बंद करो, जो तीज-त्यौहार के नाम पर नदी-नालों-गलियों में कचरा छोड़ना-फेंकना अपना धर्म व् कल्चर मानते हैं|
अब बात "हरयाणवी-साँझी" मनाने का पुखराई तरीका:
1) - बहते पानी में कभी भी हमारे पुरखे (1990-2000 तक को हमने खुद उनसे ही सीखा है) कचरा नहीं फेंकते थे और ना ही फेंकने देते थे!
2) सांझी उतार के जो कूड़ा होता था, उसमें गीला कूड़ा अलग व् सूखा अलग; दोनों को फेंकने की अलग कुरड़ियाँ होती थी!
3) - सांझी बहाने के लिए कभी गाम की फिरनी से बाहर जाना अलाउड नहीं था; गाम के जोहड़ों में ही सांझी तैराई जाती थी व् सुबह सबसे पहले जोहड़ों से ठीकरे-काकर-गत्ते-कागत जो भी होता था; लड़के तैर-तैर के उसको किनारे लाते व् जोहड़ों को साफ़ करते/रखते|
4) - उनका थीम सिंपल था, त्यौहार तुम्हारा कचरा तुम्हारा प्रकृति तुम्हारी तो उसको साफ़ भी तुम ही रखोगे; स्वच्छता से मनाओगे|
5) - हरयाणा में आज भी बहुतेरी जगह ऐसे ही सांझी मनाई जाती है|
और हाँ, "हरयाणवी-सांझी" ब्याह के दस दिन बाद जिंदगी कैसी होगी, उसकी कल्चरल-नॉलेज व् टूम-ठेकरी के नाम-प्रकार बताने की वर्कशॉप रही है हरयाणवी कल्चर में", कहीं इसको कहीं और जोड़े टूल रहे हों!
और अगर ऐसा नहीं होता था तो जिसको संदेह हो वह आज जो 30 साल से ऊपर के सदस्य आपके घर-पड़ोस में हैं; उनसे पूछ लो!
ऐसे में हरयाणवी लोग, यहाँ आए माइग्रेंट्स को यह चीजें सीखा सकते हैं; व् इनको बेअक्लों को अक्ल दे सकते हैं कि त्यौहार मनाने हैं, समाज की साँस नहीं घोंटनी, कान नहीं फोड़ने!
उदारता व् बाहर से आए को अपनाने के नाम पर जरूरी नहीं कि उनकी कचरा सोच व् कचरा आदतें भी अपनाई जाएं; वरन उनपे उनको सीखा के, समझा के और इससे भी ना मानें तो जलील करके, उनकी बदबुद्धि की औकात दिखा के उनको अपने कलचर में आपके कल्चर की शुद्धता दिखाओ, जिम्मेदारी दिखाओ; यह नहीं कि उनके गोबर-मूत्र कल्चर में खुद समाहित होते जाओ; ताकि कल को वह तुम्हें बैठे-बिठाए 'कंधे से नीचे मजबूत, व् ऊपर कमजोर के ताने दे-दे, (वैसे कहने वाला इसमें खुद ही स्वीकार कर रहा है कि वह कंधे से नीचे कमजोर है) यह जाहिर सा करते दिखें कि तुम्हें सभ्यता उन्होंने सिखाई! Learning व् Unlearning का बैलेंस रखो; वरना अच्छी-खासी सभ्यता के पिछोके से होते हुए भी "वैचारिक वर्णशंकर" बन के हंसी के पात्र मात्र रह जाओगे!
जय यौधेय! - फूल मलिक
Friday, 19 September 2025
सर छोटूराम ने अक्टूबर 1912 में रोहतक रोहतक में प्रैक्टिस शुरू की।
सर छोटूराम ने अक्टूबर 1912 में रोहतक रोहतक में प्रैक्टिस शुरू की । रोहतक में इनसे पहले चौधरी रामचंद , चौधरी नवल सिंह और चौधरी लालचंद ये तीन जाट और वकालत करते थे और चौथे चौधरी छोटूराम थे जो देहाती अथवा ज़मींदार वर्ग से विशेष प्रेम रखते थे । सबसे पहले 1901 में चौधरी नवल सिंह ने रोहतक में वकालत की , चौधरी लालचंद ने जुलाई 1912 । चौधरी रामचन्द्र भी दिल्ली से प्रैक्टिस छोड़कर रोहतक में आए थे ।
चौधरी नवल सिंह के वकालत का काम शुरू करते ही ग़ैर ज़मींदार वकीलों में सनसनी फैल गई । उन्होंने उनके मार्ग में भाँति-भाँति की बाधाएँ खड़ी करनी शुरू की । जब ये चार जाट वक़ील इकट्ठा हो गए तब तो बक़ायदा विरोध सक्रिय हो गया । उन्होंने एक ओर तो मुवक्किलों को यह बहकाया कि जाट वकालत के काम के अयोग्य हैं , दूसरी ओर हाकिमों को भी , जिनके साथ इनके गहरे ताल्लुकात बने हुए थे , भड़काने की कोशिशें की । वक़ील लोग तो फिर भी शिष्टाचार की सीमा में ही रहकर विरोध करते थे , परंतु इनके मुंशीयो ने तो बहुत ही अनुचित तरीक़ों से विरोध का आंदोलन चलाया ।
चौधरी छोटूराम भी वैसे तो वक़ील ही थे पर चूँकि उनके हर काम के साथ उद्देश्य बँधा रहता था इसलिए वे जहाँ जाते लोगों की निगाहों में आ ही जाते । यहाँ रोहतक में आने पर भी उनका अनोखपन फूट ही पड़ा जो उनके व्यक्तित्व में ओतप्रोत था ।
उन दिनों वक़ील लोग अपने को हाकिमों जैसा ही समझते थे । हाकिमों और वकीलों की एक सॉसाययटी सी बनी हुई थी । गवर्नर , मिनिस्टर और कमिश्नरों के आगमन पर उनके सम्मान में किए जाने वाले भोज और समारोह में प्रायः वकीलों को ही आमंत्रित किया जाता था । स्थानीय सरकारी अधिकारी सलाह-मशविरों में भी उन्हें आमंत्रित करते थे । इस प्रकार वकीलों का ऐसा दिमाग़ बन गया था कि वे शेष जनता से और ख़ास तौर से देहातियों से अपने को बहुत ऊँचा समझते थे । इसलिए वे देहातियों और उनमें भी ज़मींदारों के साथ तनिक भी मानवीय व्यवहार नहीं करते थे । उन्हें बैठने के लिए कुर्सी-मूढ़े न देते थे ।
हमारे ये चार वक़ील भी उसी ज़मींदार समाज में पैदा हुए थे । किंतु उनमें चौधरी लालचंद जी का घराना पहले से सम्पन्न था और वे तहसीलदार भी रह चुके थे । इसलिए उनका भी मन वैसा ही बन चुका था जैसा अन्य शहरी वकीलों का था । चौधरी रामचन्द्र और नवल सिंह ढील-मिल से आदमी थे । चौधरी छोटूराम का अपने मुवक्किलों के साथ व्यवहार प्रचलित व्यवहार से एकदम विपरीत था । यह व्यवहार कोई क्रांति तो नहीं था किंतु रूढ़िवादियों को मामूली ढंग से सुधार भी अप्रिय लगता है और वे प्रत्येक नए सुधार से बिदक उठते है । यही अवस्था रोहतक के शहरी वकीलों की हुई । उनमें एक ख़ासी हलचल मच गई । कोई कहता ज़ाहिल देहातियों के दिमाग़ ख़राब कर रहा है । कोई कहता वह भी इन्हीं गवारों से आया है , कोई-कोई और भी आगे जाते और कहते कि एक दिन यह हमारे रुतबे को ही इन देहातियों के हाथ मिट्टी में मिला देगा । एक दिन ऐसा हुआ कि चौधरी साहब अपने गाँव के बड़े-बूढ़े लोगों के कहने पर जोकि किसी मुक़दमे के सिलसिले में कचहरियों पर आए थे , उनके साथ उन्हीं की बिछाई चादर पर बैठ गए और उनके साथ हुक्का पीने लग गए । इससे देखने वाले वक़ील तिलमिला उठें और उन्होंने चौधरी रामचन्द्र और मिस्टर बिसिया इन दो वकीलों को चौधरी छोटूराम को समझाने के लिए नियुक्त किया ।
चौधरी छोटूराम के पास जाकर दोनों प्रतिनिधि वक़ील बोले - चौधरी जी ! वकीलों का जो स्तर है आप उसे गिराएँ नहीं । ज़मीन पर ही देहातियों के साथ बैठ जाना और उनके हुक्के को गुड-ग़ुड़ाना तथा कभी-कभी एक देहाती को मूढ़े पर बैठा दिया ख़ुद उनके पास खड़ा होना , उचित नहीं है । और बिसिया साहब की इन बातों का समर्थन किया चौधरी रामचन्द्र जी ने । चौधरी रामचन्द्र जी को छोटूराम जी ने यह कहकर चुप कर दिया कि आप से तो बातें चाहे जब हो जाएँगी । बिसिया साहब को उन्होंने जवाब दिया - मुझे आश्चर्य है कि मज़दूर मालिक से अपने आपको ऊँचा मानता है ? मुवक्किल की अपेक्षा और भोलेपन से आप लोग नाजायज़ लाभ उठाते हैं । जिससे हम मुँह माँगी मज़दूरी लेते हैं उसके साथ अच्छा व्यवहार भी न करें और उसे अनादर का पात्र समझें , क्या यह अन्याय और अनर्थ नहीं है ? दूसरे आपका यह कहना कि मैं उनके साथ हुक्का पीता हूँ । हुक्का पीने की मुझे आदत है और हुक्का जब उनके साथ न पिऊँ जो मेरी जाति के हैं , गोत के हैं और समान समाज के हैं , तो किन के साथ पिऊ ? आप में जो कायस्थ हैं वे कायस्थों के साथ हुक्का पीते हैं और जो ब्राह्मण-बनिए हैं वे ब्राह्मण - बनियों के साथ हुक्का पीते हैं । मैं जाट हूँ तो जाटों के साथ हुक्का पीऊँगा मैं तो चाहता हूँ कि सबका हुक्का-पानी एक हो ; किंतु आप लोग तो बहुत ऊँचे मीनारों पर चढ़े बैठे हो । हाँ , अगर आप चाहते कि हुक्का पीने की आदत अच्छी नहीं है तो मैं समझता बात उचित है । चौधरी साहब की इन बातों का उनके पास क्या उत्तर हो सकता था ? दोनों प्रतिनिधि अपना सा मुँह लेकर चले गए और उन्होंने सभी वकीलों को उनकी ये स्पष्ट बातें कह दी ।
वकीलों ने समझ लिया कि जहाँ यह शख़्स क़ाबिल है वहाँ सिद्धांती भी है । वह निरी वकालत का ही उद्देश्य नहीं रखता है इसके इरादे में अपनी बिरादरी और हमपेशा लोगों को ऊँचा उठाने का प्रोग्राम भी शामिल है ।
#यूनियनिस्ट विक्की डबास -
#JaiYodddhey
Monday, 15 September 2025
मेहर सिंह का तो बेगवाण पाना है
लगभग दो दहाकों तक अफ़वाहें जोर पकड़तीं रहीं कि बहार पाना कुछ होता ही नहीं , यह बराह पाना है जबकि बरौना गाँव में कोई बराह पाना है ही नहीं , मेहर सिंह का तो बेगवाण पाना है ! और इन अफ़वाहों के साथ साथ जोर पकड़ा एक कवि की साहित्यिक हत्या करने की मुहिम ने ! इस मुहिम का चेहरा इतना घिनौना और कुरूप था , जिसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यह मुहिम सिर्फ़ एक कवि की ही हत्या नहीं कर रही थी , एक शहीद की शहादत को भी अपने घिनौने जातीय तत्वों का लबादा ओढ़ाकर दुनिया से ख़त्म कर देने की कोशिशें किए हुए थी ! कहा गया कि मेहर सिंह ना तो स्वतंत्रता सेनानी थे ना शहीद , वो ब्रिटिश फौज में दस्त लगकर मर गए थे , जबकि महान कवि फौजी मेहर सिंह के शहीद और स्वतंत्रता सेनानी होने के इतने सरकारी दस्तावेज मौजूद हैं कि असल में तो मायना कमेटी को वो पढ़ने ही नहीं आएँगे और पढ़ने बैठ भी गए तो कितने दिन लगा देंगे कुछ कह नहीं सकता ! अब आते हैं बाहर और बराह के मुद्दे पर ! गायक अक्सर शब्दों में हेरफेर करते हैं ! किसी भी कवि द्वारा रचित कोई किस्सा दो गायकों की आवाज में उठाकर देख लीजिए , शब्दों में बहुत फर्क देखने को मिल जाएगा ! जबकि मूल कवि ने इन दोनों ही गायकों से इतर कुछ अलग तीसरा ही शब्द लिखा होता है ! यह कोई नई बात नहीं , लेकिन जैसे ही यह मेहर सिंह जी की कविता के साथ हुआ तो बहुर्जातीय भेड़िए टूट पड़े कोटे और कनागत का माल समझकर ! अगर यह रागनी दयाचंद मायना की लिखी हुई होती तो कम से कम एक पुराना गायक तो बराह बोलता बाहर की जगह ! दयाचंद के बहुत ज़्यादा क्लोज रहे गायक ही बोल देते ! लेकिन नहीं , दयाचंद की छाप में ये रागनियाँ पूरी दुनिया में किसी ने नहीं सुनीं , बस राजकिशन पाले बाऊ ने सुनीं थीं और उन्होंने ईर्ष्यावश या पैसे के लोभ में छाप काट दी ! अब आते हैं बेगवाण पाने पर , वैसे तो मूल शब्द यही है , 1971 में यही शब्द हवासिंह बरौना के रजिस्टर में भी हुबहू दर्ज हुआ जिसकी मूल प्रति मशीन प्रिंटेड तारीख के साथ आज भी मौजूद है , इसके बाद जो ग्रंथावली छापी उसमें बाहर पाना ही लिखा गया ! लेकिन जब मूल पांडुलिपियों के आधार पर सम्पूर्ण ग्रंथावली आई तो उसमें मूल शब्द बेगवाण ही छापा गया , तो कजूसे पहुँच गए , कहने लगे मेहर सिंह कमेटी सबूत मिटा रही है , सबने बाहर ही गाया था लेकिन इन्होंने शब्द बदल दिया ! कोई इनसे पूछे कि अगर बाहर भी गाया है तो क्या ग़लत गाया है ? ये लोग बाहर को बराह एक गुच्छे के आधार पर बता रहे हैं और वो गुच्छा राजेंद्र बड़गूजर ने अपनी थर्ड क्लास किताब छापकटैया में भी दिया है ! शब्द उसमें भी बाहर ही छपा है लेकिन इन्होंने उसको पैन से काटकर बराह बना रखा है ! यह तो रिपब्लिक भारत चैनल वाला वही तर्क हो गया “क्या यादव ही यहूदी हैं” ? क्या ऑस्ट्रेलिया ही अस्त्रालय है ? क्या व्लादिमीर पुतिन ही बलदेवराम पूनिया है ? फिर दयाचंद मायना के नाम से गाने वाले आजकल के जमीरविहीन गायक इस रागनी की तोड़ वाली कली में दो बार छाप लगाते हैं ! दयाचंद का घर टोहूँ सूँ बसै बराह पाने महँ , राजी होके वर दयूँ करो दयाचंद कविताई ! किसी भी कवि की कोई भी रचना उठाकर लाइए जिसमें दो बार छाप लगी हो ! धरती के इतिहास में तो किसी कवि ने एक ही रचना में दो बार छाप लगाने की कारगुज़ारी की नहीं , मंगल या शनि पर ऐसा होता हो तो पता नहीं ! आज भी जब गाँव में बाहर से कोई आदमी किसी का पता पूछता है तो अमुक आदमी के पिता या कुनबे का नाम पहले लेता है ! यह ग्रामीण भारत का व्यवहार भी है और सभ्याचार भी ! इसीलिए मूल कविता में मेहर सिंह जी के पिता नंदा जाट का जिक्र है ! मेहर सिंह तो बच्चे थे , घर तो उनके पिता का था , भारत माता ढूँढने आएगी तो गांव में नंदा का घर पूछेगी ! और फिर किसी भी गांव विशेष से संबंधित शब्दों को बाहर के गायक याद नहीं रख पाते ! जैसे अंजना पवन की रागनी इसते सुथरे और भतेरे में तोड़ की कली में मूल लाइन है मेहर सिंह की गेल्याँ जा कै बिचल ज्यागी जाटां महँ , सिर पै ज्वारा गोड्डे टूट ज्याँ हुर आली की बाटाँ महँ ! हुर आली बरौने में खेत हैं , लेकिन दूसरे गाँव के गायक इसको याद नहीं रख पाते तो उन्होंने इसको दो दो कोस की बाट बना दिया ! ऐसे ही बाहर गाया क्योंकि बेगवान शब्द को बरौने वाले तो याद रख लें , बाहर वाले कब तक याद रखें ? उन्होंने बाहर कहना शुरू कर दिया क्योंकि शहीद कवि फौजी मेहर सिंह जी का घर बेगवान पाने के बिल्कुल बाहर स्थित है ! चाहे पुराना शजरा निकलवाकर देख लीजिए ! तो इसमें यादव-यहूदी , ऑस्ट्रेलिया-अस्त्रालय या बाहर-बराह के झूठ कैसे काम करेंगे , समझ नहीं आता ! गायक बरौना जाते तो मेहर सिंह का घर भी बाहरवाई देखते और पाने के बाहर गा देते ! लेकिन एक ऐसा गायक था जिसने हुबहू सही शब्द गाया ! सत्ते फ़रमानिया! पेश है एक 1978 की रिकॉर्डिंग सत्ते फरमाना की ! इनको शब्द बदलने के लिए किसने कहा था ? तब तक तो बरौना कमेटी भी नहीं बनी थी , ना मेहर सिंह पर कोई शोधार्थी ही शोध कर रहा था और सनी दहिया का तो जन्म भी नहीं हुआ था !
Saturday, 13 September 2025
बैटल ऑफ हांसी 13 सिंतबर 1192 AD
कुत्तुब्बुद्दीन ऐबक बनाम दादावीर चौधरी जाटवान मलिक जी गठआळा (गठवाला)