Tuesday 13 December 2016

ज्यादा चूं-चपड़ ना मुझे आती, ना मैं जानता और ना ही मैं किया करता!

परन्तु हरयाणा में हर तरह की बीमारी ढूंढने वालों (इसमें क्या राष्ट्रीय मीडिया, क्या जे.एन.यू. टाइप वाले झोलाछाप इंटेलेक्चुअल, क्या लेफ्ट-विंग की गोल-बिंदी गैंग और क्या कुछ स्वघोषित नव्या स्टाइल की हरयाणा पे भोंकने वाली एनजीओज) को एक चैलेंज देता हूँ कि हो अगर हिम्मत तो बिहार-बंगाल-आसाम-झारखण्ड-उड़ीसा-पूर्वी यूपी-मध्यप्रदेश आदि जगहों से मात्र बेसिक मजदूरी करने तक को जो पूरा साल-सीजनों पर वहां के दलित-महादलित-ओबीसी यहां तक कि ठाकुर-भूमिहार मजदूरों की जो ट्रेनें भर-भर हरयाणा-एनसीआर-वेस्ट यूपी और पंजाब (सनद रहे इस पूरे इलाके को मीडिया ही जाटलैंड या खापलैंड भी कहता है) में चलती/उतरती हैं, इनको उल्टी चला के दिखा दो| अगर हरयाणा तुम्हारे लिए ऐसा ही नरक है जैसा तुम हर वक्त पानी-पी-पी टी.वी. के डब्बों और क्लबों में बैठ के कोसते हो तो क्या ढोके (धार) लेने आते हो यहां? तुम्हारी तो इतनी भी औकात नहीं कि खुद के लिए एक ढंग की नौकरी अपने गृह-राज्यों में ही ढूंढ सको या अपने गृह-राज्यों को इस लायक बना सको कि यह मजदूरों की भर-भर ट्रेनें ही कम-से-कम चलनी बंद हो जाएँ|

जानते हो ना इस यहीं बैठ के नौकरी पा के हरयाणा पे ही जहर उगलने को क्या कहते हैं, इसको बेग़ैरती, अहसानफ़रामोशी, जिस थाली में खाओ उसमें छेद करो इत्यादि कहते हैं| और जो हरयाणा पे कही अपनी हर उल-जुलूल बात को "बोलने की आज़ादी" और "देश के किसी भी कोने में रोजगार करने के सवैंधानिक अधिकार" की दुहाई के पीछे छुपाते हो ना, मत भूलो कि वही सविंधान तुम्हें इस बात की भी नकेल डालता है कि तुम वहाँ की सभ्यता-कल्चर का आदर-मान-सम्मान करोगे| और यह कुत्ते की तरह टेढ़ी हो चली अपनी दुमें ठीक कर लो, वर्ना अब हर हरयाणवी तुम्हें यह बताने को खड़ा होने वाला है कि तुम यहां रोजगार कर सकते हो, परन्तु हमारी सभ्यता-कल्चर पर हग नहीं सकते| कुछ कानों के पट्ट और चक्षुओं के लट खुल रहे हैं कि नहीं? सामने वाले के कल्चर-मान-मान्यता-भाषा-लहजे की इज्जत करने की तमीज सीख लो कुछ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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