सिंथिया टैलबॉट और इरफ़ान हबीब दोनों इस मत पर सहमत हैं कि औरंगज़ेब के शासनकाल में बृज क्षेत्र के जाटों द्वारा किये गये विद्रोह का मूल कारण औरंगज़ेब की कृषि नीतियाँ थीं, न कि उसकी धार्मिक नीतियाँ। वे आगे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि मुग़ल काल तक जाटों का हिन्दूकरण ही नहीं हुआ था, अतः यह कथन सर्वथा भ्रामक होगा कि जाट औरंगज़ेब द्वारा हिन्दुओं के दमन के विरुद्ध उठ खड़े हुए, जैसा कि सर यदुनाथ सरकार ने दावा किया था।
परन्तु भरतपुर रियासत की स्थापना के पश्चात् जाटों का द्रुत गति से हिन्दूकरण प्रारम्भ हुआ। भरतपुर रियासत के राजाओं ने मथुरा के मन्दिरों, ब्राह्मणों एवं वैष्णवों को संरक्षण प्रदान करना आरम्भ किया तथा स्वयं को हिन्दू धर्म एवं हिन्दू समाज का हितैषी प्रमाणित करने का प्रयास किया। इतना ही नहीं, उन्होंने बयाना क्षेत्र के पुराने सामन्तों की वंशावलियाँ भी अंगीकार कर लीं और स्वयं को श्रीकृष्ण अथवा लक्ष्मण का वंशज घोषित करने लगे।
चूँकि ब्रिटिश काल के आरम्भ तक पंजाब क्षेत्र के जाटों का हिन्दूकरण अत्यन्त सीमित था, अतः वे 1881 की जनगणना के पश्चात् तीव्र गति से मुस्लिम और ईसाई बनने लगे। 1881 से 1921 के मध्य, मात्र चालीस वर्षों में, पंजाब के 80% से अधिक जाट मुस्लिम और सिख बन गये। अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह प्रवृत्ति हरियाणा और जाँगल क्षेत्रों में भी विस्तारित होगी। इसी परिप्रेक्ष्य में आर्य समाज ने इस प्रवृत्ति को रोकने का सुनियोजित प्रयास आरम्भ किया।
आर्य समाज ने हरियाणा और जाँगल क्षेत्रों के जाटों को यह विश्वास दिलाया कि वे ही आर्यों की वास्तविक सन्तान हैं तथा वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करना उनका धार्मिक कर्तव्य है। जाटों में प्रचलित 'लेविरेट विवाह' (देवर विवाह) प्रथा को वैदिक परम्परा की निरन्तरता के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त, आर्य समाज ने जाटों को वैदिक क्षत्रिय घोषित किया, यद्यपि आर्य समाज जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था का खण्डन भी करता रहा।
अतः जब 1921 की जनगणना प्रारम्भ हुई, तो जाट राजाओं, सामन्तों और नेताओं ने जाटों को जनगणना प्रतिवेदन में क्षत्रिय वर्ण में सम्मिलित कराने हेतु व्यापक लामबन्दी आरम्भ की। इसी क्रम में जाटों ने वर्ष 1925 में पुष्कर में एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन को आर्य समाज और हिन्दू महासभा, दोनों ने अपना संरक्षण प्रदान किया, ताकि जाटों का उपयोग उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमानों के विरुद्ध किया जा सके।
रॉबर्ट स्टर्न अपनी पुस्तक The Cat and the Lion में लिखते हैं कि राजपूताना क्षेत्र के जाटों की आर्थिक स्थिति राजपूतों के समकक्ष थी। वे शेखावाटी आन्दोलन पर लिखते हैं कि आर्थिक कारणों की आड़ में इस आन्दोलन का वास्तविक उद्देश्य हिन्दू समाज के भीतर जाटों द्वारा अपनी स्थिति को राजपूतों के समकक्ष स्थापित करना था। इस आन्दोलन को पटियाला, फ़रीदकोट, नाभा, जींद, भरतपुर आदि रियासतों के राजाओं तथा पंजाब एवं उत्तर प्रदेश के जाट जागीरदारों का समर्थन प्राप्त था।
इस प्रकार 1950 तक आते-आते हिन्दू समाज के भीतर जाटों की सामाजिक स्थिति राजपूतों के समकक्ष मानी जाने लगी। 1950 के पश्चात् जाटों ने कॉंग्रेस शासन का पर्याप्त लाभ उठाया और अपनी राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ की। हरित क्रान्ति के पश्चात् जाटों की आर्थिक स्थिति में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ। अब जाट नेता पुराने राजपूत सामन्तों की भाँति व्यवहार करने लगे। यही कारण था कि मण्डल आयोग ने जाटों को सामान्य वर्ग में सम्मिलित किया।
परन्तु 1998 में भैरों सिंह शेखावत ने जाटों को कॉंग्रेस से पृथक् करने के उद्देश्य से अपने जाट समर्थकों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण की माँग करने हेतु तैयार किया, जिसका नेतृत्व राजस्थान के पूर्व पुलिस महानिदेशक ज्ञान प्रकाश पिलानिया को सौंपा गया। अगले ही वर्ष केन्द्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने राजस्थान के जाटों को ओबीसी आरक्षण प्रदान कर दिया। इस आरक्षण आन्दोलन के दौरान जो जाट नेता उभरे, वे सभी भारतीय जनता पार्टी से प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने लगे तथा जाटों को कॉंग्रेस पार्टी के प्रति उत्तेजित करने लगे।
शिवत्व बेनीवाल
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