Thursday 14 May 2020

उदारवादी जमींदार वही होता है जो धर्म को भी उदारता की मर्यादा में बांध के रखे!

आज के ही दिन 15 मई 2011 को बाबा महेंद्र सिंह टिकैत अपनी देह यात्रा पूरी करके गए थे, इस पर सबसे पहले तो उन हुतात्मा को हार्दिक नमन| बाबा जैसे बड़े स्याणों के जीवन (फोटो देखिये सलंगित, कैसे 3-3 धर्म उनके दरबार में हाजिरी लगाए बैठे हैं) व् उनके मत-मथन-मगज थे कि सामाजिक स्टेजों के चौधरी, इनकी चौधर यानि कमांड; सामाजिक लोगों के हाथ में ही रखें तो भला| धर्म प्रतिनिधि की चौधर हेतु समाज ने उसको धर्मस्थल बना के दिए हैं, वह अपनी चौधर वहां से चलाएं| अगर धार्मिक लोग ही हर जगह सर बैठाओगे तो ऐ सामाजिक लोगो, बाबा टिकैत पूछ रहा कि अपनी चौधर किधर किसके सर धराओगे?
अत: मर्यादा में बांधों इनको सबसे पहले! कोई सरकार, कोई प्रसाशन, कोई व्यापारी तुम्हारा तभी नुक्सान या तुम्हारे प्रति गैर-जिम्मेदारी बरतेगा अगर तुमने धर्म को मर्यादा में रखना छोड़, खुद उसके आगे-पीछे टूलना शुरू किया हुआ है तो| पुरखों की यह थ्योरी आपको ईसाई धर्म वालों के बराबर बैठाती है, देखें इन्होनें अपने धर्मावलम्बी यानि पादरियों को चर्च के अंदर सिमित कर रखा है| आज तक एक उदाहरण ऐसा नहीं मिलता जब इनके धर्म का प्रतिनिधि ईसाईयों के सामाजिक चबूतरों-फग्सनों-समारोहों में आ के चौधरी बनता, तो क्या वहां बैठता तक हो| 99% तो यही देखा है आज तक जीवन में, 1% अपवाद हेतु छोड़ रहा हूँ| जबकि आपने इस अनुपात की उल्टी सुई टच की हुई है आज के दिन| और इसीलिए ईसाई लोग वर्ल्ड के मोस्ट डेवलप्ड लोग हैं| यूरोप के 14वीं सदी के ब्लैक प्लेग के बाद से इन्होनें धर्माधीशों को चर्चों तक सिमित कर रखा है|
और हमारे पुरखे रहे ऐसे ही, मूर्ती-पूजा रहित, धर्म-वर्ण-जाति रहित, मर्द-पुजारी रहित, 100% औरत की धोक-ज्योत की सुपुर्दगी वाले "दादा नगर खेड़ों" रुपी इतना जागरूक समाज रहा हमारा कि 100% मूर्ती-पूजा के समाज से आने वाले महर्षि दयानन्द ब्राह्मण भी आपके इन सिद्धांतों की तारीफ़ में अपने सत्यार्थ प्रकाश में लिखे बिना ना रह सके कि, "अगर सारी दुनिया जाट जी जैसी पाखंड-रहित मानवीय हो जावे तो पंडे भूखे मर जावें"| खैर, हमें पंडे तो भूखे नहीं मारने, हम क्यों तो मारें और कौन हम जो इनको भूखे मारें, परन्तु आज बाबा टिकैत की बरसी पर इतना जरूर धारें कि सामाजिक मंचों की चौधर सामाजिक हाथों में रहेगी| इन पर किसी धर्म प्रतिनिधि को आना भी है तो याचक बन के आये (ठीक वैसे ही जैसे आप-हम धर्मस्थल में याचक बन के जाते हैं) या आम आदमी की तरह सामाजिक कपड़े पहन कर सभा में बैठे|
अन्यथा तो आपकी इन अपने-अपने धर्मों को हद से ज्यादा सर पे चढ़ाने की लत कहिये या सनक, इसका ही परिणाम है कि जब से बाबा टिकैत गए हैं तभी से उदारवादी जमींदारों की नीतियों-नियतों-नियमों-नामों की गाड़ी सी उलळी पड़ी है| और वो इसीलिए उलळी हुई चल रही है क्योंकि इस फोटो में बाबा टिकैत की भांति सब धर्मों को अपने यहाँ हाजिरी लगवाने वालों की औलादें, आज अपने-अपने पंथ-धर्म की हाजिरी लगाने में उलझी पड़ी हैं| इनके खूँटों पर ऐसे बंधी पड़ी हैं जैसे जमींदार के बाड़े में भैंस या गाय| और यह विरासत बाबा टिकैत से होती हुई सर छोटूराम, महाराजा रणजीत सिंह, महाराजा सूरजमल सुजान, गॉड गोकुला व् बहुत पीछे तक जाती है (14 वीं सदी वाले यूरोप के ब्लैक-प्लेग काल से भी कई सदियों पीछे), जिन्होनें धर्मों तक को उदारता सिखाई| और आज हम जैसे उनके वंशज, एक धर्म की उड्डंता काबू नहीं कर पा रहे? और तो और हमारे इन पुरखों के दिए धर्म, जाति व् वर्ण से रहित "दादा नगर खेड़ों" को या तो फंडी निगल जाने को लालायित हैं या इनमें अपना 100% मर्दवाद का सिस्टम घुसाने को फिर रहे हैं; जबकि हमारे पुरखों ने इसको 100% औरत की सुपुर्दगी में बनाया| देखो पुरखों की चाल से कितनी 180° उल्टी दिशा में जा रहे हो|
अगर यह जिम्मेदारी समझते हो तो, सम्भालो समाज के सामाजिक मंचों को| अगर लेख पसंद आया हो तो आगे बढ़ावें, उदारवादी जमींदारी परिवेश के तो हर ग्रामीण-शहरी-एनआरआई परिवार के मर्द-औरत दोनों तक बराबरी से पहुँचावें| अन्यथा तो इन फंडियों द्वारा इंडिया को विश्वगुरु बनाने के सगूफों में उससे भी जाओगे, जिसके कारण खुद को यूरोपियन्स से ले अमेरिकन्स तक के साथ तुलनात्मक खड़े कर सकते हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक


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