Monday, 16 March 2015

Paragraphic - प्रकरण-संबंधी

4) या तो हिन्दू धर्म मुझे बुद्ध की उपासना करने दे, अन्यथा बुद्ध को हिन्दू धर्म का दसवां अवतार लिखना और कहना बंद करे!

3) व्यापारियों की इस सरकार के दौर में किसान अपनी Consumer Power को पहचानें, यही एक शक्ति है जो आज किसान की दुर्गति होने से बचा सकती है|

2) फूल बनकर कभी मत जीना, जिस दिन खिलोगे टूटकर बिखर जाओगे! जीना तो पत्थर की तरह जीना, जिस दिन तराशे गए, खुदा कहलाओगे|

1) किसान से तो पशु की औकात भी ज्यादा: कोई पशु (गाय) को काटे तो उसपे 302 का मुकदमा, लेकिन कोई किसान ख़ुदकुशी कर ले तो उसके लिए 309 के तहत नामजदगी भी बंद|
 

Sunday, 15 March 2015

NH10 Movie Review!


इस मूवी को ले के जिस इंसान का दिया review प्रस्तुत कर रहा हूँ, अक्सर मुझे ना तो इसकी बातें पसंद आती हैं और ना ही इसका व्यवहार| परन्तु शायद यह फिल्म ही इतनी बड़ी बकवास थी कि मुझे पहली बार कमाल खान का किया analysis इस फिल्म से ज्यादा पसंद आया आप भी देखें, क्यों?

A rightly and firmed slap on the makers of this totally nonsense flick!

धन्यवाद कमाल खान आपने मेरी मेहनत बचा दी, वर्ना मुझे मेरी स्टेट को इस बकवास फिल्म के विरुद्ध बचाने में एक लम्बा लेख लिखना पड़ता| मतलब एक ऐसी स्टेट जो 1947 में बॉर्डर के उस पार से आये से ले के (ध्यान दें, वो अधिकतर इसी NH10 पे बसे हैं), 1984 में सिख दंगों से तंग हो के पंजाब से हरियाणा के जीटी रोड पे आन बसे और अब तीन दशक से असमी-बिहारी-बंगाली सबको रोजगार दे रही है, वो इतनी खूंखार बना के पेश की जा रही है| और इसपे भी अचम्भा तो यह कि इस हरियाणा में इन्हीं लोगों के अनुसार इतने अत्याचारी लोग होने के बावजूद भी पूरे देश, यहां तक कि मुंबई-महाराष्ट्र छोड़ के भी लोग इधर ही क्यों रोजगार कमाना, बसना, आशियाना बनाना पसंद करते हैं? कमाल तो यह है कि इनमें (यहीं रोजी-रोटी पाने वाले) से कोई हरियाणा का कुछ पॉजिटिव बोलने को तैयार नहीं|

KRK Review:

मेरा दान मेरी ताकत, मेरी कंस्यूमर पावर मेरा कंट्रोल!



 ताकि मुझ किसान को कोई लूट ना सके, मुझे लूटने की सोच ना सके, मुझे गुलाम व् बंधुआ ना बना सके|

मैं, एक किसान वंशज भारतीय किसान इतिहास के सबसे काले लैंड-आर्डिनेंस 2015 व् कर्मकांड के नाम पर बढ़ते पाखंडों से बुरी हो चली किसान कौम की दुर्दशा के मद्देनजर आज दिनांक 15/03/2015 को आधिकारिक व् सार्वजनिक तौर पर निम्नलिखित ‘आजीवन संकल्प’ लेता हूँ कि:

मैं ताउम्र किसी भी ऐसी धार्मिक सभा-संस्था-आस्था में ना दान दूंगा, ना भाग लूंगा, जो:
1) मुझे मेरे दिए दान का हिसाब-किताब ना बताती हो|
2) उस दान को कहाँ और क्यों लगाया गया, इसकी जानकारी ना देती हो|
3) उस दान के पैसे से मेरी कौम-समाज-गांव-जिले-राज्य के इतिहास और विरासत लिखने-संजोनें पे कितना खर्च किया, यह ना बताती हो व् कितना खर्च करने का लक्ष्य रखती है यह निर्धारित ना करती हो|
4) उस दान के पैसे से मेरी कौम-समाज-गांव-जिले-राज्य की संस्कृति के संवर्धन-उत्थान-प्रचार के लिए कितना खर्च करती है, यह ना बताती हो व् ऐसा कोई लक्ष्य ना रखती हो|

मैं ताउम्र किसान समाज को प्रेरित व् जागृत करता रहूँगा कि:
1) वो अपनी औलाद को व्यापार जरूर सिखाये, अर्थात भावनात्मकता से पहले पैसा-उन्मुख (money oriented) बनना सिखाएं|
2) उसको त्रिभाषी (हिंदी, इंग्लिश व् अपनी जन्मज भाषा/बोली) बनाएं और इसको गलत बताने वालों की आलोचना करना सिखाएं|
3) अपने उत्पाद यानी फल-फसल-फूल का विक्रय मूल्य खुद निर्धारित करने का हक लेवे|
4) अपनी खेती का व्यापारीकरण कैसे किया जाए, इस पर तब तक चिंतन-मंथन करते रहें, जब तक कि एक दिन यह हासिल ना हो जाए|
5) साल में दो हफ्ते का "किसान उपवास" रखें; जिसमें दो हफ्ते तक बाजारों से सिवाय खाने के बाकी किसी भी प्रकार का सामान ना ही तो खरीदा जावे, और ना ही बेचा जावे|

अनियंत्रित और बिना निगरानी के दान से फंडी अनियंत्रित होता है और बिना सोची समझी स्वभिमान रिक्त खरीदारी से मंडी अनियंत्रित होता है| और इन दोनों बातों की अनुपस्थिति में यह दोनों इतना दुःसाहस पा जाते हैं कि किसान को भूमि अधिग्रहण आर्डिनेंस 2015 जैसे बिल और कटटरता-धर्मान्धता के नाम पर भटकाए व् गुलाम बनाये रखने के गौरख-धंधे बढ़ाते ही चले जाते हैं| यह दोनों किसान के बाड़े के वो खूंखार व् उन्मादी पशु हैं, जिनको अगर खूंटे से बाँध के ना रखा जाए, तो दूसरे शांत-शरीफ पशुओं को भी नुक्सान पहुंचाने से बाज ना आवें|

इसके साथ मैं हर किसान-कमेरे की संतान को भी इन संकल्पों को धारण करने का आग्रह करता हूँ| इन संकल्पों बारे आपके संदेह-सुझाव हेतु मैं आपसे चर्चा करने को उपलब्ध हूँ|


- फूल मलिक, निडाना नगरी, जिला जींद, हरियाणा!

जय यौद्धेय! जय माँ हरियाणवी! जय दादी भारती!

#jaikisaan #jaijawan #mannkibaat



Friday, 13 March 2015

अपशकुनों की करेक्शन - 1 - "बिल्ली या काली बिल्ली का रास्ता काटना"!


"बिल्ली या काली बिल्ली का रास्ता काटना"!

पुराने जमाने में जब मोटर-कार की जगह लोग बैलगाड़ी से सफर करते थे तो रात के समय गाडी के नीचे लालटेन जला के रखते हुए चलते थे| लालटेन केरोसीन तेल से जलती थी, जिसकी रौशनी अगर बिल्ली की आँख की रेटिना पर पड़ जाए तो वो चमकने लग जाती थी और तीव्र गति की भड़कीली प्रकाश-ऊर्जा की किरणें विसर्जित करने लग जाती और इस चमक से बैल डर जाया करते थे, जिससे कि बैलों के बिदकने यानि भड़कने का भय रहता था| और बैल भड़के तो गाड़ीवान से ले गाडीस्वार और सामान को नुकसान का खतरा|

तो बिल्लियाँ रास्ता ना काटें, लोग ऐसा सिर्फ और सिर्फ इस वैज्ञानिक कारण की वजह से सोचते थे| लेकिन-क्योंकि-किन्तु-परन्तु फंडी और पाखंडी डेरों-मंडेरों में खाली बैठे हुआ करते थे, जो कि आज भी बैठे होते हैं और खाली दिमाग शैतान का घर होता ही है| इसलिए ऐसी चीजों को शुभ-अशुभ, होनी-अनहोनी में बदलने में ही इनके दिमाग ज्यादा चलते हैं| तो बस बना दिया इसको अपसकुन का ढकोसला और ऐसे वो बिल्ली जिसको कि फसल में छोड़ दो तो चूहे फसल के नजदीक ना आवें, साथ रखो तो सच्ची दोस्त बन जावे; वही बिल्ली बन गई समाज के अंधभक्त-अंधविश्वासी लोगों के लिए मनहूस-अपसकुनि|

और इसीलिए तो मेरे गाँव में फंडी-पाखंडी कोई सामूहिक दावा करने आवे तो, हर बार जूते खा के जावे है| - फूल मलिक

Thursday, 12 March 2015

जख्म देने वाला मरहम लगाने आया है|

(An open letter to Ravish Kumar of N.D.T.V.)

लेख बाबत: कल (11/03/2015) एन. डी. टीवी पर रवीश कुमार की किसानों की ओलों व् बारिश की वजह से बर्बाद हुई फसल पर प्राइम-टाइम रिपोर्ट बारे|

निचोड़: रवीश कुमार जी आज से पहले क्या कभी ओले नहीं पड़े थे, या बेमौसम बारिशें नहीं हुई थी? आपकी इसपे रिपोर्टिंग इस बार ही क्यों आई; वो भी ऐन लैंड-आर्डिनेंस के पास होने की संध्या पे? मेरी नीचे प्रस्तुत खिन्नता का समाधान कीजियेगा अगर हो सके तो:

1) खिन्न-मन रवीश कुमार को धन्यवाद देने से ज्यादा उसके कान पकड़ के खींचने की कह रहा था| क्योंकि यह वही इंसान है जो किसानों के उस सामाजिक तंत्र की बख्खियां उधेड़ता है जिसको हम "खाप" यानी मोटे तौर पर किसानी कौम कहते हैं| यह खिन्नता सिर्फ इसलिए नहीं हो रही थी कि रवीश ने अपने पुराने के प्राइम-टाइमों में खाप को कोसा, अपितु इसलिए हो रही थी कि उसने किसानों के उस सामाजिक तंत्र को कोसा, जिसके दबाव के नीचे रहकर नेता किसानों के आर्थिक हितों को ऐसे जैसे आज लैंड-आर्डिनेंस के जरिये खुले में लुटवा रहे हैं, ऐसी हिम्मत नहीं कर पाया करते थे|

उदाहरण के तौर पर बाबा महेंद्र सिंह टिकैत जी का जमाना पढ़ लीजियेगा रविश कुमार जी| इस उदाहरण के साथ यह भी कह दूँ कि ऐसा नहीं कि आज के दिन ऐसे शेर नहीं किसानों के यहां, हैं परन्तु आप मीडिया वालों ने उनकी सामाजिक संस्थाओं पे एक तरफ़ा सिर्फ नकारात्मक हमला करके, उनके विश्वास को क्षीण किया हुआ है| और सामाजिक तंत्र को कोसना, यानी उसके प्रति नेताओं का डर-लिहाज शर्म - जिम्मेदारी मिटवा देना और नेताओं को खुला रास्ता दिलवा देना| क्योंकि नेता दो डर माना करता है, एक समाज की लिहाज-शर्म का और दूसरा भय-आक्रोश का| तो जैसा कि ऊपर कहा नेताओं की किसान के प्रति लिहाज-शर्म तो रविश कुमार आप पहले ही ख़त्म कर चुके, अब क्या किसान के उबल रहे आक्रोश को दबाने गए थे?

2) दूसरा मुझे ऐसा लग रहा था जैसे रविश कुमार लैंड-आर्डिनेंस, फसलों के कम दामों की मार और अब ओलों-बारिश से लुटे-पिटे किसान को ऐसे पुचकारने आये हों, जैसे बिल्ली चूहे को मारने से पहले पुचकारा करती है| मुझे यह महज एक राजनैतिक षड्यंत्र से ज्यादा कुछ नहीं लगा| वर्ना आज से पहले क्या ओले नहीं पड़े, या बारिशें नहीं हुई? मतलब साफ़ है ऐसे नाजुक वक्त पे ऐसे कार्यक्रम दिखा के आप लोग सरकार व् व्यापारियों के लैंड आर्डिनेंस के रास्ते को और सहज करना चाहते हैं; प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, इसपे विवेचना हो सकती है| किसानों के हितैषी दिखना चाहते हैं, उन्हीं किसानों के जिनके सामाजिक संगठनों के सकारात्मक पहलुओं को छोड़, उनका हर तरह बलात्कार आप लोग आपके स्टूडियोज में करते हैं| श्रीमान रवीश कुमार, अगर "खापों" और तमाम तरह के दूसरे कृषक सामाजिक संघटनों की बुराई पे कोसने के साथ-साथ अच्छाई पे पीठ थपथपाई होती कभी, उनकी हौंसला अफजाई की होती तो इसकी नौबत नहीं आती जो आप आज करके लाये हैं| पहले तो किसानों के सामाजिक संगठनों को स्टूडियो में बैठा के उनकी "रे-रे माटी करी, और राजनैतिज्ञों को इनके प्रभाव से मुक्त कर दिया और अब चले हो इनके हमदर्द बनने| सॉरी ब्रदर, पर आपका यह कार्यक्रम किसी नेता वाले घड़ियाली आंसुओं से ज्यादा कुछ नहीं लगा|

3) भले ही आप या आपका चैनल आपके इस कार्यक्रम की सीरीज में इसके प्रभाव नाम से एक कार्यक्रम और यह कहते हुए दिखाते मिल जावें कि देखो एन. डी. टीवी की रिपोर्ट का असर, पटवारी फसल के नुकसान की गिरदावरी करने खेतों में पहुंचे, आदि-आदि; परन्तु इससे कुछ होने वाला नहीं| क्योंकि जब तक किसान के उस मान-सम्मान को वापिस नहीं दोगे, जिसका आप जैसे एंकर लोग अपने स्टुडिओज़ में बलात्कार कर चुके हैं, तब तक किसान खड़ा नहीं होगा, एक जुट नहीं होगा (और होगा तो बहुत संघर्ष करने के बाद)| इसलिए सरकार तो जो आर्थिक मार मार रही है वो तो है ही, लेकिन उससे पहले अगर आप मीडिया वाले किसानों के सही में हितैषी बनना चाहते हैं तो हमारे सामाजिक तंत्र के नकारात्मक पहलुओं पे जैसे एक-एक घंटे के सैंकड़ों कार्यक्रम किये हैं, ऐसे कुछ हमारे सामाजिक तंत्र के सकारात्मक पहलुओं पर कर दीजिये| और फिर देखिएगा कैसे आपकी यह हमारे आर्थिक पहलु दुरुस्त करने की प्रतीत सी होती टीस को हम अपने आप ही दुरुस्त कर लेते हैं|
अंत में सार यही है कि एक किसान, मीडिया से उसके आर्थिक पहलुओं बारे आवाज उठाने से ज्यादा उसके

सामाजिक संगठनों, सरोकारों और पैरोकारों को सहेजने, सम्मान देने और उनकी योग्यता को उठाने हेतु काम करने की अपेक्षा करता है| वरना ऐसे हमें सामाजिक तौर से हीन दिखा के हमारे यह आर्थिक मुद्दों की आवाज उठाओगे तो यह हमारे लिए एक दुःस्वप्न वाले मजाक से कम ना होगा| होनी-अनहोनी-किस्मत-सरकार-भगवान क्या कम थे हमारा मजाक उड़ाने को जो अब आप जख्म देने वाले भी मरहम लगाने आये हैं?

चलते-चलते, इन संदेहों और सवालों के साथ मानवीयता के आधार पर आपको धन्यवाद; याद रखियेगा मानवीयता के आधार पर, वरना मन तो खिन्न ही है आपसे| अब आपको मेरा यह लेख मिले तो यह मत सुनाने लग जाइयेगा कि एक तो इनके लिए रिपोर्टिंग करो और ऊपर से आलोचना सुनो| क्या है कि जनाब मुझे आपसे समुन्द्र के किनारे पड़ी सीप की नहीं, उस सीप के अंदर के मोती की आस है| और मोती कैसे दिला सकते हो किसानों को, उसका रास्ता ऊपर सुझाया है| - फूल मलिक

Source: http://khabar.ndtv.com/video/show/prime-time/prime-time-loss-due-to-rain-farmers-worried-359532  

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Wednesday, 11 March 2015

इस वीडियो को रिकॉर्ड करने वालों के लिए कुछ प्रतिउत्तरात्मक सवाल!

1) शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह के खिलाफ कोर्ट में गवाही देने वाला सरदार शोभा सिंह कौन था?

2) महाराजा नाहर सिंह को धोखा दे के अंग्रेजों से संधि के बहाने चांदनी चौक पे फांसी पे झुलवाने वाला पंडित गंगाधर कौल कौन था?

3) सिख धर्म के पांचवें गुरु चुने जाने में एक उम्र से पांच गुना छोटे अर्जुन देव जी को बाबा बुड्ढा जी की जगह गुरु बनाने की गन्दी राजनीती कर योग्यता और वीरता की बलि चढाने वाले कौन थे?

4) अभी 2005 में खुद एक सामाजिक प्राणी होते हुए खापों के खिलाफ कोर्ट में याचिका करने वाला पंचकुला का साहनी कौन है?


अब आती है इस वीडियो की आखिरी लाइन की बात, कि जट्टों के घरों में दस-के-दस सिख गुरु कौनसी जाति के है बारे कहने की| तो महानुभाव बात ऐसी है कि अगर आपको इससे ऐतराज है तो कोई नी आप ऐसे ही वीडियो रिकॉर्ड करते रहोगे तो एक दिन वो भी नहीं दिखेंगी|

मैंने कभी आपकी जाति को इस ढंग से देखा नहीं, वरना उदाहरण तो 4 की जगह 40 भी रख दूंगा, परन्तु फिलहाल आपसे इतनी ही दरख्वास्त है कि एक बहादुर ही बहादुर को सम्मान दे सकता है, एक महान ही दुसरे महान को सम्मान दे सकता है, इसलिए अगर तुम्हारे अनुसार तुम्हारी जाति के महापुरुषों को जट्ट या जाट अगर सम्मान देते हैं तो यह हमारी महानता है तुम्हारी नहीं| एक सिख ना होते हुए भी मेरे घर के आगे गुरु गोविन्द सिंह और अंदर दस-के-दस सिख गुरुवों की मूर्ती लगी है|

आप अपना ना सही परन्तु अपनी जाति और जाति में हुए महापुरुषों का अपमान जरूर कर रहे हैं| आपकी जाति के महापुरुषों को दूसरी जातियों से सम्मान मिलता है तो इससे आपको शिकायत और घमंड नहीं होना चाहिए, अपितु गर्व और दूसरों के प्रति आदर होना चाहिए|

अरे यार अजीब हो तुम भी, एक तुम हो जिसको उसकी जाति के महापुरुषों को बाहर वाले सम्मान देते हैं तो दिक्कत है; और एक हम जाट हैं जो अपने महापुरुषों के मान-सम्मान को खुद भी सहेजने की कोशिश करें तो लोग हमें जातिवादी ठहराने दौड़ पड़ते हैं|


Monday, 9 March 2015

कोई भी जाति अपनी-कौम का भौगोलिक विस्तार और भीतरी भिन्नता कैसे मैनेज करे!

ब्राह्मण-बनियों से सीख के करे| दोनों ही जातियां देश की 3 से 5% हैं, परन्तु फैली हुई हैं पूरे भारत में और फिर भी कभी भी इनके यहां यह सुनने को नहीं मिलता कि भाई क्या करें हमारा तो फैलाव ही इतना ज्यादा हो रखा है कि कोई भी क्षेत्रवाद के नाम पे ही भिड़ा जाता है| क्षेत्रवाद के नाम पर कैसे, कि यह यू. पी. का ब्राह्मण, यह हरयाणा का, तो यह तमिलनाडु का| क्या कभी सुना है ब्राह्मण-बनिया को ऐसे चिंता व्यक्त करते हुए या इस बात की बोर/बखान मारते हुए?

हाँ, जाटों को जरूर सुना है; जो इनकी तरह पूरे भारत में नहीं बल्कि सिर्फ उत्तरी-भारत में ही ज्यादा घनत्व के साथ रहते हैं; परन्तु ब्राह्मण-बनिया जहां पूरे भारत में इनके फैलाव को मैनेज कर लेते हैं और कभी क्षेत्रवाद के नाम पर आपस में नहीं बंटते, वहीँ जाट यह तो औरों के बांटने से पहले खुद ही बोर मारते मिलेंगे|

क्या बोर, कि "के करां भाई म्हारा तो फैलाव ए इतना घणा सै, अक सम्भालना मुश्किल हो रखा!" या ऐसी ही दूसरी खुद को गुमराह करने की बातें| जबकि समस्या यह है कि जाट जाति इस बात को ले के ब्राह्मण-बनियों की तरह सीरियस ही नहीं है कि उनको देश-समाज-राज्य पे राज करना है| और यहीं समस्या पैदा हो रही है, जिस दिन जाट इस बात को सीरियसली लेना शुरू कर देगा; उस दिन यह बांगर का, यह बागड़ का, यह पंजाब का, यह खादर का, यह यमुना के इस या उस पार का, यह ब्रज का, यह दिल्ली का जाट, यह सिख जाट, यह हिन्दू जाट, यह मुस्लिम जाट की जगह, सब एक भाषा बोलेंगे|

हाँ इस धर्म वाले पॉइंट पे चौंकना मत, क्योंकि क्या ब्राह्मण-बनिए मुस्लिम नहीं? मुहम्मद अली जिन्ना बनिया था, नवाज शरीफ कश्मीरी ब्राह्मण, कश्मीर की अब्दुल्ला से ले मुफ़्ती फैमिली सब ब्राह्मण| तो यह कैसे बिना विवाद के रह लेते हैं जो एक हिन्दू या सिख जाट को मुस्लिम जाट नहीं भाता| यानी क्षेत्र के साथ-साथ धर्म के नाम पर भी बाँट| निसंदेह जाटों को इसपे सोचना चाहिए, और धर्म या क्षेत्र के आधार पर कोई भिन्नता या विवाद है तो उसको न्यूनतम साझा विचारों और आचारों के तहत सुलझाना चाहिए और इन आधार पर अगर एक दुसरे में कोई भिन्नता भी है तो उसको अपने में जगह देनी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मण-बनिया कर रहे हैं| वरना कहने को तो द्रविड़ ब्राह्मण और उत्तर-भारतीय ब्राह्मण में क्या कम विवाद हैं, परन्तु ऐसे मैनेज करके रखे हुए हैं अपने भीतरी विवादों को कि पूरे देश पे राज करते हैं|

इसलिए युवा जाट से अपील है कि कृपया जब आप कॉलेज-स्कूल-शहर-मंडी-मंदिर-धर्मस्थल जाएँ तो देखें कि यह लोग पूरे भारत में फैले होने के बावजूद भी किन वजहों से आपस में एक रहते हैं|

जाट-ब्राह्मण-बनिया तो एक उदहारण था, यह सन्देश है हर जाति-कौम के लिए| - फूल मलिक

Non-cooperation Movement against Land Acquisition Ordinance 2014 - Part 1

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरुद्ध एक असहयोग आंदोलन की रूपरेखा ऑडियो में: Friends, I have recorded an audio for, "Non-cooperation Movement against Land Acquisition Ordinance 2014". Please listen it and share in your circle as much as possible from this link, so that it could reach up to right and capable persons! - Phool Malik ‪#‎landacquisitionordinance‬ ‪#‎landacquisitionbill‬ ‪#‎landact‬ ‪#‎landacquisition‬ ‪#‎landacquisitionbill2015‬ Non-cooperation Movement against Land Acquisition Ordinance 2014 - Era of "Jamindari Pratha" is about to reinduced in India; in this very shocking, shakening and shiverning situation of farmer, it become very imperative for farmers to recognize the power of their consumption i. e. their consumer power.  

भारत की गोल बिंदी वाली महिलाओं से याचना!

1) हरियाणा में विधवा विवाह होता है, जबकि जिन राज्यों से आप आती हैं वहाँ विधवाएं पतियों की सम्पत्ति से बेदखल कर विधवा आश्रमों में भेजी जाती हैं|

2) हरियाणा में देवदासी प्रथा नहीं है, जबकि जिन राज्यों से आप आती हैं वहाँ आज कानून बनने के बावजूद भी मंदिरों में देवदासियां पाली जा रही हैं; बेशक सबूत के लिए गूगल करके देख लेवें|

3) हरियाणा में सती-प्रथा नहीं पाई जाती, जबकि जिन राज्यों से आप आती हैं, उनके देहात में आज भी औरतों के सति होने के किस्से सामने आते हैं|

4) बेशक हरियाणा में आज दुल्हन खरीदने का नया रिवाज आ गया हो, परन्तु खरीदी हुई दुल्हनें होती वहीँ हैं, जिनको आपके पीछे के राज्यों के माँ-बाप बेचते हैं| तो आप सीधा समस्या की जड़ यानी आपके राज्यों पे हमला करने की बजाय उस हरियाणा पे हमला करती हैं कि जो एक पल को बहुएं खरीद के लानी बंद भी कर दे तो, वो लड़कियां यहां किसी के घर की बहु बनने की बजाय, मुंबई-हैदराबाद-दुबई के देह-व्यापार मंडियों में बिकेंगी| यहां कम से कम किसी के घर की बहु तो बन रही हैं, हालाँकि जिसको भी इस तरह के ब्याह करने हों, वो दुल्हन को ब्याह के लावें, खरीद के नहीं| परन्तु हरियाणा वाले ब्याह के लाने को तैयार भी हो जावें, पर आपके राज्यों के उन माँ-बापों को कैसे तैयार करोगी जो लड़की बेचते ही पैसे के लिए हैं? फिर वो बेचारी चाहे किसी के घर की बहु बने या किसी देह-व्यापार में जावे|

5) लिंगनुपात दर की सुधार में शीर्ष राज्यों में होने पर भी, आप लोग हरियाणा से अपनी कृपया दृष्टि नहीं हटाती?

6) पंजाब-चंडीगढ़-दिल्ली व् पूर्वी यू. पी., बिहार में सबसे ज्यादा हॉनर किलिंग होने पर भी, आपका हरियाणा नाम के शब्द में ऐसा क्या अटका हुआ है कि घूम-फिर के आपका हिया इसी से चिपकता है?

7) देश के शहरों में कन्याभ्रूण हत्या ज्यादा होने पर भी (एन. सी. आर. में तो आपके राज्यों से आये विस्थापित लोगों का भी बड़ा भाग होता है), आपको हरियाणा के गाँव ही इस मुद्दे पर बोलने हेतु ज्यादा पसंद क्यों हैं? और राज्यों की बात आये तो फिर तो हरियाणा के अलावा आपको कुछ दीखता ही नहीं|

8) देश के 99% मंदिरों के चबूतरों-चौकों-गर्भगृहों में महिला पुजारन नहीं है वो तो आपको दिखती नहीं, फिर आपको यह हरियाणा की खापों के चबूतरों पे कितनी महिलाएं हैं अथवा नहीं हैं, यह कैसे दिख जाती हैं?

9) हरियाणा में महादलित नहीं होने पर भी, आप हरियाणा को ऐसे क्यों दिखाती हो कि यहां ही दलितों पर सबसे ज्यादा अत्याचार होते हैं? गरीब-अमीर का सबसे कम अनुपात है हरियाणा में, फिर भी आपको सबसे पीड़ित (वो भी जाटों के सताए हुए बता के बताती हो) आपको हरियाणा में ही क्यों दीखते हैं? जबकि आपके राज्यों में तो महादलित भी हैं, यानी दलितों से भी नीचे एक और केटेगरी महादलित?

10) हरियाणा में 95% दलित-जाट के झगडे कारोबारी होते हैं, जबकि पूरे देश में 95% दलित-स्वर्ण के झगड़े धर्म की वजह से दलितों से होने वाले भेदभाव जैसे कि किसी को मंदिर में प्रवेश नहीं तो किसी को उच्च-वर्ग के साथ बैठ के खाना खाने का अधिकार नहीं, आदि की वजह से होते हैं| और इनमें आप जिन राज्यों से आती हैं, वहाँ सबसे ज्यादा होते हैं; परन्तु फिर भी किसी जाट-दलित के मुद्दे को आपको ज्यादा उछलना क्यों भाता है? आपको पता है जाट और दलित जब खेतों में काम करते हैं तो एक साथ बैठ के और बहुत बार तो एक बर्तन में खाना खाते हैं, यह चीजें क्यों नहीं दिखती आपको हरियाणा के दलित और जाटों की? आपको पता है धर्म के नाम पे भेदभाव के मामले में हरियाणा सबसे नीचले स्तर के राज्यों में है?

हरियाणा से इतना लगाव है और हरियाणा को इतना सुधारना चाहती हो तो यह जहर उगलना बंद करो और पहले हरियाणा की पॉजिटिव चीजों को सराहने का माद्दा रखो|

यह पोस्ट रंजना कुमारी, एडवोकेट कीर्ति, कविता कृष्णमूर्ति, किरण खेर, जगमती सांगवान जैसी तमाम गोल-बिंदी वाली व् बड़ी सिद्दत से इन मामलों में हरियाणा पे जहर उगलने वाली अंजना ओम कश्यप, नगमा सहर, कादम्बिनी शर्मा जैसी तमाम लम्बे टीके वाली टीवी एंकर तक सम्मान पहुंचें| ऐसा करने में सहायता करने वाले का कोटि-कोटि धन्यवाद| - फूल मलिक

Friday, 6 March 2015

टी.वी./मीडिया पे किसी एक्टर/सोशल एक्टिविस्ट द्वारा किसी भी संस्कृति की आलोचना करने का मतलब!

"It is all about 'Negative Marketing' for earning business and perhaps identity too."

1) अगर एक्टर/एक्ट्रेस ऐसा कर रही है तो उसको अपनी फिल्म/टी.वी. सीरियल के लिए मार्किट चाहिए|
2) अगर सोशल एक्टिविस्ट या एन.जी.ओ. वाला ऐसा कर रहा है तो उसको उसकी एन.जी.ओ. और घर चलाने के लिए सरकार से फण्ड हासिली की सुनिश्चितता चाहिए|

एक्टर/एक्ट्रेस तो बेचारे अपनी कमाई को ले के इतने डरे होते हैं हैं कि किसी भी टी.वी. सीरियल या फिल्म के आगे उसके "काल्पनिक होने व् उसमें दिखाए किरदारों का वास्तविक समाज से कोई-लेना देना नहीं होने" की तख्ती लगा के रखते हैं| तो बताइये जो अपने प्रोडक्ट की गारंटी अथवा जिम्मेवारी नहीं ले सकते, वो किसी संस्कृति का क्या भला कर सकते हैं?

और एन.जी.ओ. वाले मामले में तो ऐसा होता है कि 95% लोगों द्वारा उनकी संस्कृति को छोड़ बाकी किसी की भी संस्कृति की रक्षा की ठेकेदारी उठाई होती है, फिर चाहे उस संस्कृति का अ. ब. स. द. भी ना पता हो| कोई खत्री पंजाबी हरयाणवी भाषियों को सुधारने की एन.जी.ओ. खोले होता है; तो कोई धर्म के जरिये जहर फैलाने वाला समाज में एकता और समरसता की| कोई बिहारी-बंगाली खापलैंड सुधारने का ठेका उठाये फिरता है तो कोई आसामिया टी.वी. एंकर जाटों पे ललित निबंध सुना रहा होता है| वही पी.के. फिल्म वाली बात, सब के सब wrong connection.

वास्तव में होता क्या है कि बिज़नेस में एक परिभाषा होती है, जिसको कहते हैं "नेगेटिव मार्केटिंग" (Negative Marketing), जिसका मतलब होता है कि सामने वाले की चीज को छोटा, तुच्छ, यहां तक कि घिनौना बता के अपना माल बेचना, अपना आईडिया बेचना| उस सांस्कृतिक ग्रुप में अपना माल बिक गया यानी फिल्म/टी.वी. सीरियल चल गया, या एन.जी.ओ. का एजेंडा चल गया तो हो गया, उसके बाद भाड़ में जाए जनता|

और 'भाड़ में जाए जनता' बात को साबित करना है तो आप देख लीजिये कि कितनों ने इनकी गतिविधियों अथवा प्रोडक्टों से आजतक हरियाणवी संस्कृति या किसी भी अन्य संस्कृति को कितना सहेजा है? तो संस्कृतियों को बिगाड़ने में अपनी संस्कृति को छोड़ दूसरों की का ठेका उठाने वालों का सबसे बड़ा हाथ है, वर्ना अगर हर कोई अपनी-अपनी संस्कृति के ठेका उठाये रखे तो इतनी बड़ी दिक्क्त ही ना हो, और ना ही 'नेगेटिव मार्केटिंग' की जरूरत पड़े| यहां कभी यह भी जांच के देखिएगा आप लोग की संस्कृति के मामले में 'पॉजिटिव मार्केटिंग' कौन लोग और कैसे करते हैं; ताकि दोनों का अच्छे से फर्क समझ आ जाए|

खैर इस लेख को लिखने का जो मकसद है उस बिंदु पर आता हूँ| होता यह है कि इनकी तो नेगेटिव मार्केटिंग हो जाती है और पैसा कमा के फुर्र हो जाते हैं; परन्तु पीछे छोड़ जाते हैं लोगों में अपनी ही संस्कृति के प्रति असमन्झस, अविश्वास व् दोषयुक्त होने की हीनभावना| और जहां हीनभावना शुरू वहाँ इंसान का अपनी संस्कृति-वस्तु के पक्ष में बोलना खत्म, उसके पक्ष में बोलना खत्म तो उसकी रक्षा खत्म और रक्षा खत्म तो उसको सहेज के रखना खत्म और सहजना ख़त्म तो संस्कृति खत्म| यानी संस्कृति इसलिए खत्म नहीं होती कि कोई आपको उसे सहेजने से रोक रहा है अपितु वो आपके अंदर उसके प्रति अविश्वास पैदा करके जा रहा है; फिर उसको खत्म करने का काम तो उसके लिए बोलना छोड़ देने से आप खुद ही करते हैं|

इसलिए इस मीडिया/टी.वी./बॉलीवुड व् एन.जी.ओ. वालों की इस "नेगेटिव मार्केटिंग" के फंडे को समझें| इनके प्रोडक्ट्स आपको समझ आएं तो देखें अन्यथा इनकी नेगेटिव मार्केटिंग के प्रभाव में आ के तो बिलकुल ना देखें और देखें तो तुरंत उसमें जो गलत था उसकी आलोचना करें| अपने ब्लॉग पे, अपनी सोशल मीडिया पेजों पे इनकी आपकी संस्कृति के खिलाफ दिखाई गई हर नेगेटिव चीज पर खुल के लिखें और खुल के उसको लोगों को बताएं; खासकर अपनी संस्कृति वालों को तो बताएं ही बताएं| परन्तु उनके द्वारा आपके खिलाफ परोसा गया नेगेटिव बताते-बताते, खुद के नेगेटिव को छुपाने की आदत बस इतनी ही डालना कि वो बाहरी समाज से छुपे, आप से नहीं; क्योंकि आपको तो उसको उखाड़ना है| निचोड़ यही है कि अपनी सभ्यता-संस्कृति को इस नेगेटिव मार्केटिंग की भेंट ना चढ़ने देवें| - फूल मलिक

Saturday, 28 February 2015

विकास भी चाहिए और जमीन भी नहीं देनी, यह कैसे होगा?

एक मित्र जो नाम से तो किसानपुत्र लगता है परन्तु विचार से अंधभक्त लगता है, उसने यह जुमला कहा है| मित्र आपकी शंका का जवाब इस प्रकार है:

1) क्या आपने या आपकी सरकार ने इस बात का अध्यन किया है कि जिन पुराने भूमि अधिग्रहण के नियमों के कारण काफी प्रोजेक्टों के लटके होने की दुहाई दी जा रही है, उनमें कितने प्रतिशत सरकारी प्रोजेक्ट लटके हुए हैं और कितने गैर-सरकारी यानि प्राइवेट? कितने लाइन के यानी सड़क की लाइन, रेल की लाइन, नहर की लाइन, बिजली की लाइन व् आर्मी के यानि सरकारी प्रोजेक्ट लटके पड़े हैं और कितने फिर से वही प्राइवेट हाउसिंग व् इंडस्ट्री के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं? और लाइन का तो मैंने कोई विरला ही प्रोजेक्ट अटका सुना है| और अगर कोई अटका भी है तो 95% लाइन को थोड़ा बदल के बना दिए जाते रहे हैं| क्योंकि लाइन के हर प्रोजेक्ट के कम से कम तीन सर्वे होते हैं, प्राथमिकी के आधार पे, कि या तो यहाँ से बनेगी, या यहां से या यहां से| इसलिए लाइन के प्रोजेक्ट में विरला ही कहीं अधिग्रहण की दिक्क्त आती है| पहली बात!

2) दूसरी बात, सरकारी प्रोजेक्टों के लिए तो खुद सरकार सीधी ले या लीज पे ले परन्तु यह प्राइवेट वालों को किसान से जमीन लीज पर लेने में क्या दिक्कत है? लीज पर लेने में उनको किसान से जमीन खरीदनी नहीं होगी कि जिसके लिए उनको लाखों-करोड़ों रूपये एक ही बार में किसान को देने पड़ें, अपितु जमीन किराए पे भी ली जाएगी, जो कि अगर देखो तो कम से कम पहले पचास साल का लीज का किराया तो एक मुस्त दी जाने वाली कीमत से ही निकल जायेगा| परन्तु नहीं इन्होनें तो किसान का शोषण जो करना है, इनको जमीन से थोड़े ही मतलब है|

3) सर छोटूराम और फिर रही-सही कमी जो चौधरी चरण सिंह ने एक किसान को जो तमाम तरह के जमीन से संबंधित मालिकाना हक किसान को दिलाने के लिए जीवन खपाए थे, इस नए आर्डिनेंस से वो सारे हक किसान के हाथ से निकल जायेंगे और किसान पहले की तरह जमींदारी प्रथा के चंगुल में आके साहूकारों के दोहरे चंगुल में फंस जायेगा|

एक इतिहासकार भाई कह रहा था कि अमेरिका में 1930 में इसी तरह का कानून आया था जिसमें कॉर्पोरेट ने लगभग सारी जमीन एक सोची-समझी स्ट्रेटेजी के तहत अपने अधिकार में ले के किसान को उसी जमीन का मजदूर बना के छोड़ दिया था, अब वही अमरीकन नीति भारत में लागू होने वाली है| यह सही है कि यह नीति उसके जैसी ही होगी, लेकिन यहां यह भाई साहब सर छोटूराम का वो क्रेडिट भूल गए जिसके तहत सर छोटूराम ने उसी 1930 के आसपास 1930 से भी पहले यहां जो सदियों से खेती का कॉर्पोरेट रूप यानी जमींदारी प्रथा चली आ रही थी; वह एक बड़ी लड़ाई लड़ के किसानों को उससे मुक्त करवा दिया था| इसलिए आप ऐसा ना कहें कि अमेरिका की तरह करने जा रहे हैं, अपितु यह कहें कि सर छोटूराम के जमाने से पहले यानी तकरीबन एक सदी पहले जो भारत में किसान की हालत थी, इस बिल के जरिये वो वापिस आ रही है| हर बात में अमेरिका को पैमाना बनाना छोड़ के अपने ही इतिहास को पलटोगे तो यह अमेरिका की चीजें तो यहां, उनसे बहुत पुरानी भरी पड़ी हैं| खैर जो भी है, परन्तु वह एक सदी पुरानी किसान की गुलामी फिर से जबाड़ा खोल रही है इसलिए इस बिल का विरोध जरूरी है| और वो हालत कैसे आ रही है, अगले बिंदु में देखो|

4) किसान की मर्जी का क्लॉज़ प्राइवेट सेक्टर के लिए भी हटा देना; जिसमें कि व्यापारी को एकमुश्त फायदा होगा| उसके ऊपर फिर कोर्ट जाने का रास्ता भी बंद किया, यानी सरकारी अफसरों की तानाशाही चलेगी, वो भी क्लास A और B के अफसरों की, जिनमें कि 80% अफसर गैर-किसान जातियों के हैं या ऐसी जातियों के हैं, जिनके यहां सिर्फ आंशिक रूप से खेती करते हैं या ऐसी जातियों के हैं जिनके लिए खेती द्वितीय धंधा रहा है, प्राथमिक नहीं|

और अफसरों के लिए इतिहास में कहावत रही है कि "बनिया हाकिम, ब्राह्मण शाह, जाट मुहासिब जुल्म खुदा"। और अगर आप हरियाणा और वहाँ भी जींद जिले के हैं तो आपने ऐसे ही एक बनिया हाकिम की किसानों पे अत्याचार बारे 1856-58 में हुआ "लजवाना काण्ड" तो सुना होगा; जानकारी के लिए बता दूँ वो काण्ड इतना मशहूर हुआ था कि पटियाला की लोकधुनों में आज भी यह मुखड़ा सुनने को मिल जाता है कि, "लजवाने रे तेरा नाश जाइयो, तैने बड़े वीर खपाए!" तो मित्र, ऐसी-ऐसी जो दुसम्भावनाएं जो यह बिल ले के आ रहा है, उसके लिए इसका विरोध है| और मुझे यह बता दे भाई, जो समाज जात-पात के नाम पर इतना बंटा हुआ हो, और हरियाणा का तो हाल यह हो कि यहां जाट बनाम नॉन-जाट की राजनीती चलती है, तो ऐसे में इस कानून का इस तरीके का दुरूपयोग नहीं होगा, इसके लिए सरकार ने क्या प्रावधान किये हैं?

5) यह आत्मसम्मान की भी बात हो गई है, वो ऐसे| हमारे यहाँ 50% से ज्यादा ऐसे किसान हैं जो अपनी हाड-तोड़ मेहनत से किल्ले-जमीन जोड़ते हैं| किसी ने 10 किल्ले से शुरू करके अपनी हाड़तोड़ मेहनत से 20 बनाये होते हैं| यह मत समझो कि किसान सिर्फ पिता से ही वंशानुगत जमीन पाता है और उसके लिए वो कोई पसीना नहीं बहाता| आधे से ज्यादा किसान उसमें नई जमीन जोड़ते हैं| तो क्या उसकी मेहनत की इतनी ख़ाक के बराबर की कीमत कि उसकी इस हाड़तोड़ मेहनत को कोई भी एक पल में उसकी मर्जी के बिना ही उड़ा ले जायेगा और वो केस भी नहीं कर सकेगा| और ऐसे में ना सरकारी अफसरों द्वारा हो सकने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा पायेगा| नहीं भाई नहीं| एक उद्योगपति से पूछ के देखो कि क्या वो उसकी जीवनभर की कमाई से खड़ी की इंडस्ट्री को ऐसे ही दे देगा किसी को? फर्क सिर्फ इतना ही तो है ना कि उद्योगपति का विकास वर्टीकल होता है और किसान का हॉरिजॉन्टल, परन्तु विकास तो विकास होता है ना?

तो "विकास भी चाहिए और जमीन भी नहीं देनी, यह कैसे होगा?" का यह जुमला बोलने वालों जरा इन पहलुओं पे जवाब दो तो जानूँ| इन सवालों पे एक किसान की शंका मेटो तो जानूँ|

मतलब यह भारत में अपनी ही तरह के व्यापारी पैदा हो रहे हैं, जिनको ग्राहक तो चाहिए परन्तु उसकी सुननी नहीं| इसीलिए आज जरूरी हो गया है कि किसान अपनी कंस्यूमर पावर (consumer power) को पहचाने और जरा लगा दे इनको दो महीने खाने-पीने के सामान को छोड़ के बाकी सारे सामान को खरीदने के बायकाट का झटका|

पगड़ी सँभाल ओये, तेरा लूट गया माल ओये, दुश्मन नू जाण ओये, ओ किसाना सर छोटूराम नूं पुकार ओये! - फूल मलिक

Friday, 27 February 2015

अगर दो महीने के लिए किसान यह कर दे तो लैंड आर्डिनेंस रद्द समझो!

It is about recognizing the consumer power of a farmer by a farmer!

असल तो पूरे देश में, लेकिन फिर भी अगर पंजाब (22 जिले) - हरियाणा (21 जिले) - पश्चिमी उत्तरप्रदेश (करीब 30 जिले) - राजस्थान (33 जिले) व् दिल्ली (9 जिले) यानी कुल 115 जिलों में भी किसान

1) दो महीने के लिए नया ट्रेक्टर खरीदना बंद कर दे तो (करीब 200 से 500 ट्रेक्टर उत्तरी भारत के हर जिले में बिकते हैं), औसतन 300 भी ले लो तो 115 जिलों में 2 महीने में कुल 34500ट्रेक्टर बिकेंगे| औसतन एक नया ट्रेक्टर आता है 4 लाख का, यानी 400000 * 34500 = INR 13800000000 यानी 13 अरब 80 करोड़ का अकेला नुक्सान तो अकेले ट्रेक्टर ना खरीदने से हो जायेगा उद्योपतियों को| और इन दो महीनों में किसान का कुछ बिगड़ना नहीं|

ऐसे ही सोचिये अगर कृषि के ट्रेक्टर के अतिरिक्त बाकी के कृषि उपक्रम भी दो महीने नहीं खरीदे तो अकेले खेती उपक्रम खरीदने के बायकाट से इन उद्योगपतियों को इतना नुकसान होगा कि इनकी बैलेंस सीटें इम्बैलेंस कर जाएँगी और जो यह मुफ्त में किसान की जमीन पर उसकी मर्जी के बिना नजर गढ़ाए बैठे हैं, इनकी नजरें इनकी बैलेंस सीटों में ही उलझ के रह जाएँगी| और इनकी अक्ल ठिकाने जाएँगी कि जिसको तुम लूटने की सोचे बैठे हो, उसने सिर्फ दो महीने भी तुमसे सामान नहीं खरीदा तो कहाँ से कहाँ होवोगे तुम| इसलिए इस ग्लोबलाइजेशन (globalization) के जमाने में किसान रुपी कंस्यूमर (consumer) अपनी इस कंस्यूमर पावर (consumer power) को पहचाने और इसका इन व्यापारियों को भी अहसास करवा दे कि कहाँ तुम सरकारों पे दबाव दे के हमें कुचलने पे तुले हो, हम अपनी पे आये तो घर-बैठे-बिठाए ही तुम्हें कुचल देंगे|

2) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई कार-एसयूवी (SUV)-मोटरसाइकिल भी खरीदना बंद कर दे तो आप सब अंदाजा लगा लीजिये कि इन लोगों को दो महीने में कितना बड़ा नुक्सान उठाना पड़ जायेगा|

3) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई वाशिंग मशीन-फ्रिज-कूलर-पंखा यानी घर में काम आने वाली तमाम तरह की मशीनें ना खरीदें तो और किस-किस की मार्किट बैठेगी|

4) और ऐसे ही दो महीने के लिए अगर सिर्फ किसान अकेला भी कोई ज्वैलरी-कपडा-लत्ता-बर्तन ना खरीदे तो इन दो महीनों में और किस-किस के पेटों के पानी हिलेंगे और कितने अरबों-करोड़ों के घाटे व्यापारियों को होंगे|
यहां सिर्फ खाने-पीने के सामान की चीजों के बायकाट को बाहर रख रहा हूँ, क्योंकि हम किसान होते हैं, समाज के पालनहारी हैं हम और अगर खाने-पीने की चीजों का भी बायकाट कर देंगे तो कहीं ऐसा ना हो जाए कि किसी व्यापारी के घर में बच्चे बिना दूध-फल-सब्जी के तरसें| इसलिए एक किसान की इंसानियत को कायम रखते हुए अगर किसान खाने-पीने की चीजों को छोड़ के बाकी तमाम सामान का दो महीने भी खरीदने से बहिष्कार कर देवें तो यही व्यापारी जो आज सरकार पर "भूमि अधिग्रहण" के लिए ऐसा जालिम बिल बनवाने को तुले हैं, खुद ही अपने-आप इसको वापिस करवाने को कहेंगे और किसान का उसके घर बैठे-बैठे निशाना सध जायेगा| यानी लाठी भी नहीं टूटेगी और सांप मरे-का-मरा|

लेख का सार यही है कि किसान अपने आपको लाचार-बेबस ना समझे, इस ग्लोबलाइजेशन के जमाने में अपनी कंस्यूमर पावर को पहचाने| इस बिल को वापिस करवाने के लिए उसकी यह कंस्यूमर पावर ही काफी है; ना कोई रेल रोकने की जरूरत ना रोड जाम करने की, ना दिल्ली घेरने की जरूरत ना जेल भरने या जाने की|

प्रवर्तिगार से यही अरदास है कि हमारे तमाम तरह के किसान संगठनों, पार्टियों में उनकी इस कंस्यूमर पावर की ताकत को पहचानने की नजर डाल दे बस, बाकी सारा काम तो घर बैठे ही हो जायेगा; क्योंकि जब कोई किसान ग्राहक दो महीने के लिए सामान खरीदने ही नहीं जायेगा तो बड़े-बड़े कॉर्पोरेट (corporate) सीईओ (CEO) से ले के डायरेक्टर्स (directors), मैनेजर्स (managers) और सेल्समेन (salemen) तक की नौकरियां हिलने के साथ-साथ बैलेंस सीटें हिलेंगी तो कौन किसानों से पंगा लेने का जोखिम लेगा?

अपील: किसान का युवा बेटा-बेटी अपने तमाम किसान नेताओं, शुभचिंतकों और परिवारों के बड़ों को इस पावर बारे समझाएं और इसपे एक-जुट होने का आह्वान करें| साथ ही सोशल मीडिया पे इसको इतना बड़ा आंदोलन बनाये कि सोशल मीडिया पर बैठी व्यापारी और सरकारी लोगों को उनके इन अन्यायकारी क़दमों पर दोबारा सोचना भी पड़े और इस आर्डिनेंस को वापिस लेने के तमाम कारणों का भी इनको अहसास हो जाए|

पगड़ी संभाल ओये, दुश्मन पहचान ओये! - फूल मलिक