एडवोकेट नारायण तेहलान जी की पोस्ट देखी , उन्होंने लिखा है, "बहुत ही शातिराना तरीक़े से आर्यसमाज को आर एस एस बना दिया गया।
थू है उन "आर्यवीरों ?" पर जिनने श्रृषिवर के साथ छल किया!!!"
भाई अमित ओहलान ने भी आर्य समाज में आरएसएस के प्रभाव पर चिंता जाहिर की थी।
एडवोकेट साहब आर्य समाज को शातिराना तरीके से आरएसएस नहीं बनाया गया बल्कि पहले से ही आर्य समाज और आरएसएस की एक लाइन थी। आर्यसमाज से जुड़े लोगों ने ही आरएसएस बनाया था। बस गलती ये रही कि उस टाइम लोगों को आरएसएस का पता नहीं था, तो हम समझ नहीं पाए।
आर्य समाज की स्थापना 1875 को मुंबई में हुई, उससे कुछ समय पहले ये थियोसोफिकल सोसायटी ऑफ आर्यावर्त्त थी, उसी समूह से दयानन्द स्वामी ने अलग होकर आर्य समाज बनाया।
इसी साल दयानंद स्वामी ने सत्यार्थ प्रकाश लिखा। पर उसमें भाषा की अशुद्धि बहुत ज्यादा थी, जिसको बाद में 1882 में ठीक करके छापा गया। 1882 के संस्करण में दयानंद स्वामी ने खुद इस बात को माना कि सत्यार्थ प्रकाश लिखने से पहले उनको हिंदी नहीं आती थी, और वो भाषण भी संस्कृत या गुजराती में देता था।
यही कारण था कि दयानंद स्वामी के रहते आर्यसमाज ज्यादा फैल नहीं पाया। क्योंकि संस्कृत में भाषण आम आदमी तो समझ नहीं सकता था। गुजरात में भी आर्य समाज का कोई ज्यादा प्रभाव नहीं हुआ। दयानंद स्वामी भी ज्यादातर राजाओं , महंतों में घूमता रहा।
आर्य समाज का ज्यादा प्रभाव हुआ, यूनाइटेड पंजाब में, जहां मुसलमान ज्यादा थे, और हिन्दू धर्म का प्रभाव बस शहरी लोगों और गांवो में ब्राह्मण बनियो तक सीमित था। गांवों में इस्लाम भी आज वाले स्वरूप में मौजूद नहीं था। क्योंकि मुस्लिमों में भी तब तक कोई धर्म सुधार कार्यक्रम गांवों तक नहीं पहुंचा था।
आर्य समाज ने गांवो में हिन्दू धर्म को पहुंचाया। वेद , पुराण, उपनिषदों को स्थापित किया। जिन कुरूतियों के खिलाफ आर्य समाज ने काम किया, वो यहां न के बराबर थी। गांवो में मूर्ति पूजा न के बराबर थी, और संयुक्त पंजाब हो या वेस्ट यूपी , सती प्रथा भी मौजूद नहीं थी।
1883 में दयानंद स्वामी की मृत्यु हो गई। वो जोधपुर के महाराजा के यहां ठहरा हुआ था, बताते है कि वहां उसको किसी ने खाने में कांच पीस कर दे दिया। उसके एक महीने बाद अजमेर में दयानंद स्वामी की मौत हो गई।
उसके बाद आर्य समाज के बड़े नेता पंजाब में हुए, जिन्होंने आर्यसमाज को संयुक्त पंजाब में बढ़ाया। शुरू में आर्य समाज पंजाब के साहूकार-सूदखोर वर्ग में फैला, पंजाब का किसान इस वर्ग के शोषण के नीचे दबा हुआ था।
साहूकार वर्ग को आर्यसमाज के ईसाई और मुस्लिम विरोधी बातों में बड़ा स्कोप दिखाई दिया। इससे उसे शोषित वर्ग को धर्म के आधार पर बांटकर लड़वाने के लिए नया हथियार मिल गया। सूदखोरी का मुद्दा डायवर्ट होकर धर्म पर आ गया।
दयानंद स्वामी के बाद आर्य समाज में बड़े नेता थे, पंडित लेखराम, स्वामी श्रद्धानंद, लाला हंसराज, लाला लाजपत राय
पंडित लेखराम पंजाब पुलिस में नौकरी करता था , पेशावर में वो उस टाइम पंजाब में आर्यसमाज के प्रचारक एक बनिया जिसका नाम मुंशी कन्हैयालाल था, उसके संपर्क में आया और पुलिस की नौकरी छोड़ आर्य समाज का प्रचारक बन गया। 1897 में अहमदिया मुस्लिमों ने उसकी हत्या कर दी।
दूसरा नेता था, स्वामी श्रद्धानंद , जिसका असली नाम मुंशीराम विज था, उसका पिता ईस्ट इंडिया कंपनी की पुलिस में नौकरी करता था। श्रद्धानंद ने हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की थी और मुस्लिमों को हिंदु बनाने के लिए शुद्धि आंदोलन चलाया था।
लाला हंसराज ने डीएवी स्कूल कॉलेज की स्थापना की थी। लाला लाजपत राय भी आर्य समाज का बड़ा नेता था, आर्य समाज का सबसे बड़ा फायनेंसर था।
स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय , लाला हंसराज, लाल चंद, गोकुल चंद नारंग और बनिया बाम्हण वर्ग के दूसरे लोगों ने मिलकर 1909 में लाहौर में पंजाब हिंदु सभा की स्थापना की। ये सभी आर्य समाज के बड़े नेता थे, और ये ही लोग देश में आर्य समाज को चला रहे थे। ये लोग ही आर्य समाज की लाइन तय कर रहे थे। उसकी आइडियोलॉजी सैट कर रहे थे। आर्य समाज आम सोच इन लोगों की ही सोच थी। जो आर्य समाज के साहित्य, कला, अकादमिक कामों में देखी जा सकती है।
1909 में ही पंजाब हिंदू सभा का पहला अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन की अध्यक्षता पंडित मदन मोहन मालवीय ने की। 1910 में कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन के दौरान लाला बैजनाथ की अध्यक्षता में एक आल इंडिया हिन्दू सभा बनाने की बात कही गई। 1913 में पंजाब हिन्दू सभा के अम्बाला अधिवेशन में ऑल इंडिया हिन्दू सभा बनाने का रिजोल्यूशन पास किया गया।
1915 में हरिद्वार में कुंभ मेले के दौरान पंजाब हिन्दू सभा के अधिवेशन में सार्वदेशिक हिंदू सभा की स्थापना हुई। मदन मोहन मालवीय ने अध्यक्षता की। अधिवेशन में करमचंद गांधी और लाला मुंशीराम विज उर्फ स्वामी श्रद्धानंद भी मौजूद थे।
1920 तक विनायक सावरकर , बालकृष्ण मुंजे, केशव हेडगेवार जैसे लोग भी हिंदू महासभा में शामिल हो चुके थे। केशव हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।
हिंदु महासभा के नेता कांग्रेस के सदस्य भी थे। स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, लाल चंद, गोकुल चंद नारंग, लाला हंसराज , श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मदन मोहन मालवीय आदि लोग कांग्रेस के मेंबर भी थे। पंजाब के हिन्दू महासभा वाले आर्य समाज के नेता भी थे।
भगत सिंह के संगठन नौजवान भारत सभा ने लाला लाजपत राय की इस बात को लेकर निंदा भी की थी, और आरोप लगाया था कि लाला लाजपत राय हिंदू महासभा के माध्यम से पंजाब में सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे रहा है।
क्या आर्य समाज ने कभी लाला लाजपत राय या दूसरे नेताओं के द्वारा हिंदू महासभा बनाने और साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए निंदा की? जवाब है नहीं की, क्योंकि आर्य समाज चलाने वाले और हिन्दू महासभा के लोग एक ही थे।
ये लोग खुद साहूकार सूदखोर वर्ग से आते थे, असेम्बली में किसान विरोधी बात करते थे, किसान के पक्ष में बनने वाले हर कानून का ये विरोध करते थे। ये लोग सर छोटूराम का भी विरोध करते थे और यूनियनिस्ट पार्टी के खिलाफ काम करते थे। पंजाब असेम्बली में डिबेट में इनकी सोच का पता चलता है, कि ये लोग गांव के किसान मजदूर वर्ग के बारें में किस तरह की सोच रखते थे। जब भी अंग्रेजों या यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार ने कहीं किसानों के लिए प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की, इन लोगों ने विरोध किया।
क्या आर्य समाज ने अपने ऐसे लोगों पर कभी कोई ऑब्जेक्शन उठाया? नहीं उठाया, क्योंकि आर्य समाज यही लोग चला रहे थे, और हिंदू महासभा और आरएसएस भी यही लोग चला रहे थे। इन सबकी एक लाइन थी।
पर इतिहास में देखे तो आर्य समाज में सर छोटूराम और उनकी यूनियनिस्ट पार्टी पर कईं बार सवाल उठाए गए। इन आर्य समाजियों ने सर छोटूराम के खिलाफ अभियान चलाया।
जाटों का आर्य समाज मे रोल बस इतना था कि जाटों ने इन्हें जमीन दी, इनके पैदल सिपाही बने, जिनको कोई गांवों में घुसने नहीं देने वाला था, जाट इनको आर्य समाज के नाम पर गांवों में ले गए, और इनको स्थापित कर गए। जाट तो जब भी सवाल नहीं कर पाएं, जब आर्य समाज शहरों में मॉडर्न डीएवी स्कूल कॉलेज खोल रहा था और गांवो में जाटों से संस्कृत गुरुकुल खुलवाए जा रहे थे।
जाटों पर तो आर्य समाज का प्रभाव पड़ा, पर आर्य समाज पर जाट अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाए, इसका कारण ये था कि आर्य समाज चलाने वाले, उसकी दिशा तय करने वाले, शुरू से ही जाट विरोधी, किसान मजदूर विरोधी तत्व थे। पंजाब का सूदखोर साहूकार वर्ग आर्य समाज को चला रहा था। उनका प्रभाव आर्य समाज के लिटरेचर , आर्य समाज की लाइन पर साफ दिखता है।
जो जाट कहते है कि आर्य समाज पर जाटों का प्रभाव रहा, तो वो कोई एक मौका बताएं, जहां जाटों ने आर्य समाज की लीडरशिप पर सवाल किया हो, आर्य समाज की कोई लाइन तय की हो?
आजादी के बाद ही देख लो, चरणसिंह के दौर में हरियाणा , वेस्ट यूपी , राजस्थान से जनसंघ से जो जाट या गुज्जर चुनाव जीते , उनकी लिस्ट ही देख लो, ये सब आर्य समाज से ही आये थे। और आर्य समाज में काफी प्रभावी लोग थे। गुरुकुल वाले जाट तो गुरुकुल कांगड़ी से कंट्रोल होते थे, गुरुकुल कांगड़ी का संस्थापक हिंदु महासभा का भी संस्थापक था, उसकी लाइन भी सावरकर, हेडगेवार वाली लाइन थी।
तो इस बात में हैरान होने की कोई जरूरत नहीं है कि आर्य समाज का हिन्दू करण हो गया है और आर्य समाज आरएसएस के प्रभाव में चला गया है। आर्य समाज शुरू से ही इनके प्रभाव में रहा है। बस इतना हुआ है कि इस किसान आंदोलन से एडवोकेट नारायण तेहलान जैसे लोग भी आर्य समाज को नंगा होते हुए देख पा रहे है, और आर्य समाज पर आरएसएस के प्रभाव को नोट कर रहे है।
बाकि आप सभी द्वारा इस पोस्ट की आलोचना आमंत्रित है।
साभार- Abhishek Lakra
No comments:
Post a Comment