लगभग दो दहाकों तक अफ़वाहें जोर पकड़तीं रहीं कि बहार पाना कुछ होता ही नहीं , यह बराह पाना है जबकि बरौना गाँव में कोई बराह पाना है ही नहीं , मेहर सिंह का तो बेगवाण पाना है ! और इन अफ़वाहों के साथ साथ जोर पकड़ा एक कवि की साहित्यिक हत्या करने की मुहिम ने ! इस मुहिम का चेहरा इतना घिनौना और कुरूप था , जिसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यह मुहिम सिर्फ़ एक कवि की ही हत्या नहीं कर रही थी , एक शहीद की शहादत को भी अपने घिनौने जातीय तत्वों का लबादा ओढ़ाकर दुनिया से ख़त्म कर देने की कोशिशें किए हुए थी ! कहा गया कि मेहर सिंह ना तो स्वतंत्रता सेनानी थे ना शहीद , वो ब्रिटिश फौज में दस्त लगकर मर गए थे , जबकि महान कवि फौजी मेहर सिंह के शहीद और स्वतंत्रता सेनानी होने के इतने सरकारी दस्तावेज मौजूद हैं कि असल में तो मायना कमेटी को वो पढ़ने ही नहीं आएँगे और पढ़ने बैठ भी गए तो कितने दिन लगा देंगे कुछ कह नहीं सकता ! अब आते हैं बाहर और बराह के मुद्दे पर ! गायक अक्सर शब्दों में हेरफेर करते हैं ! किसी भी कवि द्वारा रचित कोई किस्सा दो गायकों की आवाज में उठाकर देख लीजिए , शब्दों में बहुत फर्क देखने को मिल जाएगा ! जबकि मूल कवि ने इन दोनों ही गायकों से इतर कुछ अलग तीसरा ही शब्द लिखा होता है ! यह कोई नई बात नहीं , लेकिन जैसे ही यह मेहर सिंह जी की कविता के साथ हुआ तो बहुर्जातीय भेड़िए टूट पड़े कोटे और कनागत का माल समझकर ! अगर यह रागनी दयाचंद मायना की लिखी हुई होती तो कम से कम एक पुराना गायक तो बराह बोलता बाहर की जगह ! दयाचंद के बहुत ज़्यादा क्लोज रहे गायक ही बोल देते ! लेकिन नहीं , दयाचंद की छाप में ये रागनियाँ पूरी दुनिया में किसी ने नहीं सुनीं , बस राजकिशन पाले बाऊ ने सुनीं थीं और उन्होंने ईर्ष्यावश या पैसे के लोभ में छाप काट दी ! अब आते हैं बेगवाण पाने पर , वैसे तो मूल शब्द यही है , 1971 में यही शब्द हवासिंह बरौना के रजिस्टर में भी हुबहू दर्ज हुआ जिसकी मूल प्रति मशीन प्रिंटेड तारीख के साथ आज भी मौजूद है , इसके बाद जो ग्रंथावली छापी उसमें बाहर पाना ही लिखा गया ! लेकिन जब मूल पांडुलिपियों के आधार पर सम्पूर्ण ग्रंथावली आई तो उसमें मूल शब्द बेगवाण ही छापा गया , तो कजूसे पहुँच गए , कहने लगे मेहर सिंह कमेटी सबूत मिटा रही है , सबने बाहर ही गाया था लेकिन इन्होंने शब्द बदल दिया ! कोई इनसे पूछे कि अगर बाहर भी गाया है तो क्या ग़लत गाया है ? ये लोग बाहर को बराह एक गुच्छे के आधार पर बता रहे हैं और वो गुच्छा राजेंद्र बड़गूजर ने अपनी थर्ड क्लास किताब छापकटैया में भी दिया है ! शब्द उसमें भी बाहर ही छपा है लेकिन इन्होंने उसको पैन से काटकर बराह बना रखा है ! यह तो रिपब्लिक भारत चैनल वाला वही तर्क हो गया “क्या यादव ही यहूदी हैं” ? क्या ऑस्ट्रेलिया ही अस्त्रालय है ? क्या व्लादिमीर पुतिन ही बलदेवराम पूनिया है ? फिर दयाचंद मायना के नाम से गाने वाले आजकल के जमीरविहीन गायक इस रागनी की तोड़ वाली कली में दो बार छाप लगाते हैं ! दयाचंद का घर टोहूँ सूँ बसै बराह पाने महँ , राजी होके वर दयूँ करो दयाचंद कविताई ! किसी भी कवि की कोई भी रचना उठाकर लाइए जिसमें दो बार छाप लगी हो ! धरती के इतिहास में तो किसी कवि ने एक ही रचना में दो बार छाप लगाने की कारगुज़ारी की नहीं , मंगल या शनि पर ऐसा होता हो तो पता नहीं ! आज भी जब गाँव में बाहर से कोई आदमी किसी का पता पूछता है तो अमुक आदमी के पिता या कुनबे का नाम पहले लेता है ! यह ग्रामीण भारत का व्यवहार भी है और सभ्याचार भी ! इसीलिए मूल कविता में मेहर सिंह जी के पिता नंदा जाट का जिक्र है ! मेहर सिंह तो बच्चे थे , घर तो उनके पिता का था , भारत माता ढूँढने आएगी तो गांव में नंदा का घर पूछेगी ! और फिर किसी भी गांव विशेष से संबंधित शब्दों को बाहर के गायक याद नहीं रख पाते ! जैसे अंजना पवन की रागनी इसते सुथरे और भतेरे में तोड़ की कली में मूल लाइन है मेहर सिंह की गेल्याँ जा कै बिचल ज्यागी जाटां महँ , सिर पै ज्वारा गोड्डे टूट ज्याँ हुर आली की बाटाँ महँ ! हुर आली बरौने में खेत हैं , लेकिन दूसरे गाँव के गायक इसको याद नहीं रख पाते तो उन्होंने इसको दो दो कोस की बाट बना दिया ! ऐसे ही बाहर गाया क्योंकि बेगवान शब्द को बरौने वाले तो याद रख लें , बाहर वाले कब तक याद रखें ? उन्होंने बाहर कहना शुरू कर दिया क्योंकि शहीद कवि फौजी मेहर सिंह जी का घर बेगवान पाने के बिल्कुल बाहर स्थित है ! चाहे पुराना शजरा निकलवाकर देख लीजिए ! तो इसमें यादव-यहूदी , ऑस्ट्रेलिया-अस्त्रालय या बाहर-बराह के झूठ कैसे काम करेंगे , समझ नहीं आता ! गायक बरौना जाते तो मेहर सिंह का घर भी बाहरवाई देखते और पाने के बाहर गा देते ! लेकिन एक ऐसा गायक था जिसने हुबहू सही शब्द गाया ! सत्ते फ़रमानिया! पेश है एक 1978 की रिकॉर्डिंग सत्ते फरमाना की ! इनको शब्द बदलने के लिए किसने कहा था ? तब तक तो बरौना कमेटी भी नहीं बनी थी , ना मेहर सिंह पर कोई शोधार्थी ही शोध कर रहा था और सनी दहिया का तो जन्म भी नहीं हुआ था !
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