Tuesday, 27 May 2025

कोथ मसले में शुक्राई नाथ के पीछे हटने के पीछे की असल वजह!

कोथ मसले में छुपे रूप से घुसाया गया फंडी विचारधारा से आने वाले महंत शुक्राई नाथ का भाग खड़ा होना कहो या अपनी जिद्द रुपी हथियार को डाल देना कहो (भले महामंडलेश्वर बाळकनाथ समझौते की जितनी मानवकारी वजहें बताते रहें वीडियो पे आ कर मीडिया के आगे); परन्तु असली वजह जो निकल कर आई, वह जाट व् इसके मित्र समाजों के लिए एक बहुत सीरियस संदेश भी है व् आत्मबल को बढ़ा के सही दिशा में सरजोड़ कर धर्म के नाम पर जमीन-जायदाद के लालचियों से अपनी नस्लों की वैचारिक बाड़ करने का आत्मविश्वास भी देती है| 


जैसा कि सभी को पता ही है, गाम कोथ-कलां 'दादा काळा पीर' की गद्दी 'गुरु गोरखनाथ' फिलोसॉफी की गद्दी है; जो ना ही तो मूर्ती-पूजा करते हैं व् ना ही वर्णव्यवस्था को मानते होते| ऐसे में इनमें यह वर्णवादी व्यवस्था वाला लोभ-लालच क्यों समा जाता है इसकी असली वजह कल पता लगी; जब इस मसले में तह तक जुड़े कुछ लोगों से फ़ोन पर बात की| 


सबसे पहले तो इस मसले में शुक्राई नाथ द्वारा अपने हाथ वापिस खींच इस गद्दी को छोड़ देने की वजह जानें| वजह रही इस गद्दी के आसपास के वर्णवादी विचार वाले मूर्तिपूजा आधारित धर्मकेंद्रों में इस मसले के जरूरत से ज्यादा लम्बा होते जाना व् बढ़ता चले जाने से पनपा संशय व् भय| खासतौर से भनभौरी वालों को भय सताने लग गया था कि तीन महीने हो गए ना जाट काबू आ रहे, ना दब रहे व् ना ही जाट मान रहे; जबकि इस मसले से जुड़े दोनों तरफ के काफी लोगों को साम-दाम-दंड-भेद के जरिए तोड़ने-डराने आदि की तमाम कोशिशें की जा चुकी हैं व् सभी नाकाम हो रही हैं| ऐसे में इनको भय सताने लगा कि कहीं कोई अनहोनी हो गई व् जाटों ने यहाँ से शुक्राईनाथ को खदेड़ने की मुहीम छेड़ दी तो नंबर कल को तुम्हारा भी लगेगा| व् ऐसे ही कोथ के इर्दगिर्द जितने भी इस तरह के प्रमुख धर्मकेंद्रों वाले बैठे हैं; सभी में यह मंत्रणा व् संशय गया| सबसे ज्यादा चिंता इनको यह सता रही थी कि अगर एक बार जाट समाज उग्र हो गया तो फिर सर्वसमाज के औरतों-बच्चों में तुम्हारा जो भी भय कहो या प्रभाव वह सब खत्म होते देर नहीं लगेगी व् जाटू विचारधारा बढ़ निकलेगी|  


और निर्धारित हुआ कि तुम चले तो थे इस मठ की आड़ में 'गोरखनाथियों को हथियार व् ढाल बना' अपना एजेंडा लागू करने कि अगर कोथ वाला कामयाब होता है तो फिर हम वर्णवादी भी तैयारी बैठाएंगे भनभौरी आदि की जमीनें अपने नाम करने के लिए; परन्तु फ़िलहाल के लिए तो लगता है काँप गए यह सभी| 


तो फिर तय हुआ कि अपनी इज्जत बचाने को खुद ही उलटे भी हटो व् मीडिया को बुला के यह स्क्रिप्ट पढ़ दो कि हमने किसी पंचायत या किसी सामाजिक समूह आदि ने नहीं, बल्कि अपनी स्वचेतना से यह फैसला लिया है| 


बहुत दिनों बाद उस कहावत को आंशिक रूप से साबित होते हुए देखा जिसमें कहा गया है कि, "जाट, रोटी भी खुवावेगा तो गळ म्ह ज्योड़ा (रस्सा) गेर कैं"| निसंदेह इस मानसिक जीत के बाद, और भी कहीं जहाँ ऐसी कोशिशें हो रही होंगी, वह कुंध भी पड़ेंगी व् समाज की वैचारिक स्वछंदता कायम रह सकेगी| ऐसे किस्से विश्वास जगाते हैं कि समाज थोड़ा सा भी सरजोड़ करके अपनी कटिबद्धता दिखा दे तो फंडी-फलहरी इतने भर से ठिठक जाते हैं| 


जय हो कोथ वालों की, कोथ के बारह तपे व् खाप की!