Wednesday 13 September 2023

रियासती और देहाती - दिल्ली - बहादुरशाह जफर- अंग्रेज - खाप और दिल्ली हाईकोर्ट

1947 तक भी अनेको स्वतंत्र क्षेत्र थे, जो सभी रियासतों से बाहर थे. स्वतंत्र इलाको को देहात के नाम से जाना जाता था, जैसे अब दिल्ली में शामिल पालम खाप 360 के गाँवो को दिल्ली देहात ( स्वतंत्र एवं गैर रियासती एवं गैर सरकारी ) क्षेत्र. ये क्षेत्र सामूहिकता के फैसलों से चलते थे. इस सिद्धांत को संविधान निर्माताओं ने "यूनिट ऑफ़ सेल्फ गोवेर्मेंट" के नाम से ग्रामीण क्षेत्रो को पहचान दी है.

1857 की क्रांति का दमन करते हुए जब अंग्रेजों विशाल सेना के साथ पुराने किले पर कब्जे के लिए बढ़ रहे थे. 19 सिंतंबर को बादशाह अपने पूरे परिवार और सैनिको के साथ महल छोड़कर पुराने क़िले चले जाते हैं. 20 सितंबर को हॉडसन को खबर मिली कि ज़फ़र पुराना क़िला छोड़ कर हुमायूं के मकबरे में पहुँच गए हैं. 20 सिंतंबर 1857 को मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर बचते-बचाते - पालम खाप 360 के गांव मालचा ( जो की एक बड़ा गांव था जहा आज संसद भवन और राष्टपति भवन बने हुए हैं ) में जाकर खाप की शरण लेते हैं. उसके बाद एक पालम 360 के प्रतिनिधियों की एक खाप पंचायत होती हैं और शरण में आये बुजुर्ग बादशाह की सुरक्षा का प्रस्ताव पास किया जाता हैं. इस समय में खाप रियासतों से अलग अपने स्वशासन के साथ अस्तित्व में थी. अंग्रेज और रियासती राजे रजवाड़े खाप कि सामूहिक ताकत से डरते थे. क्योकि खाप के पास जितने लोग थे न तो अंग्रेजो के पास इतने सैनिक थे और न रियासतों के पास इतनी बड़ी सेना. क्योकि खाप में हर व्यक्ति का सैनिक होता हैं. खाप कि जेलियो और फालियों से हर कोई डरता था.
उधर कैप्टन विलियम हॉडसन क़रीब 100 सैनिकों के साथ बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को पकड़ने के लिए हुमायु के मकबरे की ओर बढ़ते हैं. वह अपने सूत्रों को भेजकर यह पता लगाते हैं कि बहादुर शाह ज़फ़र वहा हैं या नहीं ? हॉडसन को इस बात का डर था कि पता नहीं हुमायूं के मकबरे पर मौजूद सैनिक उनपर हमला न कर दे. इसलिए हॉडसन ने मकबरे में महारानी ज़ीनत महल से मिलने और बादशाह को आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार करने के लिए अपने दो नुमाइंदों (मुखबिरों) मौलवी रजब अली और मिर्ज़ा इलाही बख़्श को भेजते हैं. मौलवी रजब अली और मिर्ज़ा इलाही बख़्श 2 घंटे बाद सुचना लेकर आते हैं कि बादशाह "पालम खाप" कि शरण में जा चुके हैं. खाप ने उनकी सुरक्षा कि जिम्मेदारी ले ली हैं और एक शर्त रक्खी हैं कि बुजुर्ग बादशाह के साथ कोई भी बदसलूकी न कि जाए. अगर हडसन ऐसा मानते हैं तो बादशाह ज़फ़र सिर्फ़ हॉडसन के सामने ही आत्मसमर्पण करेंगे और वो भी तब जब हॉडसन खुद जनरल आर्चडेल विल्सन द्वारा दिए गए वादे को उनके सामने दोहराएंगे कि उनके जीवन को बख़्श दिया जाएगा. ऐसा ना करने पर खाप रियासती संधि को तोड़ देगी और उसके परिणाम अंग्रेजो को भुगतने होंगे.
अंग्रेज़ी ख़ेमे में इस बात पर शुरू से उलझन थी कि किसने और कब बहादुरशाह ज़फ़र को उनकी ज़िदगी बख़्श देने का वादा किया था? इस बारे में गवर्नर जनरल के आदेश शुरू से ही साफ़ थे कि विद्रोही चाहे कितने ही बड़े या छोटे हों, अगर वो आत्मसमर्पण करना चाह रहे हों तो उनके सामने कोई शर्त या सीमा नहीं रखी जाए. हॉडसन इस इस शर्त को स्वीकार कर लेते हैं और बादशाह ज़फ़र को खाप ने सफ़ेद पगड़ी पहनाकर विदा किया, जिसका मतलब था कि अगर खाप कि पगड़ी उछाली गई तो विद्रोह होगा. बादशाह खाप का धन्यवाद कर अपने परिवार के पास हुमायु के मकबरे में पहुंच जाते हैं जहा से वो आत्मसमर्पण करना चाहते थे. इस फैसले से बादशाह ने अपनी रियासत में से कुछ जमीन मालचा गांव को भेंट कर दी. आज जहा इंडिया गेट बना हुआ हैं यहाँ से लेकर कनॉट प्लेस तक कि जमीन मालचा के किसानो को दे दी गई. इस क्षेत्र को मालचा पट्टी कहा जाता था.
ऐसा करना अंग्रेजो कि मज़बूरी भी थी और कूटनीति भी, एक तो बहादुरशाह बहुत बुज़ुर्ग थे और वो इस विद्रोह के सिर्फ़ एक कमजोर शासक थे. दूसरे अंग्रेज़ दिल्ली में दोबारा घुसने में सफल ज़रूर हो गए थे लेकिन उत्तरी क्षेत्र कि कुछ रियासते और देसी सैनिको का विद्रोह अब भी जारी था और अंग्रेज़ो को कहीं न कहीं डर था कि अगर बादशाह की जान ली गई तो लोगो भावनाएं भड़क सकती हैं. इसलिए विल्सन इस बात पर राज़ी हो गए कि अगर बादशाह आत्मसमर्पण कर दें तो उनकी जान बख़्शी जा सकती है.
विलियम हॉडसन अपनी किताब 'ट्वेल्व इयर्स ऑफ़ द सोलजर्स लाइफ़ इन इंडिया' में लिखते हैं, 'मकबरे से बाहर आने वालों में सबसे आगे थीं महारानी ज़ीनत महल. उसके बाद पालकी में बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र आ रहे थे. इसके बाद बहादुर शाह जफ़र को तय शर्तो के साथ गिरफ्तार कर लिए गया. बहादुर शाह जफ़र आत्मसमर्पण के समय राजशाही ताज कि जगह सफ़ेद पगड़ी बंधे हुए थे जो उन्हे खाप ने पहनाई थी.
कैप्टेन चार्ल्स ग्रिफ़िथ उन अफ़सरों में थे जिन्हें बहादुर शाह ज़फ़र की निगरानी की ज़िम्मेदारी दी गई थी.
बाद में उन्होंने अपनी किताब 'द नरेटिव ऑफ़ द सीज ऑफ़ डेल्ही' में लिखा, 'मुग़ल राजवंश का आख़िरी प्रतिनिधि एक बरामदे में एक साधारण चारपाई पर बिछाए गए गद्दे पर पालथी मार कर बैठा हुआ था. उनके रूप में कुछ भी भव्य नहीं था सिवाए उनकी सफ़ेद दाढ़ी के जो उनके कमरबंद तक पहुंच रही थी. मध्यम कद और 80 की उम्र पार कर चुके बादशाह सफ़ेद रंग की पोशाक पहने हुए थे और उसी सफ़ेद कपड़े की एक पगड़ी उनके सिर पर थी. उनके पीछे उनके दो सेवक मोर के पंखों से बनाए गए पंखे से उन पर हवा कर रहे थे. वो ज्यादातर शांत रहते और बहुत काम बात करते थे.
मालचा गांव की सीमाएं और उनकी जमीनें पहाड़गंज से लेकर धोला कुआँ तक फैली थीं. आज भी यहाँ एक सड़क का नाम मालचा गांव के नाम पर है. लाल किले और मालचा गांव में बिच में कुछ नहीं था बस हरे भरे खेत और आम - जामुन के बाग़ थे. इन्ही खेतो खेतो की करीब 4000 एकड़ जमीन के कुछ हिस्सों पर संसद भवन राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट और कनॉट प्लेस बने हुए हैं. 1912 अंग्रेजो दुवारा अधिनियम, 1894 का उपयोग करते हुए भूमि को खरीद कर अधिग्रहण किया गया था. हालाँकि बाद में बहुत से किसानो को मुआवजा नहीं मिला और अभी भी मालचा गांव के कुछ किसानो ने इस भूमि पर दिल्ली हाई कोर्ट में केस किया हुआ.
~Rajesh Dhull

No comments: