Wednesday 8 June 2016

ओबीसी वालो और चढ़ लो राष्ट्रवादी विचारधारा की पद्दी (पीठ की सवारी)!

मुझे पूर्वाभाष तो उसी दिन से था जिस दिन करीब दो साल पहले सर्वप्रथम राजकुमार सैनी (इसके बाद तो और भी कई सिंगर के आ लिए) जाटों के खिलाफ अपनी जुबान से अनर्गल बकना शुरू किया था। लेकिन लिख आज रहा हूँ, क्योंकि आज मौका भी है और दस्तूर भी। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट कर दूँ कि यह लेख ओबीसी के सिर्फ उस धड़े के लिए है जो राजकुमार सैनी जैसों के बहकावों में चढ़े हुए हैं, वर्ना ओबीसी में ऐसे भाई भी बहुत हैं जो सैनी जैसों को गालियाँ भी दे रहे हैं; और ऐसे भाईयों का समाज को जोड़े और समाज से जुड़े रहने के लिए प्रथमया धन्यवाद। अब आगे बढ़ता हूँ।

पूर्वाभाष यह था कि यू नादाँ राजकुमार सैनी राष्ट्रवादियों की पद्दी चढ़ के जाटों के खिलाफ बोलने तो लग गया पर देखना जल्द ही यह राष्ट्रवादी ही इसको ऐसे चौड़े-चिक्कड़ में पटकेंगे कि इस-इस को नहीं बल्कि पूरी ओबीसी को साँस नहीं आनी। और देख लो जो सिर्फ सैनी ही नहीं, रोशनलाल आर्य, कैप्टन अजय यादव, राव इंद्रजीत यादव, रणबीर कापड़ीवास आदि-आदि को लेशमात्र भी साँस फूटी हो तो "स्मृति ईरानी द्वारा ओबीसी में असोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर की पोस्टों पर ओबीसी का आरक्षण रद्द करने पर"?

कोई पिछड़ा एकता मंच बनाए टूल रहा था, कोई पैंतीस बिरादरी की किलकी मारे था; वो शुद्ध हरयाणवी में कहते हैं ना "इब ले लो धार!" हुआ है राष्ट्रवादी किसी का जो तुम्हारा होगा?

यह तो थी ओबीसी भाईयों को चेताने और जिनकी पद्दी वो चढ़े हुए हैं, उनकी हकीकत दिखाने की बात। अब आता हूँ कि किस साइकोलॉजी के चलते ओबीसी राष्ट्रवादियों की पद्दी चढ़े होंगे, इस बिंदु पर।

हर इंसान-समुदाय को एक ललक जरूर रहती है कि मेरे समुदाय का बस नाम हो जाए, फिर चाहे जैसे भी हो। इनके इस लालच को राष्ट्रवादी जानते ही थे। और राष्ट्रवाद की थ्योरी का सबसे पहला और आखिरी हथियार है कि "नफरत फैलाओ, रोजी-रोटी सुनिश्चित पाओ!" बस पकड़ लिए सैनी जैसे, और करवा दिया हो-हल्ला शुरू और इनके हाथों चढ़ लिया ओबीसी का एक बहुत बड़ा धड़ा भी। और इसी धड़े को ले के यह लेख लिख रहा हूँ।

कि जिस उद्देश्य के लिए आप इनकी पद्दी चढ़े थे, वो तो पूरा हुआ नहीं; बल्कि आपकी ही नाक के नीचे से आपका प्रोफेसरी वाला आरक्षण और लपेट गए यह लोग| तो बताओ जरा क्या मिला एक ऐसे वर्ग के बहकावे में फंस के जो सिर्फ लेना जानता है देना नहीं? जाट तो फिर भी आपसे एक हाथ लेता रहा है तो दूसरे हाथ देता भी रहा है। जैसे बढई-खाती से लकड़ी या मकान का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; कुम्हार से मटकों का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; नाई से बाल कटवाने का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; लुहार से कृषि औजार बनवाने का काम, तो बदले में अनाज या पैसा; छिम्बी-दर्जी से कपड़े सिलवाने का काम, तो बदले में अनाज या पैसा आदि-आदि।

परन्तु यह राष्ट्रवादी क्या देते हैं आपको बदले में? इनको घर की सुख-शांति के लिए भी पैसे दो तो यह घर में यह कह के फूट और डलवा देते हैं कि तेरे भाई-चाचा आदि ने तेरे घर में टूने-टोटके करवा रखे हैं। और जो घर का कलेश मिटवाने गए, ले आते हैं घर में इन राष्ट्रवादियों की दोगुनी बोई कलह और।

और जिन जाटों से आप इनकी पद्दी चढ़ के ऐंठे वो तो इनको सदा से आगे धर के लेते आये। हाँ वो अलग बात है कि इनको ले के आज बहुत से जाटों के यहां भी दोहरे स्टैण्डर्ड हो रखे, कि मर्द तो इनका विरोध करेंगे परन्तु औरतें इनको घर की बैक एंट्री से भर-भर थाल अपना घर-कमाई इनको धकाएंगी। इसीलिए तो यह बिरान-माटी हो रखी जाट की। खैर, जाट का यह पहलु फिर कभी।

अब प्रोफेसरी का आरक्षण रद्द होने के बाद आपको जरूर ऐसा महसूस हो रहा होगा कि "गंगा गए गंगाराम, जमना गए जमनादास, ना गंगा मिली ना जमना यानि राष्ट्रवादी तो कभी आपका था ही नहीं, इनकी पद्दी चढ़ के खुद को जाट से ऊपर साबित करने के चककर में जाट से भी संबंध खट्टे कर लिए। गौर फरमाने की बात है कि जाट ने तो आपको पहले से ही बराबर का भाई माना हुआ था, और जिनकी पद्दी आप लोग चढ़ते हो, उनको जाट ने कभी मुंह ना लगाया। जाट के लिए तो सब बराबर रहे हैं; एक हाथ लिया है तो दूजे हाथ दिया है।

खैर कोई नहीं, जाट का तो सिम्पल सा "एक हाथ ले, दूजे हाथ दे" का फंडा रहा है, जल्दी ही भूल जायेगा; बशर्ते कि अब आप लोग आपके समाजों के इन राष्ट्रवादियों की पद्दी चढ़े लीडरों को छोड़ दें। और इनको चेतावनी दे-दें कि अगली बार बोलें तो जुबान संभाल के बोलें। और अब तो वैसे भी ऐसे नेताओं को परखने का एक उद्देश्य भी आपके हाथ आ गया है। जो भी सैनी-आर्य-यादव जैसे बोलता दिखे साफ़ बोलो कि जाओ पहले आपकी ही सरकार द्वारा छीना गया ओबीसी का प्रोफेसरी आरक्षण बहाल कराओ, फिर आगे सुनेंगे आपकी।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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