Wednesday 18 February 2015

खापलैंड पर महादलितों का ना होना!


तीरों-तलवारों के शौर्य के साथ जाट अब अपनी मानवतावादी सिद्धांतों (theories) को भी दुनिया के आगे रखना शुरू करें| उदाहरणत: पूर्वोत्तर व् दक्षिण भारत की तरह, खापलैंड (प्राचीन हरियाणा) पर भी महादलित क्यों नहीं हैं? मैंने तो हमारे यहां सिर्फ दलित सुने हैं, महादलित तो कभी नहीं सुने| फिर सवाल उठता है कि खापलैंड पे अगर महादलित नहीं हैं तो क्यों और किसकी वजह से नहीं हैं?

काफी तर्कों और सवालों को खंगालने के बाद कारण मिलता है तो सिर्फ एक; कि यहां महादलित इसलिए नहीं हैं क्योंकि यहां जाट और खाप रहे हैं| स्थानीय हरियाणवी संस्कृति को टूटने से बचाना है तो हर जाट को हर दलित का ऐसे इन तथ्यों पर ध्यान लाना होगा, जो यह बताते हों कि खापलैंड पर आप दोनों के कारोबारी कारणों की वजह से झगडे व् मनमुटाव बेशक होते आये हों, पर वो मनमुटाव इतने सामूहिक, बड़े और गहरे भी नहीं रहे कि दलित को ही दलित और महादलित की राजनीती में बाँट देते हों|

आज जो जाट वर्णव्यवस्था के प्रभाव में पड़ दलितों के साथ उच्च और तुच्छ का जो भेद रखने की आदत डाल लिए हैं उनको यह छोड़नी होगी| जाट उच्च होता है तो उसके लिए जाट को वर्णव्यस्था का आँचल ओढ़ने की जरूरत नहीं; अरे जो अन्नदाता, अन्नपूर्णा के साथ-साथ सभ्यता पालक, संरक्षक व् रक्षक हो गया हो, वो तो अपने आप ही हर वर्ण व् नस्ल से परे है| और ऐसे ही दलित हर भेदभाव से ऊपर व् परे है|

कोई ही जाट किसान का ऐसा बेटा-बेटी होगा जिसने एक दलित सीरी-साझी के साथ अपने खेतों-घरों में बैठ एक साथ खाना ना खाया हो| खेतों में उनकी एक ही बर्तन में रोटियां ना गई हों| तो फिर यह रंग-नश्ल के भेद कहाँ से घुसा लेते हैं हम अपने अंदर? और कौन लोग हैं यह जो कारोबारी वजहों से होने वाले मतभेदों को जाट-दलित झगड़ों और घृणा का रूप दे देते हैं? निसंदेह कॉर्पोरेट में होने वाले हर बॉस और कर्मचारी झगड़ों को अगर ऐसे जातीय, वर्णीय अथवा धार्मिक घृणा का रूप देना शुरू कर दिया जाए, तो सारा कॉर्पोरेट एक झटके में ताश के पत्तों की तरह धराशायी हो जाए| तो फिर जाट और दलित क्यों इन झगड़ों को ऐसे रूप लेने दे रहे हैं कि लोग इनको आधार बना इतना साहस पा जाते हैं कि यहां जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीती के घिनोने खेल तक बेपरवाही से खेल लिए जाते हैं?

यकीन करो अगर आज खापलैंड पर सिर्फ दलित हैं तो जाटों के डर से धार्मिक उन्मादी शक्तियों को एक हद से ज्यादा पैर ना पसारने देने की वजह से अन्यथा, जैसे कहा करता हूँ कि खापलैंड पर अगर जाट ना होते तो यहां देवदासी भी होती, विधवा पुनर्विवाह ना करके आश्रमों में भी जा रही होती| ज्ञात रहे देवदासियों में नब्बे प्रतिशत लड़कियां दलितों और महादलितों की होती आई हैं| इसलिए खापलैंड का दलित उसके खापलैंड पर होने का यह सकारात्मक पहलु भी समझें|

जाटो अपने तीरों-तलवारों वाले रूपों के साथ-साथ अपने पुरखों के इन मानवतावादी पहलुओं को भी जनता में लाना शुरू करो; जिनकी वजह से कि धर्म को भी अपनी परिधि में रहना भान रहता था| यह जाट और खाप थ्योरी का ही जादू है कि यहां धर्म कभी शालीनता और मानवता के दायरे से बाहर नहीं जा पाया|

यह सामने लाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नहीं लाये तो यह ढोंगी-पाखंडों-अंधभक्ति और उन्माद में पागल लोग हमारे यहां भी अधर्म फैला देंगे| याद रहे हमारे बुजुर्ग कहते थे कि धर्मान्धता, अंधश्रद्धा और अंधभक्ति का फल होता है गरीब और औरत पर अन्याय, जो कि खापलैंड पर जाटों ने कभी नहीं फैलने दिया|

भान रहे कि हमारी खापलैंड पर रोजगार की तलाश में आने वाला सिर्फ रोजगार करे, धर्म के नाम पर यहां उन्माद और अराजकता ना फैला पाये| उसको भान रहे कि यह खाप-थ्योरी की धरती है यहां धर्म भी कभी अपनी शालीनता और मानवता की परिधि नहीं लांघता|

और "पहुंचा हुआ जाट, राजा के हाथी को भी गधा बता दे" जैसी कहावतें जाटों की इसी स्वछंद मति की साक्षी हैं, कि इन्होनें धर्म रहा हो या राजा, मानवता और शालीनता की कसौटी पे तौले बिना कुछ नहीं चलने दिया अपनी खापलैंड पर|

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