Monday 4 May 2015

ये मंडी-फंडी जाट को तीनों-जहान से खो के मानेंगे:

(यह लड़ाई है "नौकर-मालिक" बनाम "सीरी-साझी" सभ्यता की)


1) 1991 में जाटों द्वारा बनाया गया लगभग 80 बरस पुराना 'अजगर' (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) गठबंधन तोड़ के ये माने|
2) 2005 में हरयाणा में कभी गोहाना तो कभी मिर्चपुर कांड करवा के जाट-दलित का भाईचारा ये बिखरा के माने|
3) 2013 में मुज़फ्फरनगर दंगे के जरिये 1857 से चला आ रहा जाट-मुस्लिम भाईचारा, हिन्दू-मुस्लिम के पचड़े में पड़वा के तुड़वा के ये माने|
4) 2015 में अब जाट - ओ.बी.सी. भाईचारे पे इनकी नजर आन जमी है| और इनकी चली तो इसको भी तुड़वा के दम लेंगे|


और जाट हैं कि फिर भी एक नहीं हो रहे? जाटों इससे भी बड़ी बर्बादी की बाट जोह रहे हो क्या?


इसमें समझने की बात यह है कि जाट ही अकेली ऐसी कौम है जिसको ब्राह्मण ने "जाट जी" कहा है| जाट ही एक ऐसी कौम रही है जो ब्राह्मण के किसी सभा में आने पे खड़ी नहीं होती| वर्ना राजपूत तक इनके आने पे खड़े हो के प्रणाम करते हैं इनको| राजपूत तक को भी इन्होनें कभी 'जी' लगा के नहीं बोला| 1875 में जब आज का हरयाणा अंग्रेजों ने पंजाब में दिया था तो सिख धर्म के प्रभाव के चलते सारे जाट सिख धर्म की तरफ रूझान करने लगे थे, तब 1875 में ब्राह्मणों ने मुंबई में दयानंद सरस्वती को यह जिम्मा सौंपा और जाट को सिख धर्म में जाने से रोकने के लिए "सत्यार्थ प्रकाश" लिखवा के उसमें "जाट" को "जाट जी" लिखवाया| और सब जानते हैं कि हमारी संस्कृति में "जी" जमाई के नाम के आगे लगाया जाता है|


तो कहने का मतलब यही है कि इनके किसी भी मिथ्या प्रचार में या प्रभाव में आ के मत भटको| ओ.बी.सी. और दलित भाई भोले हैं, वह लोग यह सोच बैठते हैं कि मंडी-फंडी ने तुम्हें थोड़ा सा मान दे के उकसाया और तुम जाट के खिलाफ बोले और तुम ब्राह्मण के बराबर आ गए|


किसी भी ओ.बी.सी. भाई को इस बात का बहम हो तो वह यह याद रखे कि ब्राह्मण से 'जी' शब्द सिर्फ "जाट जी" ही कहलवा सकता है| इसलिए ज्यादा बहम में ना पड़ के, जाटों के साथ मिलके आज के दिन के 27% से अपनी जनसँख्या के अनुपात का 62% आरक्षण लेने के लिए एक हो जाओ| नहीं तो ना कोई इधर का रहेगा और ना उधर का|


और जाट भी अब अपनी धार्मिक मान्यता को स्थिरता प्रदान करें| याद रखें आप लोग चाहे जितने प्रयास कर लेना परन्तु यह आपके जींस में ही नहीं कि आप ब्राह्मण थ्योरी को धारण कर सको| क्योंकि ब्राह्मण थ्योरी जहां नौकर-मालिक की संस्कृति पर चलती है, वहीँ जाटों की 'सीरी-साझी' की संस्कृति पर चलती है| और इन दोनों का मेल ना तो वैचारिक तौर से हो सकता है और ना ही व्यवहारिक तौर से|


इसलिए जितने भी जाट इस नौकर-मालिक की ऊंच-नीच की संस्कृति में पड़, दलित या ओबीसी को अपने से छोटा-बड़ा समझने लगते हैं, फिर उसी का फायदा उठा मंडी और फंडी आप लोगों में फूट डलवाता है| लेकिन अगर अपनी 'सीरी-साझी' यानी नौकर को नौकर नहीं अपितु पार्टनर समझने की संस्कृति पे कायम रहोगे तो ना दलित आपसे दूर होगा, ना ओबीसी और ना मुस्लिम|


असल में यह लड़ाई है ही "नौकर-मालिक" बनाम "सीरी-साझी" सभ्यता की| जो इसको जितना जल्दी समझ के अपने "दादा खेड़ा धर्म" में सम्पूर्ण ध्यान लगा एक रहेगा, वो आर्थिक-आध्यात्मिक-सामाजिक-शारीरिक सब तरह से सक्षम और खुशहाल रहेगा अन्यथा कुत्तेखानी जैसी यह स्थिति और बद से बदतर होती चली जाएगी|


जय यौद्धेय! - फूल मलिक      

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