Monday 1 August 2016

12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं!

यह एक हरयाणवी कहावत है जिसका मतलब है कि 12 साल में तो निकम्मे से निकम्मे या कहो कि निठ्ठले से निठ्ठले दिखने वाले इंसान की बुद्धि भी चलने लग जाती है अगर वो एक परिवेश स्थिर रहा हो तो, ठीक वैसे ही जैसे एक कुरड़ी (कूड़े का ढेर) भी 10-12 साल या तर्कसंगत काल में हरीभरी हो जाती है यानी उस पर अंकुर फूट आते हैं| वैसे अंकुर और हरियाली तो साल-छह महीने में भी उग आती है, फिर इस कहावत के साथ 12 साल क्यों जोड़ा गया, यह मेरे लिए भी खोज का विषय है|

र यही वह थ्योरी है जिसकी तहत बाबा-साधु लोग इतने सिद्ध बन जाते हैं कि उनकी प्रसिद्धि फैलने लगती है| वजह है इस थ्योरी का ऑब्जरवेशन कांसेप्ट| स्थिरता में बैठे हुए साधु-ध्यानी या आमसमाज के ध्यानी में आसपास के वातावरण व् समाज के माहौल का ज्ञान उसी गहनता व् गहराई से उसमें उतरता है जैसे खेती पर धीमी बूंदाबांदी के तहत पड़ने वाली बूँदें, जो कि पौधे में गहराई तक समाती हैं| इसलिए एक कूड़े के ढेर यानी कुरड़ी की भांति एक जगह जमा साधू का ज्ञान भी उसी तरह उभर के आता है जैसे एक दिन लम्बे समय से एक जगह पड़े उस कूड़े के ढेर पर हरियाली उग आती है|

परन्तु दुविधा यह है कि इनमें से जो सिद्ध बनते हैं वो मात्र 1% होते हैं और जो 99% सिद्धि तक नहीं पहुँच पाते उन पर वो थ्योरी लागू होती है कि "अधूरा ज्ञान, जी-जान का झँझाल, समाज का काल"। और शुरू कर देते हैं अपने अधूरे ज्ञान के साथ समाज को ठगना-लूटना, समाज में वैमनस्यता फैलाना और समाज को छिनभिन्न करना या एक ऐसी दिशा में ले जाना जो यह खुद कभी हासिल ही नहीं किये होते हैं| और ऐसे यह 99% वजह बनते हैं समाज में पाखंड-आडम्बर-ढोंग फैलाने और रचने की|

परन्तु यहां जो काम की बात है वो यह है कि समाज को इनको मोड्डा-पाखंडी-आडम्बरी-ढोंगी बोलने के साथ-साथ निठ्ठला बोलने से पहले इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि "12 साल में तो कुरड़ी के भी भाग बहोड़ आते हैं"| इसलिए अगर यह निठ्ठले बैठे हुए से भी प्रतीत होते हैं तो इनको निठ्ठला मत बोलो क्योंकि उस दौरान इन पर प्रकृति वही कृपा कर रही होती है जो एक कुरड़ी पर कर रही होती है| तो क्या पता इनमें से कोई ऐसा भी हो जो 1% की राह की ओर अग्रसर हो| इसलिए इनको ढोंगी-पाखंडी-आडम्बरी बेशक बोलो परन्तु निठ्ठला-निकम्मा मत बोलो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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