Friday 6 May 2016

धार्मिक कट्टरता आदमी का मानसिक ही नहीं आर्थिक दोहन भी करती है, जबकि धार्मिक समरसता आदमी को हर प्रकार से समृद्ध बनाती है!

कल यूपी के चुनावी हालातों और हो सकने वाले गठबंधनों पर उधर के एक भाई से बातें हो रही थी। शुरू में ही मुज़्ज़फरनगर छेड़ बैठा। कहने लगा कि मुस्लिमों ने हमारी लड़कियाँ छेड़ के बहुत बुरा किया था। मैंने पूछा क्या अब बंद हो गया लड़कियों का छेड़ा जाना या मुज़्ज़फरनगर होने से पहले कभी नहीं छेड़ी जाती थी (सनद रहे मैं ऐसे अपराधियों को कठोरतम सामाजिक व् न्यायिक दण्ड का पक्षधर हूँ, परन्तु यहां मेरा फोकस इस बिंदु पर है कि झगड़े को दंगे का रूप कैसे दिया जाता है)? बोला बंद तो नहीं हुआ। मैंने कहा जब तक दुनियादारी और समाज है तब तक बंद होगा भी नहीं। बोला नहीं भाई जी आप समझे नहीं। मैंने कहा दंगों के प्लेटफार्म कैसे घड़े जाते हैं पहले इसको समझ। बोलता है जी समझाओ।

मखा यूँ बता, जिस वक्त मुज़्ज़फरनगर में यह कांड हुआ क्या उस वक्त देश या यूपी की किसी और जगह पे कोई लड़की नहीं छेड़ी जा रही थी? ठीक उसी वक्त पे कहीं मुस्लिम, हिन्दू लड़की को छेड़ रहा होगा, तो कहीं हिन्दू किसी मुस्लिम लड़की को छेड़ रहा होगा, कहीं कोई ब्राह्मण पुजारी किसी दलित की बेटी को देवदासी बना के नचा रहा होगा, कहीं कोई ठाकुर किसी दलित का उत्पीड़न कर रहा होगा। तो फिर ऐसे में बवाल सिर्फ मुज़्ज़फरनगर में ही क्यों मचा?

बोला भाई जी क्यों? मैंने कहा क्योंकि यह प्लोटेड था। बोलता है प्लोटेड कैसे? मैंने कहा हर पोलिटिकल पार्टी और आरएसएस जैसी कट्टर संस्थाओं की एक ऑब्जरवेशन टीम होती है। जो इन हर दूसरी-गली नुक्कड़ पे हो रही छेड़खानियों जैसी तमाम हरकतों पर नजर रखती हैं। इन टीमों के साथ पोलिटिकल, एडमिनिस्ट्रेशन व् मीडिया में बैठे इनके लोगों का पूरा बैक-अप एक कॉल पे इनके दिशा-निर्देश लेने हेतु रेडी रहता है। और जहाँ दंगा प्लाट करना होता है, उस जगह पर इस टीम को लगा दिया जाता है। सो जैसे ही कोई मामला इनकी नजर में आता है (जैसे यह मुज़्ज़फरनगर वाला), यह लोग तुरंत इस अमले को कॉल कर देते हैं। अमले के राजनैतिक लोग झगड़ा वाले एरिया के आसपास के अपने गुर्गों को सक्रिय कर देते हैं। एडमिनिस्ट्रेशन को वहाँ से गायब होने के निर्देश हो जाते हैं। और मीडिया वाले कैमरा उठाये दौड़े चले आते हैं। फिर आगे जो होता है कैसे झगड़े को दंगे का रूप दिया जाता है, वो तुम मुज़्ज़फरनगर और अब तो हरयाणा में भी जाट आंदोलन के दौरान प्रैक्टिकली देख ही चुके हो।

भाई जी मुज़्ज़फरनगर किसका करवाया हुआ था? सपा, बीजेपी, आरएसएस या कोई और? मखा तीनों का। बीबीसी की रिपोर्ट है कि जॉली नहर पे खाप महापंचायत से लौटते जाटों पर जो हमला करवाया गया था वो मध्य-प्रदेश की तरफ के आरएसएस के गुर्गे थे। उनको समझा दिया गया था कि महापंचायत में कुछ ना हो तो, तुम लोगों ने इनपे अटैक करना है और नाम मुस्लिमों का धर देंगे। और वही हुआ।

और मखा एक उदाहरण और देख ले, पिछले साल 15 अगस्त को फौजी वेद मित्र चौधरी (शामली) को मेरठ मे कुछ हिंदू लडको ने पीट पीट कर मार दिया; उसका गुनाह सिर्फ इतना था कि उसने हिन्दू गुंडों से एक हिन्दू बहन की आबरू बचाने के लिए आवाज उठाई। तब राष्ट्रवादियों से ले, बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ से ले साधवी-साधू, भाजपा-आरएसएस, हिन्दू सब गायब थे। मतलब साफ है यह चाहते हैं कि अगर किसी बहन की आबरू से खेला जाए तो पहले उसका धर्म देखा जाएगा। अगर छेड़छाड़ करने वाला मुल्ला होगा तो दंगे होंगे, इंसानियत तार तार होगी; पर अगर कोई हिंदू छेड दे तो कुछ नहीं। यह मापदंड हैं इनकी राष्ट्रवादिता, धर्म, भाईचारा जो कहो के।

भाई, यह उदाहरण तो तोड़ बिठा दिया आपने। तो भाई जी अब किसको वोट देवें? मखा मुझे जहाँ तक लगता है बीएसपी को दो। तो बोला भाई जी उनके राज में भी तो भट्टा-परसोल हुआ था? मखा हुआ था, परन्तु अंतर देखो। भट्टा परसौल सिर्फ भूमि-अधिग्रहण का मसला था। जो कि कॉर्पोरेट की मिलीभगत से हुआ था। वह मुज़फ्फरनगर की तरह साम्प्रदायिक दंगा नहीं था।

फिर मैंने पूछा मखा एक बात बता, तुम्हें बीएसपी के राज में फसलों के पैसे वक्त पे मिल जाते थे क्या? तो भाई बोला कि भाई जी यह बात बीएसपी के राज की एक दम पक्की थी; फसल मंडी पहुंची और साथ-साथ पैसा घर आ लेता था। तो मैंने कहा और मखा अब? तो बोला भाई जी अब तो सपा की सरकार है। तो मैंने कहा जहाँ बीजेपी की है, वहाँ कौनसे झंडे गढ़ रहे? साथ लगता हरयाणा देख ले, राजस्थान, एमपी, गुजरात हर जगह का किसान तो रो रहा अपने फसलों के पैसे को ले के| भाई जी आपने यह खूब कही, बिलकुल रुला रखा दोनों ने।

तो मखा अबकी बार वोट दो बीएसपी को। पर भाई जी चौधरी अजीत सिंह का अभी कुछ स्पष्ट नहीं। मखा, रालोद के कैडर को चाहिए कि रालोद और बीएसपी के गठबंधन बारे जोर डालें चौधरी साहब पर। वर्ना तो इतना समझ लियो बीएसपी को हराने खातिर सपा और बीजेपी एक भी हो सके हैं। मखा देख भाई, इन धर्म वालों के चक्कर में पड़ोगे तो कंगाल हो जाओगे। इनका बतलाया धर्म किसान के लिए अफीम समान होता है, जो तन-मन को नशे में डाल के, आपके घर की आर्थिक दशा पर ऐसी झाड़ू फेर देते हैं कि आप अनऑफिशल बंधुआ बनके रह जाते हो। बोला भाई जी यह बात तो है, पर धर्म तो मानना ही पड़े। तो मखा किसान का सबसे बड़ा धर्म है देश समाज की निष्पक्ष (बिना जाति-धर्म देखे) अन्न के साथ सेवा करना; ना कि ऐसे मोडे बाबाओं को चढ़ा देना कि जो अकाल-सूखा-बाढ़-साम्प्रदायिक क्लेशों-हारी-बीमारी में तुम्हारी तरफ मुड़ के भी ना देखते हों। मखा मॉडर्न भाषा में समझ आता हो तो इस तरह समझ ले, यह वो बीमा एजेंट हैं जो सिर्फ प्रीमियम लेना जानते हैं, बदले में देने के नाम पे दवन्नी की मदद ना करें, वापिस देना तो दूर की बात।

मखा एक बात बता, मुज़्ज़फरनगर के कितने बालक इन्होनें जेलों से छुड़ा दिए? और कितनों के घर आर्थिक सहायता पहुंचा दी? आरएसएस अपने आपको सामाजिक संस्था बोलती है? बता कितने मुज़्ज़फरनगर दंगों के हिन्दू घरों में कितनी-कितनी आर्थिक सहायता पहुंचाई आजतक, अढ़ाई साल होने को आये उन दंगों को?
और जबकि हरयाणा में देख दो महीनें ना हुए और खापों ने सरकार का इंतज़ार किये बिना और वो भी जाति देखे बिना, हरयाणा दंगों के हर मृत के घर कोई खाप 1.5 लाख पहुंचा रही है तो कोई पांच-पांच लाख। और देखना जितना हरयाणा सरकार ने मुआवजा दिया, इसका दोगुना तो खापें कर देंगी और वो भी हर जाति के मृत के लिए। और आरएसएस तो इतनी भी सामाजिक नहीं कि वो सरकार से बिना जाति और दोष के सवाल उठाये, मृतकों बारे किये वायदों को पूरा करवा सके?

इसलिए मेरे भाई, यह कट्टरता हम किसान जातियों के किसी काम की नहीं। हमें धार्मिक या राजनैतिक नहीं अपितु अपने आर्थिक हित देख के वोट डालने चाहिएं। और इस वक्त कोई किसान के आर्थिक हितों को यूपी में सबसे अच्छे से पूरा कर सकता है तो बीएसपी-रलोद-कांग्रेस का गठबंधन, मैं दावा नहीं करता कि यह किसान के लिए आदर्श साबित होंगे, परन्तु यूपी में आज के दिन आदर्श होने के सबसे नजदीक हो के जो सरकार दे सकता है किसान के हित की, यही लोग दे सकते हैं। बाकी सब तो खुला छलावा है किसान कौम के लिए।

धर्म-जाति से रहित राजनीति करी थी सर छोटूराम ने, चौधरी चरण सिंह ने, ताऊ देवीलाल ने व् अन्य किसान हितैषी नेताओं ने। जब इनके दौर थे तो किसानों के यहां हवेलियों की हवेलियां खड़ी हो गई थी। हर दूसरे किसान की हवेलियों पे मोरनियाँ चढ़ाई जाने लगी थी। और आज देख ले। क्या तो हाल यूपी के किसान का हो रखा और क्या हो रखा उधर हरयाणा के किसान का। यह जाति और धर्म का जहर तो इतना घातक होता है कि हमारे हरयाणा में एक राजकुमार सैनी (जो कि खुद भी किसान जाति से आता है) को किसानों को सेंटर-स्टेट दोनों जगह खुद की ही सरकार होते हुए फसलों के भाव दिलवाना तो ख्यालों में ही नहीं है, बल्कि ठाठी का बन्दा ऐसे जुटा पड़ा है कि जैसे सरकार में ना हो के विपक्ष में हो। मुझे समझ यह नहीं आ रहा कि जब पांच साल बाद वोट मांगने उतरेगा तो किसानों के लिए क्या किया के नाम पे क्या बताएगा यह जनता को|

इसलिए भाई धर्म की कट्टरता छोड़ दो, और अगर नहीं चाहते कि आपके घरों में चूहे निकल आने की बजाये, उन घरों की अटालिकाओं पर सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवीलाल व् अन्य किसान हितैषी नेताओं के दौर की भांति फिर से मोरनियां चढ़ने लगें तो उस पार्टी को वोट दो, जो आपको फसलों के उचित भाव उचित समय पर दें। ना कि उनको जो मन-शरीर की सोधी (होश) के साथ-साथ आपके घरों की करेंसी पे झाड़ू मार ले जाएँ और मुड़ के देखें भी नहीं; कटी ऊँगली पर मूतें तक नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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