Wednesday, 12 November 2025

सीठणे

मामा की लड़की की शादी को दस साल ही हुए हैं। तब तक भी शादी का मतलब सिर्फ जीमने-जूठने तक नहीं होता था,शादी में शामिल होने वाले सभी रिश्तेदार, परिवार जब तक लड़की के फेरे और विदा नहीं हो जाती, तब तक वहीं डटे रहते थे। बहन और जीजा जी बड़े अफसर हैं, फिर भी मेरी और बहन की जिद्द थी कि पहले वाली शादियों की तरह अंगूठा फेरे लेंगे। यानि अंगूठे से जितना सरका जा सकता है सिर्फ उतना, बिल्कुल कीड़ी चाल। और उसने यही किया। हमारे यहाँ तब तक सीठणों का रिवाज था, माँ ने गाया-


हळवैं हळवैं चाल म्हारी लाडो
तनै हाँसेंगी सवेलड़ियां।
तावळी तावळी चाल बेस्सां का दिन छिपण न हो रह्या सै।

फेरों का माहौल बड़ा खूबसूरत होता था। हँसी-मजाक का वह रंग खत्म ही हो चुका।

शादी में फेरों की रस्म ही बेहद खास होती हैं और बाकि सब चोंचलों ने उसे ही हल्का कर दिया। फेरे देखने का चाव ना बारातियों को रहा और ना लड़की के रिश्तेदारों को। सबकुछ स्टेज तक सिमट गया। सारा धूम धड़ाका स्टेज तक रह गया । फेरों की रस्मों- गीतों, सीठणों का कोई महत्व नहीं रहा।
हम बचपन में बारात और फेरे देखने दूर तक जाते थे। फेरों पर वे सीठणे और लड़की का मामा गोदी उठाकर लाता तो गीत गाया जाता था....

गढ़ छोड़ रुक्मण बाहर आई.... फेरों पै फूल बखेरिए....

इतने सुंदर गीतों के बीच का आगमन अब खत्म हो चुका है। पता नहीं कोई मिस करता भी है या नहीं पर मेरे कानों में मेरी माँ, चाची, ताई,बुआ, मौसी, नानी, मामियों की आवाज गूंजती हैं।

सारे तो नहीं, कुछ सीठणे समेट कर लाई हूँ।

जोहड़ां पै आई काई दादा हो
समधी की भाजी लुगाई दादा हो
कन्या न दे परणां।

पीपळ म्हं बोल्या तीतर दादा हो
समधी का हाल्लै से भीतर दादा हो
कन्या नै दे परणा।

कैरां कै लाग्गे टींड दादा हो
समधी के फस गया लींड दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

नीमां कै लाग्गी निंबोळी दादा हो
समधी की लुट गई न्योळी दादा हो
कन्या न दे परणा।

आंगण म्हं पड़या फरड़ा दादा हो
समधी का चाल्लै सै धरड़ा दादा हो
कन्या न दे परणा।

छोरियाँ नै कात्या सूत दादा हो
समधी का उंघै सै पूत दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

बाहरणे कै आग्गै गाड्डी दादा हो
बंदड़ी सै बंदड़े तै ठाड्डी दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

बाहरणे म्हं टंग रही कात्तर दादा हो
बंदड़ी सै बंदड़े तै चात्तर दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

म्हारी छयान पै गोसा दादा हो
बंदड़ा सै बंदड़ी तै ओछा दादा हो
कन्या नैं दे परणा।

म्हारै चार बिलाईए थे दो गौरी दो सांवळे
एक बिलाईया खेत गया जिज्जै कै मुंह नै छेत गया
एक बिलाईया ऊत गया, जीजै कै मुंह म्ह मूत गया
एक बिलाईया ऊँघै था जीजै कै मुंह नै चूंघै था।

बंदड़े की बेबे रंग भरी जी, खड़ी बुरज कै जी ओंट
गादड़ चुंबे ले गया जी कोए लोबां पड़गी पेट
ए बड़वे ज्यान के जी रा।

पैंटां लाए माँग कैं जीजा हो, बुरसट ल्याए जी चोर
घड़ियां मेरे बीर की चलदे की ल्यांगे खोस
ए जीजा ज्यान ले जी रा।

चार चखूंटा चौंतरा जीजा हो, चौंतरे पै बैठा जी मोर
मोर बिचारा के करै, तेरी बेल न लेगे चोर
ओ जा कैं टोह लियो जीजा हो।

दो खरबूजे रस के भरे जीजा हो, उनकी रांधू जी खीर
आज्या जीजा जीम ले, तेरै खोंसड़े मारूं तीन
हे जीजा जान के प्यारे जी।

कोरा घड़वा नीर का जीजा हो, उसका ठंडा नीर
ब्याहे- ब्याहे पी लियो, थारा रांड्यां का ना सीर
हे बुरा मत मानियो जी।

मूळी बरगा उजळा जीजा हो, गाजर बरगा जी लाल
कुत्यां बरगा भौंकणा जी, थारी गधड़यां बरगी चाल
हे बुरा मत मानियो जीजा हो।

पैंटा के पहरणा जीजा हो, टांग भचीड़ी जां, हो जी रा हो
थाम धोती बांधो पान की थारे कच्छे चमकदे जां, हो जीजा लाडले जी हो।

जैसा थारा रंग हो जीजा हो, वैसी ए उड़द की जी दाळ
दाळ हो तो धो लिए, तेरा रंग ना धोया जा
हो जीजा लाडला हो।

सुनीता करोथवाल




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