संत हरद्वारी लाल का जन्म 10 सितम्बर 1910 को हरियाणा के झज्जर ज़िले के छारा गाँव (तत्कालीन पंजाब प्रांत) में हुआ। बचपन से ही मेधावी और तेजस्वी रहे हरद्वारी लाल ने उच्च शिक्षा दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज और पंजाब विश्वविद्यालय से प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने राजनीति और अकादमिक दोनों क्षेत्रों में अपनी गहरी छाप छोड़ी। वे शिक्षा जगत में उस दौर के प्रेरक व्यक्तित्व बने, जिन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय (1959–1962) और महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (1977–1983) के उपकुलपति (Vice-Chancellor) के रूप में उत्कृष्ट सेवाएँ दीं।
राजनीतिक जीवन में हरद्वारी लाल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और पंजाब व हरियाणा विधानसभाओं में विधायक रहे। उन्हें हरियाणा सरकार में मंत्री पद की जिम्मेदारियाँ भी सौंपी गईं, विशेषकर शिक्षा विभाग से उनका गहरा जुड़ाव रहा। बाद में वे दो बार लोकसभा सांसद चुने गए—1962 में बहादुरगढ़ (तत्कालीन पंजाब) से और 1984 में रोहतक (हरियाणा) से। राजनीति के मंच पर वे उस दौर की चर्चित “लाल तिकड़ी”—चौधरी बंसीलाल , चौधरी देवीलाल और चौधरी भजनलाल—के मज़बूत प्रतिद्वंद्वी माने जाते थे।
व्यक्तित्व की दृष्टि से संत हरद्वारी लाल अपने साफ़गोई भरे वक्तव्यों, स्पष्टवादिता और हास्यपूर्ण व्यंग्य के लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें “कहने में सीधे और काटने में न हिचकने वाले” नेता के रूप में जाना जाता था। उनका एक बेहद मशहूर कथन हरियाणा की राजनीति में आज भी गूंजता है—“हरियाणा में दो ही पढ़े-लिखे आदमी हैं: एक मैं और दूसरा स्वरूप सिंह। लेकिन स्वरूप सिंह आधा है, इसलिए यहाँ कुल डेढ़ पढ़ा-लिखा आदमी है।” यह जुमला उनके आत्मविश्वास, चुटीलेपन और बौद्धिक श्रेष्ठता का प्रतीक बन गया।
हालाँकि उनकी राजनीतिक यात्रा विवादों से अछूती नहीं रही, लेकिन उनकी लोकप्रियता और प्रभावशाली छवि फिर भी बरकरार रही।
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