एक दोस्त बोला कि तुम्हारे हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार नहीं है क्या?
पहले इस लेख के टाइटल की व्याख्या कर दूँ| शुद्ध उदारवादी जमींदारी के हरयाणवी कल्चर में जब शादी होती है तो दुल्हन को पति की मौत या लम्बी उम्र के भय से यह कहते हुए बेफिक्र कर दिया जाता है कि चिंता करने की जरूरत नहीं, बेफिक्र फेरे ले, यह मर भी गया तो और भतेरे|
इस कल्चर में कहावत है कि, "रांड कौन, रांड वो जिसके मर जाएँ भाई"| इस कल्चर में पति मरे पे औरत राँड यानि विधवा नहीं मानी जाती| उसको विधवा-विवाह के तहत पुनर्विवाह का ऑप्शन रहता है अन्यथा नहीं करना चाहे तो भी विधवा-आश्रमों में नहीं फेंकी जाती; अपने दिवंगत पति की प्रॉपर्टी पर शान से बसती है| और इसमें उसके भाई उसकी मदद करते हैं| इसीलिए कहा गया कि, "रांड वह जिसके मर जाएँ भाई, खसम तो और भी कर ले; पर भाई कहाँ से लाये?"
ऊपर बताई व्याख्या से भाई को समझ आ गया होगा कि क्यों नहीं होता; हरयाणवी कल्चर में पति की लम्बी उम्र का कोई त्यौहार? फिर भी और ज्यादा जानकारी चाहिए तो नीचे पढ़ते चलिए|
जनाब यह बड़ा बेबाक, स्पष्ट व् जेंडर सेंसिटिव कल्चर (वह सेंसिटिविटी जो एंटी-हरयाणवी मीडिया ने कभी दिखाई नहीं और एडवांस्ड हरयाणवी ने फैलाई नहीं; फैलाये तो जब जब समझने तक की नौबत उठाई हो) है| इसमें शादी के वक्त फेरे लेते वक्त ही लड़की को इन पति की मौत और उसकी लम्बी उम्र के इमोशनल पहलुओं से यह गीत गा-गा भयमुक्त कर दिया जाता है कि "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे"| फंडा बड़ा रेयर और फेयर है कि घना मुँह लाण की जरूरत ना सै| वो मर्द सै तो तू भी लुगाई सै|
मस्ताया और हड़खायापन देखो आज की इन घणखरी हरयाणवी औरतों का कि जिसने "बेबे हे लेले फेरे, यु मरग्या तै और भतेरे" वाले लोकगीत सुनती हुईयों ने फेरे लिए थे, वह भी पति की लम्बी उम्र के व्रत रख रही हैं| यही होता है जब अपनी जड़ों से कट जाते हो तो| जड़ों से तुम कट चुके, शहरों में आइसोलेट हुए बैठे और फिर पूछते हो दोष किधर है? 35 बनाम 1 के टारगेट पर हम ही क्यों हैं?
मैं यह भी नहीं कहता कि जिन कल्चर्स में पति की उम्र के व्रत रखे जाते हैं वह गंदे हैं या गलत हैं| ना-ना उनके अपने वाजिब तर्क व् नियम हैं| इसलिए मैं उनको इस त्यौहार पर बधाई भी दिया करता हूँ| उनका आदर करूँगा तभी तो मेरा आदर होगा| परन्तु तुम क्या कर रही हो? ना अपने का आदर करवा पा रही हो ना उसका स्थान बना पा रही? वजह बताऊँ? 'काका कहें काकड़ी कोई ना दिया करता"| खुद का मान-सम्मान चाहिए तो उन बातों पे आओ जिनपे चलके तुम्हारे पुरखे देवता कहला गए|
अरे एक ऐसा कल्चर जो फेरों के वक्त ही औरत को आस्वश्त कर देता है कि इसके मरने की चिंता ना करिये, यु मर गया तो और भतेरे; वह इन मर्द की मीमांसाओं व् मर्दवादी सोच को बढ़ावा देने वाले सिस्टम में चली हुई हैं? रोना तो यह है कि फिर यही पूछेंगी कि समाज में इतना मर्दवाद क्यों है?
हिम्मत है तो अपने दो त्यौहार औरों से मनवा के दिखा दो और वह तुमसे हर दूसरे त्यौहार मनवा रहे हैं| बिना पते की चिठ्ठियों कित जा के पड़ोगी; उड़ ली हो भतेरी तो आ जाओ अपने कल्चर के ठोर-ठिकाने|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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