Saturday, 26 December 2015

चौधरी छोटुराम जी की सोच व संघर्ष:

चौधरी छोटुराम जी की सोच व संघर्ष चौधरी छोटुराम जी की सोच व संघर्ष:

1)     औरतों पर अत्याचार बंद करें| चौधरी छोटूराम ने औरतों पर अत्याचार बंद करवाने के लिए 'जेण्डर इक्विटी एक्ट-1942 बनाकर उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिलाए। पंचायती राज स्थापित कर औरतों को 50 प्रतिशत सीटों पर भागीदारी दी। विधानसभा में 20 प्रतिशत सीटें प्रथम बार 1943 के चुनाव में तथा पांच वर्ष बाद 50 प्रतिशत सीटें देने का प्रावधान किया। औरतों को शिक्षित करने के लिए नारी-शिक्षा को अनिवार्य करने का प्रस्ताव पास कराया। परन्तु यह काम इसलिए अधूरे रह गए, क्योंकि चौधरी छोटूराम का देहान्त 1945 में ही हो गया। और विरला समाज सुधारक इस दुनिया से विदा हो गया।

2)     मुलतान जिले (हाल पाकिस्तान) में दलितों को कृषि भूमि देना दीनबंधू सर छोटूराम का दीनबन्धू नामकरण दलितों द्वारा किया गया, क्योंकि इन्होंने कहा था कि दलित शब्द समाप्त करना जरूरी है नहीं तो शोषित वर्ग समाज में बराबरी पर नहीं आ सकता। 13 अपे्रल 1938 को जब ये कृषिमंत्री थे तब भूमिहीन दलितों को खाली पड़ी सरकारी कृषि भूमि 4 लाख 54 हजार 625 एकड़ (किले) जो मुलतान जिले में थी भूमिहीन दलितों को रु. 3/- (तीन) प्रति एकड़ जो 12 वर्षों में बिना ब्याज, प्रतिवर्ष चार आने किश्तों पर चुकाने की शर्तों सहित अलॉट कर दलितों को भू-स्वामी बनाया। दलितों ने सर छोटूराम को दीनबन्धू का नाम देकर इन्हें हाथी पर चढ़ा कर ढोल-नगाड़ों से जुलूस निकालकर जलसा किया। ऐसे पड़ा था इनका नाम दीनबन्धू।

3)     छुआछूत बुराई कानून राज्य में 1 जुलाई 1940 को सर छोटूराम ने यह कानून बनाकर सख्ती से लागू कर दलित शब्द मिटाने का वचन निभाया। एक सरकुलर जारी किया गया, जिसके अनुसार सारे पब्लिक कुएं सारी जातियों के लिए खोल दिए गए। इससे दलितों को इंसानी हकूक कानूनी तौर पर मिल गए, जिससे वह सदियों से रिवाज और जाति-पाति के चक्करों से वंचित कर दिए गए थे। जमींदारा पार्टी का यह फैसला लागू होने पर मोठ गांव में स्वर्णों ने दलितों को कुओं पर चढऩे से रोकने पर खुद चौ. छोटूराम ने वहां जाकर समझाइश कर दलितों को कुएं पर चढ़ाकर पानी भरवाकर घड़े दलित महिलाओं के सिर पर चकवाकर उनका सम्मान बढ़ाया।

4)     इसके अतिरिक्त सरकारी हुक्म जारी कर दिए कि कोई ऑफिसर किसी दलित या पिछड़ी जाति के आदमी से किसी प्रकार की 'बेगारनहीं लेगा। सरकारी दौरे पर दलित से अपना सामान नहीं उठवाएगा। हिदायत दी कि बेगार लेना कानूनी जुर्म है। इन्सान की बेकदरी है।

5)     मुस्लिम समाज से भाईचारा सर छोटूराम ने नेशनल यूनियनिस्ट जमींदारा पार्टी वर्ष 1923 में बनाई, परन्तु सर फजली हुसैन जिन्होंने इंग्लैण्ड से वकालत की थी को इसका अध्यक्ष बनाया। जब जमींदारा पार्टी वर्ष 1935 में सत्ता में आई तब सर सिकन्दर हयात खां एक मुस्लिम को वजीरे आला (मुख्यमंत्री) बनाया। सर सिकन्दर हयात खां लन्दन स्कूल ऑफ इकनोमिक्स से पढ़े विद्वान थे जो उस समय रिजर्व बैंक - दिल्ली में इसके गवर्नर थे। सर सिकन्दर हयात खां के देहान्त के बाद इन्होंने उसके पुत्र सर खीजर हयात खां को वजीरे आला बनाया। सन् 1945 में चौधरी छोटूराम के देहान्त के बाद सर खीजर हयात खां को इतना सदमा लगा कि वह देश छोड़कर इंग्लैण्ड यह कहते हुए चला गया कि जब चाचा ही नहीं रहे तो अब शासन किसके सहारे करूंगा।

6)     राजपुताना में कुम्हारों पर लगी 'चाक लागको समाप्त कराया दीनबन्धु सर छोटूराम ने राजपुताने के राजाओं तथा ठिकानेदारों द्वारा कुम्हारों के घड़े व मिट्टी के बर्तन बनाकर बेचने पर 'चाक लागलगा रखी थी जो रु. 5/- वार्षिक अदा करनी पड़ती थी। राजाओं का कहना था कि जिस मिट्टी से कुम्हार बर्तन व घड़े बनाकर बेचते हैं वह मिट्टी राजाओं की जमीनकी है, इसलिए यह लाग देनी पड़ेगी। सर छोटूराम ने 5 जुलाई 1941 को बीकानेर में कुम्हारों को इक्ट्ठा कर महाराजा गंगासिंह से बातचीत कर इन्हें इस 'चाक लागसे मुक्ति दिलाई। कुम्हारों ने खुश होकर सर छोटूराम को एक सुन्दर 'सुराहीजिसमें पानी ठण्डा रहता हंै भेंटकर सम्मान किया। सर छोटूराम ने मरते दम तक वह सुराही अपने पास रखी।

7)     'कतरन लागसे नाइयों तथा नायकों को मुक्तिनायक तथा बावरी जातियां भेड़-बकरियां पालती थी। भेड़-बकरियों के बाल तथा ऊन कतरने पर ठिकानों ने 'कतरन लागलगा रखी थी। इसी प्रकार नाइयों द्वारा बाल काटने का धन्धा करने पर इस कतरन लाग का भुगतान करना पड़ता था। सर छोटूराम ने 26 जुलाई 1941 को मारवाड़ के गांव रतनकुडिय़ा तथा पहाड़सर में भेड़-बकरी पालकों को इक्ट्ठा कर 'कतरन लागके विरूद्ध प्रदर्शन कर इस 'कतरन लागसे इन्हें मुक्ति दिलाई।

8)     'बुनकर लागका उन्मूलन कर बुनकरों को राहतबुनकर जो अधिकतर जुलाहे मेघवाल समाज से होते थे जो डेवटी की रजाई का कपड़ा, खेस, चादर तथा मोटा कपड़ा रोजी-रोटी कमाने के लिए बुनकर बेचते थे। सूत गृहणियां कातकर उन्हें देती थी और वे उस सूत से उनकी इच्छानुसार वस्तुएं बुनकर दे देते थे। शेखावाटी तथा मारवाड़ और विशेषतौर पर जयपुर, पाली तथा बालोतरा में यह काम जोरों पर था। ठिकानेदारों न इस काम पर 'बुनकर लागरखा रखी थी। जिसका विरोध 4 वर्षों तक सन् 1937 से 1941 तक सर छोटूराम ने अपनी अगुवाई में करके समाप्त कराया। बालोतरा में 9 अगस्त 1941 को ठिकानेदारों ने जुलाहों के घरों को लाग नहीं देने पर आग लगा दी जिससे सारा कपड़ा जल गया। सर छोटूराम वहां गए और 8 दिन भूख हड़ताल की तब जाकर जोधपुर के राजा का सन्देश आया कि यह लाग समाप्त कर दी गई है। सर छोटूराम ने 28 मेघवाल परिवारों को नुकसान की भरपाई के लिए रु. 1500/- प्रत्येक परिवार को राजा से दिलवाने की मांग पर अड़ गए। तीन दिन बाद राजा ने प्रत्येक परिवार को रु. 1500/- देने की घोषणा की। ऐसे संघर्ष सर छोटूराम ने मंत्री पद पर रहते हुए किसानों और दलितों की भलाई के लिए किए जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।

9)     जागीरदारी प्रथा - लगान वसूली व बेगारों में निर्दयता रियासती काल में ठिकानें जागीरदारों के अधीन थे। जागीरदार उनसे अनेक प्रकार की श्रमसाध्य और जानलेवा बेगारें लेते थे। ये जागीरदार बड़े ही निरंकुश और अत्यन्त मनमानी करने वाले माने जाते थे। जागीरदार की मर्जी ही कानून था। यदि किसान से लगान वसूली नहीं होती तो किसान को पकड़कर ठिकाने के गढ़ या हवेली में लाया जाता और उसके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जाता था, जैसे - काठ में डाल देना, भूखा रखना आदि दण्ड - उपाय, जो एक जघन्य अपराधी के खिलाफ भी प्रयोग में नहीं लिए जाते थे। गरीब किसान के लिए यह अत्यंत लज्जाजनक किन्तु आक्रोश पैदा करने वाली स्थिति थी। इन सजाओं की कोई सीमा न थी, कोई कानून न था, कोई व्यवस्था न थी और कोई विधि-विधान भी न था। खड़ी खेती कटवा लेना, पशु खुलवाकर हांक ले जाना, घर-गृहस्थी के बर्तन, कपड़े लते उठा लेना और किसान की मुश्कें कसवा देना साधारण बात थी। दाढ़ी-मूछें उखाड़ लेना, भूमि से बेदखल कर देना कोई बड़ी बात न थी। किसान तथा उसके परिजनों को गोली का निशाना तक बनाया जाने लगा था। जागीरदार की हवेली में हाथ का पंखा दलितों से खिंचवाया जाता था और थोड़ी चूक करने पर अपशब्द बोले जाते थे।

10)  सामाजिक दमनचक्र सामाजिक दमन का चक्र कितना गम्भीर था, इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ पिछड़ी जातियों के लोग वहां के सवर्ण जातियों के लोगों के सामने चारपाई पर नहीं बैठ सकते थे। उनके सामने पांचों कपड़े नहीं पहन सकते थे। यह लोग किसी तीर्थ में स्नान भी नहीं कर सकते थे। जागीरदार के घर बेटी पैदा हो गई तो एक मण अनाज की लाग किसान पर थी जिसे 'बाई जामती की लागकहते थे और लड़की की शादी होने तक हर साल गाजर, मूली, शकरकन्द की एक क्यारी किसान को देनी पड़ती थी। नाच-गानों का मेहनताना 5 सेर अनाज ढाढ़ी का व 5 सेर भगतण को किसान को ही देना पड़ता था।

11)  किसान की जाति क्या है चौधरी छोटूराम ने कहा था कि किसान की जाति उसकी पार्टी है। आज से जो किसान होगा चाहे वह दलित हो या सवर्ण, अगर वह जमींदारा पार्टी से जुड़ा है तो वह जमींदार कहा जाएगा। वह जमींदारा पार्टी का सच्चा सिपाही और जमींदार होगा।

12)  युवा वर्ग व नारियों को उचित प्रतिनिधित्व चौधरी छोटूराम ने युवावर्ग तथा महिलाओं को राजनीति में उचित स्थान दिया। वे कहते थे कि युवावर्ग तथा महिलाओं के बगैर राजनीति सारहीन है। प्रत्येक चुनावी वर्ष में उम्मीदवारों का बदलाव जरूरी है ताकि अन्य उम्मीदवारों को आने का मौका मिले। बार-बार एक ही व्यक्ति या एक ही परिवार के व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाने से समाज में आक्रोश पैदा हो जाता है। जिस प्रकार फसलें फेर-बदल कर बोनी चाहिए, राजनीति भी इस सिद्धान्त से अछूती नहीं। योग्य तथा योग्यता के सिद्धान्त के आधार पर उम्मीदवारी तय की जाए। पढ़े-लिखे उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाए।

13)  बदलाव करना नितान्त आवश्यक है। स्टूडेन्ट्स कान्फे्रंस सन् 1934 के दिसम्बर महीने में 'अखिल भारतीय जाट स्टूडेन्ट्स कान्फे्रंसका आयोजन मास्टर रतनसिंह के संयोजकता में पिलानी कस्बे में किया गया। कॉलेज के विद्यार्थी तथा प्रोफसरों ने भारी परिश्रम किया। कॉन्फे्रंस का प्रधान सर छोटूराम को बनाया गया व कुंवर नेतराम सिंह स्वागताध्यक्ष थे। सर छोटूराम का जुलूस हाथी परसज-धज के निकला जिसे देखने को सारा शहर उमड़ पड़ा। चौधरी रामसिंह, ठाकुर झम्मनसिंह, ठाकुर देशराज, सरदार हरलाल सिंह आदि गणमान्य व्यक्ति भी पधारे। विभिन्न प्रान्तों एवं देहातों से बड़ी तादाद में किसान शरीक हुए थे। इस सम्मेलन में युवाओं ने नई जान फूंक दी। सर छोटूराम ने उस वक्त यातायात के साधन ना होते हुए भी जगह-जगह घूमकर किसानों में जागृति पैदा की जिसे यह सामाज कभी भूल नहीं सकेगा। आज भी किसानी और किसान को बचाने के लिए युवा वर्ग हिचकोले ले रहा है। अब वह दिन दूर नहीं कि किसान क्रांति आकर रहेगी।

 

Friday, 25 December 2015

कैसे औरत को दोयम दर्जा, उसकी भावुकता और कोमलता बन जाती हैं समाज में पाखंड और आडंबरों के फैलने की सबसे बड़ी वजह:

भारतीय समाज और हिन्दू धर्म में औरत को दोयम दर्जा और औरत का कोमल और भावनाओं में बह जाने वाला स्वभाव, यह ऐसे कारक है जिसके कारण हम आज धर्म के नाम पर सिर्फ 10% धर्म और 90% पाखंड ढो रहे हैं| दोयम दर्जा हमेशा औरत को ऐसा करने के लिए उकसाता रहता है जिससे वो खुद को पुरुष के आगे साबित कर सके| घर में अपना अस्तित्व सिद्ध और कायम करने हेतु अपनी कोमलता और भावनात्मकता के चलते पाखंडियों और ढोंगियों की लालची और डरावनी चालों में फंस के जो धन पुरुष या वो खुद भी घर में घर के अगले दरवाजे से लाते है, उसी नेक-कमाई को घर के पिछले दरवाजे से इन मुस्टंडों के पेटों में उतारती रहती हैं|

और इसमें क्या अशिक्षित औरत और क्या पढ़ी लिखी; पढ़ी लिखी भी सिर्फ कोई घरेलू वाली नहीं अपितु ऐसी तक भी जो मल्टीनेशनल्स (multinationals) में कार्यरत हैं, उनको मैंने ढोल-ताबीज-टूना-टोटका वालों के चक्करों में भटकते देखा तो माथा ठनक गया|

और नतीजा यह हुआ कि मेरी ग्रेजुएशन के वक्त की एक सखी से उस वक्त की दोस्ती टूट गई, जब उसने मुझे एक दिन कहा कि फूल प्लीज मुझे इतने पैसे दे दे, मुझे मेरे पति और घर पर पड़े बुरी आत्माओं के सायों को काबू करने के लिए फलाने बाबा को 60000 रूपये देने हैं| मैंने कहा तू खुद महीने के एक लाख कमा रही है तो भी मेरे से मांग रही है? बोलती है कि तू समझता नहीं है, मेरा और मेरे पति का जॉइंट अकाउंट है, उससे निकाला तो वो और मेरी सास मुझे घर से निकाल देंगे|

मैं हैरत में था कि यह कैसी घर की ओवेरकरिंग कि जिसके लिए पैसे भी घर और पति से चोरी छुपे देने पड़ते हैं और फिर अंत में घर से निकाले जाने का डर वो अलग से?

एक बार तो मैं तैयार हो गया, क्योंकि पुरानी दोस्ती थी| पर फिर मैं संभला और उसको भी समझाने की कोशिश करी और उसको बोला कि इन चक्करों में मत पड़| तो बोली कि यार अब बीच में नहीं छोड़ सकती, बाबा ने तीन महीने से इलाज शुरू कर रखा है और अब पूरा करना ही होगा| मैंने कहा अब से पहले कितने दे चुकी है? बोलती है एक 60000 की इन्सटॉलमेंट (installment) पहले से दे चुकी हूँ| और मैं हतप्रभ रह गया|

एक पल को सोचा कि हम एमबीए, इंजीनियरिंग, डॉक्टर्स की डिग्री ले-ले के वैसे ही चौड़े हुए फिरते हैं| यह देखो बाबा का बिज़नेस एक क्लाइंट (client) से 120000 वो भी मात्र तीन महीनों में| बाबा के एक टाइम में ऐसे तीन क्लाइंट भी रहते होंगे तो बाबा तो बैठे-बिठाए महीने में एक MNC के मैनेजर से ज्यादा फोड़ लेता है| दोस्त मान नहीं रही थी तो मैंने थोड़ी देर सोचने के बाद कहा कि एक काम कर बाबा से 'सर्विस गारंटी पेपर' ले आ, तब तक मैं तेरे लिए पैसा अरेंज करता हूँ| बोली कि, "फूल तू समझेगा नहीं, छोड़"|

मैंने कहा ठीक है तो जा किसी ऐसे के पास इलाज करवा जो "सर्विस गारंटी" का पेपर देता हो| तो बोली कि ऐसा तो कोई नहीं| तो मैंने कहा कि फिर जा पहले गवर्नमेंट को बोल कि इन बाबाओं में से सिर्फ उसी को यह कार्य करने दिया जाए, जो "सर्विस गारंटी" का पेपर साथ देवें| यह सुन दोस्त बोली तू भाड़ में जा, एक हेल्प मांगी थी, उसके लिए इतनी चिक-चिक|

मैंने आगे कहा अभी तक कुछ फर्क पड़ा तेरे घर की स्थिति में? तो बोली कि नहीं| मैंने आखिरी बार यही कहा कि पड़ेगा भी नहीं| और फिर कहा कि बावली, क्यों जिंदगी खो रही है इस मोड्डे के चक्कर में? परन्तु उसको तो उस पाखंड की खाई से नहीं निकाल पाया, हाँ इस चक्कर में मेरी और उसकी दोस्ती और खट्टी पड़ गई| उस दिन से गाँठ बांध ली कि किसी भी दोस्त के घर में यह अघोरी-पाखंडी चाहे दिन-दहाड़े धुआं-धाणी करते रहो, मैं नहीं इस तरफ ध्यान देने वाला|

लेकिन बाद में विचार करता रहा कि सॉफ्टवेयर एग्जीक्यूटिव स्तर (software executive level) पर पहुँच कर भी अगर हमारे समाज की महिला इतनी जकड़ी और रुकी हुई सोच की रह जाती है तो इसके कारण क्या हैं? मर्म और धरातलीय सच्चाई पे जा के सोचा तो यही पाया जो ऊपर पहले पहरे में कहा|

एक विचार और आया कि भारत की राजनीति के गन्दा होने का दोष हम तथाकथित संभ्रांत पढ़े-लिखे वर्ग वाले बेकार ही भारत के गरीब-गुरबे तबके को बड़ी बेगैरत से यह कहते हुए दे देते हैं कि "जहां एक बोतल और चंद सिक्कों के लिए वोट बिकते हों, वहाँ तुम और कैसी राजनीति की अपेक्षा करोगे?" परन्तु नहीं जनाब उनके पास तो बिकने की वजह मजबूरी या अज्ञान है परन्तु आप और हम तो उससे भी घातक बीमारी डर और किसी को काबू में करने की लालसा से ग्रस्त हैं| और मेरी दोस्त जैसा महिलावर्ग तो घर में अपना अस्तित्व ही साबित करने के लिए इन बिमारियों से ग्रसित है, जो कि लगभग हर दूसरे भारतीय घर की सच्चाई है|

मुझे वो जमाना याद आता है जब मेरे गाँव में घर पे बड़े बुजुर्ग अपने कुनबों की औरतों के साथ पाक्षिक या मासिक सर पर सामूहिक काउंसलिंग (group counselling) किया करते थे और हर औरत को आगाह किया करते थे कि किसी भी ढोंगी-पाखंडी को घर की दहलीज पे कदम मत रखने देना| चलो वो पुरुषप्रधान थे, परन्तु अपनी पुरुषप्रधानी ढंके की चोट पर निभाते तो थे, यह आजकल वाले तो घर में आँखों के सामने भी इनकी औरतें इन प्रपंचों में पड़ती हैं तो टोक तक नहीं पाते| शायद इन लोगों ने जेंडर सेंसिटिविटी (gender sensitivity) और जेंडर इक्वलिटी (gender equality) का कुछ और ही अर्थ निकाल लिया है|

उद्धघोषणा: प्राकृतिक सी बात है, दोस्त की अपनी प्राइवेसी हेतु दोस्त का नाम तो बताऊंगा नहीं, परन्तु यह वाकया मेरी सॉफ्टवेयर एग्जीक्यूटिव दोस्त की जिंदगी का वास्तविक वाकया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

There is nothing like serious politics in India, its only a type of business!

मैंने 2014 के लोकसभा इलेक्शन से पहले ही कह दिया था कि "हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और!"। देखना आज वोट लेते वक्त जो यह व्यक्ति पाकिस्तान को पानी-पी-पी के कोस रहा है, "एक के बदले दस सर लाने" तो कहीं "लव-लेटर लिखने बंद करने की" (folks remember Rajat Sharma's 'Aap ki Adalat) शेखीयाँ बघार रहा है; अगर यही आदमी अटल बिहारी वाजपेयी की भाँति पाकिस्तान के साथ लंगर छकता और छकाता ना फिरे तो। अटल बिहारी ने ...तो आगरा न्योते दे-दे के लंगर छकाए, यह जनाब तो उनसे भी दो चंदे आगे बढ़के वहीँ जा के छक के आ रहे हैं|

क्यों अमित शाह जी कितने पटाखे फ़ुड़वा दिए आज पाकिस्तान में? (remember Bihar election jumla)| बिहार में इनके हारने से जिस पाकिस्तान में पटाखे फूटते हों, शर्म तो ना आई होगी उसी पाकिस्तान का थाल छकते हुए?

यार लिहाज-शर्म वालों को तो कोई कुछ कह भी ले, इन चिकने घड़ों को कोई कितना रो ले। जब तक भारत में धर्म, धर्म ना कहला के डर कहलायेगा और राजनीति, राजनीति ना कहला के व्यापार कहलाएगी, तब तक भारत और भारतीय जनता का उल्लू बनता रहेगा।


क्यों भगतो, मोदी जी दिलवाले देखने तो नहीं पहुँच गए, पाकिस्तान और यहाँ तुम बने फिर रहे गुरुघंटाल|

फूल मलिक

या तो हरदौल को छोड़, वर्ना दिल्ली छोड़!

जब एक ब्राह्मण की बेटी हरदौल को (उसकी माँ की पुकार पर) कैद से छोड़ने हेतु, महाराजा सूरजमल ने दिल्ली के बादशाह अहमदशाह को कहलवाया कि, "या तो हरदौल को छोड़, वर्ना दिल्ली छोड़!"

अहमदशाह ने उल्टा संदेशा भेजा, "सूरजमल से कहना कि जाटनी भी साथ ले आये, पंडितानी तो क्या छुड़वाएगा वो हमसे!"

इस पर लोहागढ के राजदूत वीरपाल गुर्जर वहीँ बिफर पड़े और वीरगति को प्राप्त होते-होते कह गए, "तू तो क्या जाटनी लैगो, पर तेरी नानी याद दिला जायेगो, वो पूत जाटनी को जायो है।"

इस पर सूरजमल महाराज ललकार उठे, "अरे आवें हो लोहागढ़ के जाट, और दिल्ली की हिला दो चूल और पाट!"
और जा गुड़गांव में डाल डेरा बादशाह को संदेश पहुँचाया, "बादशाह को कहो जाट सूरमे आये हैं अपनी बेटी की इज्जत बचाने को, और साथ में जाटनी (महारानी हिण्डौली) को भी लाये हैं, अब देखें वो जाटनी ले जाता है या हमारी बेटी को वापिस देने खुद घुटनों के बल आता है।"

और महाराजा सूरजमल का कहर ऐसा अफ़लातून बन कर टूटा मुग़ल सेना पर कि मुग़ल कह उठे:

तीर  चलें,तलवारें चलें, चलें कटारें इशारों तैं,
अल्लाह मियां भी बचा नहीं सकदा, जाट भरतपुर आळे तैं।

और इस प्रकार ब्राह्मण की बेटी भी वापिस करी और एक महीने तक जाट महाराज की मेहमानवाजी भी करी।
पूरा किस्सा इस लिंक से पढ़ें: http://www.nidanaheights.net/images/PDF/aflatoon-maharaja-surajmal-lohagarh.pdf

एशियाई प्लेटो अफ़लातून महाराजाधिराज सूरजमल महाराज की 252  वीं (25 दिसंबर, 1763) पुण्य तिथि पर विशेष। शायद भारतीय इतिहास का इकलौता महाराजा जिसका खजांची एक दलित हुआ।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक