Tuesday 8 December 2020

"कोई बादाम खाता है तो वह किसान नहीं हो सकता" - कौनसी मानसिकता है यह, और कहाँ से कैसे पैदा होती है?

इस सोच वालों का विरोध करो, उपहास उड़ाओ; बेशक करो परन्तु इस पर मंथन जरूर करो कि कौनसी परवरिश है यह, किस तरह के नैतिक, सामाजिक व् धार्मिक मूल्यों में पले लोग यह मानसिकता रखते हैं?

क्या किसी मुसलमान ने अपने किसान बारे ऐसा कहा? किसी सिख ने कहा हो? किसी ईसाई, ग्रामीण आर्यसमाजी या बौद्ध ने कहा हो? किसी विदेशी ने कहा हो?
जवाब है नहीं!
तो फिर?
इन बातों को, इन मानसिकताओं को हल्के में मत लो| सर छोटूराम के बताए दुश्मन यही तो हैं; पहचानों इनको| देखो इनके प्रोफाइल, समझो इनकी परवरिश, समझो इनका नैतिक चरित्र|
ये वही हैं जो अपनी स्वघोषित ज्ञान की पोथियों में लिखते हैं कि एक स्वर्ण को शूद्र का कमाया बलात भी हरना पड़े तो हर लेना चाहिए| यह वही लोग हैं जो वर्णवादी मानसिकता में पाले-बड़े किए जाते हैं| यह वही लोग हैं जो यह चाहते हैं कि किसान-जवान-मजदूर को जरूरत के हिसाब से जब चाहे क्षत्रिय कह लो, जब चाहे वैश्य व् जब चाहे शूद्र| यह वही लोग हैं जो खुद के कहे-लिखे को ही सविंधान मानते हैं, राष्ट्रभक्ति मानते हैं|
यह वही लोग हैं जब इनकी चले तो ओबीसी-दलित की बहु-बेटियों को देवदासियां बना के सामूहिक भोग तक पहुँच जाते हैं और जब इनकी बिसात ना हो तो अपनी बिसात बनाने को अपनी ही औरतों को इन्हीं किसान-जमींदारों के यहाँ चूल्हा-चौका करने तक भेजते हैं|
फैसला तुम्हारा कि इनको देवदासियों वाली औकात देनी है या इनकी औरतें किसान-जमींदारों के यहाँ चूल्हा-चौका वाली औकात में रखना है| ये मध्य-मार्गी नहीं हैं, एक्सट्रिमिस्ट हैं| और किसान-जमींदार के साथ इनका यही कंट्राडिक्शन है कि किसान-जमींदार मध्य-मार्गी होता है, जो एक हाथ में हल की मूठ तो दूजे में बादाम रखता है| यह चाहते हैं कि हल की मूठ पकड़ा रहे और बादाम इनको देता रहे, वह भी बिना कोई ना-नुकर किये|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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