Tuesday, 28 July 2015

फोकस टीवी हरयाणा और ए वन तहलका हरयाणा टीवी चैनलों का हिन्दुराज की सरकार में बंद होना किस और इशारा करता है?

आखिर यह किस चीज की कीमत चुका रही है हरयाणवी संस्कृति?
 
एडवरटाइजिंग और स्पोंसर्स की कमी झेलते हुए भी हरयाणा ब्रांड को खड़ा करने में यह दो चैनल विगत अढ़ाई साल (Jan. 2013 to July. 2015) से बड़ी ही तन्मयता से सक्रिय थे। इन दोनों चैनलों के संचालकों-एंकरों व् कलाकारों में से कई के साथ तो निजी ताल्लुक व् पहचान भी है। जब तक दोनों चले हरयाणवी सभ्यता का एक ब्रांड के रूप में फलने-फूलने का बड़ा सुखद, स्वछंद व् सहज अहसास दे अंतर्मन को आल्हादित करते रहे। मेरे जैसा हरयाणवी सभ्यता एवं संस्कृति का अदना सा सिपाही भी इन प्रयासों के जनरेशन नेक्स्ट के कांसेप्ट और आइडियाज पर सोचने-विचारने लगा था। 

जैसे ही हरयाणा में विगत सरकार पलटी और हिंदूवादी राज की सरकार आई तो मन में बड़ी उम्मीदें थी कि जरूर हरयाणवी सभ्यता को खड़े करने के फोकस टीवी हरयाणा और वन तहलका हरयाणा टीवी चैनलों के प्रयासों को नए आयाम मिलेंगे। लेकिन यह क्या कि सरकार को आये महज सात-आठ महीनें ही हुए थे और हरयाणा ब्रांड के अग्रणी अग्निपुंज बने यह चैनल एक के बाद एक बंद हो गए। हालाँकि जनता टीवी, ईटीवी जैसे चैनल बाजार में अभी भी हैं परन्तु जिस सिद्द्त और सटायर से यह दोनों चैनल लगे हुए थे वो बात दोनों चैनलों को बाकियों से अलग अलग खड़ा करती थी
 
इनके बंद होने पीछे बताने वाले जो भी राजनैतिक, वित्तीय, मैनेजमेंट, स्ट्रेटेजी फेलियर या इसको बंद करवाने वालों की हरयाणवी से नफरत (हाँ, नफरत भी एक वजह हो सकती है और मुझे इसकी पूरी सुबाह है) को कारण बताएं, परन्तु एक बात तो जरूर है कि हरयाणवी को ब्रांड बनाने हेतु सर्वोत्तम तरीके से सक्रिय रहे इन चैनलों को हरयाणा सरकार की तरफ से जरूर मदद मिलनी चाहिए थी।

जय यौद्धेय! जय हरयाणा! - फूल मलिक

 

 

Monday, 27 July 2015

गांधीवादी वायरस!


अन्ना ने कहा कि वह आगामी 2 अक्तूबर यानि गांधी जयंती के अवसर पर भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ और ओ.आर.ओ.पी के समर्थन में अनशन करेंगे |

इसे कहते हैं कलम की ताकत | कलम वालों ने गांधी को एक ऐसा हीरो बना दिया कि कोई भी आंदोलन हो गांधी का नाम जरूर लिया जाता हैं | जबकि हकीकत यह हैं कि गांधी ने अपने जीवन में तीन आंदोलन किए थे और तीनों ही अधूरे रहे , तीनों ही बीच में वापिस ले लिए | जो लोग गांधी के नाम से आंदोलन की बात करते हैं क्या उनसे उम्मीद की जा सकती हैं कि वे क...िसी भी आंदोलन को अंजाम तक ले जाएंगे ? अन्ना जी आपकी तो खुद की ही बीरदारी में महात्मा ज्योति बा फूले इतने बड़े महापुरुष हुए हैं , जिन्होने अपने आंदोलन को पार उतारा , और नहीं तो कम से कम उसी को याद कर आंदोलन शुरू करने की बात कह देते ? किसान और फौजी का गांधी से क्या लेना देना ? असहयोग आंदोलन से गांधी खुद किसानों की ज़मीन छीनवाना चाहता था और आप उसी के नाम से किसान की लड़ाई की बात कर रहे हैं ? ना गांधी और ना ही गांधी की जात का कोई किसान-फौजी और आप ऐसे के नाम से किसान-फौजी के लिए आंदोलन की बात करते हैं ? जब तक किसान - जवान की लड़ाई के लिए तारीख 2 अक्तूबर रखी जाती रहेंगी तब कोई समाधान नहीं होगा|

इसलिए यदि कोई भी आंदोलन सिरे चढ़ाना हैं तो गांधीवादी होने का ढोंग छोड़ छोटूरामवादी बनना पड़ेगा | जब तक यह गांधीवाद का वायरस हमारे दिमाग में रहेगा तब तक मंडी-पाखंडी का राज कायम रहेगा | नेहरू से मोदी तक सब अपने दफ्तर में गांधी की तस्वीर ऐसे ही नहीं लगाते , यह तस्वीर इनके राज की मोहर है , राज अपना लाना है तो इस वायरस को दिमाग से निकालो ! इस गांधीवाद वायरस का सिर्फ एक ही एंटि-वायरस है और वो है छोटूरामवाद , इस एंटि-वायरस का इस्तेमाल करो और फिर करामात देखो |


Author: Rakesh Sangwan

Saturday, 25 July 2015

जाट पर से 'बोलना ले सीख' का टैग कैसे हट सकता है?


जाट, दलितों के मामले में शास्त्र-ग्रन्थ-पुराण की भाषा का इस्तेमाल करना छोड़ दें तो यह टैग रातों-रात हट सकता है।

नीच, तुच्छ, गिरा हुआ, अछूत, अस्पृश्य, कमीण, शूद्र, चांडाल आदि-आदि यह शब्द शास्त्र-ग्रन्थ-पुराणों की भाषा हैं, उनका दलितों के लिए सम्बोधन है।

और इसको कई जाट नादानी-वश तो कई जानबूझकर दलित भाईयों के मामले में प्रयोग करते हैं। ऐसे में होता यह है कि इसको लिखने-रचने-बनाने वाले खुद इनका इस्तेमाल करते हुए भी खुद तो बचकर निकल जाते हैं और उल्टा आपको ही इन शब्दों के प्रयोग करने पर 'जाटों को बोलना नहीं आता', जाट असभ्य हैं', 'जाट गंवार हैं', 'जाट झगड़ालू हैं' जैसे टैग फिर यही लोग आपको देते हुए मिलते हैं, ताकि आपके और दलित के बीच भाईचारे को फलने-फूलने ना दें।

तो भाई ऐसी भाषा क्यों प्रयोग करना जिससे हमारा ही ह्रास हो?

इसकी जगह अपनी शुद्ध जाट फिलोसोफी की 'सीरी-साझी' वाली सब जाति-सम्प्रदाय को बराबर मानते हुए भाई को भाई, चाचा को चाचा, ताऊ को ताऊ और दादा को दादा कहने वाली भाषा दलितों से व्यवहार करते वक्त प्रयोग करो।

अत: इनकी दोहरी स्याणपत को बाए-बाए कर दो (वैसे भी कहा गया है कि घणी स्याणी दो बै पोया करै, यहाँ यह लोग आपसे दो नहीं वरन कई बार पूवाते हैं), और दलित-मजदूर को अपनी खुद की सोशल फिलोसोफी के तहत नेग (रिश्ते) से बोलो!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 24 July 2015

आर.एस.एस. जाटों पर पुस्तक कब निकालेगी?


क्या कोई आरएसएस का मेंबर जाट भाई मुझे बता सकता है इस सवाल का जवाब?

विगत 2014 के नवंबर महीने में आरएसएस ने ‘हिन्दू चर्मकार जाति’, ‘हिन्दू खटीक जाति’ और ‘हिन्दू वाल्मीकि जाति’ शीर्षक से इन तीन जातियों पर किताबें निकाली, जो कि अच्छी बात है| और हो सकता है और भी जातियों पर निकाली होंगी, वो भी अच्छी बात है|

प्रवीण तोगड़िया से ले के अमितशाह तक जाटों की प्रशंसा करते हैं| एक तो यह तक कहता है कि 'जब जाट की ही बेटी सुरक्षित नहीं तो फिर किसी भी हिन्दू की बेटी सुरक्षित नहीं!' इसका मतलब या तो आरएसएस जाटों को वाकई में बहुत ही बहादुर मानती है या फिर बहुत ही फद्दु?

बहादुर इसलिए कि जाट की इस स्तर तक की प्रशंसा करती है कि जाट को हिन्दू धर्म की सबसे बहादुर जाति बता दिया कि अगर जाट की बेटी सुरक्षित नहीं तो किसी की भी नहीं, यहां तक कि इनके अनुसार ट्रेडिसनली बहादुर जाति का भी जिक्र नहीं किया यह अतिश्योक्ति पेश करते हुए|

और फद्दु इसलिए कि इसी सबसे बहादुर कौम के नाम पर आज तक एक पुस्तक तो क्या मैंने आरएसएस की तरफ से जाट की ऐतिहासिक-साहसिक पृष्ठभूमि को ले के इनकी तरफ से एक ढंग का लेख देखने को नहीं मिला, ढंग का भी इसलिए बोला कि शायद कहीं कोई छोटा-मोटा जिक्र कभी किया हो? वर्ना तो मिलता ही नहीं है|

और बाकी जातियों पे किताबें निकाल के आरएसएस अब यह भी नहीं कह सकती कि उनके यहां जाति-पाति पे जिक्र नहीं होता या वो इससे रहित हैं| रहित हैं तो फिर यह जाति-विशेष पे किताबें किसलिए? आरएसएस का मकसद तो जाति और वर्ण को खत्म करना है ना, तो फिर यह जातिगत किताबें निकालना और उनके ऐतिहासिक-सामाजिक रोल को अपने लेखकों के शब्दों में बंद करवा सिमित करवा परिभाषित करवाना, यह क्यों हो रहा है?

और इसपे अंधभक्ति का ताज्जुब तो यह है कि कोई आरएसएस का जाट इन पहलुओं को ना उठाते सुना, ना बतियाते| अरे जब आरएसएस बाकी जातियों पे किताबें निकाल के उनके ऐतिहासिक-सामाजिक योगदान व् स्थान का लेख-जोखा रूप में प्रशस्ती पत्र टाइप किताबें निकाल रही है तो फिर जाट पर क्यों नहीं?

आखिर पता तो लगे कि आरएसएस की विचारधारा में जाट का भारतीय समाज में क्या ऐतिहासिक-सामाजिक योगदान व् स्थान है? हो सकता है इससे मेरे जैसे जाट को भी आरएसएस को ज्वाइन करने की प्रेरणा मिल जाए!

तो क्या इतना मूल (बेसिक) से सवाल का जवाब दे पाएंगे मेरे आरएसएस के जाट बंधू, कि आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ अभी तक?

सोर्स: http://muslimmirror.com/eng/doctoring-history-for-political-goals-origin-of-caste-system-in-india/

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ऐसे होती है अपनी अथवा अपनी प्रिय क़ौम की ब्रांड मैनेजमेंट, डैमेज कंट्रोल और सेफ्टी!

मामला है दो दिन पहले 'ममता अग्रवाल' द्वारा जमीन-विवाद के चलते दो महिलाओं पर ट्रेक्टर चढ़ा देने पर एनडीटीवी के इन एंकर महानुभाव की रिपोर्टिंग के तरीके का। रिपोर्टिंग का वीडियो नीचे सलंगित है|

निसंदेह मीडिया में बैठे इस एंकर और इसकी मति वाले मीडिया के लोग आज भी मनुवादी तरीके से समाज को चलाना चाहते हैं; तभी तो इस औरत की जाति बता के बात करनी तो दूर इसका उपनाम तक नहीं बोला। साफ़ है कि यह दबंगई करने वाली औरत बनिया जाति के अग्रवाल उपनाम की है।

मुझे यही जज्बा अपनी कौम में चाहिए कि अपना जब अपराध करे तो उसका उपनाम-जाति छुपाया या छुपाएँ तो कुछ बुरा नहीं। ध्यान रहे मैंने उपनाम-जाति छुपाया या छुपाएँ की कही है अपराधी के अपराध को छुपाने की नहीं।

होती अगर यह औरत जाट जैसे किसी समाज की तो मुझे कहने की जरूरत नहीं कि जो इस हादसे में घायल हुई औरतें हैं उनका भी जातिय कनेक्शन निकाला जाता और खुदा-ना-खास्ता घायल होने वाली औरतें दलित निकल आती तो ओ हो मेरे भगवान क्या रुदन मचा देना था इन लोगों ने इसको जाट बनाम दलित का मामला बना के।

और अब देखना दिलचस्प है कि जो हमलावर थी उसका तो जाति और उपनाम छुपाया ही गया साथ ही जो घायल हुई उनकी जाति भी बाहर नहीं आ पाई। यहां तक कि जब इंस्पेक्टर 'ममता' बोल रहा है तो उसके आगे 'अग्रवाल' ना बोलने को या तो उसको कहा गया होगा या बोला होगा तो उसको मीडिया हाउस ने एडिट कर दिया होगा।

जरा देखें इस मामले की रिपोर्टिंग और इससे पहले हुए ऐसे ही नागौर राजस्थान वाले मामले में इनकी रिपोर्टिंग।

वेल मैं इनसे गुस्सा या खफा नहीं अपितु सीख ले रहा हूँ कि इतना विपरीत मामला होते हुए अपनी अथवा अपनी प्रिय क़ौम की ब्रांड मैनेजमेंट, डैमेज कंट्रोल और सेफ्टी कैसे की जाती है। सीखें आप भी| जाट, ओबीसी और दलित एंकर पता नहीं कितना सीख पाये हैं इनसे।

वैसे आदर्श रिपोर्टिंग की यही भावना और एथिक्स होनी चाहिए कि अपराधी को सिर्फ अपराधी के तौर पर दिखावें, उसमें उसके उपनाम अथवा जाति को ना घसीटें, परन्तु क्या यह महानुभाव ऐसी ही रिपोर्टिंग तब भी करते अगर यह मामला किसी जाट और दलित के बीच हो गया होता तो? शायद बिलकुल नहीं। इन जनाब को तो कई बार मैंने ही ऐसे मामलों में उपनाम और जाति से ले क्षेत्र तक को घसीटते देखा है, यहां तक कि अपराधी की जाति की मानसिकता तक का दावे के साथ पूरा पोस्टमॉर्टेम करते देखा है।

सोर्स 1: http://khabar.ndtv.com/video/show/news/bijnore-lady-don-now-in-jail-376193
सोर्स 2: http://thelogicalindian.com/news/watch-up-woman-runs-girl-over-with-her-tractor-in-a-land-dispute/

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 23 July 2015

हरयाणवी-पंजाबी-राजस्थानी समाज की रीढ़ की हड्डी होते हुए भी जाटों पे इतनी भीड़ क्यों पड़ी?

सुप्रीम कोर्ट में जाट आरक्षण रद्द होना, जाट व् तमाम किसान पे लैंडबिल की तलवार अभी भी लटके हुए होना, नई सरकार के आते ही फसलों के दाम धरती में मिल जाना, यूरिया के कट्टों के लिए जाट व् तमाम किसान को लाइन हाजिर करवा लेना और अब ओबीसी के कुछ नेताओं द्वारा जाट और ओबीसी में सदियों पुराने भाईचारे को तोड़ने की तलवार सत्तारूढ़ दल द्वारा लटकवा देना, आखिर क्या वजहें हैं इसकी?

1) अपनी संस्कृति-इतिहास और सभ्यता का आधुनिक तरीके से प्रचार व् प्रसार करने में रुचि ना होने की वजह से|

2) खाप जैसा विश्व का सबसे प्राचीन व् बड़ा लोकतान्त्रिक सोशल इन्जिनीरिंग सिस्टम का आधुनिकीकरण ना करने व् इनको रीस्ट्रक्चर व् रिऑर्गनाइज़ करके इनकी एसजीपीसी की भांति कोई अम्ब्रेला बॉडी ना बनाने की वजह से|

3) खुद की जाति के हितों की रक्षा, दिशा व् संवर्धन हेतु कोई बॉर्डर लाइन, लिमिट लाइन व् डिसाइडिंग लाइन ना होने की वजह से|

4) जाट सीएम रहे या पीएम, राजा रहे या महाराजा, खाप चौधरी रहे या पंचायती, जवान रहे या किसान, किसी भी तरह के फॉर्मेट में जो लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत सर्वसमाज को प्रतिनिधत्व के मौके दिए उनकी मार्केटिंग ना करने की वजह से|

5) औरतों के अधिकारों व् सम्मान को ले के प्रैक्टिकल में भारत की सबसे खुले विचार व् स्थान की जाति होते हुए भी उस प्रक्टिकलिटी को थ्योरी व् लिटरेचर में ढालने की ओर ध्यान ना देने की वजह से|

6) खुद के समाज में घर कर चुकी धर्म आधार, भाषा आधार, क्षेत्र आधार, स्टैण्डर्ड आधार व् राजनैतिक आधार की बांटनें वाली धारणाओं के बीच भी जाट के नाम पे एक बने रहने की प्रयोगशालाएं ना बनाने की वजह से|

7) ब्राह्मण की तरह खुद के समाज के टैलेंट को लॉन्चिंग-पैड जैसी सुविधा-सुरक्षा व् आगे बढ़ने की उनकी लॉबिंग कर भारत रत्न के सम्मान तक उठा देने की नीति-जज्बा व् विधि निर्धारित ना करने की वजह से|

8) सर्वसमाज के मुद्दे होते हुए भी उन मुद्दों को सिर्फ जाट के नाम पे थोंपनें हेतु जब मीडिया जाट के आगे माइक ले के खड़ा हुआ तो बजाय मीडिया वाले की जाति पूछ उसी मुद्दे पर उसके समाज में क्या स्थिति है रुपी प्रश्नात्मक उत्तर देने के, उसके आगे डिफेंसिव मोड में आ अपनी सफाई और एक्सप्लेनेशन में लग जाने के भोलेपन कहूँ या नादानी कहूँ या कमजोरी, जो भी थी और अभी भी है, उसकी वजह से|

9) 21 वीं सदी में अपनी कंस्यूमर पावर (उपभोक्ता शक्ति) की ताकत को ढाल बना लड़ने की बजाये, आज भी रेल-रोड जाम करने वा जेल भरने या दूध-पानी रोकने जैसे पुराने आउटडेटिड हो चुके धरना-प्रदर्शन के तरीकों की वजह से|

10) आगंतुकों-शरणार्थियों-रिफुजियों के साथ आने वाले कल्चर व् सभ्यता से जाट व् हरयाणवी सभ्यता की शुद्धता को बचाये रखने की विवेचनाएं ना होने की वजह से|

11) अपने घरों में औरतों के माध्यम से पीछे के कहो या चोर दरवाजे से माता-मसानी वालों की चौकियों-चाकियों-पाखंडियों-ढोंगियों की एंट्री को प्रश्न ना करने की वजह से|

12) आज़ादी के 68 साल हो आने पर भी अभी तक अपनी फसलों के विक्रय मूल्य निर्धारित करने के अधिकार को अपने हाथ में लेने हेतु कृषक समाज में कोई आंदोलन या विचार-विवेचना शुरू ना करवाने की वजह से|

13) ओबीसी में आरक्षण की मांग शुरू करने से पहले 'जाट ने बाँधी गाँठ, पिछड़ा मांगे सौ में साठ' जैसे नारे उठा ओबीसी को अपने विश्वास में ले के ना चलने की वजह से| ओबीसी को यह समझाने में फेल होने की वजह से कि अगर हम ओबीसी में आये तो आज के 27% से फिर 60% की लड़ाई लड़ेंगे| फिर चाहे भले 60% में भी जाति आधारित लाइन लगवा लेना|

14)  खेती-किसानी तुच्छ होती है, मुश्किल काम होता है, यह काम करने वाले का आदर-मान नहीं होता आदि-आदि जैसी मंडी-फंडी द्वारा फैलाई गई अफवाहों की काट ढूंढ के अपने कार्य के सम्मान और प्रतिष्ठा को बनाये रख उसके प्रति अपनी पीढ़ियों में आदर व् सम्मान की सोच ना बोने की वजह से। इसके ना होने की वजह से जब भी किसी किसान का बेटा पुश्तैनी कार्य छोड़ किसी दूसरे कार्य में जम जाता है तो वो विरला ही मुड़ के अपने पिछोके की सुध लेता है। जबकि इसी भावना को जिन्दा रख, जहां एक तरफ बाकी अग्रणी वर्गों में कोई किसी भी कार्यक्षेत्र में जाए परन्तु समाज और कौम के शब्द से अविरल व् अटूट जुड़ा रहता है, वहीँ जाट का शहर की तरफ मुख और स्थापन हुआ नहीं कि अधिकतर पीछे मुड़ के अपने पिछोके को देखना ही नहीं चाहता है, ऐसा हो जाता है।

मोटी-मोटी और बहुत ही गंभीर वजहें यही नजर आती हैं, हालाँकि वजहें और भी बहुत हैं परन्तु प्रथमया इन पर काम होवे तो होमवर्क पूरा होवे|

शब्दावली: हरयाणवी यानी पूर्वी हरयाणा (पश्चिमी यूपी) मध्य हरयाणा (दिल्ली) और पश्चिमी हरयाणा (वर्तमान राजनैतिक हरयाणा)!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 22 July 2015

पूर्वोत्तर के बुद्धिजीवियों से अनुरोध है कि वो उनके यहां से बेटियों की खरीद-फरोख्त बंद करवाएं!


बंगाल-बिहार-उड़ीसा-असम के एंटी-हरयाणा मीडिया न्यूज़ एंकर्स, एडिटर्स, जर्नलिस्ट्स और ऑथर्स/लेखक, पूर्वोत्तर से हरयाणा में खरीद के लाई जा रही दुल्हनों पर हरयाणा को तो ऐसे कोसते हैं, जैसे सारा दोष इन्हीं का है|

अमां सरकार, जाओ जरा अपने वालों को बेचने से रोको| बोलते तो इतने चौड़े हो के कि जैसे हरयाणा में इनके खरीद के लाने से पहले तो सारी वहीँ की वहीँ ब्याह दी जाती थी| शुक्र मनाओ हरयाणा वालों का कि चाहे कुछ प्रतिशत में ही सही परन्तु हरयाणा आ के किसी के घर की इज्जत और मालकिन तो बनती हैं, वरना बेचारी पता नहीं कहाँ कलकत्ता-हैदराबाद-मुंबई-दुबई के देह-बाजारों में बेचीं जाती थी, पहली बात|

दूसरी बात इतना ज्यादा बढ़िया सेक्स-रेश्यो भी नहीं है आपके एरिया का कि वहाँ लड़कियों का इतना एक्स्ट्रा स्टॉक है कि जो वहाँ के लड़कों के लिए भी पूरी पड़ रही हैं और फिर एक्स्ट्रा हरयाणा को दिए जा रहे हो? रोको इस लड़कियों की खरीददारी को और कहो अपने लोगों को कि हरयाणवी को बेटी देनी है तो बाकयदा ब्याह करके देवें, बेचें नहीं| और वैसे भी अधिकतर हरयाणवी तो ब्याह के ले जाने को तैयार हैं, परन्तु आप अपनी बेटियों को बेचने की परम्परा के तहत इनका सौदा करके भेजना बंद करो, यह घरों की बहुएं बन के जा रही हैं, किसी देह-व्यापार की मंडी में नहीं|

असल इसको समूल ही बंद करवा दो, वरना कल को जब यह अधिकतर हरयाणा आ जाएँगी तो फिर यही समस्या आपके उधर आएगी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कहाँ से आई यह कन्या-भ्रूण हत्या की बीमारी और क्या सिर्फ यही एक वजह है हरयाणा में लड़कियां कम होने की?


अल्ट्रासाउंड और एक्स-रे मशीन हरयाणा में वस्तुत: कब से भ्रूण जांचने में प्रयोग होनी शुरू हुई इसकी सटीक तारीख तो शायद भगवान ही बता पाये, परन्तु मोटे-तौर पर कहूँ तो हरयाणा में 'भ्रूण-जाँच' का यह बाजार 25, हद मार के 30 साल ही पुराना है|

इस काल से पहले जन्मों की लिस्ट पे नजर डालता हूँ तो मौटे तौर पर एक चीज जरूर देखता हूँ कि मेरे पिता की पीढ़ी में खुद मेरी रिश्तेदारियों में अधिकतर ऐसे परिवार हैं जिनके यहां 2 लड़के 5 बहनें, 3 लड़के 4 बहनें, 1 लड़का 5 बहनें हैं| और नेटिव हरयाणवी नश्लों में यह कहानी सिर्फ मेरे परिवार और रिश्तेदारी ही नहीं, मेरी जाति और सम्प्रदाय ही नहीं वरन अन्य सम्प्रदायों में भी इस तरह के ही लड़का-लड़की के अनुपात रहते आये हैं| हालाँकि परिवारों में ऐसे भी अनुपात रहे हैं जहां लड़कों की संख्या लड़कियों से ज्यादा रही है|

अब कुछ रोबोटिक सोच के मननकारी अपनी सोच के अहम को ऊपर रखने हेतु, इसके पीछे लड़का पाने की चाह में लड़कियों-पे-लड़कियां पैदा करने को भी वजह बता सकते हैं| इसको तो मैं इस तर्क से भी नलिफाई कर सकता हूँ कि क्योंकि उस ज़माने में परिवार-नियोजन का कोई जरिया नहीं होता था इसलिए ज्यादा बच्चे हो जाते थे| खैर वो जो भी वजह बताएं परन्तु एक बात तो सच है कि हरयाणा में भारत के ट्रेडिशनल रियासती हल्कों की उच्च जातियों की तरह 'नवजन्मा को दूध के कड़ाहों में डुबो' के मारने की प्रथा तो नहीं ही थी| तर्क भी है कि अगर होती तो मेरे पिता की पीढ़ी में हरयाणा में इतने पर्याप्त उदाहरण नहीं मिलते जितने कि मैंने ऊपर बताये| पिता से आगे चलो तो दादा और पड़दादा की पीढ़ी में भी पिता की पीढ़ी वाली ही कहानी है|

अब का तो कारण सम्मुख है कि एक्स-रे/अल्ट्रासाउंड से 'भ्रूण-जाँच' करके उसको गर्भ में ही लुढ़का दिया जा रहा है| परन्तु उस जमाने में जब यह मशीनें नहीं थी (माफ़ करना अगर कोई ग्रन्थ-शास्त्र का ज्ञाता अपनी पंडोकलियों-पौथियों में ऐसी कोई तकनीक दबाये बैठा हो जिससे कि जांच भी होती रही हो और गर्भ गिरवा भी दिए जाते रहे हों, इससे मैं अनजान हूँ) तब गर्भ में तो कोई मार नहीं सकता था, पैदा होने के बाद हरयाणा में कोई बेटी को मारता नहीं था फिर भले ही रोबोटिक सोच वाले फिलोसोफरों के अनुसार बेटे की चाहत में बेटियों-पे-बेटियां पैदा क्यों ना करता रहा हो परन्तु कम से कम लड़की को गर्भ और पैदा होने की दोनों अवस्थाओं में मारते तो नहीं थे|

तो अब बात है इतिहास और वर्तमान दोनों के परिपेक्ष में यह पहलु समझना कि आखिर हरयाणा में क्या ऐतिहासिक और वर्तमान वजहें हैं जिनकी वजह से यहां लिंगानुपात इतना चरमराया हुआ है?

ऐतिहासिक कारणों में तो सबसे बड़ा जाँच का पहलु यही है कि प्राचीन हरयाणा की राजधानी दिल्ली हमेशा हर विदेशी आक्रांता-लुटुरे-शासक की लालसा का केंद्र रहने के साथ-साथ विस्थापितों और शरणार्थियों की शरण-स्थली भी हरयाणा ही रहा है| भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाइयों का मैदान यमुना नदी के दोनों तरफ बसने वाला यही वास्तविक हरयाणा रहा है| विश्व-इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब धरती पर युद्ध हुए हैं, औरतें-बच्चे भी दुश्मन के निशाने पे रहे हैं| युद्ध के बाद जिस भी पक्ष की जीत होती है वो हारे हुए पक्ष की औरतों से बच्चों तक के कत्ल करते रहे हैं| जैसा कि ऊपर कहा युद्ध के साथ आता है शरणार्थी-विस्थापित या खुद युद्ध के बाद वहीँ बस जाने वाला युद्ध सैनिक| अब आधुनिक काल में इस विस्थापन की वजहों में शुमार हो गई हैं बेहतर रोजगार की तलाश में हरयाणा चले आना|

आधुनिक काल में देखूं तो हरयाणा में ऐसे चार ऐतिहासिक विस्थापन हुए हैं| एक 1763 पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद मराठों का महाराष्ट्र वापिस लौटने की बजाये हरयाणा में ही बस जाना| मान्यता है कि हरयाणा की वर्तमान 'रोड' जाति यही लोग हैं| दूसरा विस्थापन होता है 1947 में पाकिस्तानी शरणार्थियों का, तीसरा विस्थापन होता है 1984-86 में पंजाब से खदेड़े गए उन पाकिस्तानी शरणार्थियों का जो कि 1947 में वहाँ आ के बसे थे, परन्तु उस वक्त के आतंकवाद के चलते उनको वहां से खदेड़ा गया और इन्होनें फिर हरयाणा और दिल्ली में ही शरण ली| और चौथा और हरयाणा के इतिहास का सबसे बड़ा शरणार्थी विस्थापन तो अब पूर्वोत्तर राज्यों से चल ही रहा है|

दिखती दिखाती बात है कि ना तो पानीपत के तीसरे युद्ध के बाद जो मराठा सैनिक हरयाणा में बसे वो अपनी औरतों के साथ थे| उनमें से जिसकी भी शादी हुई होगी जिसने भी घर बसाये होंगे हरयाणा के लोगों से ही रिश्ते बना के बसाये होंगे| हरयाणवी मराठा की मामले में एक बात सुखद है कि यह लोग हरयाणवी समाज का अभिन्न अंग बन गए हैं, इस सभ्यता में ऐसे रम गए हैं कि जाट-गुज्जर-राजपूत और रोड में कोई अंतर नहीं बता सकता| परन्तु यहां जो लिंगानुपात पे असर पड़ा उसकी कोई गणना नहीं करना चाहता| जब दूसरा विस्थापन पाकिस्तान से हुआ तो सब जानते हैं कि बहुत मार-काट हुई थी| अंदाजतन पुरुष दो तिहाई इधर आ पाये होंगे तो औरतें एक तिहाई| और इसकी झलक आज भी इनकी बस्तियों में झुण्ड-के-झुण्ड में कुंवारे लड़कों-छड़ों के रूप में ठीक वैसे ही देखी जा सकती है जैसे ग्रामीण हरयाणा में|

अब सब जानते हैं कि मजदूर-कर्मचारी कोई भी जो पूर्वोत्तर से इधर आ रहा है वो 70 फीसदी अकेला आता है यानी अपनी औरत और परिवार को साथ नहीं लाता| तो ऐसे में यह कौन गिनेगा कि इनमें से जिन्होनें हरयाणा में वोट बनवा लिया है, उनमें इनकी कितनों की औरतें या परिवार साथ में रहते हैं? और यह इस बात से समझा जा सकता है कि रिवाड़ी-गुड़गांव-झज्जर-फरीदाबाद बेल्ट में सेक्स रेश्यो की सबसे खस्ता हालत है और हरयाणा के इन्हीं इलाकों में यह लोग सबसे ज्यादा विस्थापित हुए हैं|

विस्थापन और शरणार्थी पहलु के अतिरिक्त अति-आधुनिक काल के अन्य कारणों पर नजर डालें तो वजहें कुछ इस प्रकार हो सकती हैं:

1) सबसे बड़ी तो यही कि कितने प्रतिशत लोग कन्या-भ्रूण हत्या करवा रहे हैं?

2) परिवार नियोजन के चलते, नई पीढ़ी में अगर पहला बच्चा लड़का हो जाता है तो 50 प्रतिशत से ज्यादा दूसरा बच्चा करते ही नहीं हैं| यानि वो इस योगदान को समझते ही नहीं कि तुम्हें तुम्हारे लड़के के लिए दुल्हन चाहिए तो उसके बदले एक लड़की यानी दुल्हन समाज को तुम भी पैदा करो|

3) हरयाणा का शहरी लिंगानुपात ग्रामीण से भी डांवाडोल है तो इसमें दो चीजों की जाँच होनी चाहिए| एक तो कि इसकी तमाम वजहें क्या हैं और दूसरा कि शहरी समाज का कौनसा तबका ऐसा है जो इस स्थिति को इतनी भयावह बनने में सबसे ज्यादा योगदान दे रहा है|

4) इसके बाद नंबर आता है रोबोटिक सोच के फिलोसोफरों की घिसाई-पिटाई हुई वजहें जैसे कि दहेज़-लड़की की सुरक्षा-घरो में बेटा-बेटी का भेदभाव, सिर्फ औरत को समाज की शालीनता और मर्यादा की रक्षक की जिम्मेदारी आदि-आदि|

5) यह बिंदु पढ़ा जाए कि केरल में 1000 लड़कियों पर सिर्फ 924 लड़के क्यों हैं? अब इस मामले में हरयाणा को एकमुश्त बिसराहने वाले लीचड़ों की तरह लीचड़ बनते हुए मैं यह तो नहीं कह सकता कि वहाँ लड़का-भ्रूण हत्या होती होगी या यही इसकी एकमुश्त वजह होगी| इन मामलों में कुछ योगदान प्रकृति का भी होता है| और उस प्रकृति के योगदान को आधार मान के केरल में 1000-924=76 लड़के कम होने की वजह के बराबर हरयाणा में 76 लड़कियां कम होने का एक्सक्यूज नुलीफाई (excuse nullify) कर दूँ तो मामला बचता है 924-881 (हरयाणा का लिंगानुपात)= 43| यानी प्रति 1000 लड़कों पे 43 लड़कियों का घालमेल है इस लेख में चर्चित गैर-प्राकृतिक यानी कृतिम व् मानवीय वजहों से हरयाणा में|

जय यौद्धेय! जय हरयाणा! - फूल मलिक

आर्थिक आधार पर आरक्षण में तो सुदामा ही नौकरी पायेगा, एकलव्य नहीं!


आर्थिक आधार पर आरक्षण का कोई लाभ नहीं, क्योंकि ऐसा होता है तो फिर सिर्फ सुदामा ही नौकरी लगा करेंगे, एकलव्य नहीं। फिर भी आर्थिक आधार ही आधार होना चाहिए तो पहले भारत से वर्णीय व् जातिय व्यवस्था खत्म करनी होगी जो कि वर्तमान में तो किसी भी सूरत में सम्भव नहीं लगती।

ऐसे में आर्थिक आधार का एक प्रारूप समझ आता है कि जिस धर्म व् जाति की राष्ट्रीय व् राजकीय स्तर पर जितनी संख्या है पहले उसको उसका संख्यानुसार प्रतिशत दे के फिर उस प्रतिशत में आर्थिक-आधार की लाइन डाल दी जावे। और यह सरकारी और प्राइवेट दोनों नौकरियों में होवे।

और उस फॉर्मेट के लिए वर्तमान का ओबीसी आरक्षण का फॉर्मेट फिट बैठता है। जरूरत है तो इसको अब हर जाति-धर्म की संख्या के अनुपात में बना देने की।

उदाहरण के तौर पर अगर हरयाणा में खत्री-अरोड़ा समुदाय की जनसंख्या 4% है तो खत्री-अरोड़ा समुदाय को हरयाणा में चारों ग्रेडों (A,B,C,D Grade Job) की नौकरियों में 4% आरक्षण दे के उसके अंदर आर्थिक आधार की शर्त डाल दी जाए, जैसे कि अगर किसी खत्री-अरोड़ा परिवार की वार्षिक आमदनी 4 लाख रूपये से ज्यादा है तो वो इस लाइन से बाहर आ जायेगा अर्थात उसको आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे ही अगर हरयाणा में ब्राह्मण 6%, बनिया 5% हिन्दू जाट 27%, सिख जाट 4%, मुस्लिम जाट 4%, चमार 6%, धानक 7%, राजपूत 2% है तो इसी आधार पर सबको इनकी संख्या के अनुपात से हरयाणा राज्य की सरकारी व् प्राइवेट दोनों सेक्ट्रों की नौकरियों में आरक्षण हो।

जब केंद्र सरकार में आरक्षण की बात आवे तो उसमें भी ऐसे ही किया जावे। राष्ट्रीय स्तर पर जिस जाति की जितनी संख्या उसको उतना % आरक्षण। उदाहरण के तौर पर हरयाणा में तीनों धर्मों का जाट 34-35% है, वो केंद्र में आते ही 7 या 8% % रह जाता है, तो जाट को केंद्र की नौकरियों में इतना ही आरक्षण हो और ऐसे ही बाकी सबका। प्राइवेट नौकरियों की जब बात आवे तो वो आरक्षण राज्य की संख्या के अनुपात में होवे, राष्ट्रीय अनुपात में नहीं।

इस फार्मूला का एक लाभ यह भी होगा कि रोजगार के चक्कर में एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करने वालों की संख्या में कमी आएगी और उनको अपने राज्य में ही रोजगार मिलेगा। यह फार्मूला 1947 की जनसांख्यिकी परिस्थिति के अनुसार लागू हो। यानी अगर कोई रोजगार या आतंकवाद के चलते भारत के किसी दूसरे राज्य में चला गया है तो उसका राज्य लेवल का आरक्षण उसके राज्य में हो और राष्ट्रीय स्तर का तो फिर चाहे जहां भी हो।

हाँ अगर किसी नौकरी में किसी जाति-विशेष से उसी वक्त के दौरान बांटे आई संख्या में तय उम्मीदवार नहीं मिलते हैं तो फिर उस खाली स्लॉट को भरने के लिए, 6 महीने के भीतर एक परीक्षा और हो और उस परीक्षा के बाद भी खाली स्लॉट रह जाए तो फिर उसको मेरिट के आधार पर सबके लिए खुला कर देना चाहिए। 

इस फार्मूला से जाट बनाम नॉन-जाट की खाई को पाटने का भी जाट को रास्ता रहेगा, क्योंकि फिर राजकुमार सैनी जैसी जितनी भी सोच आज हरयाणा में पनप रही हैं, उनको भी इस लाइन पे चलने को मजबूर होना पड़ेगा, वो खुद नहीं होंगे तो उनका समाज करेगा। आखिर इस फार्मूला को सिवाय मंडी-फंडी को छोड़ के कौनसी जाति नहीं चाहेगी?

बिना इस फार्मूला के अगर आर्थिक आधार आरक्षण की परिणति बनता है तो फिर सुदामा ही नौकरी लगेंगे, एकलव्य का नंबर तो उनके बाद ही आएगा या फिर हो सकता है कि मुंह ही ताकते रह जाएँ।

और वैसे भी आर्थिक आधार के आरक्षण की गुहार तो क्या दलित, क्या ओबीसी और क्या स्वर्ण सभी जातियां लगा रही हैं, तो ऐसे में यह फार्मूला भारत के वर्तमान जातिय समीकरणों में सेट बैठता है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 21 July 2015

चूचियों में हाड टोहने वालों से सवाल!


जाटों की औरतों को रोड-सड़क के किनारों से खेतों में काम करते हुए देख, जाटों पे औरतों से डबल-डबल यानी घर का भी और खेत का भी काम लेने या सारा काम औरतों द्वारा ही करने का इल्जाम लगाने वाले अक्सर उन घरों से होते हैं जिनके यहां औरतें उनके लिए चूल्हा-चौका फूंकने के साथ घर में ही पचरंगा जैसे अचार डालने, ऑफिस एम्प्लाइज के लिए लंच-बॉक्स (मुम्बैया स्टाइल वाला टिफिन) तैयार करने से ले दरी-शाल-खेस बुनने के हथकरघों पे बैठी-बैठी खांसी-दमे की मरीज बन जाती हैं|

परन्तु वो इनको खुद को तो इसलिए नहीं दिखती क्योंकि इनके घर का मामला है, जाट इनको इसलिए नहीं दिखाता क्योंकि उसको चूचियों में हाड टोहने की लत नहीं| ऊपर से यह औरतें बंद घरों-गोदामों या दुकानों में ऐसे कार्य करती हैं, इसलिए बाहर के किसी इंसान को दिखती नहीं|

तो भाई चूचियों में हाड टोहने वालो, थम के चाहो कि इब हम थारे यहां सीसीटीवी कैमरे लगवा के तुम्हें तुम्हारे घरों में औरत की कितनी बदतर हालत है इसका आईना दिखावें तुमको, तब जा के यह चूचियों में हाड टोहने छोड़ोगे?

और बाई दी वे यह चूल्हे-चौकें के साथ जैसे ऑफिस गोइंग औरतें वर्किंग वीमेन कहलाती हैं और इस कल्चर को तुम लोग बड़ा हाई-स्टैण्डर्ड मान के बौराते फिरते हो, तो जाटों के यहां क्या वर्किंग वीमेन नाम के कल्चर पे कोई चीज नहीं होती या वो जाटों के यहां आते-आते वीमेन से डबल काम लेने से ले उसको काम के बोझ से लादे रखने का सगुफा बन जाती हैं? मैं कहूँ मखा थम टिक के खा लो, नहीं तो जो हमने कैमरे उठा लिए तो थमको अपने घरों की दीवारें सीसीटीवी कैमरा प्रूफ और सेंसिटिव बनवानी पड़ जांगी|

हरयाणवी कहावत "चूचियों में हाड टोहने' का मतलब होता है बिना बात की बात की बात बढ़ा के उसकी पूंछ बना देना|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अंतर्जातीय ब्याह को बढ़ावा देने की बात पर कुछ जाट!


अंतर्जातीय ब्याह को बढ़ावा देने की बात पर कुछ जाट इतने भोलेपन में कहेंगे कि ठीक है हरयाणा में खुल जाए तो हमको उड़ीसा-बंगाल-बिहार की तरफ नहीं देखना पड़ेगा।

अरे भाई दूसरी जातियों में क्या छोरियाँ डबल संख्या में हैं, जो उड़ीसा-बंगाल-बिहार की तरफ नहीं देखना पड़ेगा? देखना तो फिर भी पड़ेगा ना? आखिर हरयाणा में हैं तो 877 छोरी ही हैं ना 1000 छोरों पर?

बल्कि इस एंगल से तो जाटों को नुक्सान और उठाना पड़ सकता है, क्योंकि हरयाणा में खत्री-अरोड़ा, बनिया जैसी ऐसी शहरी जातियां हैं जिनमें जाटों से भी कम छोरियां हैं। ना यकीन हो तो हरयाणा जनसांख्यिकी के शहरी बनाम ग्रामीण आंकड़े उठा के देख लो। हरयाणे के हर जिले में शहरी लिंगानुपात तो ग्रामीण से भी ढुलमुल है।

तो यें के इहसा छोरियाँ का गोदाम ले रे सैं कि जो अगर अंतर्जातीय ब्याह होने लग जावें तो इनकी भी सध जाएगी और जाटों की भी साध देंगे? बल्कि उल्टा इस अंतर्जातीय ब्याह के ओढ़े में थारी इंटेलीजेंट और अच्छी पढ़ी-लिखी व् समझदार लड़कियों को और ब्याह ले जायेंगे और फिर थम हाँडियो उलटे वहीँ बिहार-बंगाल-उड़ीसा के ही चक्कर काटते। मेरे बट्टे भोलेपन में उलटे-सीधे ताकू चलायें जां सैं।

वैसे भी जाटों के यहां तो खापों से ले खुद जाटों ने सदियों-सदियों से अंतर्जातीय ही नहीं अपितु अंतरधार्मिक ब्याह भी करे, तभी तो कहावत हुई कि 'जाट के आई और जाटनी कुहाई!'

तो भाई हमारे लिए अंतर्जातीय विवाह के पहलु में नया पहलु क्या? खाम्खा के विद्वता के झंडे कौम-राज्य की हंसी का सबब बनते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

अगर ब्राह्मण पुजारियों को उनकी जाति में भी अंतर्जातीय विवाह खोलने की बात नहीं करनी थी तो सिर्फ अजगर में खोलने की बात पर पंचायत क्यों बुलाई?

खाप-पंचायतों ने जब पहले से तमाम अंतर्जातीय विवाह खोले हुए हैं। सिर्फ अजगर तो क्या आप किसी भी जाति में विवाह करो इसपे पहले से ही कोई रोक नहीं है तो यह नया स्वांग किस शौक और उद्देश्य से? अजगर को बाकी जातियों से अलग-थलग करने के लिए?

अगर ब्राह्मण पुजारियों को उनकी जाति में भी अंतर्जातीय विवाह खोलने की बात नहीं करनी थी तो अजगर को यह पंचायत जाति -पाति के केंद्रबिंदु किसी मंदिर के प्रांगण में करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी? अथवा यह पंचायत किसी गैर-अजगर प्रतिनिधि ने बुलाई थी? और बुलाई थी तो इसमें अजगर के लोग व् प्रतिनिधि गए क्यों थे?

अजगर समूह से जो गए वो यह क्यों भूल गए कि आप जिन खाप-पंचायतों के प्रतिनिधि हैं वो जातिवाद व् वर्णवाद की विरोधी रही है? और इसीलिए इतिहास में खाप अथवा अजगर की कोई भी पंचायत मंदिर में होने का कोई इतिहास नहीं। मंदिर तो क्या वरन किसी भी धर्म के धर्मस्थल में ऐसी पंचायत होने का कोई इतिहास नहीं।

25-11-2014 को जींद में भी ऐसी खाप-पंचायत आयोजित हुई थी जो आर्ट ऑफ़ लाइफ वालों ने बुलाई थी। उस पंचायत के नतीजे इतने भयानक आये थे कि आज पूरा हरयाणा जाट बनाम नॉन-जाट की भट्टी में अपनी चरमसीमा के स्तर तक धधक रहा है। भगवान जाने यह गाज़ियाबाद में हुई इस तरह की दूसरी पंचायत के क्या दुष्परिणाम सामने आने वाले हैं।

और इस अख़बार वाले का 'अब' शब्द प्रयोग करना तो ऐसे हो गया जैसे कि इससे पहले अजगर में आपस में विवाह ही नहीं हुए। हद है इनकी भी धक्के का खुलापन और प्रतिनिधित्व सिद्ध करने की।

सर्वखाप में अंतर्जातीय स्वयंवर का अनूठा संयोग: इतिहास पर नजर डालने पर पता चलता है कि कई खाप वीरांगनाओं द्वारा स्वेच्छा से अंतर्जातीय वर चुने गए|

1355 में चुगताई और चंगेजों को लोहे के चने चबवाने वाली दादीराणी भागीरथी देवी जी महाराणी ने प्रतिज्ञा की थी कि अपने समान योग्य वीर योद्धा से ही विवाह करूंगी| और क्योंकि उस समय पंचायत संगठन में स्वंयवर करने की विधि का प्रचलन था तो इस युद्ध के दो वर्ष पीछे भागीरथी देवी ने स्वेच्छा से पंचायत के सानिध्य में एक महा-तेजस्वी पंजाब के रणधीर गुर्जर योद्धा से विवाह किया| इसके साथ ही कुछ और भी देवियों ने स्वंयवर किये, जिनमें दो देवियों के विवाह विवरण इस प्रकार हैं|

उसी काल में दादीराणी महादेवी गुर्जर वीरांगना ने दादावीर बलराम जी नाम के जाट योद्धेय से स्वयंवर किया|

वीरांगना महावीरी रवे की लड़की ने अपने समान दुर्दांत योद्धेय दादावीर भद्रचन्द सैनी जी से विवाह किया|

एक राजपूत जाति की लड़की ने कोली जाट वीर योद्धेय से विवाह किया|

इसी प्रकार भंगी कुल की तथा ब्राह्मण कुल की कन्याओं ने भी अपनी मनपसंद वीरों से स्वयंवर किये|

खापों के इतिहास में ऐसे यह अपने-आप में ऐसा विलक्षण अवसर था जब एक साथ इतनी वीरांगनाओं ने स्वयंवर किये थे| और एक बार फिर समाज में यह सन्देश गया था कि सर्वखाप एक जातिविहीन, ऊंच-नीच व् वर्ण-व्यवस्था रिक्त सामाजिक तंत्र है| अत: इसमें जातीय-कुल-वंश-रंग-भेद के हिसाब से कोई भेदभाव नहीं था|

भगवान बचाये अजगर समूह को इन लोगों की गन्दी नजरों और मंदी नियत से।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


 

Monday, 20 July 2015

जाट अगर अपनी 'जाट थ्योरी ऑफ़ सोशल लाइफ एंड कंडक्ट' पे रहे तो जाट और दलित का कभी झगड़ा ना हो!


1) पूरे भारत में जहाँ कृषि-क्षेत्र में नौकर-मालिक की संस्कृति चलती है, वहीँ जाटलैंड पर ‘सीरी-साझी’ की संस्कृति चलती है। जाट को यह संस्कृति कोई पुराण-शास्त्र-ग्रन्थ नहीं अपितु उसकी खाप सोशल इंजीनियरिंग सिखाती है। तो जो जाट नौकर तक को ‘सीरी-साझी’ यानी पार्टनर कहने की संस्कृति पालता आया हो तो जब उसका एक दलित से झगड़ा (90% झगड़ों की वजह कारोबारी) होता है वो उसी जाट को एंटी-जाट (सारा नहीं) मीडिया और एनजीओ द्वारा रंग-भेद-नश्ल अथवा छूत-अछूत का धोतक कैसे और क्यों ठहरा दिया जाता है?

2) जाट बाहुल्य गाँवों में पूरे गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ को अपनी बेटी-बहन-बुआ मानने की सभ्यता का सिद्धांत होना। निसंदेह यह शिक्षा भी किसी शास्त्र-ग्रन्थ-पुराण से नहीं आती, अपितु खाप सोशल इंजीनियरिंग थ्योरी देती है। तो अगर जाट के लिए दलित नीच या अछूत होता तो वो उसकी बेटी-बहन-बुआ को अपनी बेटी-बहन-बुआ मानने का सिद्धांत क्यों बनाता? जबकि जाट तो दलित की बेटी को देवदासी बनाने के देवालयों में रखने का धुरविरोधी रहा है और यही वजह है कि उत्तर भारत खासकर खापलैंड के मंदिरों में कभी देवदासी नहीं बैठी।

3) जो जाटों के सयाने आज भी इस परम्परा से दूर नहीं हुए हैं वो तो आज भी इसको निभाते हैं। परम्परा कहती है कि जब भी किसी गाँव में बारात जाएगी तो उस गाँव में बारात वाले गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बुआ-बहन की मान करके आएगी। मेरे दादा, मेरे पिता और खुद मैंने यह मानें की हैं। तो सोचने की बात है कि अगर जाट अपनी जाट थ्योरी से वर्ण-नश्ल-भेद करने वाला होता तो उसको इतनी दूर जा के भी अपने गाँव की 36 बिरादरी की बेटी-बहन-बुआ की मान करने की क्या जरूरत होती? वो अपनी या अधिक से अधिक अपनी बिरादरी तक भी तो इस परम्परा को सिमित रख सकता था?

4) सीरी-साझी को नेग से बोलने की मान्यता। नेग यानी गाँव की पीढ़ी के दर्जे के अनुसार सम्बोधन। यानी अगर कोई दलित सीरी गाँव के रिश्ते (नेग) में आपका दादा लगता है तो उसको दादा बोलना, चाचा-ताऊ लगता है तो चाचा-ताऊ बोलना, भाई या भतीजा लगता है तो नाम से बोलना। दादा-चाचा-ताऊ में अगर यानी सीरी भी और साझी भी दोनों हमउम्र हैं तो आपस में नाम ले के भी बोलने का विधान रहता है क्योंकि हमउम्र आपस में दोस्त भी होते हैं।

इस विधान पे तो मेरे घर का ही किस्सा रखते हुए चलूँगा। मेरे चाचा के लड़के में गधे वाले अढ़ाई (जवानी ) दिन आये-आये थे। वो ना घर में किसी को कुछ समझता था ना ही बाहर। एक बार मैं और वो खेतों में गए हुए थे। वहाँ उनका साझी (चमार रविदासी जाति से) जो रिश्ते में हमारे दादा लगते थे, काम कर रहे थे। तो चाचा के लड़के ने किसी कामवश साझी को दादा से सम्बोधन ना करने की बजाये उनके नाम से 'आ धीरे' सम्बोधन करके आवाज लगाई। गन्ने के खेत थे तो कुछ पता नहीं चल रहा था कि कौन किधर है। तो उसका आवाज लगाना हुआ और पीछे से किसी ने उसकी गुद्दी नीचे एक जड़ा। हमने पीछे मुड़ के देखा तो मेरे चाचा जी (उसके पिता जी) थे। चाचा जी की तरफ प्रश्नात्मक नजर से देखा ही था कि पूछने से पहले ही उसको चपाट लगाने का कारण बताते हुए उसको हड़का के बोले कि 'धीरा, के लागै सै तेरा? तो भाई ने जवाब दिया 'दादा'? तो चाचा जी ने एक और जड़ते हुए गुस्से से कहा तो फिर नाम ले के क्यों बोला? आजतक मैं खुद जिसको 'चाचा' कह के बोलता हूँ, तुम उसको ऐसे बोलोगे? इतने में सामने से दादा धीरा भी आ गए, जो चाचा जी को भाई की नादानी समझते हुए उसको ना मारने की कहने लगे। तो भाई ने आगे से ऐसी गलती ना दोहराने की कहते हुए चाचा जी और दादा जी दोनों से माफ़ी मांगी।

तो ऐसे में सवाल उठता है कि अगर किसी अ. ब. स. कारणवश दलित से जाट का झगड़ा होता है या जाटलैंड पर किसी गाँव में किसी दलित के लिए अलग कुआँ बना या बनाया गया तो उसकी मूल जड़ में कौनसी विचारधारा रही?

निसंदेह पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की समाज को वर्ण और जातिय आधार पर बांटनें की धारणा रही। और जब-जब जाट इसके प्रभाव में आया है वो नश्लवादी हुआ है। आज भी बहुतेरे ऐसे जाट हैं जो इन नश्लवादी धारणाओं से अपने को अलग रखते हैं और खेत में अपने दलित सीरी-साझी के साथ एक ही बर्तन में खाते भी हैं और पानी भी पीते हैं।

मुझे विश्वास है कि सिर्फ जाट के यहां ही नहीं खापलैंड पर बसने वाली हर किसान जाति के यहां जैसे कि 'अजगर' यानी अहीर-जाट-राजपूत-गुज्जर' रोड, सैनी आदि सबके यहां कुछ-कुछ ऐसी ही रीत मिलेंगी।

तो ऐसे में भेद समझने का यह है कि जिन पुराण-शास्त्र-ग्रंथों के प्रभाव में आ जाट दलितों को अपनी जाट थ्योरी ऑफ़ सोशल लाइफ एंड कंडक्ट की लाइन से हटकर ट्रीट करते हैं वो फिर इन्हीं पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की मीडिया व् विभिन्न एंटी-जाट एनजीओ में बैठी औलादों के हत्थे दलित विरोधी होने के नाम से कैसे चढ़ जाते हैं? और सिर्फ जाट-दलित के ही क्यों चढ़ते हैं और हद से ज्यादा उछाले जाते हैं, अन्य किसानी जातियों से दलित के हुए झगड़े इतनी हाईलाइट की लाइमलाइट क्यों नहीं पाते? इसका मतलब यह लोग यह मानते हैं कि क्योंकि इन ऊपरलिखित मान्यताओं का रचनाकार व् संरक्षक जाट है, इसलिए सिर्फ जाट-दलित के मामले ही उछालो या फिर कोई और वजह भी हो सकती है? ऐसी औलादों को चाहिए तो ऐसे जाटों की पीठ थपथपानी या कम से कम चुप रहना, क्योंकि उनके लिए तो ऐसे जाट उनकी लिखी पुस्तकों की बातों को साकार कर रहे होते हैं, है कि नहीं?
और जब यह औलादें ऐसी घटनाओं-वारदातों का अपनी रिपोर्टों-बाइटों में अवलोकन कर रहे होते हैं तो यह कभी नहीं कहते कि जिन शास्त्र-ग्रन्थ-पुराणों की थ्योरी से पनपी मानसिकता के चलते यह नौबत आई उनको या तो एडिट करवाया जावे या उनको समाज से हटाया जावे? अपितु झगड़ा हुआ होगा दो-चार जाटों का या की वजह से, उसको मत्थे पे जड़ के दिखाएंगे पूरी जाट बिरादरी के। है ना अजब तमाशा इनकी ही लिखी बातों को मानने अथवा उनके प्रभाव में रहने का?

एम.एन.सी. कॉर्पोरेट वर्क कल्चर में काम करने वाले जाट और जाटों के बच्चे यहाँ गौर फरमाएं कि पाश्चात्य सभ्यता के वर्किंग कल्चर के अनुसार बॉस को सर या मैडम कहके बुलाने की बजाये मिस्टर, मिस या मिसेज के आगे नाम लगा के या सीधा नाम या उपनाम से सम्बोधन करने का जो चलन है वो आपके अपने खेतों के ' सीरी-साझी' वर्किंग कल्चर से कितना मेल खाता है। यानि मालिक को मालिक (भारतीय कॉर्पोरेट की भाषा सर/मैडम) कहने जरूरत नहीं वरन उसको सीरी समझो और और मालिक भी आपको नौकर नहीं कहेगा, अपितु साझी यानि पार्टनर समझ के काम लेगा या देगा। एम.बी.ए. वगैरह के एच.आर. (Human Resource) कोर्सों में यही सब तो सिखाया जाता है जो कि आप खेतों की पृष्ठभूमि से आते हुए वहीँ से सीख के आये हुए होते हो, सिर्फ अंतर जो होता है वो होता है भाषा का। पीछे आप हरयाणवी या हिंदी में बोलते रहे हैं यहां आपको अंग्रेजी बोलना है, बाकी वर्किंग एथिक्स तो सेम रही। हालाँकि कई भारतीय मूल की कम्पनियों में तो आज भी सर, मैडम का कल्चर चलता है। क्यों और किस वजह से चलता होगा, वो आप समझ सकते हैं।

तो दोस्तों, जाट को दलित विरोधी दर्शाने का षड्यंत्री मकड़जाल यही भेद है, जिसको पकड़ में आ गया समझो पार नहीं तो खाते रहो हिचकोले भींत (पुराण-शास्त्र-ग्रंथों की वर्णीय और जातिवाद सोच) बीच और खोद (इसी सोच वालों की एंटी जाट मीडिया और एनजीओ) बीच। और जब तक जाट इस चीज को समझ के इनसे अँधा हो चिपकना नहीं छोड़ेगा, यह ऐसे ही अपने जाल में घेर-घेर के आपकी शुद्ध लोकतान्त्रिक मानवता की थ्योरी को भी ढंकते रहेंगे और आपपे जहर उगल आपकी सामाजिक छवि और पहुँच को छोटा करने की और अग्रसर रहेंगे। सीधी सी बात है भाई, किसी को सर पे चढ़ने का अवसर दोगे या चढ़ाओगे तो वो तो मूतेगा भी और कूटेगा भी।

चलते-चलते यही कहूँगा कि अब तक जिन थ्यूरियों और मान्यताओं को हमने डॉक्यूमेंट नहीं किया, अब उनपे किताबें लिख के विवेचना और प्रचार करने का वक्त आ गया है, वरना जाट सभ्यता और थ्योरी को ढांपने-ढांकने हेतु, यह गिद्ध-भेड़िये यूँ ही कोहराम मचाते रहेंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक