शोरों में हो रही सर्वखाप पंचायत के दो दिन बीतने के बाद अब यह स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि यह आयोजन जितना सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित होना चाहिए था, उतना नहीं रहा। अनेक वक्ताओं ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे, परंतु इस पूरे आयोजन पर विवादों की छाया लगातार बनी रही। इससे लोगों के मन में यह धारणा गहराने लगी है कि आयोजनकर्ता खाप की वास्तविक मंशा और सर्वखाप के घोषित उद्देश्यों में पर्याप्त सामंजस्य नहीं है।
सबसे पहले उस प्रश्न पर ध्यान देना आवश्यक है जिसने इस पंचायत की विश्वसनीयता पर प्रारंभिक आघात किया। भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री राकेश टिकैत जी का नाम आयोजनवृत्त में किस हैसियत से शामिल किया गया, यह आज भी अनुत्तरित है। सर्वखाप जैसी संस्था, जो तटस्थता और पारदर्शिता की प्रतीक मानी जाती रही है, वहाँ किसी भी व्यक्ति की भूमिका स्पष्ट और सुव्यवस्थित ढंग से परिभाषित होनी चाहिए। जब आयोजक खाप स्वयं इस प्रश्न का उत्तर देने से बचती दिखे, तो जनमानस में संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह संदेह भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि संरचनात्मक स्पष्टता की मांग है।
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा इस आयोजन के वातावरण और विचार-विमर्श के स्तर को लेकर है। सर्वखाप की बैठकों का इतिहास व्यापकता, निष्पक्षता और सामाजिक समावेशन पर आधारित रहा है। इसके बावजूद इस बार कई वक्ताओं ने अपने व्यक्तिगत धार्मिक विचारों और उद्घोषों को मंच से प्रस्तुत किया। यह प्रवृत्ति सर्वखाप की उस मूल भावना के विपरीत है, जिसमें किसी एक आस्था, जातीयता या संप्रदाय का प्रभाव नहीं होना चाहिए। यह केवल आचरणगत त्रुटि नहीं थी, बल्कि खाप परंपरा के मूल सिद्धांतों से विचलन का संकेत थी।
तीसरा पहलू सर्वखाप की पहचान से संबंधित है। परंपरागत रूप से सफेद रंग और सफेद पगड़ी सर्वखाप की तटस्थता, पवित्रता और संतुलन का प्रतीक रहे हैं। सफेद रंग का त्याग करके इस बार ऐसे रंगों का उपयोग किया गया, जो राजनीतिक या धार्मिक वर्चस्व से जुड़े प्रतीक माने जाते हैं। इस बदलाव ने यह प्रश्न उठाया कि क्या आयोजक खाप सर्वखाप की अस्मिता और ऐतिहासिक पहचान को समझने में असफल रही या यह परिवर्तन किसी विशिष्ट संदेश के उद्देश्य से किया गया। दोनों ही स्थितियाँ चिंताजनक हैं।
चौथी समस्या आमंत्रण प्रक्रिया की असंगतियों को लेकर सामने आई। खाप व्यवस्था की संरचना सदैव स्पष्ट रही है और हर खाप का एक मान्य चौधरी होता है। इस व्यवस्था में दोहराव की कोई परंपरा नहीं। इसके बावजूद एक ही खाप से दो व्यक्तियों को खाप चौधरी के रूप में आमंत्रित किया गया, जिससे न केवल खाप व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठे, बल्कि यह भी स्पष्ट हुआ कि आयोजनकर्ता खाप आंतरिक अनुशासन और वंशानुगत व्यवस्था की मूल रेखाओं को भी समझने में लापरवाह है। यह प्रशासनिक त्रुटि भर नहीं, बल्कि परंपरा की पहचान को क्षति पहुँचाने वाली स्थिति है।
अंत में सबसे प्रमुख प्रश्न यह है कि क्या आयोजक खाप उन प्रस्तावों को अपनी ही खाप में लागू करने का नैतिक साहस और प्रशासनिक क्षमता रखती है, जिन्हें इस सर्वखाप पंचायत में पारित किया जाएगा। सर्वखाप के निर्णय तभी समाज में व्यापक प्रभाव पैदा कर सकते हैं जब उन्हें पहले वह खाप अपनाए, जिसने उनका प्रस्ताव रखा है। यदि आयोजनकर्ता खाप ही अपने निर्णयों के क्रियान्वयन में असफल रहती है, तो अन्य खापों के लिए उन प्रस्तावों को गंभीरता से लेने का आधार कमजोर पड़ जाएगा।
इन सभी बिंदुओं का सम्मिलित विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि इस सर्वखाप पंचायत में संरचनात्मक, वैचारिक और प्रक्रियागत सभी स्तरों पर विचलन दिखाई दिया। यह केवल एक आयोजन की समस्या नहीं, बल्कि खाप व्यवस्था की भविष्य दिशा को लेकर गंभीर संकेत है। यदि इन प्रश्नों का समाधान नहीं हुआ, तो सर्वखाप की नैतिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा प्रभावित होना तय है।
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