Wednesday 8 January 2020

क्या रूहानी रहबर था वो: देखा कोई उसके जैसा जो अंग्रेजी गुलामी के दौर में भी "भाखड़ा बाँध" जैसे प्रोजेक्ट बनाता था?

गाँधी देखे हों, नेहरू देखे हों, जिन्नाह देखे हों, श्यामाप्रसाद मुखर्जी देखें हों, सावरकर या गोलवलकर देखें हों? इनके पॉजिटिव कंट्रीब्यूशन पर कोई कटाक्ष नहीं है, बस जानना इतना है कि इन्होनें भी किसी ने सर छोटूराम के "भाखड़ा बाँध" जैसा कोई प्रोजेक्ट लगाया था क्या आज़ादी से पहले?

देखा-सुना-पढ़ा कोई दीनबंधु रहबर-ए-आज़म चौधरी सर छोटूराम जैसा दिग्दर्शी? इतना दिग्दर्शी कि उस दौर में वह "भाखड़ा बाँध" के रूप में ऐसा प्रोजेक्ट लगा गया जिसके बूते आज़ादी के 73 साल बाद आज भी पूरे उत्तरी भारत के हर जाति-धर्म के किसान के खेत सिंचित होते हैं; हर जाति-धर्म के घर-गाम-शहर को बिजली मिलती है, हर जाति-धर्म के व्यापारी के कारखाने-दुकान को बिजली-पानी मिलता है?

एक ऐसा वक्त जब नेहरू-जिन्नाह-गांधी-सावरकर-मुखर्जी आदि इस पर आपस में उलझे हुए थे कि हिन्दू-मुस्लिम को अलग देश देवें या नहीं, उसी वक्त समानांतर में जिंदगी की आखिरी साँस लेने से पहले "भाखड़ा बाँध" का प्रोजेक्ट पूरा होने की फाइल पर हस्ताक्षर करके गया था वह हुतात्मा| इन्हीं वजहों-नीति-नियतों के चलते 33 करोड़ देवी-देवते बनाने-घड़ने वाले भी जाटों को धरती के भगवान् यानि "जाट देवते" बोलते हैं|

वैसे तो हर जाति-धर्म वाला समझे इस बात को, परन्तु जाट खासकर जान ले कि, "यह जाट-देवता वाली छवि यूँ ही नहीं हासिल किये थे पुरखे"| उनकी क्या कूबत थी और आपकी-हमारी क्या कूबत है कभी सोच-विचार कीजियेगा| हमारे पुरखे सिर्फ वह नहीं थे जो आजकल के मीडिया, मूवी-टीवी सीरियल्स, गोल बिंदी गैंग या तथाकथित एनजीओ वाले दिखा सिर्फ अपनी भड़ास निकालते रहते हैं| कोई नहीं दिखायेगा आपको ऐसे लेखों के जरिये ऐसी बातें, सिवाय 10-20-100-50 मेरे जैसे सरफिरों के अलावा| भाखड़ा बाँध जैसे प्रोजेक्ट ही थे जिनके बूते दो-दो हरित-क्रांतियाँ पार पड़ी और सिर्फ जाट-जमींदार ही नहीं अपितु हर जाति-धर्म के जमींदारों के यहाँ हवेलियों पर मोरनियाँ चढ़ाने जितने ब्योंत हुए| आओ विचारें आज कि तुम्हारी-हमारी क्या तैयारियाँ हैं आगे की पीढ़ियों की हवेलियों पर मोरनियाँ चढ़वाने की?

आज 9 जनवरी है आज ही के दिन 1945 में उस उदारवादी जमींदारी की रूह ने आखिरी साँस ली थी| आईये निश्चय करें कि उलझे रहेंगे जिनको धर्म-जातियों की लड़ाईयों-दंगों में लड़ने-लड़वाने-बंटने-बँटवाने को खुद का व् सारे समाज का जीवन सडाना है, इनकी तो धुर-दिन से लाइन ही खराब है उन जमानों में भी इनको यही लावालुतरी आई और वही ढाक के तीन पात; बनिस्पद बेशर्मों की आज भी वही लाइन है| परन्तु हम और आप उस पुरखे की भाँति ऐसे प्रोजेक्ट्स पर नजर रखते हुए, उनको साकार करते चलें कि यूँ ही वह प्रोजेक्ट्स हमारे मरने के बाद 70-100 साल भी दुनियाँ-जहान की जरूरतें पूरी करते रहें जैसे आज "भाखड़ा बाँध" कर रहा है|

और तो क्या ही व्याख्या करूँ मैं उस साक्षात् जमींदार-मजदूरों के भगवान की| उसकी समाज सेवा के प्रति नेक-नियति व् दूरदर्शिता के क्या ही कहने| भले ही फिर वह जमींदार-मजदूर-व्यापार के 13 स्वर्णिम कानून बनाये हों उसके, जो आज तलक लगभग हूबहू रूप में हरयाणा-पंजाब-हिमचाल-दिल्ली तक में लागू हैं; भले ही आज़ादी से भी 10 साल पहले उसने पंजाब में वह आरक्षण लागू कर दिया था जो बाकी के भारत में आज़ादी के बाद लागू हुआ; भले ही उसने 25 साल निर्बाध यूनियनिस्ट सरकार यूनाइटेड पंजाब में चलाई की दास्ताँ हो; भले ही उसने यह सब अचीव करने के लिए समाज को धार्मिक आधार पर बांटने वाली ताकतों को ठेंगा दिखाया था,उसकी बानगी हो| उनके जीवन की सबसे बड़ी सीख यह भी है कि सर्वसमाज-देश का भला करना है तो धार्मिक-जातीय-वर्णीय ताकतों को साइड रखना होगा और ताक पर रख कर काम करने पड़ें तो वह भी करना होगा|

स्टेट से ले सेण्टर सरकारों से अनुरोध है कि भाखड़ा बाँध पर सर छोटूराम का स्टेचू लगवाया जाए| उनको "भारत-रत्न" से नवाजा जाए तो इसमें कोई अहसान करने वाली बात नहीं होगी अपितु पुरखों का देश-समाज पर कर्ज उतारने की बात होगी|

9 जनवरी 1945 सर छोटूराम निर्वाण दिवस विशेष व् 9 जनवरी 1858 राजा नाहर सिंह व् उनके 2 सेनापतियों के बलिदान दिवस पर उन हुतात्माओं को बारम्बार नमन|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


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