Friday 25 September 2015

हरयाणा में दीनानाथ बत्रा की किताबें लागु करना, भगवे का अपनी बुनियाद में कील ठोंकने जैसा है!


पुराने जमाने में दलितों व् पिछड़ों को ग्रन्थ-शास्त्र-पुराण कुछ भी पढ़ना ना सिर्फ वर्जित था अपितु राजा राम जैसे पुरुषोत्म बताये गए राजा के हाथों स्वर्ण ऋषि-मुनियों-शंकराचार्यों-महंतों ने एक दलित महर्षि सम्भूक को शास्त्रार्थ करने पे मरवा दिया था| तो आज ऐसा क्या हो गया कि उसी थ्योरी पर चलने वाले लोग इन अध्यायों को दलित-पिछड़ा सबको खुद ही पढ़ाना चाहते हैं?

यह तो उस हथियार डाले हुए राजा वाली बात हो गई कि लो जी देख लो मेरे पास क्या-क्या है| बढ़िया है अब यह हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर हथियार डाले आगे बढ़ रहे हैं| यह पुराने स्वर्ण शंकराचार्यों-महंतों द्वारा इन किताबों और तथ्यों को दलित-पिछड़ों को ना पढ़ाने के ही कारणों को दरकिनार करके चल रहे हैं तो जरूर दिग्भर्मित हो चले हैं|

तो भगवा ऐसा करके अपनी बुनियाद में कील ऐसे ठोंक रहा है कि मैंने रामायण और महाभारत दोनों क्रमश: छटी और सातवीं क्लास में पढ़ ली थी| और इन दोनों ग्रंथों पर एक शंकराचार्य के स्तर का सर्वोत्तम तार्किक ज्ञान रखता हूँ।

अब सोचने की बात यह है कि एक तो बचपन में ही मुझे रामायण और महाभारत पढ़ने को मिली तो मैं जल्दी से महर्षि सम्भूक जैसे चैप्टर कैच कर पाया| दूसरा यह हुआ कि मैं जब बाहर निकला और बड़ी कक्षाओं में साइंस से ले मैनेजमेंट की चीजें पढ़ी तो देखा कि यह रामायण और महाभारत के चरित्र तो अमेरिका के डिज्नीलैंड (Disneyland) वाले काल्पनिक वर्जन हैं| फर्क सिर्फ इतना है कि अमेरिका ईमानदारी से काल्पनिकता को काल्पनिकता स्वीकार करता है और हमारे यहां के सेल्फ-स्ट्य्लेड दम्भी ज्ञानी इनको वास्तविक मनवाने पे तुले रहते आये हैं| ठीक वैसे ही जैसे वो किसी ने दम्भी भाभी को पुलिस की मार के डर से "हाय रे धक्के की माँ" कबुल कर लिया था परन्तु पुलिस से छूटते ही वो वापिस उसकी भाभी ही रही|

तो मेरे ख्याल से यह बहुत अच्छा हो रहा है, एक तो इससे बच्चे बड़ी उम्र (class 11th-12th age) अपनी साइंस और मैनेजमेंट की पढाइयों पर केंद्रित कर पाएंगे और यह सब कल्पनिकताएं पढ़ना वैसे भी बचपन में ही सटीक रहता है क्योंकि उस वक्त बच्चों को कहानिया सुननी बहुत अच्छी लगती हैं|

परन्तु उस डर का क्या जिसकी वजह से पुराने शंकराचार्य-महंत लोग दीनानाथ जैसों द्वारा लिखी किताबों से दलित-पिछड़ों को दूर रखते थे? अब अगर इनको यह बहम हो कि यह इन किताबों को पढ़ा के बच्चों को अपनी शीशी में उतार लेंगे तो इनको यही कहूँगा कि इनसे तो इनके पूर्वज ज्यादा अक्लमंद थे क्योंकि वो जानते थे कि इन काल्पनिकताओं को पढ़ के कोई शीशे में नहीं उतरने वाला अपितु उनके दिमागी दिवालियेपन को सब जान जायेंगे| और यह लोग यहीं अपने सामाजिक वर्चस्व के पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहे हैं। एक अनचाही और अनिर्धारित सी शायद भारत और विश्व में छा जाने की जज्बाती जल्दबाजी में यह लोग इस ज्ञान को दलित-पिछड़े को खुद ही लुटवा के उनको ज्ञानी बना के अपने ही विरोध में खड़े कर रहे हैं। और इसका प्रमाण है कि दलित-पिछड़े ने जितनी यह चीजें पढ़ी हैं वो इनके प्रभाव से उतने ही दूर गए हैं। 

कहते हैं इनसे बच्चों को नैतिक शिक्षा मिलेगी, अच्छा जी ऐसे वाली नैतिक शिक्षा क्या:

1) कि एक युद्धिष्ठर जुआ खेलने के बावजूद भी और अपनी ही पत्नी का अपनी आँखों के आगे चीरहरण होने के बावजूद भी धर्मराज कहला सकता है| यानी आप नारी सम्मान के हनन में चाहे जितनी हदें पार करो आप फिर भी कहलाओगे धर्मराज ही|

2) दलित को शास्त्रार्थ करने पर मृत्युदंड देने के बजूद भी आप मर्यादापुरुषोत्तम ही कहलाओगे|

3) अपनी माँ तक की हॉनर किलिंग करने के बावजूद भी आप आम इंसान नहीं अपितु भगवान बना के पूजे जाओगे। शायद ऐसा कांसेप्ट तो तालिबानियों के यहां भी नहीं होता होगा।

पढ़ाओ-पढ़ाओ इन काल्पनिकताओं को, बढ़िया है बच्चों के बचपन का सही सदुपयोग हो जायेगा| और पता चलेगा कि ऐसी दम्भी स्टाइल की काल्पनिक दुनिया भारत में आपके सिवाय और कहीं भी नहीं| खुद अपने लिए गड्डे खोदना मुबारक हो| वैसे भी यह हरयाणा है गुजरात नहीं, यहां बालक किसी बात में नकारात्मक चीज पहले पकड़ता है, उसका जवाब मिल जाए तो ही उसके सकारत्मक पर विचारता है, जिसका कि आपकी किताबों में मिलने का धुंधला चांस होता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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