Monday, 8 June 2015

मुझे हिन्दू धर्म के ज्ञाता-प्रणेता एक बात बताएं!


जब रामायण काल में एक दलित महर्षि शम्बूक की सिर्फ इस बात पे क्योंकि उन्होंने शास्त्रार्थ किया, शास्त्रों का अध्ययन और शिष्यों व् जनता में प्रवचन किया, राजा राम द्वारा उनकी हत्या करवा दी जाती है| तो ऐसे में यह कैसे सम्भव हो गया कि एक दलित बाल्मीकि इतना शास्त्रार्थ भी कर गए कि वो ना सिर्फ महर्षि बन गए वरन उनकी लिखी पूरी रामायण को भी धर्माधीसों ने मान्यता दे डाली? और इससे भी बड़ी बात उनको रामायण लिखने भी दी गई, वो भी निर्विरोध|

और जब उस काल में एक दलित का शास्त्रार्थ करना, अध्यापक बनना वर्जित था, वो भी इस हद तक वर्जित कि ऐसा दुःसाहस करने पर सीधी राजा द्वारा उनकी हत्या करवा दी जाती थी तो फिर महर्षि बाल्मीकि कौन थे, क्या वो वाकई दलित थे?

Such loop-holes make me to consider these creations as mythology i.e. the work of fiction (imagination) only. Such work is similar to America’s Disney and France’s Asterix character work. Only difference is that American and French are honest and sincere in accepting and admitting the work of imagination as imagination, history as history and then religion as religion; whereas ours, I think in front of examples like above, I don’t need to comment further.

Though curious to get my query clarified if any religious guru could make me understand on such a blunderous contradiction cited above.

Jai Yoddheya! - Phool Malik

Sunday, 7 June 2015

क्या इतना ही काफी नहीं है समझने को?


ओ दाऊद, ओ शकील, ओ पास्कल, ओ राजन, ओ दुबई के शेख, ओ लादेन और ओ आईएसआईएस तुम तो इंसानों का अपहरण करते हो, यह देखो हमारे तेलंगाना के पुजारी, इन्होनें तो सीधा भगवान का ही अपहरण कर डाला| अपनी तनख्वाह और सुविधाओं की मांगे मनवाने को डाक्की के चेल्लों ने पूरे तेलंगाना के अढ़ाई हजार के करीब मंदिरों पर ही ताले जड़ के सीधा भगवान का ही अपहरण कर लिया| कुछ सीखो इनसे|

पता नहीं इनका भगवान कैसा है, दिन-रात उसकी आरती करते हैं, माला जपते हैं और उसके डायरेक्ट ए...जेंट कहलाते हैं और फिर भी अपनी सुविधाओं की भरपाई के लिए इंसानों के मुंह तकते हैं| वैसे जनता तो चंदा भी देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती|

बाकी जनता मुझे एक बात बताये, जिस भगवान का अपहरण हो जाए, जो अपनी कैद ना छुटा पाये, वो भला इंसान की क्या रक्षा करेगा? क्या इतना ही काफी नहीं है समझने को कि भगवान के नाम पे दुकानें चलती हैं, भगवान चलता तो हिम्मत थी क्या कि यह उसके आगे ताला जड़ देते?

इनको तो भगवान का मजाक बनाते हुए भी शर्म नहीं आती, फिर आम इंसान को तो कठपुतली बनाने से क्या बाज आएंगे| क्या इससे मर्यादित तरीका ही नहीं मिला मांगें मनवाने का?

वैसे पूरे विश्व के धार्मिक इतिहास में भी ऐसा पहली बार हुआ होगा कि भगवान का ही अपहरण हो गया| गॉड-अल्लाह-वाहेगुरु-धम्म-पैगंबर धन्य हो तुम और तुम्हारे लोग जो तुम्हारी इतनी मर्यादा तो रखते हैं कि तुम्हारा अपहरण नहीं करते| तुम्हारी शर्म और प्रतिष्ठा बनाये रखते हैं|

Phool Malik

Source: http://zeenews.india.com/news/telangana/telangana-priests-temple-employees-on-strike_1607414.html

आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?


जब एक ब्राह्मण कारोबार बदलता है तो वो कभी भी पंडिताई अथवा पुरोहिती को बुरा बताते हुए नहीं छोड़ता; वरन उसके प्रति सम्मान रखते हुए, उस कार्य की प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

वैसे तो बनिया यानी व्यापारी वर्ग अपना कारोबार बदलता नहीं, परन्तु जब भी बदलता है तो उसकी भी यही कहानी रहती है कि वो उसके पुराने कार्य को सम्मान देते हुए उसकी प्रतिष्ठा को बरकरार रखता है|

ऐसे ही एक दलित उदाहरणतः एक मोची अगर मोची का कार्य छोड़ के नया पेशा करता है तो कभी भी मोची के कार्य की बुराई नहीं करता|

लेकिन जब एक किसान (मैं जाट किसान का बेटा हूँ तो मैंने जाट किसानों के यहाँ तो खूब देखा है) के बेटे को किसानी छोड़ कोई और कारोबार करने या सीखने की कहा जाता है तो हमेशा खेती के कार्य की बुराई करते हुए, उसकी कमिया-खामियां दर्शाते हुए उसको छुड़वाने या छोड़ने के लिए प्रेरित किया जाता है|

किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी पूजा करने को कहा जाता है| जो कार्य करते हो उसमें आस्था और सम्मान रखना सबसे जरूरी बात बताई जाती है| लेकिन किसानों का अपने कार्य के प्रति यह कैसा रवैय्या है कि किसान अन्नदाता जैसे कार्य को भी छोटा कहने लगता है| वजह साफ़ है बाकी सब कार्यों में चाहे वो पुजारी का हो, व्यापारी का हो, मजदूरी का हो, या फेरीवाले का हो; हर कोई अपने सामान-उत्पाद-वस्तु की अपने मुताबिक कीमत पाता है| यानी जिस कीमत पे चाहे उसपे सामान बेचता है, इसलिए कभी भी इन कार्यों में आपको लागत-बचत की शिकायत नहीं मिलती| जितना लगन और शिद्दत से करोगे उतनी कमाई पाओगे| जबकि किसानी की एक तो सदियों पुरानी समस्या यह कीमत निर्धारण रही है जो हमेशा से गैर-किसान करते आये हैं, दूसरा इसकी वजह से फिर किसान का स्वार्थी रवैय्या हो जाता है और इसी रवैय्ये की वजह से गाँव से शहरों को पलायन कर जाने वाले किसानों के बच्चे गाँव की तरफ वापिस तो मुड़ते ही नहीं हैं, साथ ही किसानी के उनके पुरखों के धंधे के पक्ष में भी नहीं बोल पाते हैं|

इससे होता यह है यह कि किसान के यहां से जो जनरेशन पढ़-लिख के इस काबिल बनी कि वो किसानी को ना सही कम से कम उसकी संस्कृति को तो शहरों में संभाले रखे, वो यह भी नहीं कर पाती है| क्योंकि उससे खेती से दूर होने की वजह स्वाभिमानी नहीं अपितु हीनकारी यानी हीन भावना वाली बताई जाती है| और इसी हीन भावना की वजह से किसान वर्ग आज भी झंझावतों में उलझा डोल रहा है|

किसान वर्ग को अपने बच्चों को खेती से बाहर निकलने की वजह बताने के तरीके बदलने होंगे, कृषि के कार्य की मर्यादा उनके आगे बनाये रखनी होगी| आखिर आप अन्नदाता का कार्य करते हो, वह तुच्छ कैसे बताया जा सकता है?

इस मुद्दे पर विस्तार से कभी फुरसत में लिखूंगा, फ़िलहाल इतना जान पाया हूँ कि किसान को यह अपनी औलादों से पेशे बदलवाने के तौर-तरीके बदल के, खेती की प्रतिष्ठा कायम रखनी होगी, और इसका सम्मान बनाये रखना होगा| हो सके तो किसान अब अपनी फसलों के मूल्य निर्धारण का अधिकार कैसे लेवें इसपे मंथन करने शुरू कर दें, जो कि इन सारी कार्य-संबंधी, संस्कृति के संकट संबंधी समस्याओं की जड़ है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 5 June 2015

धर्म के नाम पर विधवा-आश्रमों में फेंक दी जाने वाली विधवाओं का पालनहार कौन?

मेरा बस चले तो मैं खाम्खा के दंगों में इस्तेमाल किये जाने वाले नादान जाट युथ के गुस्से का मुख इन विधवा आश्रमों को तोड़ने की ओर मोड़ दूँ| जिनमें हजारों-हजार विधवाएं धर्म के नाम पर ढोंगभरे नारकीय जीवन की वेदना पर रेंगने को पिछले कर्मों के पाप-कर्म भोगने के नाम पर झोंकी गई हैं|

वाराणसी में 38000 विधवाएं धर्म की क्रूरता का शिकार हैं| औसतन 3000 वृन्दावन में रहती हैं| इसके अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल और अब तो सुना है करनाल में भी विधवा आश्रम खुल गया है| धुर हरिद्वार से ले हुगली तक तो गंगा के किनारे-किनारे लगभग हर शहर खासकर धर्मनगरी में तो खैर विधवा-आश्रमों की पूरी श्रृंखला ही है|

जहाँ एक तरफ जाटों ने सदियों से अपने यहां विधवाओं को पुनर्विवाह की स्वेच्छा दे रखी है, वहीं जब जाटबाहुल्य खापलैंड पर इन विधवा आश्रमों की सुनता हूँ तो खून दिमाग में चढ़ने लगता है| मन उद्वेलित हो उठता है कि अभी जाऊं और जैसे दादावीर हरफूल जाट जुलानी वाले गोहत्थों के बाड़े तुड़वाते थे, ऐसे ही इन विधवाओं के बाड़ों को तोड़, इन सब औरतों को मुक्त करवा, इनके पति के घरों में इनके प्रॉपर्टी राइट्स दिलवा दूँ| और जैसे अंग्रेजों ने सति-प्रथा के खिलाफ कानून बना के रोक लगाई, ऐसे ही सरकार से कानून बनवा दूँ कि जो भी विधवा को आश्रम भेजेगा उसको सीधा कालापानी भेजेंगे|

अंदर कहीं टीस है कि जिन जाटों और खापों की वजह से धर्म की क्रूरतम प्रथाएं जैसे कि नवजन्मा बच्ची को दूध के कड़ाहों में झोंकने की प्रथा (याद रहे यह प्रथा सर्वप्रथम राजस्थान से शुरू हुई थी, 'ना आना लाडो इस देश' टीवी सीरियल में बदनाम करने के मकसद से दिखाई गई जाटलैंड से नहीं), देवदासी, सतीप्रथा और विधवा आश्रम पलायन इनकी लाख कोशिशों के बावजूद भी जाटलैंड अथवा खापलैंड पर उस स्तर तक पैर नहीं पसार पाये, जिस तक कि आज इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाने पर भी यह देश के अन्य कोनों में मौजूद हैं; उन्हीं की धरती पर इन चीजों के पैर-पसरने लगे हैं|

जाटों की ऐसी ही मानवधर्म की स्वछंद पालना के समक्ष कई बार वेद-पुराणों की परिभाषानुसार निर्धारित चार वर्णों के अतिरिक्त पांचवा वर्ण कहा गया| यहाँ जोड़ता चलूँ कि वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने आर.एस.एस. द्वारा हरयाणा को अपनी प्रैक्टिकल लैब बनाने पे हरयाणा को land of reckless people (स्वछंद मति) का कहा तो उनका इशारा भी इसी स्वछँदता की ओर था| लेकिन उन्हीं जाटों की नजर तले आज विधवा आश्रम बढ़ते जा रहे हैं और यह नादान उलझे हुए गैर-जरूरी दंगों और आडंबरों में|

मीडिया भले ही जाटों को लाख औरत और दलित विरोधी बता ले, परन्तु अगर कभी किसी दलित की बेटी खापलैंड पर देवदासी नहीं बन पाई तो वो इन्हीं जाटों के इस स्वछंद साये की वजह से| कोई जाटनी तो क्या यहां तक कि खापलैंड की गैर-जाटनी भी विधवा होने पे विधवा आश्रम नहीं जा पाई तो इन्हीं जाटों की मानवधर्म पालना की प्रेरणा और प्रभाव से| काश जाट और इनका युवा अपने इस मानवीय धर्म को पहचान के औरतों के प्रति इस क्रूरतम सोच वाले तबके के चंगुल से निकल के अपनी ऊर्जा को जाटलैंड पर पसरते जा रहे इन विधवा आश्रमों को उखाड़ फेंकने में लगाए|

लेकिन इन मुद्दों पर आज जो उदासीनता पसरी पड़ी है उसी से अंदाजा लगा सकता हूँ कि जाट-समाज की स्वछँदता को दिन-प्रतिदिन घुण लगता जा रहा है| तभी तो छद्मज्ञानी लुटेरे धर्म की आड़ में अपने प्रवचन और पाखंड की दुकानें बढ़ाते ही जा रहे हैं|

कहीं जाट को जाति की बहस में उलझा रखा है तो कहीं वर्ण की तो कहीं धर्म की| और जिसने औरतों के लिए ऐसी क्रूर प्रथा और रूढ़ियाँ बनाई वो समाज में जाति की उंचता और नीचता के सर्टिफिकेट बाँटते हैं| इसलिए इन बातों पे बहस करने से पहले मैं यह सोचता हूँ कि यह जाति-वर्ण-धर्म के प्रति कट्टरता के सर्टिफिकेट ले भी लूँगा तो क्या समाज की विधवा औरतों को विधवा आश्रमों में भेजने के लिए, अथवा नवजन्मा बच्चियों को दूध के कड़ाहों में झोंकने के लिए अथवा दलितों की बेटियों को देवदासियां बनवाने में सहयोग देने के लिए? मुझे लगता है कि इंसान को इंसान की सोच का स्तर और मुद्दा देख के बहसों में उलझना चाहिए|

धर्मभीरु सियार आन चढ़े हैं धरती पे तेरी ओ जाट, सोच-समझ के न्याय करवाना,
पुरखों ने तेरे, नारी को सति-देवदासी-विधवा ना बनने दिया, प्रण निष्ठां से पुगाना|
जाट-देवता यूँ ही ना कहलवाया, ऐसे भीरुओं के मुंह मोड़े तब यह सम्मान कमाया,
बहुत हुआ शरणार्थियों की शर्म में, स्व-संस्कृति भूलने का आत्मघाती अफ़साना||
धार ले धरा के धर्म को अब, तुझे मंदिर-मस्जिद नहीं, मानवता को है बचाना||

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Source:
1) वृन्दावन – स्वर्ग की सीढ़ियों पर नरक की परछाइयाँ - www.hastakshep.com/hindi-news/khoj-khabar/2015/06/02/वृन्दावन-स्वर्ग-की-सीढ़ि?
2) वाराणसी में रह रहीं 38 हज़ार विधवाओं की ज़िंदगी में बदलाव की उम्मीद - http://khabar.ndtv.com/video/show/news/widows-of-varanasi-369201

Wednesday, 3 June 2015

क्या कभी सुना है कि किसी भारतीय रियासत का खजांची एक दलित हुआ हो?


जी हाँ, जहाँ दूसरी जातियों के राजा-रजवाड़े वर्ण व् जातिव्यवस्था के परिचायक धर्माधीसों के प्रभाव के चलते ऐसा करने की कभी सोच भी नहीं सके होंगे या सकते थे, वहीँ विश्वप्रसिद्ध भारतवर्ष की एक मात्र अजेय-अपराजेय रियासत भरतपुर ने यह साहस किया था और एक दलित को अपने राज्य के खजाने की देखरेख का मुखिया बनाया था|

धर्मनिरपेक्षता व् जातिनिरपेक्षता का यह अदम्य उदाहरण एशिया के ओडीसियस व् जाटों के प्लूटो कहे जाने वाले आजीवन अपराजित अमर प्रतापी महाराजा सूरजमल सिनसिनवार जी ने अपने राज्य में एक गुज्जर को सेनापति, एक दलित को खजांची, जाटों व् अन्यों को राज-सलाहकार समिति में रख के स्थापित किया था|

वहीँ मुग़लों से आजीवन लोहा लेने व् उनसे आजीवन अपराजित रहने पर भी, ‘जाट कौम के इंसानियत धर्म’ को सब मानव स्थापित धर्मों से सर्वोपरि रखते हुए स्व-राज्य में मंदिरों के साथ-साथ स्व-राजधानी में अपनी देखरेख में मस्जिद का निर्माण भी करवा अपनी धार्मिक सहिष्णुता का भी परिचय दिया था| और सिद्धांत स्थापित किया था कि किसी से आपका राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक झगड़ा अथवा मतभेद हो सकता है, परन्तु धार्मिक नहीं|

क्या पुरखे थे मेरे, क्या अदम्यता थी, क्या साहस था, क्या शौर्य था और क्या न्यायकारी थे; और यही जाट धर्म (जाट को जाति ना बोल के इसीलिए धर्म बोलता हूँ क्योंकि इसने इंसान के बनाये धर्मों से भी सदा इंसानियत के धर्म को सर्वोपरि रखा) की सबसे बड़ी पूंजी रही है| जो दूरदर्शी, सच्चा और पहुंचा हुआ जाट हुआ, उसने इंसानियत धर्म से बड़ा ना कोई धर्म पाला और ना ही सत्ता| और इसीलिए ऋषियों-साधुओं के मुख से 'जाट-देवता' कहलाया और कहलाया कि, 'अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, और पढ़ा हुआ जाट खुदा जैसा|' जाट अगर रूढ़िवादी जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था के बहकावे में ना पड़े तो इससे बड़ा मानवीय धर्म रक्षक व् पालक कोई नहीं|

जाट इतिहास बताता है कि जाट ने इंसानियत के आगे ना किसी धर्मगुरु की सुनी ना राजगुरु की और ना सत्ता अथवा शक्ति की| फिर भले ही इस पालना हेतु लाख अपनों के ही हमले, उजड़ने, तान्ने व् बिखरने सहे हों| और यह सिलसिला धुर जाट के आदिकाल से चल जाट महाराजा हर्षवर्धन बैंस से होते हुए खापों और जाट शासकों से होता हुआ, आधुनिक युग के जाट राजनीतिज्ञों जैसे कि सर छोटूराम, सर फजले हुसैन, सर हिज्र खाँ तिवाना, चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, ताऊ देवीलाल और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत तक अविरल चलता आया|

हाँ बाबा टिकैत के जाने के बाद से समाज इस परम्परा का अपना नया उत्तराधिकारी ढूंढ रहा है| ऐसा उत्तराधिकारी जो सर्व-समाज को इन नए-नए उभरे तथाकथित धर्म और राष्ट्र के स्वघोषित राष्ट्रवादियों के गिद्दी इरादों से बचा; वर्ण, जाति, नश्ल व् धार्मिक द्वेष से निकाल इंसानी धर्महीनता पर ला, इंसानी धर्म पे चला सके|

जिससे कि फिर कोई दादावीर धूला भंगी जी तैमूरलंगी जंग में सर्वखाप-सेना का उपसेनापति बन सके, फिर कोई दादावीर मोहर सिंह बाल्मीकि जी 1529 में चित्तौड़गढ़ की रक्षा हेतु सर्वखाप-सेना का सहायक सेनापति बन राणा सांगा की मदद को सर्वखाप-सेना ले जावे, अथवा फिर कोई दादावीर मातेन बाल्मीकि जी की तरह सर्वखाप आर्मी का राष्ट्रीय मल्लयुद्ध प्रशिक्षक नियुक्त होवे| कम से कम मेरे जैसे कौम के जागरूक तो ऐडी उठा-उठा भविष्य के गर्भ में झाँक बाट जोह रहे हैं कि कब फिर से कोई बाबा टिकैत के स्टेज से 'अल्लाह-हू-अकबर' नारा गूंजे और भीड़ 'हर-हर महादेव' दहाड़े; स्टेज से हल्कारा आवे 'हर-हर-महादेव' तो भीड़ 'अल्लाह-हू-अकबर' से आस्मां गूंजा दे|

मेरे उन तेजस्वी-ओजस्वी पुरोधाओं की ओर देखता हूँ तो आज के समाज की हालत देखकर सिहर जाता हूँ| कहाँ तो वो लोग थे जो दुश्मन को भी इस तरह खुद में रमा लेते थे कि अल्लाह बोलो या महादेव कोई फर्क ही नहीं पड़ता था और कहाँ यह आज वाले कि वो उसकी मस्जिद की अरदास सुनके भड़के तो वो उसके मंदिर की आरती पे बिफरे| आखिर राष्ट्रवादिता यह तो नहीं हो सकती जो अपनी ही जनता में अविश्वास, अराजकता, आंतक, घृणा व् द्वेष के जहर डाल उसको ना सिर्फ धार्मिक वरन जातीय मतभेद की भट्टी में झोंकवा दे?

दलित हो या जाट, मुस्लिम हो या हिन्दू, दोनों एक बार खाप और जाट के साथ आपके इतिहास में झाँक के देखें तो पाएंगे कि इतनी गलबहियां डाल के रणभूमियों से ले रैलियों में वीर-रस और आल्हे दूसरी कौमों ने ऐसे आपस में मिलके शायद ही कभी गाये हों, जैसे आप लोगों ने गा रखे हैं| इसलिए:

मत बनने दो नए नागौर और अटाली,
दे मारो राष्ट्रवादियों के सर पे टाल्ली|
यह इतिहास ले जाओ बीच अपनों के,
वर्ना धर्म के अंधे, घरों बुला दें रुदाली||


अंत में स्टार न्यूज़ का कोटि-कोटि धन्यवाद! आपने पहली बार मीडिया में भारत की सबसे गौरवशाली रियासत बारे प्रशंसनीय डाक्यूमेंट्री पेश करी है| और सही मायनों में यही डॉक्यूमेंट्री इस लेख की प्रेरणा बनी, आप भी एक बार जरूर देखें|

Link: https://www.youtube.com/watch?v=sfyFIK_D2hs&sns=fb

लेख-सार: किसी से आपका राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक झगड़ा अथवा मतभेद हो सकता है, परन्तु जातीय व् धार्मिक नहीं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Video of Star News Report:

 

जितनी संस्कृति थम टूरिज्म में देखो, इतनी तो हम मामा के हांड आने में छान-आवां!


एक भाई बोला मलिक साहब, ये जाटों का टूरिज्म में इंटरेस्ट ना होता क्या?

मैं बोल्या मखा बावले, टूरिज्म की जरूरत उनको पड़ा करै जो गाम की गाम या घर की घर में रिश्ते करते हों| पडोसी को पडोसी और भाई को भाई ना जानता हो| मखा आड़े तो रिश्ता ही एवरेज 60-100 किलोमीटर तैं घाट नजदीक ना करते| तो टूरिज्म की हमने के जरूत, आड़े तो मामा के जा के आना भी टूरिज्म होवै|

ना मलिक साहब, फेर भी इतिहास और संस्कृति का ज्ञान तो घूमने से ही होवै|

मखा सुन, मेरे बाबू का ब्याह ठेठ बागड़ में हो रखा, और हम खुद बाजैं खादर के| मेरे गाम और मेरे ननिहाल के बीच तीन शहर और 27 गाम पड़ें; चार रूट बनें जाने के; जोणसे से मर्जी आओ-जाओ| बता तेरे गाम की गाम या घर की घर में रिश्ता करने वालों को होती है क्या इतने शहरों और गाँवों की जानकारी, वो भी सिर्फ एक रिश्ते के माध्यम से?

मखा ऐसा है, इतना तो व्यापारी व्यापार के चक्कर में ना हांडता और साधू साध्पने में, जितना हम रिश्ते-सगार के कारण हांड लेवें सैं| तो और इसतैं फ़ालतू टूरिज्म के इब तू हमनें घुमन्तु कबीले और खानाबदोश बना के छोड़ेगा?

और मखा बात सुन, थाईलैंड-मलेशिया की जानकारी से पहले जरूरी होवै अपने शहर-गाम-प्रदेश की जानकारी; और म्हारे बुजुर्गों ने इस एंगल को म्हारे रिश्ता-सिस्टम में इसी वास्ते इंड्यूस कर रखा, वो भी सदियों से|

और मखा जा के देख हरयाणा में, सिर्फ जाट ही नहीं, किसी भी जाति का नेटिव, अनपढ़ से अनपढ़ हरयाणवी भी, राजनीति से ले आधी से ज्यादा स्टेट की जानकारी तो म्हारे इस रिश्ता सिस्टम के आउटपुट के तहत ही पा लेता है| इसलिए म्हारे आले अखबार से ज्यादा खुद चलते-फिरते अखबार होवें| गाम की बुग्गी-बुर्जी पे बैठा अनपढ़ भी तेरे से ज्यादा देश-प्रदेश की राजनीति और संस्कृति का ज्ञान सुना देगा तुझे|

और हरयाणा वालों की हाजिर-जवाबी का राज सुनना चाहता हो तो सुन, उसका राज भी यह ऐसे ही रीती-रिवाज हैं हमारे| क्योंकि ज्ञान के लिए घूमना एक अभिन्न आवश्यकता है और वो म्हारे पुरखों ने हमारे रिश्ता सिस्टम में इंट्रोड्यूस करके मेट दी थी, सदियों पहले ही|

इब बाकी वही बात तेरे थाईलैंड तो फेर तू जाने ही है लोग वहाँ संस्कृति देखने कम और संस्कृति फैलाने ज्यादा जावें| बाकी शिक्षा-रोजगार के लिए तो जो जिधर जा रहा वो धरा के उस कोने में जा ही रहा| बेमतलब हमनें टाकणे तुड़ाने सीखे ना और ना म्हारी संस्कृति ने सिखाये|

हम ना बोलें तो ये सच्ची में ही अपने को छद्म ज्ञानी समझ लेवें हैं|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 2 June 2015

बोळी-खय्ल्लो!

एक ठेठ बेबाक हरयाणवी ताऊ से आजकल चल रहे राष्ट्रवादी अजेंडों जैसी कि हिन्दू-मुस्लिम दंगे, हिन्दू एकता और बराबरी जैसे अब तक जुमले साबित हो चुके नारों बारे पूछा तो ताऊ का दो टूक जवाब था, "बोळी-खय्ल्लो हो रे"।

मैं बोला ताऊ इसका मतलब?

ताऊ बोल्या, "जब 1000 साल तक मुग़ल इनके सर नाचते रहे तो कुछ करा नहीं; 300 साल अंग्रेज लूटते रहे तो कुछ करा नहीं, और इब जो भी हाथ-पैर ये मारे रहे, यह तो वो वाला नेवा हो रा, कि नई-नई मुसलमान्नी अल्लाह-ही-अलाह पुकारे|"

मखा ताऊ थाम इनकी राष्ट्रभक्ति पे शक कर रे?

ताऊ बोल्या, "बेटा जिस हद पे जा के इनकी राष्ट्रभक्ति की सोच खत्म होवै ना, उड़े जा के तो ताऊ की शुरू होवै|"

मखा ताऊ थारे मजन को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है|

ताऊ बोल्या, "बेटे, सोमनाथ की लूट को लूट के किसने देश में रखा? पृथ्वीराज के कातिल गौरी को किसने मारा? औरंगजेब की मरोड़ किसने तोड़ी? अकबर की कब्र से हड्डी निकाल चिता बना किसने जलाई? चित्तौड़गढ़ का किला-द्वार दिल्ली लालकिला से तोड़ कौन वापिस लाया? जिन मुग़लों ने कभी किसी मंदिर और हिन्दू-राजदरबार में शीश नहीं नवाएँ, उन्हीं के तीन-तीन बादशाहों ने किसके खाप-चबूतरे पर शीश नवाँ सजदाई धन्यवाद किये? जिन अंग्रेजों के विजय-रथ को अजेय बताया करते, वो रथ किसने रोके? मुग़ल बादशाहों ने अपनी राजकुमारियां ख़ुशी-ख़ुशी किस से ब्याही?

मेरे मुंह से सिर्फ एक शब्द निकला, 'जाट'।

ताऊ बोल्या, "तो बस समझ जा, यें तथाकथित राष्ट्रवादी वो कबीलाई झुनझुने हैं जो शेर की मौत के बाद उसकी लाश पे कूद के 'कुल्हड़ी में दाने, कूद-कूद के खाने' वाली कबीलाई सोच के तहत सांप के निकलने पे उसकी लकीर पीटने के फकीर होते हैं| या उससे पहले शेर के आने का माहौल बनाते हैं| परन्तु जब शेर अपना तांडव दिखाता है तो उसके शांत ना होने तक बिल-घोंसलों-कंदराओं में जा छुपते हैं| बता मुग़ल-अंग्रेज आये-गए हो लिए और यें 'बोळी-खय्ल्लो' इब जाग के दिखावैं हैं|

पर ताऊ समाज का सौहार्द तो बिगड़ रहा इससे?

ताऊ बोल्या, "जब 1300 साल पहले देश गुलाम होया था तब कुणसा सौहार्द था? देश में सौहार्द होता उस वक्त, तो हम गुलाम बनते क्या?"

मेरी आँखें अचम्बे से खुली की खुली| मतलब वो ही ढाक के तीन पात, चौथा होने को ना जाने को| 1300 साल की गुलामी से कुछ नहीं सीखा| और कर दिया शुरू समाज में वापिस वही जात-पात का जहर घोलना| धर्म-सम्प्रदाय-नश्ल के नाम पे समाज को बिखेरना| Means back to square one|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

जाटो, इन मंडी-फंडियों में विक्रमादित्य और हर्षवर्धन मत ढूंढना!


सोचने की बात यह है कि आये दिन हिन्दू-मुस्लिम टकराव के नाम पर यह जाट-मुस्लिम टकराव ही क्यों हो रहे हैं? वो भी जाट-बहुल क्षेत्रों में ही? 1947 से ले के इस वर्तमान सरकार के आने से पहले तक जिस जाटलैंड पे जाटों और मुस्लिमों के बीच दंगों के नाम पर एक सुई भी नहीं खनकती थी आज उसी जाटलैंड पे कभी मुज़्ज़फ़्फ़रनगर-शामली, तो कभी मुरादाबाद? और अब तो पूर्वी हरयाणा से चल यह पश्चिमी हरयाणा में भी शुरू हो गए, केंद्र में यह सरकार आते ही तावडू हुआ, फिर बादली हुआ, अब अटाली फरीदाबाद, नागौर? इसके आलावा गंगवा-हिसार में एक चर्च पे भी हमला हुआ|

और सुनने में आ रहा है कि वो मंडी-फंडी जिनका पंचायतों में कभी भी सीधे मुंह फैसले करवाने का कोई रिकॉर्ड ही नहीं रहा, वो आज अटाली के जाटों को कह रहे हैं कि मुस्लिमों से समझौता मत करना| साफ़ है कि यह लोग किसी के फैसले करवा देवें आजतक इनमें ऐसा कोई विक्रमादित्य और हर्षवर्धन नहीं हुआ; हाँ फैसले की जगह फासले करवाने में नाम जरूर रहा है इनका| और अपने इसी चिरपरिचित मिशन पर यह निकले हुए भान होते हैं|

जाट युवा (खासकर ग्रामीण) के लिए सोचने की बात एक और भी है, क्या हुआ मुज़्ज़फरनगर में धर्म के नाम पे काम आने वाले जाट-युवाओं का? हजारों-हजार युवा पूर्वी हरयाणा की जेलों में सड़ रहे हैं, क्या गए यह लोग उनकी या उनके परिवारों की सुध लेने? विश्व का ऐसा कोई धर्म नहीं जो अगर अपने अनुयायिओं को धर्म के नाम पर आहुति देने को कहे या प्रेरित करे या उकसाए तो पीछे से उसका या उसके परिवार का ध्यान ना रखे| ईसाई हो या मुस्लिम, बुद्ध हो या सिख हर धर्म के गुरु उनके पीछे खड़े होते हैं| परन्तु यह एक हमारे वाले ही निराले हैं, जो धर्म के नाम पर सिर्फ लेना जानते हैं| देने के नाम पर सिवाय नफरत-दंगों की घुटन और भुगतन, समाज को कभी वर्ण तो कभी जातिव्यवस्था में बांटने के अलावा कुछ नहीं जानते| अभी मुज़्ज़फरनगर में क्या हुआ? एक तरफ मुस्लिम दंगा पीड़ितों को जहां मस्जिदें-मदरसे खाने-पीने से ले इलाज और सर पर छत तक का इंतज़ाम करते नजर आये, वहीँ आप वाले कहाँ नजर आये, इसकी दास्ताँ मुज़्ज़फरनगर की हर लाचार-असहाय गली-घर बयाँ कर रहा है|

इसलिए इन वजहों से कई बार तो मैं इसको धर्म मानता ही नहीं; भावनाओं के नाम पर खुला कॉर्पोरेट से भी बुरा धंधा करते हैं यह लोग| कॉर्पोरेट पैसे के बदले सर्विस या सर्विस के बदले पैसा तो देता है, यह लोग क्या देते हैं, उजाड़ घर, जेलों में सड़ते युवा, भुखमरी में मरते इनके अनुयायी?

इसलिए हमारे हरयाणा की छवि मत बिगड़ने दो| अरे धुर सिकंदर के काल से ले के आजतक इतने रेफ़ुजी, शरर्णाथी, देशी-विदेशियों ने हमारे हरयाणा में शरण ली; यहां तक कि हमने अपनी संस्कृति पे इनके गैर-वाजिब हमले झेले, कुछों ने तालिबानी तक बोला परन्तु हमने मानवता को पालने की अपनी शाही परम्परा कभी नहीं तोड़ी| मुंबई के मराठों तक की भी शहनशक्ति उत्तरी-दक्षिणी भारत के क्षेत्रवाद से ले भाषवाद के नाम पर बंटी और टूटी, परन्तु हमने अपनी शालीनता नहीं छोड़ी| तो आखिर अब क्यों बेकाबू होना?

और फिर होना ही है तो अपने क्रोध का ज्वालामुखी इन दंगा भड़काने और इनके प्लान बनाने वालों की तरफ मोड़ दो| ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी| अगर ऐसे ही चलता रहा तो जरूर आने वाले समय में हरयाणा, जो कि धर्मवाद के नाम पे सुलगाया जा रहा है, वो क्षेत्रवाद-भाषावाद और नश्लवाद के नाम पर भी सुलग पड़े तो अतिश्योक्ति नहीं होगी| परन्तु फिर हरयाणा की धरती पर जो नहीं होगा वो होगा यह धर्मवाद के नाम पे दंगा फैलाने वालों का वायरस|

धर्म हर किसी का निजी विषय रहा है, इसको निजी ही रहने दो तो अच्छा होगा, वरना इतिहास गवाह है जाट लम्बे समय तक ना किसी धर्म की सुनता है और ना किसी राजसत्ता की| परन्तु अबकी बार वो वक्त आने तक पता नहीं जाट-समाज इनके बहकावों में चढ़ कितना और पथभ्रष्ट हो चुका होगा| और तब इस नुक्सान की भरपाई में कितने और दशक खपेंगे|

जाटों को यह बात समझनी चाहिए कि जो हारे हुए योद्धाओं की गाथाएं गाकर ही अपनी वीरता की दास्ताँ बघारने को स्वाभिमान और अभिमान समझते हों, ऐसे वीरों को तो जाट सिर्फ सहानुभूतिवश ही याद किया करता है| और अब इन दंगों को भड़काने में जो लोग शुमार हैं वो इसी मति के लोग हैं तो समझो कि वो क्या ख़ाक आपको धर्म और मानवता का मार्गदर्शन देंगे|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 1 June 2015

जाट के आई, जाटणी कुहाई!


1) गठवाला (मलिक) जाटों के दादा महाराज चौधरी मोमराज जी गठवाला ने गढ़-गजनी की बेगम से प्रेम-विवाह किया व् दादापीर बाढ़ला जी महाराज व् उनकी बेगम दादीराणी चौरदे महाराणी की सहायता से गोहाना जिला सोनीपत के "कासंढा" में आन बसे| यहां से " आहुलाणा" फिर "मोखरा" से होते हुए आज गठवाला (मलिक) जाटों का सबसे बड़ा गोत कहलाता है| Source - गठवाला खाप

2) महमूद गजनी ने जाटों को खुश करने के लिए साहू गोत के जाटों से अपनी बहन का ब्याह किया| Source - हिस्ट्री एंड स्टडी ऑफ़ जाट्स बाई सर अलेक्सांद्र कनिंघम|

3) जब 1764 में पिता की मृत्यु से शोक-संतप्त भारतेंदु महाराजा जवाहरमल ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दिल्ली के लालकिले के किवाड़ जा तोड़े तो उस समय दिल्ली के संरक्षक नजीबुद्दीन (पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठा-पेशवाओं को हराने वाले अहमदशाह अब्दाली का सेनापति) ने संधि प्रस्ताव रखा, जिसमें उनकी तरफ से मुस्लिम राजकुमारी से महाराजा का ब्याह व् युद्ध खर्च देय तय हुए| हालाँकि बाद में जवाहर सिंह ने खुद मुग़ल राजकुमारी से ब्याह ना करते हुए उनको अपने फ्रेंच-कैप्टेन समरू को प्रणवा दिया| Source – History of Bharatpur

4)1669 में जब कायदे से द्वितीय हिन्दू-धर्म रक्षक (प्रथम के लिए लेख के अंत में विशेष बिंदु 1 पढ़ें) दादावीर अमरज्योतिपुंज ‘गॉड गोकुला जी महाराज’ (विशेष बिंदु 2 पढ़ें) ने तिलपत की विश्व-प्रसिद्ध रणभेरी में औरंगजेब को संधि करने पर मजबूर कर दिया तो औरगंजेब का संधि प्रस्ताव आया, जिसपर आपने कहलवा भेजा था कि, "बेटी दे जा और संधि ले जा"| Source: वीरवर अमरज्योति गोकुला सिंह पुस्तक, लेखक श्री नरेंद्र सिंह वर्मा

5) अकबर द्वारा फिरोजपुर, पंजाब की 35 जाट खाप की बेटी का हाथ मांगने पर खाप द्वारा उसको मना कर दिया गया था; जिससे मायूस हो कर उसे खाली-हाथ वापिस लौटना पड़ा था| यह वही अकबर थे जिन्होंने आमेर की जोधा समेत, 10 और रजवाड़ों की राजकुमारियों से ब्याह किया हुआ था| Source - जाट-ज्योति पुस्तक, लेखक श्री सुखवीर सिंह दलाल

और ऐसे ही बहुतेरे वैवाहिक किस्से हैं जिनसे जाट इतिहास अंटा पड़ा है| समय के साथ इन किस्सों का और अध्यन करूँगा| फिलहाल इतना ही कहूँगा कि इन्हीं बहुतेरे किस्सों के चलते, जाटों बारे यह कहावत चली कि, "जाट के आई, जाटणी कुहाई|"

और इधर बॉलीवुड के कुछ अद्दू-फद्दु (गुस्ताखी माफ़ परन्तु इससे उचित शब्द क्या चुनता) से डायरेक्टर लोग 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' जैसी फिल्मों में जाटों को कहीं के रजवाड़ों से सबक लेने के सोसे छोड़ अपने आप छद्म इतिहासविद दर्शाने पे एवीं उतारू दीखते हैं|

विशेष:

1) प्रथम जाटवान जी गठवाला महाराज थे, जिन्होनें पृथ्वीराज चौहान की हत्या के तुरंत बाद ही मोहम्मद गौरी के दिल्ली सल्तनत के मुखिया कुतबुद्दीन ऐबक (दिल्ली की कुतुबमीनार बनवाने के नाम से मशहूर) को हांसी-हिसार के टीलों में इतनी ख़ाक छनवाई थी, कि कुतुबद्दीन वापिस दिल्ली जाकर यह कहते हुए खून के आँसू रोया था कि जाटों से भिड़ना इतना महंगा पड़ेगा अगर पहले पता होता तो इनको छेड़ने की जुर्रत ना करता|

2) हिन्दू धर्म के ताबेदार अक्सर गुरु तेगबहादुर जी (1675 शहीद) को प्रथम हिन्दू धर्म रक्षक बताते हैं, जबकि उनसे 6 साल (1669) पहले यह बिगुल गॉड गोकुला जी, उनके दो साथी व् इनके ततपश्चात 21 खाप योद्धेय (जिनमें 11 जाट, 3 राजपूत, 1 ब्राह्मण, 1 वैश्य, 1 सैणी, 1 त्यागी, 1 गुज्जर, 1 मुस्लिम खान और 1 रोड थे) औरंगजेब के विरुद्ध गुरु तेगबहादुर जी से भी भयवाही तरीके से धर्म या इस्लाम में से धर्म को चुनते हुए उसपे कुर्बान हो चुके थे|

आखिर क्यों नहीं इन 25 धर्म-रक्षक योद्धेयों के लिए भी कोई गृहमंत्री राष्ट्रीय पर्व मनाने की बात नहीं करता?

चलते-चलते, जाट युवा भावावेश हो धर्म के नाम पर किसी की भी शंखपुष्पी बन बजने से पहले, अपनी कौम के इन तथ्यों का संज्ञान लेवें| कि औरों से कहीं गुना ज्यादा महान योद्धाओं व् धर्म के नाम पर ऐतिहासिक बलिदानों से भरी आपकी कौम को इन धर्म वालों ने अपने साहित्य और गौरव-गाथा में क्या स्थान दिया है| और धर्म के नाम पर कोई मदद करने से  पहले, इन चीजों पर कुछ सौदा उनसे जरूर करें, अन्यथा स्वछंद मति से विचरते रहें और सिर्फ कौम की सोचें और करें|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

हिन्दू-धर्म के ताबेदार जाट-राजाओं को भी हिन्दू-साहित्य गौरव में यथोचित स्थान देवें|

माननीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह जी अगर महाराणा प्रताप तो महाराजा जवाहर सिंह भी क्यों नहीं? आखिर वीरों को सम्मान देने में यह एक हांडी में दो पेट क्यों?

भारतेंदु अजेय महाराजा जवाहरमल सिनसिनवार:

अपने पिता की अकस्मात मौत से क्रोधित आपने एक लाख सेना के साथ सीधा दिल्ली पर हमला दे बोला| कई महीनों के घेरे के बाद, जब जवाहर सिंह ने लालकिला दिल्ली के किवाड़ तोड़ डाले तो, आखिरकार उस वक्त के मुग़ल बादशाह नजीबुद्दीन जाट-महाराजा के क्रोध के आगे संधि को मजबूर हुए|

मुग़ल बादशाह ने मुग़ल राजकुमारी का महाराजा जवाहर सिंह से ब्याह (जिसको बाद में जवाहर सिंह ने फ्रेंच-
कैप्टेन समरू को प्रणवा दिया), युद्ध का सारा खर्च वहन करने की संधि की| कोई बेटियां दे के पीछा छुड़वाते थे तो किसी (जाट) से बेटियां दे के पीछा छूटता था|
 
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों को हराने वाला अहमदशाह अब्दाली भी जाट-क्रोध के आगे दिल्ली लुटती रही और वो अवाक देखता रहा; और नजीबुद्दीन की मदद को आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया| इसपे कहा गया कि जाट के क्रोध को या तो करतार थाम सके या खुद जाट|
 
महाराणा प्रताप और अकबर की लड़ाई में अकबर चित्तौड़गढ़ के किले के प्रवेश द्वार के जो किवाड़ उखाड़ दिल्ली में ले आया था, उन्हीं किवाड़ों को दिल्ली से वापिस छीन जाट-सूरमा वापिस जाट-राजधानी भरतपुर ले आया; और इस तरह राजपूती सम्मान का भी बदला लिया| उस जमाने में चित्तौड़गढ़ ने यही दरवाजे आज की कीमत में लगभग 9 करोड़ रूपये के ऐवज में वापिस मांगे तो लोहागढ़ (भरतपुर) ने कह दिया कि मान-सम्मान की कोई कीमत नहीं हुआ करती; फिर भी किवाड़ चाहियें तो ऐसे ही ले जाओ जैसे हम दिल्ली से लाये हैं| आज भी वह किवाड़ भरतपुर किले में लगे हुए हैं|

स्वाभिमानी रणबांकुरे महाराणा प्रताप:
राजपूती स्वाभिमान के लिए लड़े, परन्तु जीत नहीं सके|
स्वाभिमान के लिए घास-फूंस की रोटियां खानी मंजूर करी परन्तु कभी मुग़लों को सर नहीं झुकाया|
हल्दी-घाटी की लड़ाई लड़ी, जिसकी सैन्य शक्ति 3000 एक तरफ और 5000 दूसरी तरफ बताई जाती है|

उद्घोषणा: यह तुलना करके, इन दोनों महापुरुषों में से किसी को भी एक दूसरे छोटा या बड़ा दिखाने का मेरा कोई आशय नहीं है, परन्तु जब बात देश के गृहमंत्री के मुंह से आती है तो याद दिलाना मेरा फर्ज बन जाता है| दोनों महपुरूषों की भारतीय गौरव व् स्वाभिमान संवर्धन में अद्वितीय आहुति है; परन्तु जब बात इन वीरों के सम्मान की आये तो देश के राजनेता के मुख से एक हांडी में दो पेट वाली बात शोभा नहीं देती|
और इससे भी ज्यादा इस प्रस्तुति के जरिये मेरा हिन्दू-धर्म के उन ताबेदारों से मुखातिब होना उद्देश्य है जो चुनावों के वक्त तो हिन्दू धर्म की एकता और बराबरी की बात करते हैं और दूसरी तरफ जब उसी हिन्दू धर्म के वीर-बांकुरों के यथायोग्य सम्मान की बात आती है तो एक पर सूं-सां-सांप सूंघने जैसे चुप जाते हैं|
हिन्दू धर्म के तमाम वीरों के सम्मान को बिना भेदभाव के स्थान दिए जाने का अभिलाषी!  ------- जय योद्धेय! - फूल मलिक



Thursday, 28 May 2015

एंटी-जाट कैंपेन का एक रंग यह भी!

काफी बचने की कोशिश कर रहा था कि मैं इस बहस में नहीं पडूं| परन्तु कल ऐसा मूड बना कि उनसे बात करने की ही ठानी और "राजपूत फैशन क्लब" वालों से तकरीबन अढ़ाई घंटे की लम्बी बहस हुई| बहस का नतीजा तो खैर यह निकला कि अंत में भाइयों को मेरी बातों के उत्तर ना मिलते देख मेरे साथ चल रही उनकी दोनों डिबेटेँ ही उड़ानी पड़ी यानी डिलीट करनी पड़ी| पूरी बहस के दौरान मैं लगभग अकेला रहा और वो कभी तीन तो कभी चार|

खैर कई बार ऐसी मन की भड़ासें निकलना भी जरूरी होता है| लेकिन जिस वजह से यह पोस्ट लिखनी पड़ी वो अब आगे बता रहा हूँ|

उनसे बहस के दौरान पता चला कि राजपूत जाति के दिमाग में यह बात बैठाई जा रही है कि हरयाणा का सीएम श्रीमान खट्टर को नहीं अपितु श्री वी. के. सिंह, जो कि जाति से राजपूत हैं उनको बनना था, परन्तु हरयाणा में जाटों के चलते नहीं बन पाये|

जब मैंने उनसे यह तर्क रखते हुए कि अगर बीजेपी एक राजपूत को हरयाणा का सीएम बना रही थी तो अजगर यूनिटी के पैरोकार जाट भला इसमें क्यों रोड़ा अटकाते? यह कोई राजस्थान थोड़े ही है कि जहाँ जाट सीएम नहीं बनने देने को ले के कितनी बेइंतहा राजनैतिक कसरत की जाती है| इसके बाद जब उनको अजगर यूनिटी और सौहार्द का 1989-1991 वाला वो स्वर्णिम काल याद दिलवाया कि कैसे चौधरी देवीलाल जी ने एक जाट होते हुए एक नहीं अपितु दो राजपूतों श्री वी. पी. सिंह व् श्री चंद्रशेखर को खुद पीएम की कुर्सी का त्याग करते हुए पीएम बनाया था तो अगर एक राजपूत हरयाणा का सीएम बन जाता तो जाटों को इससे क्या दिक्कत होनी थी भला? इस पर उन लोगों से कोई जवाब नहीं बना|

मैंने उनको यही कहा कि दूसरों के बहकावे में आने की बजाय अपने लॉजिक्स प्रयोग करके, ज्यादा दूर की नहीं बस पिछले 25-30 साल का इतिहास भी देखते तो आप लोग ऐसा नहीं कहते| जरूर आप बिना-सोचे समझे किसी और की जाट-विरोधी मंशाओं का शंख बनके जाटों से झूठा द्वेष पाले हुए हो, या कोई तुम्हारे अंदर इसको पलवा रहा है|

लेकिन मुझे इसके साथ ही यह समझते हुए तनिक भी देर नहीं लगी कि कौनसी एंटी-जाट ताकतें राजपूतों को जाटों के खिलाफ उकसा रही हैं| परन्तु इससे भी बड़ा अफसोस मुझे इस बात का हुआ कि इतनी अग्रणी कही जाने वाली जाति के लोग कैसे बहकावों को मान लेते हैं, कि अजगर का जरा सा इतिहास भी उठा के पढ़ने की नेमत नहीं उठाई और जिसने जो कहा वो मान लिया|

फिर मैंने उनको यह भी कहा कि बीजेपी किसी जाट को सीएम बनाती तो तुम्हारी बात कुछ समझ में भी आती| अब इस परिस्थिति में किसी गैर-राजपूत को सीएम की कुर्सी दिए जाने का तुम्हारा जाट के खिलाफ गुस्सा समझ नहीं आता| इस पर भी फिर वो चुप गए|

यही एक पॉजिटिव बात से मुझे उस बहस में पड़ने के अपने फैसले पर ख़ुशी हुई कि सकारात्मक बहस करने से काफी ऐसी बातें पता चल जाती हैं, जिनकी कि सामान्य परिस्थिति में तो कल्पना भी नहीं कर सकते| मतलब किसने सोचा होगा कि एक जमाने में 2-2 राजपूतों को पीएम की कुर्सी पर बैठाने वाले जाटों के खिलाफ राजपूतों को भड़काया अथवा बहकाया जायेगा और राजपूत बिना एक बार इतिहास में झांके, जाटों के प्रति व्यर्थ का गुस्सा पाल लेंगे| वाकई में जाट के लिए फूंक-फूंक के कदम रखने का दौर है|

और शायद राजपूत समाज को भी बैठ के सोचने की जरूरत है कि उनके असली दुश्मन कौन हैं| वो जिन्होनें 1947 में उनकी रियासतें छीनी, वो जिन्होनें बॉलीवुड फिल्मों में राजपूतों को नेगेटिव किरदारों में दिखा-दिखा के समाज में उनकी क्रूर छवि बनाई या वो जाट जिन्होनें 2-2 राजपूतों को पीएम तक बनाया? दादा सर छोटूराम जी, यह सही दुश्मन ना पहचानने का क्राइसिस सिर्फ जाटों में ही नहीं, वरन राजपूतों में भी है; और साथ ही भुकाई (बहकावा) में आने वाला भी|

यह तो वही विगत 5 मई 2015 को हुआ 'हरयाणा खत्री-पंजाबी सभा' वाला किस्सा हो गया कि जाट को नौकरियों में आरक्षण मिलने या ना मिलने से भाईयों को भले ही कोई फर्क नहीं पड़ना था, परन्तु छंट के जाट-विरोधी जरूर दिखना था; बताओ अब सीएम बने खट्टर साहब और राजपूतों की बोहें फिर भी जाटों पे तनवाई जा रही हैं| बुरा मत मानना मेरे राजपूत बीरो, परन्तु आप तो जाटों से भी भोले हो|

वैसे आपके या आपको बहकाने वालों के अनुसार हरयाणा स्टेट में तो आपका सीएम नहीं बना पाया परन्तु सेंटर का क्या हुआ, वहाँ पीएम आपका क्यों नहीं बना, या वहाँ भी जाट आड़े आ गए थे आपके?

अजगरों (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) सोचो और विचारो, एक बनके रहे तो पीएम भी तुम्हारे बने, और डिप्टी पीएम भी तुम्हारे| बिखरे पड़े हो तो आज क्या पल्ले है तुम्हारे? सिर्फ नफरत का जहर, एक दूसरे पर छींटाकशी और अलगाव?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जमीन के मोह में मत पड़ो, बल्कि उस गुण को आगे रखो जिसकी वजह से जाट जमीन के लिए जाना जाता है!

जो हमारा सबसे पॉजिटिव एसेट यानी सम्पत्ति होती है, जिसको कि रखने और सँभालने की हमें महारत हासिल होती है, हमें उस चीज पर न्यूट्रल रहना चाहिए| उसके प्रति नेगेटिव या पॉजिटिव मोह में पड़ने से मुसीबतें खड़ी होती हैं|

और मंडी और फंडी इस बात को अच्छे से जानता है| जाट का सबसे पॉजिटिव एसेट है जमीन को सजा-संवार के रखने की कला और जब मंडी-फंडी जाटों बारे यह बात उछालता है कि जाटों के पास तो जमीनें हैं आदि, इससे वो जाट के अंदर जमीं के लिए मोह पैदा करता है|

और जहां मोह उत्तपन हुआ वहाँ क्लेश उत्तपन होता है, क्लेश से द्वेष और द्वेष से उस कला से ध्यान भंग हो जाता है, जिसकी वजह से जाट जमीन के लिए जाना जाता है| वो कैसे वो ऐसे:

जब-जब जाट को ले के जमीन की बात की जाती है तो जाट तुरंत ही भावुक हो जाता है और खुद भी कहने लगता है कि जमीन तो जाट की माँ हुंदी है, जमीन बिना जाट क्या वगैरह-वगैरह| जबकि सच इसका उल्टा है| जाट की सुंदरता जमीन से नहीं, अपितु जमीन की सुंदरता जाट से है|

पूरे भारत के नक्शे पर नजर डालो तो पाते हैं कि सबसे समतल व् उत्तम पैदवार देने वाली जमीन जाटलैंड की है| ऐसा नहीं है कि जाटलैंड की जमीन पे सबसे ज्यादा पानी के स्त्रोत हैं| पानी के स्त्रोत के हिसाब से तो पूर्वांचल-बिहार-बंगाल कहीं आगे हैं| परन्तु उधर के लोगों को जो नहीं आता या वो नहीं करते वो है, जाट की तरह जमीन को बाहना-गाहना-संवारना| और इसीलिए वो लोग उनके वहां की जमीन इतनी उपजाऊ व् पानी के स्त्रोतों से भरपूर होने पर भी जाटलैंड पर मजदूरी करने आते हैं|

यह कहावतें बताओ कि माली के दो, जाट के नौ और गुज्जर के सौ किल्ले बराबर होते हैं| माली के दो होने पर भी जमीन माली से क्यों नहीं जुड़ी? क्योंकि माली एक सिमिति भू-भाग में बागवानी वाली खेती कर सकता है, जाट की तरह लम्बी-चौड़ी जोत नहीं बो सकता| दूसरा बागवानी की फसल जैसे कि फलों के पेड़, एक बार बो दिए तो फिर दस-पंद्रह या इससे भी ज्यादा सालों तक दोबारा बोने की जरूरत नहीं होती, क्योंकि वही पेड़ फल देते रहते हैं|

इसका दूसरा पहलु यह भी है कि फल अनाज का काम नहीं कर सकते, हाँ आमदनी फसली खेती से ज्यादा जरूर देते हैं| और फसल की खेती ऐसी है कि हर छमाही पे नई बोनी पड़ती है, जिसमें माली से जाट को ज्यादा महारत रही है|

दूसरा जो कमेरी या मजदूर जातियां हैं वो किसी के मार्गदर्शन में जमीन पे काम तो कर सकती हैं, परन्तु जमीन को संभाल नहीं सकती| पीछे 1980-90 के दशक में इन लोगों को जब सरकार द्वारा डेड से पोन-दो एकड़ प्रति परिवार मालिकाना हक के साथ जमीन दी गई तो 95% ने उसको दो दशक में ही बेच दिया|

इसलिए जमीन जाट और जाट जमीन से क्यों जुड़ा है इसको तर्कसंगत होकर रखा जाए तो जाट और जमीन को लेकर धककशाही वाले ताने देने वालों के मुंह बंद होंगे| उनके मुंह बंद होंगे जो कहते हैं कि जाटों ने तो जमीनों पे कब्जा कर रखा है, जाटों के पास तो जमीनें हैं इसलिए यह तो वैसे ही धनाढ्य हैं|

मैं ऐसे कहने वाले शरारती तत्वों से कहना चाहूंगा कि जमीन कब्जे लेने से नहीं, उसको संवार के रखने की कला से काबू में रहती है| ऐसे लोग वो जमाने याद करें जब जमीनों की गिरदावरी और चकबंदी हुआ करती थी, उस वक्त लाखों-लाख एकड़ जमीनें खाली होती थी और सब जातियों के लोगों को उसको खरीदने के ऑफर आते थे| परन्तु खरीदेगा तो वही ना जिसको उस चीज को संभाल के रखने का हुनर और जज्बा हो| इसलिए जाट ने कभी किसी की जमीन यूँ मुफ्त में नहीं कब्जाई और ना हम कोई धक्के से जमीनों पे बैठे| अपने हुनर और जज्बे से इसको बोते और बहाते हैं|

जय योद्धेय!- फूल मलिक

Sunday, 24 May 2015

खट्टर साहब ने खाप को बताया भगवान!

Thanks Khattar Sahab, but Farmers need proper and timely payments of their produces on deserving prices, their right of consent on their properties (land or whatever) for whom to sell or purchase while dealing privately. Only praising and/or assessing history, heritage and social role and importance of Khaps won't do all and everything.

Additionally, we Haryanvies now need special rights and security both in terms of Haryanvi culture preservation and employment for our own state people on priority.

पता नहीं सीएम साहब के मुख से खाप को ले के इतने सुंदर शब्द सुनने पर जालिम मीडिया और खाप-विरोधियों के सीनों पर कितने सांप लोटे होंगे या लौटेंगे| खैर, उन साँपों को तो हम रास्ते लगा दें, अगर आप जो यह ऊपर कही बातें हैं, इनको कर दें तो| कहीं झूठी उम्मीद तो नहीं जगा ली सीएम साहब मैंने?

Phool Kumar Malik

Source: http://navbharattimes.indiatimes.com/state/punjab-and-haryana/jind/cm-manohar-lal-khattar-praises-khap-panchayats/articleshow/47407352.cms

As it is from Navbharattimes above link:

जींद

 हरियाणा के सीएम मनोहर लाल ने कहा कि खाप पंचायत हमारी पुरानी परंपरा है, जिसका सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में हमेशा अहम योगदान रहा है। खट्टर ने कहा कि खाप पंचायतें परमेश्वर की तरह हैं। उन्होंने रविवार को गांव कंडेला में सर्वजातीय कंडेला खाप और ग्राम पंचायत कंडेला की ओर से आयोजित अभिनंदन समारोह में संबोधन के दौरान ये बातें कहीं। उन्होंने कहा कि मौजूदा समय में खाप के बारे में तरह-तरह की भ्रांतियां फैलाई जाती हैं कि ये पंचायतें असंवैधानिक हैं।

उन्होंने कहा कि उनका जन्म भी निंदाना गांव में हुआ है, जो कि महम चौबीसी खाप के अंतर्गत आता है। खाप केवल फैसले ही नहीं सुनाती, लोगों को समझाने का काम भी करती है। उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा कि खाप पंचायतों का मान-सम्मान बनाए रखें, क्योंकि खाप परमेश्वर के समान होती हैं। उन्होंने बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम में खाप पंचायतों के समर्थन पर आभार व्यक्त किया।

हॉल का किया शिलान्यास

इससे पहले उन्होंने कंडेला खाप के चबूतरे के बड़े हॉल का शिलान्यास किया और इसके निर्माण को जल्द ही पूरा करवाने का आश्वासन दिया। खाप नेता टेकराम कंडेला ने सीएम को पगड़ी पहनाकर उनका स्वागत किया। सीएम ने कहा कि राजा विक्रमादित्य जैसा महसूस हो रहा है, जो अपने चबूतरे पर बैठकर लोगों की तकलीफें सुनते थे और उनका निवारण करते थे।

खाप नेताओं और ग्रामीणों के सीएम के सामने मांग पत्र रखे जाने पर उन्होंने कहा कि वह क्षेत्र की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ हैं। पिछले दिनों बेमौसम बारिश से हुए नुकसान के मुआवजे का जिक्र करते हुए कहा कि प्रदेश सरकार ने किसानों को लगभग 1100 करोड़ रुपये मुआवजे के तौर पर बांटे हैं। कुछ जगहों से पटवारियों की कारस्तानी की शिकायतें मिली हैं, जिनपर कार्रवाई की जा रही है। उन्होंने कहा कि जींद विधानसभा क्षेत्र की रैली कर वह फिर कंडेला आएंगे।