Wednesday, 6 May 2015

ओ.बी.सी. भाईयो चॉइस आपकी है!


शरद यादव कहते हैं कि ओ.बी.सी. का आरक्षण कोटा जो कि आज ओ.बी.सी. की जनसंख्या के अनुपात का आधा है, इसको अगर पूरा-पूरा लेना है तो हमें जाटों को ओ.बी.सी. में शामिल करना ही होगा, क्योंकि जाट जुनूनी है, दृढ-संकल्पी है और वह हमसे जुड़ा तो फिर हमारा आधा हक और 'बैकलॉग" का स्लॉट कोई जनरल वाला नहीं मार पायेगा|

और यह बात सच भी है| मेरा मानना है कि मंडी-फंडी इस बात से ज्यादा बौखलाया हुआ है कि अगर जाट और ओ.बी.सी. एक हो गए तो फिर यह लोग अपना हक़ अपनी जनसंख्या के अनुपात में मांगेंगे और तुम्हारे (मंडी-फंडी के) मुफ्त में मलाई मारने के दिन लद जायेंगे| इसलिए जाटों और ओ.बी.सी. में "बांटो और राज करो" का पासा फेंका हुआ है| और राजकुमार सैनी जैसे ओ.बी.सी. कौम के कुछ नादान सिपाही इनके झांसे में आये हुए हैं| अब चॉइस आपकी है कि आपको इस पासे का जवाब कैसे देना है|

कि आपको इनके झांसों में आके अपना दोहरा नुक्सान करना है या जाट के साथ मिलके आपका जो हक़ यह लोग खा रहे हैं वो वापिस लेना है| फिर भले ही आपको ओ.बी.सी. में भी जातीगत बाउंड्री चाहिए तो वो खिंचवा लेना| परन्तु इन मंडी-फंडी के बहकावों में आ के खुद ही अपने पैरों पे कुल्हाड़ी मत मारो| क्योंकि इतना तो शरद यादव जैसे पहुंचे हुए दिग्गज भी समझ रहे हैं कि बिना जाट को साथ लिए, मंडी-फंडी 27% आरक्षण को 54% नहीं होने देगा आपके लिए|

इस बीच मेरे जाट समाज से इतनी अपेक्षा चाहूंगा कि जब तक मंडी-फंडी की यह ओ.बी.सी. और जाट को बाँट के राज करने की 'एक्सपेरिमेंटल पॉलिटिक्स' के बादल ना छंटे, तब तक धैर्य बनाये रखें| क्योंकि सारा ओ.बी.सी. हमारा विरोधी हो ऐसा तो मैं मान ही नहीं सकता| हमें धीरज धार के सिर्फ और सिर्फ सही वक्त का इंतज़ार करना होगा| परन्तु हाँ इस बीच एक यह सुदृढ़ संकल्प जरूर कर लो कि जब तक ओ.बी.सी. भाईयों को यह राजनीती समझ में आवे और वो वापिस हमारे साथ जुड़ें, तब तक हम यह रणनीति बना चुके हों कि कैसे ओ.बी.सी. के साथ मिलके मंडी-फंडी से हमारी जनसंख्याओं के अनुपात में ना सिर्फ सरकारी वरन प्राइवेट नौकरियों में इसी अनुपात का आरक्षण लेना है|

इसलिए जाट कौम के लिए यह वक्त बहुत ही धैर्य धारण करके मंडी-फंडी की चालों को समझने व् ओ.बी.सी. भाईयों के मंडी-फंडी चालों से बाहर आने तक इंतज़ार करने का है|

शायद ओ.बी.सी. को अभी और वक्त लगेगा यह बात समझने में कि यह सब नाटक किसलिए हो रहा है और यह आभास फिर से तरोताजा करने में कि मंडी-फंडी कितना ही तुम्हारा होने का नाटक कर ले अथवा तुमको जाट से अलग-थलग करने के प्रपंच चल ले, परन्तु तुमको तुम्हारी जनसंख्या के अनुपात का आरक्षण कभी नहीं देगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

यदि ऐसी बात है तो पंजाबी खत्रियों की "जय माता दी" को जाट अब अपनी "माता दी" कहनी बंद करें:


(गाँव-गाँव गली-गली डी.जे. की तरह जगरातों पे बैन लगा दो|)

कल के रोहतक से निकलने वाले एक मुख्य अखबार में पढ़ा कि अब पंजाबी खत्री भी जाटों के आरक्षण के विरोध में उतरेंगे|

हाल ही में जाटों के आरक्षण को ले के राजकुमार सैनी (सारा सैनी समाज नहीं) के नेतृत्व में जो बवाल तथाकथित राष्ट्रवादियों के इशारे पर चल रहा था, उसमें जुड़ते हुए जिस तरीके से पंजाबी खत्री समाज ने उनका ओबीसी कोटे से कोई लेना-देना ना होते हुए भी इसके विरोध में कूदने का जो झटका जाटों को दिया है; अब इनके ही अंदाज में जाटों को भी आपसी-भाईचारे और समरसता के चलते जो इनकी "जय माता दी" को अपनी "माता दी" कहने का अपनापन छेड़ा हुआ था, उसको झटका देने का वक्त आ गया है|

हर इस उस दिन कहीं जगराते तो कहीं सतसंगों के जरिये इनकी जेबें कमाई से भरने का जो एक जरिया जाटों ने इनको खोल के दे रखा है उसपे अब ब्रेक लगाने की जरूरत है|

मैं वैसे ही थोड़े कहता रहता हूँ, कि अपने खुद के "दादा खेड़ों को पूजना छोड़ के" हर इस-उस के दिए विचारों को पालोगे और पूजोगे तो यह लोग तुम पर ही उल्टा झपटेंगे| इसलिए छोड़ों इन माता और जगरातों को और लौटो अपने दादा खेड़ों की शरण में| और वक्त है शहरी जाटों के लिए अब जाट आरक्षण की मुहीम में इस तरीके से भूमिका निभाने का, क्योंकि आप लोगों के घरों में माता ज्यादा बड़ी बैठी है या आप लोगों ने बैठाई अथवा बैठने दी है| हम जाट देवता होते हैं, किसी के मान-मान्यताओं को अपने घरों में जगह दे देवें तो इसका मतलब यह नहीं कि हमारा देवत्व धुल गया| इसलिए करो इति श्री!

और गाँवों वाले जाट भी जैसे डी.जे. को पंचायतें कर-करके अधिकतर गाँवों ने बैन कर दिया था, अब ऐसे ही बैन हमारे गाँवों में इन जगराते वालों के घुसने पे घोषित करवाने शुरू किये जावें| तब पता लगेगा इनको सबसे मित्र कम्युनिटी के विरुद्ध खड़ा होने का|

वैसे भी जो अपने खुद के भगवानों को बिसरा के दूसरों के को सर पे उठाये फिरें, उनके साथ फिर ऐसा ही होता है जैसा आज पंजाबी खत्री समाज जाट समाज के आरक्षण से इनका कुछ लेना-देना ना होते हुए भी कर रहा है| जाट समाज इनके तमाम जगरातों की बुकिंग रद्द करे और हर सोशल मीडिया पर बैठा जाट इस बात का प्रचार अपने शहर-गली मोहल्ले में ले के जावे|

कोई असली जाट का जाम होगा तो यह बात पक्की गड़ेगी उसको और आज ही जा के अपने घरों से इनकी गढ़ाई हुई चौकियों-माताओं को उठा के जब बाहर का रास्ता दिखाएंगे, तब अक्ल आएगी इनको कि तुम्हें बिज़नेस देने वालों के खिलाफ खड़ा होने का क्या शबब होता है|

इन्होनें तो वो फितूर मचा रखा अक, "अगला शर्मांदा भीतर बड़ गया, और बेशर्म जाने मेरे से डर गया", हम तो भाईचारे और समाज की समरसता ढो-ढो छक लिए और ये, "माँ तो चौथी-चौथी नैं फिरै और बेटा बिटोड़े ही बिसाह दे|" वाली कर रहे हमारे साथ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हिन्दू धर्म में एकता और बराबरी के ठेकेदारों का फर्ज बनता है कि वो सैनी साहब को रोकें, हिन्दुओं को ऐसे बांटने से!


मैं ना तो मोदी को ढूंढ रहा, ना समाज के ठेकेदारों को, और ना तथाकथित राष्ट्रवादियों को; मैं तो हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों को ढूंढ रहा हूँ, जो लोकसभा इलेक्शन से पहले हिन्दू धर्म में एकता और बराबरी की बात करते थे| ....... यह लोग मिल भी गए तो नहीं आएंगे आगे| क्योंकि हिन्दू धर्म है ही नहीं, होता तो कोई इतनी जुर्रत कर पाता कि उसके अपने धर्म वाले ऐसे फाड़ करने पे तुले हैं और धर्म वाले चुसक भी नहीं रहे| वही धर्म वाले जिनको जब वोट चाहिए होती हैं तो पता नहीं कहाँ ख्वाबी-ख्यालों से हिन्दू एकता और बराबरी का जुमला उठा लाते हैं|
निसंदेह हिन्दू कोई धर्म नहीं अपितु मानवता का धंधा है, जिसको दान-पुन: के नाम पर सिर्फ पैसे कमा के अपना पेट भरना आता है| बाकी इसमें राजनैतिक सरकार और तथाकथित राष्ट्रवादियों का जो हाथ है सो तो है ही|

ऐसे-ऐसे किस्से सबक हैं उन नादानों जाट बालकों के लिए जिनको हिन्दू धर्म वाले यह कह के बहका लेते हैं कि, सदियों से बिछड़े रहे तो गुलाम रहे, अब तो एक हो जाओ| क्या यही सब देखने और झेलने के लिए एक हो जाओ, कि जो जाति समाज की रीढ़ की हड्डी है, उसके खिलाफ कोई जहर उगले और ना धर्म वाला और ना कोई समाज वाला उसका मुंह थोबे?

और हम गुलाम इस वजह से नहीं हुए थे कि हम एक नहीं थे, अपितु इन्हीं हरकतों और साजिशों के चलते हुए थे जो आज फिर से मंडी-फंडी जाट के खिलाफ बाकी के पैंतीस बिरादरी के समाज को खड़ा करके रच रहा है| बाज आ जा मंडी-फंडी, और अगर शर्म ना हो तो इतिहास की तारीखें पलट के देख ले, जाट ने हमेशा तुझे आईना दिखाया है|

कभी मुसलमान खा जायेंगे का डर दिखा के एक होने की बात करते हैं, जबकि हमें तो मुसलामानों से डर लगता भी नहीं, क्योंकि हम मुस्लिमों से डंके की चोट पर भाईचारा निभाना जानने वाली कौम रहे हैं| हमें कोई खायेगा तो यह खुद हिन्दू धर्म वाले खाएंगे जाटो, इसलिए लामबंध और एक होना है तो इन मंडी-फंडी की ताकतों के खिलाफ एक होवो| ताकि आपको एक देखकर यह ओबीसी भाई भी इन मंडी-फंडी की साजिशों में फंस इन सैनी साहब की तरह आपके विरुद्ध मोहरे की तरह इस्तेमाल ना हो पावें|

फूल मलिक


 

यदि ऐसा है तो फिर 1984-86 में पंजाब से हरयाणा आया पंजाबी खत्री अब वापिस पंजाब लौटे, क्योंकि वहाँ आतंकवाद खत्म हो चुका है!


1947 में सबसे ज्यादा पंजाबी खत्री हरियाणा की धरती पर आ कर बसा और हमने बड़े स्नेह से गले लगा के अपने भाईयों को हमारे यहां बसाया| मेरी स्वर्गीय दादी जी के बताये किस्से मुझे आज भी याद हैं कि कैसे वो हमारी निडाना नगरी (गैर-हरयाणवियों की भाषा में गाँव) में बसने वाले पाक्सस्तानी (उस जमाने में इसी नाम से इन भाइयों को पुकारा जाता था; हालाँकि वो अलग बात है कि आज तीसरी पीढ़ी हो चली है भाइयों की हरयाणा में, परन्तु हरयाणा की धरती पर जन्म लेने के बावजूद आज भी संस्कृति से भले ना सही परन्तु जन्म से भी खुद को हरयाणवी कहने में झिझक रखते हैं) भाईयों की कैसी-कैसी आर्थिक और मानवीय मदद किया करती थी| और कैसे अल्पसंख्यक होते हुए भी कभी भी स्थानीय शरारती व् गैर-सामाजिक तत्वों द्वारा आप लोगों (पंजाबी खत्री) पर ताने गए भाषवाद अथवा क्षेत्रवाद के मुद्दों को हवा नहीं लेने दी| और एकमुश्त हो अपने सगे भाईयों की तरह सीने से लगाया|

लेकिन अगर इस भाईचारे को भुला, आज यही पंजाबी भाई जाटों के आरक्षण के विरोध में उतर रहे हैं तो अब जाट समाज को भी इस पर कड़ा रूख अख्तियार कर लेना चाहिए| वैसे भी सर्वविदित है कि हरयाणा में जो जाट बनाम नॉन-जाट का जहर बोया जाता है उनमें आप पंजाबी भाई सबसे अग्रणी भूमिका निभाते सुने गए हैं| और अब ऐसे विषय को ले के जिससे कि जाटों को ओ.बी.सी. में आरक्षण मिलने अथवा ना मिलने से आप पर कोई प्रभाव भी नहीं पड़ना, फिर भी आप लोग हमारे विरोध में उतर रहे हैं तो अब जाटों को कम से कम आप में से उन पंजाबी भाइयों के वापिस पंजाब में चले जाने की मांग को पुरजोर से उठाना शुरू करना चाहिए, जिन्होनें कि 1984-86 में पंजाब के आतंकवाद से ग्रस्त माहौल से सुरक्षित माहौल हेतु हरयाणा की जी. टी. रोड बेल्ट पर आकर शरण ली थी| हालाँकि यह लिखते हुए मैं इतनी मानवता जरूर रखना चाहूंगा कि जो 1947 में पाकिस्तान से सीधे हरयाणा में आये थे वो हरयाणा में रहें, परन्तु जो 1984-86 में पंजाब में आतंकवाद के चलते हरयाणा में शरण लिए थे, उनको अब वापिस पंजाब में चला जाना चाहिए, क्योंकि अब वहाँ आतंकवाद ख़त्म हो चुका है और स्थिति सामान्य हो चुकी है|

एक तरफ जहां सरकारों से ले के समाज तक जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद के चलते विस्थापित कश्मीरी पंडितों की घर-वापसी की बात करते हैं, और आपको हरयाणा का माहौल ऐसे ही बिगाड़ना है तो फिर ऐसे ही आपकी भी घर-वापसी हो और आप लोग पंजाब में वापिस लौट जाएँ|

क्योंकि अगर जाट और हरयाणा की दरियादिली का आप लोगों ने हमें यही सिला देना है तो फिर इसका यही एक रास्ता बचता है कि आप लोग कृपया पंजाब में वापिस लौटें और फिर यह जातिगत जहर उगलें या ना उगलें, वहाँ जा कर सोचें| धुर ईसा पूर्व तीसरी सदी के सिकंदर से ले के और आजतक हम जाटों ने अपने हरयाणा को हर प्रकार के जातिवाद, धर्मवाद और भाषावाद के उन्माद से बचा के रखा है| और आप लोग इतने कम समय में बेशक आपकी अपनी मेहनत से इतने समर्थ बने तो इसमें हमारी इस सदियों पुरानी रीत का भी योगदान है| और इससे बड़ी मानवीय समरसता की मिशाल जाट और अन्य तमाम हरियाणवी कोई दे नहीं सकते|

परन्तु अब अगर आप लोगों को बिना वजह और बेतुके ही जाटों से भिड़ना है, वो भी तब जबकि जिस मुद्दे को ले के आप जाटों से भिड़ रहे हो उससे आपका कोई नफ़ा-नुक्सान नहीं, तो फिर अब जाट के लिए यही रास्ता बचता है कि आप जितने भी पंजाब के आतंकवाद के चलते हरयाणा में शरण लिए, आपको वापिस पंजाब भेजने हेतु आवाज उठाई जावे|

वाह रे पंजाबी खत्री भाइयों, आप लोगों को आतंकवाद से शरण लेने को सबसे सुरक्षित जगह चाहिए तो वो जाटों और तमाम हरियाणवियों का हरयाणा और बिना-वजह जिसका कि कोई तुक ही नहीं बनता उसपे लड़ने को चाहिए तो वो भी जाट| इससे साबित होता है कि हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट का जो जहर फैलाया हुआ है, उसमें आप लोग ही सबसे अग्रणी हो|

खैर, तथाकथित राष्ट्रवादियों के उकसाए हुए राजकुमार सैनी जैसे सांसद क्या पहले से कम थे, जो अब आप लोग भी सींग पिना चले आये| खाम्खा ही यह कहावत कही जाती है कि "जाटड़ा और काटड़ा अपने को मारे"| यह कहावत तो ऐसे होनी चाहिए कि, "जाट जिसको भाई मान के शरण और सुरक्षित माहौल दे, वही जाट की गोभी खोदे|"। हाँ यह सुरक्षित माहौल हम जाटों की वजह से ही आप लोगों को हरयाणा में मिला था जब आप पंजाब के आतंकवाद से उकताए हुए पलायन ढूंढ रहे थे और हमने कभी इसकी रॉयल्टी भी नहीं मांगी, ठीक वैसे ही जैसे आज व्हट्स अप्प और फेसबुक जैसों से मोबाइल कंपनियां इंफ्रा के नाम पे रॉयल्टी और प्रॉफिट शेयरिंग मांग रही हैं|

मेरा निवेदन है पंजाबी खत्री समाज के उन बुद्धिजियों से जो जाट को भाई मानते हैं कि वो इन मनचलों को समझावें और मेरे और आपके हरयाणा को एक और जातीय जंग का अखाडा ना बनावें| क्योंकि अगर मेरे जैसे पंजाबी कौम को अपना सुदृढ़ मित्र मानने वाले को यह बात आघात पहुंचा सकती है तो फिर आम जाट का क्या होगा| मेरी बचपन से पंजाबी लड़कों से गहरी दोस्ती रही है और आपको इस-उस वक्त "रफूज" या "रफूजी" कहने वाले दोस्तों-तत्वों का पुरजोर विरोध किया है और उनको समझाया है| तो मैंने अगर यह विरोध किये थे आपके पक्ष में तो आज यह सुनने के लिए नहीं कि आपके समाज के कुछ मनचले मेरे ही समाज के विरुद्ध उस चीज के लिए खड़े हो जायेंगे कि जिसके हमें मिलने या ना मिलने से आप लोगों को कोई फर्क ना पड़ता हो|
अंत में उन बचपन से ले के आजतक के मेरे तमाम पंजाबी दोस्तों से मेरा अनुरोध है कि आप लोग समझाए इन आपके समाज के बहके हुए लोगों को कि कुछ नहीं मिलना इन चूचियों में हाड ढूंढने के चिलतरों से, सिवाय आपके और मेरे बीच और खटास पैदा करने के|

जय यौद्धेय! -फूल मलिक

Please see photo news in reference which became the reason behind writing of this article:

 

Monday, 4 May 2015

ये मंडी-फंडी जाट को तीनों-जहान से खो के मानेंगे:

(यह लड़ाई है "नौकर-मालिक" बनाम "सीरी-साझी" सभ्यता की)


1) 1991 में जाटों द्वारा बनाया गया लगभग 80 बरस पुराना 'अजगर' (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) गठबंधन तोड़ के ये माने|
2) 2005 में हरयाणा में कभी गोहाना तो कभी मिर्चपुर कांड करवा के जाट-दलित का भाईचारा ये बिखरा के माने|
3) 2013 में मुज़फ्फरनगर दंगे के जरिये 1857 से चला आ रहा जाट-मुस्लिम भाईचारा, हिन्दू-मुस्लिम के पचड़े में पड़वा के तुड़वा के ये माने|
4) 2015 में अब जाट - ओ.बी.सी. भाईचारे पे इनकी नजर आन जमी है| और इनकी चली तो इसको भी तुड़वा के दम लेंगे|


और जाट हैं कि फिर भी एक नहीं हो रहे? जाटों इससे भी बड़ी बर्बादी की बाट जोह रहे हो क्या?


इसमें समझने की बात यह है कि जाट ही अकेली ऐसी कौम है जिसको ब्राह्मण ने "जाट जी" कहा है| जाट ही एक ऐसी कौम रही है जो ब्राह्मण के किसी सभा में आने पे खड़ी नहीं होती| वर्ना राजपूत तक इनके आने पे खड़े हो के प्रणाम करते हैं इनको| राजपूत तक को भी इन्होनें कभी 'जी' लगा के नहीं बोला| 1875 में जब आज का हरयाणा अंग्रेजों ने पंजाब में दिया था तो सिख धर्म के प्रभाव के चलते सारे जाट सिख धर्म की तरफ रूझान करने लगे थे, तब 1875 में ब्राह्मणों ने मुंबई में दयानंद सरस्वती को यह जिम्मा सौंपा और जाट को सिख धर्म में जाने से रोकने के लिए "सत्यार्थ प्रकाश" लिखवा के उसमें "जाट" को "जाट जी" लिखवाया| और सब जानते हैं कि हमारी संस्कृति में "जी" जमाई के नाम के आगे लगाया जाता है|


तो कहने का मतलब यही है कि इनके किसी भी मिथ्या प्रचार में या प्रभाव में आ के मत भटको| ओ.बी.सी. और दलित भाई भोले हैं, वह लोग यह सोच बैठते हैं कि मंडी-फंडी ने तुम्हें थोड़ा सा मान दे के उकसाया और तुम जाट के खिलाफ बोले और तुम ब्राह्मण के बराबर आ गए|


किसी भी ओ.बी.सी. भाई को इस बात का बहम हो तो वह यह याद रखे कि ब्राह्मण से 'जी' शब्द सिर्फ "जाट जी" ही कहलवा सकता है| इसलिए ज्यादा बहम में ना पड़ के, जाटों के साथ मिलके आज के दिन के 27% से अपनी जनसँख्या के अनुपात का 62% आरक्षण लेने के लिए एक हो जाओ| नहीं तो ना कोई इधर का रहेगा और ना उधर का|


और जाट भी अब अपनी धार्मिक मान्यता को स्थिरता प्रदान करें| याद रखें आप लोग चाहे जितने प्रयास कर लेना परन्तु यह आपके जींस में ही नहीं कि आप ब्राह्मण थ्योरी को धारण कर सको| क्योंकि ब्राह्मण थ्योरी जहां नौकर-मालिक की संस्कृति पर चलती है, वहीँ जाटों की 'सीरी-साझी' की संस्कृति पर चलती है| और इन दोनों का मेल ना तो वैचारिक तौर से हो सकता है और ना ही व्यवहारिक तौर से|


इसलिए जितने भी जाट इस नौकर-मालिक की ऊंच-नीच की संस्कृति में पड़, दलित या ओबीसी को अपने से छोटा-बड़ा समझने लगते हैं, फिर उसी का फायदा उठा मंडी और फंडी आप लोगों में फूट डलवाता है| लेकिन अगर अपनी 'सीरी-साझी' यानी नौकर को नौकर नहीं अपितु पार्टनर समझने की संस्कृति पे कायम रहोगे तो ना दलित आपसे दूर होगा, ना ओबीसी और ना मुस्लिम|


असल में यह लड़ाई है ही "नौकर-मालिक" बनाम "सीरी-साझी" सभ्यता की| जो इसको जितना जल्दी समझ के अपने "दादा खेड़ा धर्म" में सम्पूर्ण ध्यान लगा एक रहेगा, वो आर्थिक-आध्यात्मिक-सामाजिक-शारीरिक सब तरह से सक्षम और खुशहाल रहेगा अन्यथा कुत्तेखानी जैसी यह स्थिति और बद से बदतर होती चली जाएगी|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक      

Friday, 24 April 2015

किसान सरकार और भगवान के भरोसे ना रहे| - नितिन गडकरी!

भगवान की तो बात आप छोड़ ही दो गडकरी साहब, रही सरकार की, तो एक तो यही बात जब दोबारा वोट लेने उतरो तो इसको 'चुनावी जुमला' बना के उतारना, अच्छे से पता लग जायेगा कि किसान आपके भरोसे है या आप किसान के|

दूसरी रही बात सरकार के भरोसे रहने वाली, ऐसा है जनाब आढ़त पे बैठ के किसान से बैर करना, घोड़े का घास से मुंह फेर लेने जैसा होता है| याद रखिये घास का तो घोड़े बिना काम चल जायेगा, पर घोडा दो दिन में भूखा मर जायेगा| और यहां यह घोडा आप हो और किसान घास| जिस दिन किसान ने पूरे FMCG sector को आप जैसों द्वारा सेकेंडरी प्रोडक्ट (secondary product) बनाने हेतु रॉ मटेरियल (raw material) रुपी अपना प्राइमरी प्रोडक्ट (primary product) ना देने का जाम बिठा दिया ना, उस दिन सारी अक्ल ठिकाने आ जाएगी| परजीवी हो के इतने बड़े बोल सजते नहीं आपके मुंह पे|

इसीलिए तो कहता हूँ, कि ऐसे लोगों को रेल-रोड जाम करने, जेल भरने या दिल्ली का दूध-पानी रोकने की भाषा समझ में ना आया करती, सारे किसान मिलके एक बार यह प्राइमरी और सेकेंडरी प्रोडक्ट के बीच की कनेक्टिविटी (connectivity) तोड़ के, एक महीना भी व्यापारियों से खाने-पीने के सामान को छोड़ (खाने-पीने का सामान भी इसलिए ताकि किसी व्यापारी का बच्चा बिना दूध के ना बिलखे) और इन धर्म के ठेकेदारों को दान-दक्षिणा और भाव ना देने का असहयोग आंदोलन चला दें तो नितिन गडकरी तो क्या, जनाब के फ़रिश्ते भी आके यह ना कहें तो कि 'हे किसान देवता, आप ही पालनहार हो, गलती हो गई माई बाप तोहफा कबूल करो!"
और ठेठ देशी समझ में आती हो तो देशी में सुन लो गडकरी बाबू, "दो दिन सिर्फ दो दिन तो गुजारे हमारे खेतों में हल पकड़ के, अगर ना आपके हांडे से पेट में भरी हवा फुस्स हो के खस्स हो जाए तो"।

अरे हम तो व्हट्स-एप्प, ट्विटर, फेसबुक वालों से जैसे मोबाईल कंपनियां रॉयल्टी/हिस्सेदारी मांग रही हैं, इंफ्रा प्रोवाइड करवाने की ऐसे देश के जीडीपी में खेती से आने वाले उस रॉ मटेरियल जिसके दम पे आपका पूरा FMCG sector चलता है, उसकी रॉयल्टी भी नहीं मांग रहे; फिर भी हमें चैन से ना जीने दे रहे| कसम दादा खेड़े की जिस दिन यह रॉयल्टी मांगनी शुरू कर दी ना तो जो यह खेती के नाम पे सिर्फ 14% जीडीपी दिखा रहे हो, यह 14 से 40 ना दिखे तो| शर्म कर लो जनाब कुछ! - फूल मलिक

क्या फर्क है 16/12/2012 में और 22/04/2015 में?:

फर्क सिर्फ इतना है कि 16/12/2012 को दिल्ली में 6 सिरफिरों ने एक लड़की का रेप किया था, और आज उसी दिल्ली में सिस्टम और सरकार दोनों ने मिलके किसानियत का रेप किया है|

गजेन्द्र सिंह राजपूत, किसान दौसा-राजस्थान की मौत, संसद भवन से सिर्फ पांच-सौ मीटर दूर जंतर-मंतर पर और सारा मेट्रो तबका सोया सा लगता है या अभी तक किसी को खबर नहीं मिली है जो तमाम मोमबत्ती गैंग अभी तक गुल हैं? या मेट्रो में रहने वाले इस रेप को रेप ही नहीं मानते? क्यों नहीं कोई निकला आज दिल्ली की सड़कों पर मोमबती ले के अभी तक?

क्या यह सिस्टम और सरकारों द्वारा खुले-आम किसानियत का रेप नहीं?

चलो कम से कम इस गूंगी-बहरी सरकार के गुर्गे अब यह तो नहीं कहेंगे कि किसान आत्महत्या नहीं कर रहे|

काश आज दिल्ली के जंतर-मंतर पर गजेन्द्र सिंह राजपूत की फांसी की जगह कोई गाय काटी गई होती, तो लाशें बिछ गई होती|| पर यदि कोई खेती की वजह से मर जाए तो कोई नहीं पूछता|

एक जानवर की रक्षा के लिए सजा का प्रावधान और उसी जानवर को पालने वाले व् देश-समाज को अन्न देने वाले किसान के लिए कोई इंडिया गेट पर एक मोमबत्ती भी नहीं लेकर निकला अभी तक? फिर उसकी सुरक्षा हेतु सजाओं के प्रावधान या कानून तो सपनों की बात हो चली|

वाह रे निरंकुशो और हृदयहीनों, गाय का दूध पीकर गोरक्षा करते हो और किसान का अनाज खाकर उसे मरने के लिए छोड़ देते हो। तुम्हारे चाक-चौबारों के बगल में अन्न पैदा करके तुम्हारा पेट भरने वाला, कपास पैदा करके तुम्हारा तन ढंकने वाला और गन्ना पैदा कर तुम्हारे पानों का स्वाद मीठा करने वाला, वो किसान फांसी झूल गया और तुम अंदर दुबके बैठे हो|

वाकई नराधमों का देश है ये|

सुध ले लो ओ इन गायों के रखवालों की रखवाली करने वालो, इनकी गायों को तो यह खुद बचा लेंगे, तुम पहले अपने को सम्भालो ओ किसानो; ये ना निकालेंगे अपने चौबारों से, तेरे लिए| 

किसान पर एक्सपेरिमेंटल राजनीति का दौर है यह: रहबरे-ए-आजम राय बहादुर दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम से लेकर चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, चौधरी देवीलाल, चौधरी बंसीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत तक, आप सबकी रैलियों में लाखों-लाख किसान पहुंचा करते थे अपने दुःख लेकर, पर क्या मजाल किसी को कभी खरोंच तक भी आई हो| सब सही सलामत घर वापिस पहुँचा करते थे, फिर भरी सभा में आत्महत्या तो सपनों जैसी बात है| निसंदेह यह किसान की भले की राजनीति का दौर नहीं, वरन किसान पर हो रही एक्सपेरिमेंटल राजनीति का दौर है|

जहां प्रधानमंत्री वास्कोडिगामा बने विश्व-भ्रमण में मशगूल हैं, अमेरिका जाते हैं, ऑस्ट्रेलिया - फ्रांस जा आते हैं, परन्तु वहाँ पे यह तक खोज के नहीं लाते कि उनके किसान इतने खुशहाल क्यों हैं| और एक जनाब तो सिर्फ बीस गज की दूरी पर उनकी रैली में फांसी पर झूल जाने वाले गजेन्द्र सिंह राजपूत किसान को ही नहीं बचा पाते और रैली भर लेते हैं समूचे किसान समाज का ठेका उठाने को|

किसी ने सही कहा है, "जब बनिया हो हाकिम, ब्राह्मण शाह और जाट मुहासिब तो जुल्म खुदा|" - फूल मलिक

इससे पहले कि आपके दादे-खेड़े आपसे और ज्यादा रूष्ट हों, छोड़ द्यो इनका पूंजड़!


दो-चार हिन्दुओं के धर्मपरिवर्तन कर इधर-उधर हो जाने वालों पर धरती-पाताल एक कर देने वाले योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, तमाम शंकराचार्य और साध्वियां व् इनके भगतगण किधर हो आप लोग; यह देखो यहां दो-चार नहीं रोज-की-रोज दर्जनों किसान आत्महत्या कर धर्म तो क्या गृह ही परिवर्तित किये जा रहे हैं; और यह तमाम हिन्दू हैं|

तुमको तो पहले से ही ज्यादा हिन्दू चाहिए ना, क्योंकि मुस्लिमों से लोहा जो लेना है| इसीलिए तो एक-एक हिन्दू औरत को 4-5 बच्चे पैदा करने की गुहार लगाते हो? अरे पहले जौनसे धरती पर हैं उनको तो संभाल लो या तुम्हारी सरकारों से सम्भलवा दो|

यह लोग तो शायद ना सुनें, परन्तु ओ जाटो-जमींदारों-किसानों की औलादो, तुम ही संभल जाओ, क्या इन हालातों को देखने के बाद भी इनके ही पूंजड़ पकडे रहने को मन मान रहा है? सुध लो अपनी स्वछंद छवि और मति की, आप तो खुद "देवता" होते आये हो इस समाज के| यह तो खुद दो दाने पैदा करके पेट नहीं भर सकते अपना, उसके लिए भी आपपे निर्भर हैं तो आपका क्या ख़ाक भरेंगे|

सच कह रहा हूँ, इससे पहले कि आपके दादे-खेड़े आपसे और ज्यादा रूष्ट हों, उनकी आत्माएं रोवें और आपको ही धिक्कारें, छोड़ द्यो इनका पूंजड़| - फूल मलिक

Friday, 17 April 2015

गुरु-नानक देव जी को छोड़ कर बाकी सब सिख-गुरु एक ही खानदान के!

मुझे नहीं पता आप में से कितनों ने यह बात आज तक गौर की है, परन्तु जहां पहले मैं यह कहता था कि सिख धर्म के दसों गुरु एक ही जाति के हैं, अब नई बात यह मिली कि प्रथम गुरु नानक जी को छोड़ के बाकी सब गुरु एक ही खानदान के हुए हैं| यह देखिये:

1) गुरु नानक देव जी ने उनके शिष्य लहना जी उर्फ़ गुरु अंगद जी को दूसरा सिख गुरु घोषित किया|

2) गुरु अंगद जी की बेटी तीसरे सिखगुरु गुरु अमरदास जी की भतीज बहु थी| भतीज बहु से गुरु अमरदास जी ने प्रेरणा ली और गुरु अंगद देव जी के पास पहुंचे और तीसरे सिख गुरु बने|
 

3) तीसरे गुरु अमरदास जी के बाद उनके जमाई गुरु रामदास जी चौथे सिख गुरु बने|

4) चौथे गुरु रामदास जी के छोटे सुपुत्र गुरु अर्जनदेव जी सिख धर्म के पांचवें गुरु बने (इनको जाट सिख बाबा बुड्ढा जी को दरकिनार कर गुरु बनाया गया था)|
 

5) पांचवें गुरु अर्जन देव जी के बाद इनके बेटे गुरु हरगोबिन्द जी को छटा सिख गुरु बनाया गया|
 

6) छटे गुरु हरगोबिन्द जी के बाद इनके पोते (पोत्र) गुरु हर राय जी सातवें गुरु बने|
 

7) सातवें गुरु हर राय जी के बाद इनके बेटे गुरु हर किशन जी आठवें गुरु बने|
 

8) आठवें गुरु हर किशन जी के चचेरे दादा गुरु तेगबहादुर जी नौवें गुरु बने|
 

9) नौवें गुरु तेगबहादुर जी के सुपुत्र गुरु गोबिंद सिंह जी दसवें गुरु बने|

मैं यह तथ्य लिखते हुए न्यूट्रल हूँ और सिर्फ जानकारी हेतु आपके समकक्ष रख रहा हूँ| इससे आप आगे क्या निष्कर्ष निकालते हैं, यह आपके विवेक और सूझबूझ पर है| - फूल मलिक

"कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ए इन्सान" सबसे बड़ा छलावा है!

यह पंक्ति मंडी-फंडी द्वारा अपने रास्ते खुले रखने के लिए बनाई गई है, कि किसान और कमेरा को हम इस पंक्ति के सहारे लूटते रहें और वो इसको आगे रख के गधे की तरह बस उनके लिए खेतो-क्यारों में कहीं किसान तो कहीं मजदूर बनके खटता रहे|

वर्ना जरा यह तो बता दो कि यह लोग खुद ऐसा कौनसा काम करते हैं जिसका फल पहले निर्धारित करके, उसके अनुसार अपेक्षित कार्य-योजना बना के कार्य ना करते हों?

अगर कॉर्पोरेट वाले इस लाइन के सहारे काम करने लग जाएँ तो उनके वर्क (work) की असेसमेंट (assessment) के फंडे किसलिए हैं| वर्क (work) का स्वोट एनालिसिस (SWOT Analysis) से ले के उसके इम्प्रोवमेंट्स (improvements) के स्कोपस (scopes) पे वर्कआउट (workout) क्यों करवाया जाता है?
कर्म की भूल से सीख ले के आगे बढ़ने की प्रेरणा लेने की बात क्या दर्शाती है कि अगर कर्म का फल आशानुरूप नहीं आया तो उसका अध्ययन करो और फिर नए सिरे से शुरू करो|

तो जरा मंडी-फंडी आये खुले मंच पे और साबित करे कि वो लोग गीता की इस पंक्ति को खुद भी फॉलो करते हैं|
इस पंक्ति का दूसरा उद्देश्य है अपनी कमियों को छुपाना और कहीं कोई इनकी असफलताओं पर प्रश्न-चिन्ह ना लगा दे उससे बचना:

उदाहरण:

1) सोमनाथ के मंदिर की लूट के लिए कौन जिम्मेदार था, आजतक निर्धारित नहीं| जबकि उसी लूट के लुटेरे महमूद ग़ज़नवी से इस लूट को छीनने वाले जाटों को तो लुटेरा तक भी लिख दिया गया है? क्या यही वो फल है, जिसकी चिंता ना करने की सलाह इस पंक्ति के जरिये दी गई है?

2) पृथ्वीराज चौहान द्वारा मोहम्मद गौरी को हराने और कैद करने के बाद फिर भी माफ़ी दे के छुड़वाने वाले लोग कौन थे? क्यों नहीं उन लोगों ने आजतक भी इस बात की जिम्मेदारी ली कि हाँ हमने गौरी को छुड़वाने की गलती की तो पृथ्वीराज की हत्या हुई और इस तरह हम इसके सीधे जिम्मेदार हैं|

3) अरब के व्यापारियों के साथ दुर्व्यवहार किसके और कौनसे व्यापारियों और राजदरबारियों ने किया; जिसकी वजह से कि भारत में बिन कासिम के रूप में पहला मुग़ल एंट्री मारा|

4) देश के गद्दारों के नाम पर जयचंद का ही नाम क्यों उछाले जाते हैं, वो पंडित नेहरू के दादा पंडित गिरधर कॉल का नाम किधर है, जिन्होनें महाराजा नाहर सिंह को धोखे से बुला चांदनी-चौक दिल्ली पर अंग्रेजों के हाथों फांसी लगवाई थी?

5) वो शोभा सिंह (लेखक खुशवंत सिंह के पिता) किधर हैं, जिनकी गवाही पर शहीद-ए-आजम भगत सिंह को फांसी हुई थी?

6) वो जोधा को अकबर से ब्याहे जाने का कलंक रुपी श्राप राजपूत समाज पर लगाने वाले सलाहकार किधर हैं, जिनके कहने पे यह ब्याह हुआ?

और भी ऐसे ही अनगिनत किस्से और उदहारण, किधर हैं इनके जिक्र, इनके जिक्र एक इस कहावत की आड़ में छुपे बैठे हैं कि 'कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ए इन्सान!'

और अब इसी लाइन को आगे अड़ा के कहीं ना कहीं यह लोग सरकार और प्रकृति की मिलीझुली मार से घायल किसान को कंट्रीसाइड में चिंता ना करने का पाठ पढ़ा के और ऐसी मेहनत करने का घोटा चढ़ा रहे होंगे जिसकी डोर इनके इशारों पे चलती सरकारों के हाथ में है| - फूल मलिक

Thursday, 16 April 2015

'जींद' शब्द 'जैन्तापुरी' से 'जिंद' के ज्यादा नजदीक लगता है!


कारण: जींद एक सिख जाट रियासत रही है| और पंजाबी भाषा का एक शब्द है "जिंद" यानी जान| वो गाना सुना होगा बॉलीवुड का, "जिंद ले गया वो दिल का जानी, ये बुत बेजान रह गया"| यही इस गाने वाला ही "जिंद"।
अब ठीक है एक शहर के नाम का एक वर्जन यह भी है कि इसका नाम अपह्र्न्श हो के 'जैन्तापुरी' से आया हो, परन्तु क्या एक बार जींद के शाही परिवार या शाही रिकॉर्डों से यह चीज कन्फर्म नहीं करवाई जानी चाहिए कि "जींद", "जिंद" से बना है या "जैन्तापुरी" से? वैसे भी हिंदी में उच्चारण करते हुए पंजाबी शब्द "जिंद" को बहुतेरे "जींद" बोल देते हैं| और क्योंकि यह रियासत तो सिख जाटों की रही परन्तु है हिन्दू-बाहुल्य, इसलिए हिंदी-भाषी क्षेत्र होते हुए 'जिंद' की जगह 'जींद' बोलने में आ जाता है|

इसके अलावा इंग्लिश व् ब्रिटिशर्स सबके रिकार्ड्स में इसकी स्पेलिंग "JIND" लिखी हुई है, "JEEND" नहीं| तो साफ़ है कि अगर यह जींद रहा होता तो रिकार्ड्स में भी JEEND लिखा गया होता| इंग्लिश में हिंदी की छोटी इ की मात्रा लिखने के लिए "I" का प्रयोग होता है और बड़ी ई की मात्रा लिखने के लिए "EE" का| इससे भी साफ़ स्पष्ट है कि जींद, जैन्तापुरी का नहीं अपितु जान वाले 'जिंद' शब्द से बिगड़ के 'जींद' बना है| तमाम गूगल जैसे सर्च इंजन की ट्रांसलेशन स्क्रिप्ट हों या और ट्रांसलेशन टूल हों, सब छोटी इ की मात्रा लिखने के लिए "I" का प्रयोग करते हैं और बड़ी ई की मात्रा लिखने के लिए "EE" का| तो इससे स्पष्ट है कि ब्रिटिशर्स ने इंग्लिश रिकार्ड्स बनाते वक्त इसकी स्पेलिंग "JIND" लिखी "JEEND" नहीं|

और आप पंजाब या पंजाबी भाषी क्षेत्रों में निकल जाओ, वहाँ लोग इसको "जिंद" ही बोलते हैं, "जींद" नहीं| दिल्ली तक में बहुतों को इसको "जिंद" कहते तो मैंने खुद भी सुना है| - फूल मलिक

http://www.chandigarh.amarujala.com/photo-gallery/wonderful-religious-place-where-is-ramayana-nad-mahabharata-too/

राखी-गढ़ी, हिसार में मिले हड़प्पा-मोहनजोदड़ो कालीन नर-कंकाल और हमारी सभ्यता पर उठते सवाल!

पहली तो बात इन्होनें पूरे इतिहास को ही उलझा के रखा है; रामायण-महाभारत के रचयिताओं, संरक्षकताओं और प्रचारकों व् इनको वैधानिक तौर पर सत्य बताने वाली पीठों-सीटों-संस्थाओं (वैसे मुझे आजतक यही ही नहीं पता चला कि इन मामलों पर सत्यता की मोहर लगाने वाली "फाइनल अथॉरिटी" है कौन हमारे धर्म में) तक में एक मत नहीं कि इनका सही-सही काल रहा कौनसा| कोई इनको 5000 साल तो कोई 100000 साल तो कोई 2000 साल तो कोई मेरे जैसा इनको मानवरचित कल्पना बताते हुए सातवीं-आठवीं सदी के इर्द-गिर्द लिखी हुई बताता है|

परन्तु राखी-गढ़ी में मिले यह नर-कंकाल इन दावों को और पेचीदा ही करने वाले हैं| क्योंकि कंकाल तो दफनाए हुए के मिला करते हैं, जबकि हिन्दू धर्म में तो मृत-शरीर को जलाने की रीत है और वो भी आज से नहीं महाभारत और रामायण के काल से| पांडव के संग उनकी दूसरी पत्नी माद्री का सति-प्रथा के तहत उनके साथ चिता में जलना, जैसे उदाहरण इसका प्रमाण हैं|

अभी हाल में स्टार-प्लस पर प्रसारित हुई महाभारत में घटोत्कच के शरीर को गोबर-उपलों की चिता पे रख के जलाया दिखाया जाना, निसंदेह महाभारत की उस कॉपी की तरफ इशारा करता है जिसको रिफरेन्स बना के यह सीन दर्शाया गया; जो कि अभी कुछ ही दिन पहले सोशल मीडिया पर वायरल हुए हिमाचल प्रदेश में मिले एक दानवरूपी कंकाल को घटोत्कच का बताये जाने से विरोधाभास खड़ा करता है| क्योंकि घटोत्कच तो हिन्दू था और उसको जलाया जाता है, दफनाया नहीं| अब कोई महामूर्ख यह तर्क लेते हुए मत आ जाना कि हिन्दू धर्म में मानवों को जलाया जाता था और दानवों को दफनाया| फिर मैं उसको रावण (एक राक्षस) की चिता में विभीषण द्वारा मुखाग्नि देने का उदहारण उठा लाऊंगा|

बुद्ध धर्म में भी इसके स्थापनकाल से मृत शरीर को जलाने की ही रीत है| तो फिर ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि या तो इन मृत-कंकालों के खोजकर्ताओं ने इनको हड़प्पाकालीन बताने में जल्दबाजी की है अथवा यह कंकाल जरूर मुग़लों के भारत आने के बाद किन्हीं मुग़लों के होंगे| अन्यथा यह कंकाल वास्तव में हड़प्पाकालीन हैं तो क्या उस वक्त भी यहां मुस्लिम जैसा कोई धर्म था? कम से कम इनका दफनाया हुआ पाया जाना, हिन्दू, सनातन, आर्यसमाजी, बुद्धिज़्म व् सिखिस्म धर्मों के अनुरूप तो है नहीं|

तो फिर यह हड़प्पा-मोहनजोदड़ो किसकी सभ्यता है जिसको हम अपनी बता के, खुद को प्राचीनतम मानवजाति व् सभ्यता बताने का दम्भ भरते आये हैं? - फूल मलिक

reference source: http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/04/150415_hisar_harappan_civilisation_skeleton_found_sr.shtml

भैंस का दूध मल्टीटास्किंग होता है जबकि गाय का दूध सिंगल-टास्किंग!


गाय का बछड़ा एक वक्त में एक ही काम कर सकता है, या तो उसको सांड बना के प्रजनन के लिए रख लो या फिर उसको "उन्ना" बना के यानी उसकी प्रजनन नली बंद करके हल में जोड़ लो|

जबकि भैंस का कटड़ा, दोनों काम एक साथ कर लेता है, यानि बोझा ढुवा लो या बुग्गी-ट्राली में जोड़ लो या सेम टाइम प्रजनन करवा लो| इससे भी बड़ी बात, सर्विदित है कि जहां कोर लोड का काम होता है वहाँ भैंसे, बैलों से ज्यादा कामयाब होते हैं| तमाम हरियाणा से पश्चिमी यू. पी. में गन्ने से भरी बुगियों को कीचड भरे खेतों से निकालने के लिए हट्टे-कट्टे झोटे ही ले जाए जाते हैं, बैल नहीं|

बैल सिर्फ हल्का-फुल्का बिना ज्यादा दबाव का ही काम कर सकता है वो भी "उन्ना" बनाने के बाद, जबकि भैंसा मस्त-मौला कहीं से भी भरी गन्ने की बुग्गी को उखाड़ ले जाता है|

विशेष: यह लेख उन लोगों के लिए एक ओपन डिबेट है जो सारे किसान समाज को गाय या भैंस में से कौनसा जानवर बढ़िया है की हठधर्मिता वाली शिक्षा देते फिरते हैं| और मेरा कहना है कि अगर तुलना करने लगोगे तो भैंस ज्यादा उपयोगी है गाय की अपेक्षा, लेकिन फिर भी कहूँगा कि दोनों में कुछ ऐसे गुण भी हैं जो एक के दूसरी से ज्यादा बेहतर हैं, इसलिए यह फैसला गाय या भैंस पालने वाले पे छुड़वा के इन तथाकथित फंडियों के ऐसे उपदेशों को दरकिनार किया जावे|

इससे भी जरूरी जानवर पालना किसान का कारोबार है धर्म नहीं, धर्म वालों को अगर किसी जानवर में उनकी माँ या बाप दीखता है तो ले जा के अपने धर्म-स्थलों में बाँध लेवें|

कोई आपसे अगर यह पूछे या कहे कि भैंस की जगह गाय क्यों नहीं पालते तो कहना:

नाथ परम्परा पे हमारे गाँवों के तरफ यह कहावत है कि, "मसोहका गोक्के पै नहीं जायेगा, परन्तु गोक्का मसोहके पे भी चला जाता है", यानी खागड़ इतना कामांध होता है कि वो भैंस-गाय में फर्क नहीं कर पाता परन्तु झोटा यानी भैंसा इतना सूझबूझ वाला होता है कि वह यह फर्क कर लेता है| इससे आप अंदाजा लगा लीजिये कि हमारे इधर नाथ परम्परा वालों को कामांध मानते हैं| और यह बाकायदा जांचा-परखा तथ्य है, किसी को पुष्टि करनी हो तो पांच-दस दिन - महीना भैंसों-गायों-खागड़-झोट्टों के झुण्ड का गवाला बन के खुद परख लो|

और खागड़ की इसी कामान्धता पे हमारे यहां एक कहावत और है कि "फलानि धकड़ी बात, तू के सांड छूट रह्या सै, आया बड़ा गोरखनाथ का चेल्ला, जाँदा नी!" बाकी मुर्राह भैंस देशी गाय से ज्यादा दूध देती है यह तो विश्वविख्यात है ही|

परन्तु फिर भी समझ नहीं आता कि लोग गायों के पीछे इतने पागल हुए क्यों फिर रहे हैं, क्या समाज के अंदर कामांधों (lustfull jerks) की संख्या बढ़ानी है?

अब पत्थर-जानवर पूजने-पुजवाने का नहीं, लोहे की आराधना का जमाना है:

खेती में काम आने की वजह से ही अगर कोई मेरा माँ-बाबू (तुम्हारी परिभाषा में, हमारी में तो जो जानवर थे वो जानवर हैं, और जो मशीनें हैं सो वो तो मशीनें हैं ही) बन जाता है, या कहा जाता है तो मैं आज से ट्रेक्टर-ट्राली को मेरा माँ-बाबू घोषित करता हूँ| क्योंकि जबसे किसान के घर में जन्म लिया है तब से ले के आजतक ट्रेक्टर-ट्राली ने ही मेरा पेट पाला है| सो आपकी परिभाषा के अनुसार (मेरी नहीं) आज से कोई सफेद जानवर नहीं अपितु यह मशीनें मेरे माँ-बाबू|

फंडियो जी किसानों ने तो टेक्नोलॉजी के सहारे इतनी तरक्की कर ली और आप हो कि अभी तक सातवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जी रहे हो| ये देखो यहां गाय-बैल की जगह अब ट्रेक्टर-ट्राली हमारे माँ-बाबू बन चुके| तुम भी अपडेट करो अपने फंड रचने की कला को; ताकि फिर उसका आगे और कोई तोड़ निकालें हम|

अब पत्थर-जानवर पूजने का नहीं, लोहा पूजने का, ओह नहीं पूजना नहीं, उसकी आराधना करने का जमाना है|

गाय हमारी माता है, बैल हमारा बाप है के दिन.... गए रे भैया, गए रे भैया!
 ट्रेक्टर हमारा पापा और ट्राली हमारी मम्मा, के दिन .... आये रे दैया, हाय रे दैया ....

जय यौद्धेय! - फूल मलिक