Thursday 7 September 2023

आरएसएस का लाठी खेल!

आरएसएस, जोकि शहरियों का संगठन माना जाता रहा है। वह अलग बात है कि अब पिछले दस बीस सालों से इसमें देहाती भी दिखने लगे हैं। इसकी शाखाओं में हम सभी ने देखा है कि वहां स्वयंसेवकों को लाठी चलाना सिखाया जाता है। दरअसल इस लाठी वाले खेल का इतिहास आरएसएस की स्थापना से भी पैंसठ सत्तर साल पहले, यानी 1860 के दशक में बंगाल में शुरू हुए हिन्दू मेला से शुरू हुआ था और उस समय इसे नाम दिया गया लाठी खेला। इसके पीछे का इतिहास बड़ा ही रोचक है। और इसके पीछे के इतिहास को जानेंगे तो समझ आ जायेगा कि आज भी ये संघ वाले लाठी खेल को क्यों जारी रखे हुए हैं।

1857 के आज़ादी संग्राम के बाद अंग्रेजों ने सेना में मार्शल नस्ल भर्ती का आधार बना दिया। जिससे सेना में बंगालियों की नफरी घटा दी गई, या कहें कि इनकी भर्ती ही बंद कर दी गई थी। इससे जनता में धारणा बन गई कि बंगाली कायर नस्ल है। इससे बंगालियों में हीन भावना पैदा हो गई। यह भावना उस वक्त के पढ़ लिखे बंगालियों के लेखों व् भाषणों में साफ़ झलकती है। बंगाली बुद्धिजीवी वर्ग ने कलम के जरिये इस धारणा को तोड़ने का प्रयास किया। मई 22, 1867 के दी नेशनल पेपर में लेख लिखा गया ‘Can The Bengalees Be A Military Nation?’। औपनिवेशिक आरोप था कि बंगाली लोग जल्दी शादी कर लेते हैं, इसलिए उनकी संताने कमजोर व् जनाना पैदा होती हैं। इस लेख में इस औपनिवेशक आरोपों की तर्कों से जवाब देने की कोशिश की गई थी। लेख में कहा गया कि शारीरिक कमजोरी का आरोप शहरी व् पढ़े लिखे बंगालियों के मामले में शायद सही हो सकता है, परन्तु बंगालियों का निचला तबका जो या तो ज़मींदारों के यहाँ लठैत है, या फिर खूंखार डकैत हैं, यह तबका सेना में भर्ती किया जा सकता है। इसी पेपर में जून 12, 1867 को इसी विषय पर एक और लेख छपा था ‘courage and exercise’। बात ये है कि उस वक्त इस मार्शल नस्ल की थ्योरी ने रोटी बनाम चावल की बहस को जन्म दिया। एक कहावत जोकि हमारे यहाँ आज भी प्रचलन में है कि चावल खाने वाले शारीरिक तौर पर कमजोर होते हैं। आज भी हमारे यहाँ अक्सर ये ताना सुनने को मिल जायेगा कि चावल खानिया। बंगालियों की मुख्य खुराक चावल है और पंजाबियों (संयुक्त पंजाब जो दिल्ली पलवल से शुरू होकर पेशावर की सीमा तक था) की रोटी, तो उस दौर में चावल खाने वाले बंगाली बनाम रोटी खाने वाले पंजाबी की बहस चलती थी। इस बहस के कारण बंगालियों ने हिन्दू मेला की ऑर्गनाइजिंग कमेटी में शारीरिक शिक्षा का एक अलग से विभाग बनाया और मेले में तरह तरह के शारीरिक व्यायाम और टूर्नामेंटो को भी स्थान दिया गया। बंगालियों को प्रेरणा देने के लिए नबगोपाल मित्र ने नेशनल पेपर में ग्रीक, जर्मनी, फ़्रांस के जिम्नेजियम के स्केच प्रकशित किये। बंगाली कमजोर होते हैं ये मिथक तोड़ने और अपने लोगों को शारीरिक मजबूत बनाने और उनमें लड़ाई का जज्बा भरने के उद्देश्य से ही 1868 में हिन्दू मेला में लाठी खेला शुरू किया गया। पर बंगालियों यानि चावल खाने वाले में ये खुराक वाली हीन भावना निकलते नहीं बन रही थी। 1874 में बंकिम चन्द्र चटर्जी का बंगा दर्शन में बंगालीर बाहुबल नाम से लिखा एक लेख जिसमें बंकिम ने जेम्स जोहन्सटन की किताब Chemsitry of common life-I के हवाले से लिखा कि बंगाल एक चावल उत्पादक सूबा है, इसलिए यहाँ की चावल मुख्य खुराक है, और चावल में वो पोषक तत्व नहीं होते जो शारीर की बनावट में सहायक हों। गेहूं व मांस में ग्लूटेन की मात्र ज्यादा होती है। इसीलिए गेहूं व् मॉस खाने वालों का शारीर ज्यादा मजबूत होता है। 1878 के हिन्दू मेले में बंगाली और पंजाबी पहलवान के बीच कुश्ती का मुकबला जिसमें पंजाबी पहलवान बंगाली पहलवान को चित कर देता है। जिस पर संबाद प्रभाकर ने रिपोर्टिंग की कि “कोई बात नहीं इस बार पंजाब का पहलवान जीत गया, पिछली बार हमारा बंगाल का पहलवान जीता था, और हो सकता है कि अगली बार हमारा पहलवान पंजाब के पहलवान को हरा दे। इतिहास बंगाल और पंजाब को सियार और शेर के रूप में देखता है, इस नजरिये से बंगाली पंजाबी का मुकाबला करने के काबिल हुआ है हमारे लिए यही बहुत बड़ी बात है”।
खैर, ये खुराक की बहस काफी लम्बे समय तक चली और हर हिन्दू मेले में इस पर कोई न कोई वक्ता जरुर बात करता। ये इतिहास और दलीले काफी लम्बी हैं, मैंने थोडा संक्षेप में बताया है। हिन्दू मेला चौदह साल तक चला। इसके बाद 1925 में आरएसएस का गठन किया गया। हालाँकि, आरएसएस का गठन वैसे तो 1918 में मुंजे ने कर दिया था परन्तु इसका औपचारिक गठन 1925 माना जाता है। आरएसएस ने हिन्दू मेला के आयोजकों ने जो भी थ्योरी व् कार्यक्रम शुरू किये थे वे सभी ज्यों के त्यों शुरू किये, जिनमें लाठी वाला खेल भी शामिल है। हम लोग आरएसएस की लाठी का जो मजाक बनाते हैं उन्हें शायद अब इनके इस लाठी के खेल के पीछे का इतिहास समझ आ गया होगा! आरएसएस शहरियों का संगठन है और ये शहरी आज भी ताकत के मामले में उसी मानसिक दबाव में हैं। इसीलिए ये लोग लाठी का खेल और शास्त्र पूजा आदि अपने संगठन के कार्यक्रम का हिस्सा बनाए हुए हैं।
-राकेश सिंह सांगवान

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