Thursday 11 June 2015

क्या जब धर्म-वालों ने गौरक्षा के झंडे नहीं उठाये थे तब गऊ की रक्षा नहीं होती थी?

मुखड़ा ही याद है, पर मेरी दादी और घर की औरतें एक लोकगीत कुछ इस तरह गाया और सुनाया करती थी, "मैं सूं हरफूल जाट जुलानी का, कित लुकेगा तेरै गुडैकी मारूंगा| गौहत्था चलावणिये बाज आ जिए, ना आरे पर को तारूँगा|"

मेरी दादी जी बड़े गर्व से दादावीर हरफूल जी की महानता के किस्से ऐसे लोकगीतों और कहानियों के माध्यम से सुनाया करती थी और बताया करती थी कि कैसे दादा जी का नाम सुनते ही गौहत्यारों की पिंडियाँ काँप जाया करती थी| कैसे दादा जी ने गोहाना और टोहाना से ले तमाम उत्तरी भारत के बहुतेरे गौहत्थे तोड़े थे| और हजारों-हजार दूधिये (दूध के रंग के यानी गाय) जानवरों की जानें बचाई थी|

याद करो दादावीर हरफूल जाट जुलानी वाले का जमाना| वह ठीक उसी काल में हुए, जब आरएसएस बना था, हिन्दू परिषद बनी थी| क्या कोई मुझे बता सकता है कि दादावीर हरफूल जाट को इनमें से किसने आ के गौरक्षा हेतु प्रेरित किया था या यहां तक कि इनका साथ तक दिया हो? या जब अंग्रेजों ने इनको फांसी दी तो किसी तथाकथित राष्ट्रवादी ने इनकी रक्षा की हो अथवा इनका पक्ष लिया हो? श्रद्धेय दादावीर की मृत्यु भी चालीस के दशक में हुई जब इन संगठनों को बने हुए दशकों बीत चुके थे, परन्तु मुझे इतिहास से इनका कोई ऐसा पन्ना नजर नहीं आता जब इन्होनें उस जमाने में कभी गौ की सुध भी ली हो|

हरयाणा कहो या मीडिया की भाषा वाला जाटलैंड अथवा खापलैंड पूरे देश में सबसे बड़ी व् प्राचीन गौशालाएं इस धरती पर हैं| बचपन में जबसे सोधी संभाली तब से देखता आया हूँ, मेरे घर से हर साल गौशाला धड़ौली के लिए, गौशाला शादीपुर के लिए अनाज की बोरियां और तूड़े की ट्रॉलियां बराबर जाती रही हैं| बल्कि जब मैं कॉलेज स्टूडेंट हुआ करता था तो खुद अपनी निगरानी में यह सामान गौशालाओं में पहुंचा के आया करता था| बंधा हुआ सिस्टम रहता था कि गौशाला का इतना अनाज और इतना तूड़ा हर साल जायेगा और जाता रहा| अब भी जब भी इंडिया जाता हूँ तो पहले झज्जर गुरुकुल की गौशाला में गौओं को गुड़ खिलाते हुए मेरी नगरी जाता हूँ|

तो मुझे समझ यह नहीं आ रहा कि यह तथाकथित राष्ट्रवादी एक हरयाणवी को कौनसे वाली गौरक्षा या गौसेवा का पाठ पढ़ाना चाहते हैं? लेकिन अब लगने लगा है कि अगर ऐसे बहरूपिये भी गौसेवा के लेक्चर देने लग गए हैं तो मैं गौसेवा छोड़ कुछ नया पुण्य करने की शुरुआत क्यों ना करूँ|

और कमाल है यह इस बात की उम्मीद भी कैसे कर लेते हैं कि मानवता और धर्म पर यह लोग पाठ पढ़ाएंगे और हरयाणवी इनसे पढ़ के मार्गदर्शन पाएंगे? यह लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हम हरयाणवी होते हैं जो स्वछँदता से मन में आये तो वो जाट वाली भेल्ली भी दे देवें ना तो देवें ना पोरी भी? परन्तु आज सब कुछ संशय में हैं, क्योंकि शहरी हरयाणवी कुछ ज्यादा ही धार्मिक हुआ टूल रहा है; इसलिए ज्यादा सटीक इसपे दावा भी नहीं कर सकता| परन्तु इसको इस बात का पैमाना तो ले ही सकता हूँ कि जरूर मूल हरयाणवी दिशाहीन हो चुका है, उसकी मानवता और स्वछँदता घिर चुकी है|

उत्तरी भारत में मंदिर जितने छोटे, गौशालाएं उतनी बड़ी; दक्षिण भारत में मंदिर जितने बड़े, गौशालाएं उतनी छोटी, फिर भी यह लेक्चर हरयाणा में ही ज्यादा पढ़ाये जा रहे हैं? हरयाणा तो सबसे बड़ा मुस्लिम बहुल राज्य भी नहीं, केरल-आंध्र-तमिलनाडु में हमसे कहीं ज्यादा मुस्लिम हैं| तो ऐसे में अगर इसको इसी हिसाब से समझूँ कि इन राष्ट्रवादियों को गौरक्षा के मुद्दे के बहाने मुस्लिमों से ही कुछ हिसाब-किताब बराबर करना है तो वहाँ क्यों नहीं इस स्तर के ऐसे अभियान सुनने में आ रहे?

शायद हरयाणवी जाट वाली मानवता और स्वछंद स्वमति से प्रेरित धर्म पालना का क्रेडिट डकारना है| जो गौसेवा इनकी तुंगभद्रा टूटने से सदियों पहले से हरयाणवी करता आ रहा है उसपे ही इनको हरयाणवी को भरमाना है कि देखो तुम गौसेवा करो| इन अनाड़ियों को इतनी सी बात कौन समझाए कि एक मास्टर भी जब किसी बच्चे को ऐसी बात पे लेक्चर देवे जो वो पहले से ही दुरुस्त्ता से कर रहा हो, तो बच्चे को चिड़ होती है| बच्चा बोर होने लगता है, उस अध्यापक से कन्नी काटने लगता है| यही नहीं बल्कि उस टीचर को सबसे बड़ा फद्दु भी समझने लगता है| परन्तु इन धक्के के स्वघोषित व् प्रैक्टिकल-विहीन कुंठित टीचरों को यह बात पता नहीं कब भेजे में घुसेगी कि जिन धर्म-पुन की तुम थ्योरी मात्र रटते हो, मूल हरयाणवी बाइडिफ़ॉल्ट उसका प्रैक्टिकल करते हैं| इसलिए हमें मत पकाया करो|

और गाय तो गाय हरयाणवी ने तो तीतर-बटेर-सूअर तक मारने वालों को कभी आदर-मान नहीं दिया| तीतर-बटेरों को मारने के लिए भी जब शिकारी खेतों का रूख करते हैं तो पहले देख लेते हैं कि कोई जाट-जमींदार-किसान आसपास तो नहीं है; वरना क्या मूड हरयाणवी का कि उसका लठ लगा तो खुद की टंगड़ी तुड़वा बैठें| हरयाणवी के लिए सिर्फ गाय ही नहीं, सब जानवरों का मर्म-दर्द स्पर्शीय रहा है| हरयाणवी इनके प्रति संवेदनशील रहा है| परन्तु इन संवेदनहीन लोगों को एक यही बात पल्ले नहीं पड़ती| वही बात जब ऐसे-ऐसे मूढ़ भी धर्म-पुण्य का प्रैक्टिकल करने चले हैं तो हरयाणवी को तो कुछ और ही पुण्य ढूंढ लेना होगा, कम से कम मुझे तो ऐसा ही महसूस होता है|

और अचरज तो मुझे इस बात का हो रहा है कि हरयाणवी युवा दिशाहीन प्रतीत होता है| निसंदेह हरयाणा के बड़ों की चुप्पी इसके पीछे बहुत बड़ी वजह है, जो अपने बच्चों को ऐसे-ऐसे तथ्य नहीं बताते| नहीं बताते कि 70% गौ-मांस का व्यापार करने वाले बड़े कारखाने खुद हिन्दू व्यापारियों के हैं| नहीं बताते कि शिक्षा के गुरुकुलों की तरह हर दस कोस पे खापों व् तमाम हरयाणवी समाजों ने गौशालाएं भी खोली हुई हैं और वो भी आज से नहीं, तब से जब आपकी तथाकथित राष्ट्रवादी विचारधारा का तो अंकुर भी नहीं फूटा था|

निसंदेह बैठे-बिठाए क्रेडिट ले उड़ने वाले और जिंदगी के तीन चौथाई हिस्से कल्पनाओं में बिताने की आदत से लाचार, इन घाघों से अपनी मति की रक्षा करना लाजिमी है| हरयाणवी युवानों सम्भलो और अपनी दिशा व् दशा सम्भालो| गौ-रक्षा तो क्या हर जानवर की रक्षा आपके खून में स्वत: ही नीहित है| कम से कम यह जानवर रक्षा के पाठ तो इनसे सीखने की जरूरत नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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