Sunday, 12 March 2017

किसानी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा!

किसान जातियों को "मिनिमम कॉमन एजेंडा" बना के चलने का दौर आन पहुँचा है| ना अब अकेला जाट-जाट चिल्लाने से चलने वाला, ना ब्राह्मण-ब्राह्मण चिल्लाने से, ना यादव-यादव से, ना राजपूत-राजपूत से, ना गुज्जर-गुज्जर से और ना ही किसी अन्य किसानी जाति द्वारा ऐसे ही चिल्लाने से| अगर वाकई में भारतीय किसानी के प्रारूप को बचाने और किसान को आर्थिक रूप से सम्पन्न रखने को ले कर कटिबद्धता पर चलना है तो अपने-अपने जातीय अभिमानों-स्वाभिमानों-गौरवों को आपस में आदर देते हुए, साइड रखते हुए; अब सबको मिनिमम-कॉमन-एजेंडा के प्रारूप पर काम करना होगा|

वर्ना यह सरकार यहां कॉर्पोरेट खेती लाने ही वाले हैं, फिर करते रहना बंधुआ मजदूरी, कॉर्पोरेट खेतों में| यह सरकार बेचने की राह पर है, तुम्हारे किसानी स्वाभिमान को बेचने की राह पर है, तुम्हारी किसानी बेचने की राह पर है| किसी को नहीं देखने वाले यह, ना ब्राह्मण किसान को, ना पंजाबी किसान को, न जाट किसान को और ना ही किसी अन्य जाति के किसान को|

सिर्फ एक शब्द है जो आपकी किसानी को, आपकी जमीनों को बचा सकता है - 'किसानी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा'!

और हाँ चलते-चलते, भाजपा को जिसने यूपी में जिताया वह कोई लहर नहीं अपितु आपके अंदर भर दी गई या भरी हुई धर्मान्धता व् मुस्लिमों के प्रति भय ने जितवाया है| आज यूपी के परिदृश्य से मुस्लिम निकाल के देख लो, तो पता लगेगा कि इनको वोट करने का 90% कारण तो अकेला यही है; बाकी EVM गड़बड़ी तो जो सुर्ख़ियों में है वह है ही|

मुद्दों पर जीतती बीजेपी तो कहीं तो किसान का, मजदूर का, छोटे व्यापारी का कोई तो मुद्दा नजर आता? चुनाव से पहले तो अमितशाह तक जाटों के आगे वोटों के लिए गिड़गिड़ा रहे थे, इतनी लहर होती तो एक प्रधानमंत्री स्तर के बन्दे को यूँ विधासभा चुनावों के लिए गली-गली उतरना पड़ता क्या?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 10 March 2017

पहले दालें, फिर गेहूं और अब चीनी, भारत जितने इतने आयात-पे-आयात फ्रांस में हो जाएँ तो किसान शॉपिंग मॉल्स में पशु बाँध दें!

सार: विकसित देशों के किसान से सीखना होगा भारत के किसान को!

विगत साल फ्रांस में जर्मनी-पॉलैंड की तरफ से बेहताशा सब्जियां आयात करने से फ्रांस के किसान की सब्जियां सड़ने लग गई थी| तो ऐसे में फ्रांस के किसान ने अपना क्रोध जाहिर करने हेतु, स्ट्रॉसबर्ग शहर के शॉपिंग मॉल्स में गायें भर दी थी और पॉलैंड-जर्मनी से आने वाले रोड्स को जाम कर दिया था| उनका फ्रांस की सरकार और व्यापार जगत को साफ़ सन्देश था कि अगर तुम अपने ही किसान को मार्किट में नहीं रहने दोगे तो हम भी तुम्हारे शॉपिंग मॉल्स में पशु बाँध देंगे| तब जा के फ्रांस सरकार जागी और जर्मनी-पॉलैंड की तरफ से सब्जियों का आयात कुछ का बिलकुल बन्द किया और कुछ का लिमिट किया|

वैसे तो इंडिया में आज हालात यह हो रखे हैं कि जैसे ही भारत का किसान शॉपिंग मॉल्स में गाय-भैंस बाँधने चलेगा, भांड मीडिया सरकार और व्यापारियों से भी पहले उसको किसान की दबंगई, गुंडागर्दी कह के बड़बड़ाने लगेगा| और उसमें जातिवाद का तड़का लगा देगा वो अलग से| कि मान लो किसान हरयाणा का हुआ तो किसान नहीं बोलेंगे, बल्कि बोलेंगे कि अड़ियल जाटों का व्यापारियों के शॉपिंग मॉल्स पर कब्ज़ा, गुजरात में बोलेंगे कि दबंग पटेलों का व्यापारियों पर हमला आदि-आदि|

लेकिन सच तो यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने भारतीय किसान की कमर तोड़ने के तमाम रास्ते अपनाये हुए हैं| खुद के देश में कोई फसल ना होती हो तो बात समझ आती है, या देश का किसान वह फसल उगाने में सक्षम नहीं हो तब भी समझ आती है; परन्तु हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी की बेल्ट का किसान तो वो किसान है जिसने हर प्रकार की फसल उगाकर देश को दो-दो हरित क्रांतियां दी हैं| इसके बावजूद भी मोदी सरकार कभी नाइजीरिया जैसे देश को दालें उगाने के लिए करोड़ों की सब्सिडी देती है, तो कभी देश के गादामों में बेपनाह गेहूं सड़ता हुआ होने के बावजूद भी गेहूं आयात कर रही है और अब तो और भी घातक कदम आ रहा है चीनी आयात का|

भाजपा वाले जिन कांग्रेस्सियों पर 70 साल देश को लूटने का इल्जाम लगाते हैं वो कांग्रेस ऐसा करती तो एक दो पल को बात कोई सुनता भी, परन्तु "भारत माता की जय" बोलने वालों का यह कैसा स्वाभिमान कि चाहिए तो देश के किसान की पैदावार को पहले से भी ज्यादा बाहर मार्किट में उतारे और यह लोग तो आयात पे आयात करके उल्टे अपने ही देश के किसान को मार रहे हैं?

निसन्देह यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े खड़े किये गए हैं यह इनके इन्हीं अपने ही किसानों के पीठ में छुरा घोंपने के मनसूबों को पार लगाने हेतु तो किये गए हैं| कि अच्छा है जो कौम किसानी हक सबसे मजबूती से लड़ सकती है उसको जाट बनाम नॉन-जाट में उतार दो; बाकी तो किसान चाहे राजपूत हो, यादव हो, गुज्जर हो, सैनी हो, कम्बोज हो यहां तक कि ब्राह्मण किसान भी हो तो भी इनमें से कोई नहीं चुस्कने वाला|

ऐसे में देश के किसान के आगे दो ही सूरत बचती हैं, या तो इस जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े के खत्म होने की बाट जोहता रहे या फिर इन चीजों को समझ के फ्रांस वाले किसानों की भांति जा बांधे दिल्ली-एनसीआर के शॉपिंग मॉल्स में अपने डंगर-ढोर|

परन्तु इसके सफल होने में भी सन्देह, क्योंकि इंडिया के नेता-व्यापारी तो छोडो मीडिया तक किसान को ले के इतना संवेदनहीन है कि नेता-व्यापारी से पहले यही लोग किसान को ही दोषी ठहरवा देंगे| कुछ पल तो ऐसा लगता है कि भारत को उस वाली फ़्रांसिसी क्रांति की सख्त जरूरत है, जिसने धर्म को तो गलियों से खदेड़ के चर्चों में बन्द करके बिठा दिया था और उद्योगों को किसानों के प्रति संवेदशील रहना सीखा दिया था|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 8 March 2017

विकसित व् विकासशील/अविकसित देश में क्या अंतर होता है!

विकसित देश में धर्म और विज्ञानं को अलग-अलग मानते हैं जैसे कि यूरोप-जापान-चीन-अमेरिका| जबकि विकासशील अथवा अविकसित देश में धर्म को ही विज्ञानं साबित करने की हठधर्मिता चरम पर होती है जैसे कि भारत|

विकसित देशों ने धर्म को चर्च व् मठों में बन्द किया होता है जबकि अविकसित देशों में धर्म के जगराते-भंडारे-जागरण-पर्ची वाले गली-गली चल रहे होते हैं|

विकसित देशों में गाय जैसे पशु को खाने के लिए पहले उसको माता नहीं बनाना पड़ता, जबकि विकासशील देश में पहले गाय को माता कहने की नौटंकी होती है और फिर सबसे ज्यादा उस बेचारी को माता कहने वाले खा रहे होते हैं, और उन्हीं के 90% गाय के कत्लखाने यानि बूचड़खाने चल रहे होते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 6 March 2017

मौका मत चूकियो यशपाल मलिक जी!


दूसरा सर छोटूराम बनने की राह पर हो, परन्तु एक छोटी सी गलती उन्हीं अंधेरों में पहुंचा देगी जहां से आगे ना ताऊ देवीलाल उभर सके थे और ना बाबा महेंद्र सिंह टिकैत|

आप जाटों से दिल्ली में प्रदर्शन मत करवाओ, यह ऐसी जाहिल सरकार है कि जाटों पे तो गोलियां चलवा ही देगी, साथ ही साथ जिन संसाधनों में जाट दिल्ली में जायेंगे, उनको भी फाॅर्स से तुड़वा देगी| कहीं ऐसा ना हो जाए कि दुश्मन आपको दिल्ली में घेरने का चक्रव्यूह रचता रहा और आपको तब खबर हुई जब जाटों की लाशों के साथ-साथ जाटों के ट्रेक्टर-गाड़ियां तक भी तोड़ दिए गए| यह सन्देह मैं इसलिए नहीं जता रहा हूँ कि जाट कायर हैं, या मैं कायर हूँ बल्कि इसलिए जता रहा हूँ क्योंकि कौम के नफे-नुकसान की उसके शक्ति-प्रदर्शन से पहले सोचता हूँ| हो सकता है कि ऐसा ना भी हो, परन्तु इस रास्ते से मंजिल इतनी आसानी से मुहाल नहीं|

इसलिए आप जैसे आज दूसरे छोटूराम बनने की देहली पर जा पहुंचे जाट नेता (बल्कि किसान नेता) को एक अर्ज भरी दरखास कर रहा हूँ कि 20 मार्च को दिल्ली में जाने की बजाये, दो महीने के लिए खाने-पीने के सामान को छोड़ के सुई से ले के बड़ी-से-बड़ी मशीने खरीदने का अपने समाज से बहिष्कार करवा दीजिये| यकीन करिये अपने इस छोटे बालक का अगर जितना जाट समाज आज आपके नेतृत्व में हो रहे रहे धरनों पर जुट रहा है, इसके आधे ने भी आपकी बात मान ली तो यह व्यापारियों की सरकार आपको घर आ के आरक्षण दे के जाएगी|

छोटा मुंह और बड़ी बात, परन्तु आपकी जाट समाज द्वारा बिजली-पानी के बिल इत्यादि भरने बन्द करवाने के ऐलान पर सर छोटूराम जी का महात्मा गाँधी से हुआ एनकाउंटर याद आता है| जब महात्मा गाँधी ने 1922 में अंग्रेजों से असहयोग आंदोलन चलाया था तो सर छोटूराम ने गाँधी से जिरह की थी कि सिर्फ किसान और दलित ही नहीं अपितु पुजारी और व्यापारी से भी कहिये कि वह भी असहयोग करें| उन्होंने कहा था कि इस असहयोग की कीमत के ऐवज में आंदोलन के बाद में अंग्रेजों ने मेरे किसान पर टैक्स वगैरह बढ़ा दिए तो क्या वह पुजारी या व्यापारी भर देंगे या आप भर देंगे? तो गाँधी ने कहा था कि इस बात पर बाद में विचार कर लेंगे, फ़िलहाल आंदोलन चलने दीजिये| तो सर छोटूराम अपने सहयोगियों के साथ यह कहते हुए असहयोग आंदोलन से भी दूर हो गए थे और कांग्रेस भी छोड़े गए थे कि, "कब ईरान से सांप काटे की दवाई आई और कब सांप काटे का इलाज हुआ!'

इसलिए आपके जीवन के इस सुअवसर को पहचानिये और इसका सही फायदा उठाईये; यकीन मानिये निसन्देह दूसरे सर छोटूराम कहलायेंगे|

विशेष: अगर ऊपर बताये असहयोग आंदोलन का मन बने तो अपने इस बालक तो चाहे आधी रात याद कर लेना, न्यूनतम समय में आपकी और समाज की सेवा में हाजिर हो जाऊंगा| परन्तु इन अति में हो चुके प्रदर्शनों से डर लगता है साहेब; इसलिए नहीं कि कायर हूँ, अपितु इसलिए कि मुझे जाट समाज की एक जान भी, एक ट्रेक्टर भी जान से अजीज लगता है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सर छोटूराम फार्मूला की स्टेप-बाई-स्टेप सीख:


1) दुश्मन पहचानना सीखो, सीख लिया!
2) बोलना सीखो, सीख लिया!
3) क्लेशी (लेखक) हो जाओ, हो गए!
4) गुस्से को पालना व् सही मौके पर उपयोग करना सीखो, अभी सीखना शुरू किया है!
6) गिव एंड टेक के जरिये काम निकालो और निकलवाओ, अभी सीखना है!
7) किसान इकनोमिक मॉडल बहाल करो, अभी करना है!


जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 5 March 2017

अपनी पहचान व् इतिहास को लेकर सबसे कन्फ्यूज्ड जाट वो हैं!

जो वैसे तो फण्डियों-पाखंडियों को इस बात के लिए गालियां देंगे कि उन्होंने जाटों को कहीं शुद्र तो कहीं चांडाल तो कहीं लुटेरा क्यों कहा/लिखा? हिन्दू चच/दाहिर के राज में उनकी पहचान कुत्तों को सुंघा कर क्यों करवाई जाती थी आदि जैसी बातें सच हैं भी कि नहीं? अभी हाल ही में जो जाट बनाम नॉन-जाट चल रहा है यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ, किसी और जाति बनाम अन्य-तमाम क्यों नहीं हुआ?

और दूसरी तरफ यही नादाँ जाट, जाट को शुद्र-चांडाल-लुटेरे लिखने-कहने वालों के लिखे इतिहास में बिना-सोचे समझे गर्व की अनुभूति सी दिखाते हुए ना सिर्फ अपना इतिहास ढूंढने लग जाते हैं, बल्कि गर्व से साझा भी करने चल पड़ते हैं| खासकर माइथोलॉजी की पुस्तकों पर तो ऐसे रीझ के पड़ते हैं कि जैसे पता नहीं यही अंतिम वाक्य हैं इनकी पहचान के|

ऐसे कन्फ्यूज्ड जाटों को समझाओ वो इस नादानी से बचें| इतिहास में जो भी लिखा है उसको साइकोलॉजी, सोशियोलॉजी व् आइडियोलॉजी पर जरूर तोलें| वास्तविकता तो यह है कि अरब-सिथियन-यूरोपियन-चाइनीज इतिहास को पढ़े बिना जाट इतिहास पूरा होता ही नहीं| तो फिर अकेले इनकी मैथोलोजिकल पुस्तकों से जाट इतिहास कैसे सम्पूर्ण हो जायेगा?

विशेष: कोई जाट लेखक भी है तो उसके लिखे को भी साइकोलॉजी, सोशियोलॉजी व् आइडियोलॉजी पर जरूर तोलें| दूसरी बात किसी भी लेखक की लिखी पुस्तक पर कितनी विवेचना व् चिंतन हुई है, यह बात भी उस पुस्तक की व् लेखक की सार्थकता को मापने का पैमाना रहती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ओबीसी व् दलित भाईयो प्रैक्टिकल कारण समझो कि यह जाट बनाम नॉन-जाट ही क्यों हुआ?

पुजारी और फेरे, भारत की जाट बेल्ट्स को छोड़कर इन दोनों धंधों में ब्राह्मण का 100% मोनोपोली रहा है| जाट बेल्ट्स में जाट ने ढंग से ना सही परन्तु फिर भी इस मोनोपोली को तोड़ा है| आर्यसमाजी पध्दति से फेरे करवाना हो या ढेरों-मन्दिरों में पुजारी-महंत बनना; जाटों ने इस मोनोपली को तोड़ा है| इन धंधों से होने वाली आमदनी को ब्राह्मण से अपने लिए बंटवाया है|

और यही वो वजह है कि क्यों यह जाट बनाम नॉन-जाट ही बनाया गया, किसी और जाति बनाम सब अन्य क्यों नहीं उछाला गया| और यह बावजूद इसके है कि जाटों ने जिस भी ब्राह्मण ने उनको उचित सम्मान दिया है उसको प्रसिद्धि की प्रकाष्ठा तक ऊपर उठाया है, उदाहरणत: महर्षि दयानंद उर्फ़ मूलशंकर तिवारी|

इसीलिए दलित व् ओबीसी इस जाट बनाम नॉन-जाट के बहकावे में आने से पहले जरूर सोचें कि कहीं ना कहीं उनके यह कदम इनकी मोनोपोली को वापिस बहाल करवाने में ही मदद कर रहे हैं; कृपया ऐसी नादानी ना करें| जाटों से कोई मनमुटाव है तो सीधा बैठ के बात कर लें, बजाये इनके हाथों कठपुतली बनने के| जाट वो है जिसने फसल खलिहान में आते ही दलित-ओबीसी का हिस्सा पहले दिया है और बाद में अनाज अपने घर ले के गया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 4 March 2017

आरएसएस कहती है कि जो मुस्लिम की लड़की ब्याह लाये वह महाहिन्दू कहा जाए!

आप लोगों ने योगी आदित्यनाथ, साक्षी महाराज, बजरंगदल, हिन्दू महासभा इत्यादि वालों को यदाकदा यह लाइन कहते हुए सुना तो होगा? और आप यह भी जानते हैं कि यह सब आरएसएस की विंग्स हैं?

पर भाई, हमारे गठवाले (मलिक) जाटों के दादा मोमराज जी महाराज आज से दसियों सदी पहले गढ़-ग़ज़नी की बेगम को दादा बाहड़ला पीर की मदद से भगा के ब्याह लाये थे, हमने तो कभी ना सुना इन आरएसएस वालों को मलिक जाटों को महाहिन्दू कहते हुए?

खापलैंड.कॉम वेबसाइट के प्रोविजनल लांच पर एक अति-विशिष्ट व्यक्ति ने व्यक्तिगत वार्ता में बताया कि तुम्हें दहिया, हुड्डा जाट (उन्होंने दो चार और जाट गोतों के नाम लिए थे) कभी मुस्लिम नहीं मिलेंगे? उनकी बात के तर्क से तर्क निकाला तो पूछा कि मुस्लिम तो कोई गठवाला जाट भी ना मिलता? हाँ, उल्टी गठवाला जाटों को बराबरी के सम्मान के साथ मुस्लिमों ने मलिक की उपाधि जरूर ऑफर की थी; जो कि हम आज भी इसी स्टेटस सिंबल से प्रयोग करते हैं कि मुस्लिम खलीफाओं ने हिंदुओं में किसी को अपने से ऊपर या बराबर माना था तो वह मलिक यानी गठवाले जाट रहे हैं|

अरे, सुन रहे हो क्या आरएसएस वालो, योगी आदित्यनाथ; बताओ कब मलिक जाटों का महाहिन्दू की भांति सम्मान कर रहे हो?

वैसे मुझे आजतलक यह बात समझ नहीं आई कि हिन्दू धर्म त्याग के जाट सिख भी बने, बुद्ध भी बने, ईसाई भी बने, जैन भी बने, बिश्नोई भी बने, मुस्लिम भी बने; तो फिर यह 'डर की वजह से बने' की पंक्ति सिर्फ मुस्लिम वाले मामले में ही क्यों जोड़ती जाती रही है?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 2 March 2017

'क्यूट जाटणी' व् 'लाल बाह्मणी' के मसले को सुलझवाने बारे लिखी मेरी पोस्ट्स में कायरता या दब्बूपना नहीं अपितु सभ्यता व् मर्यादा देखी जाए!

कई भाईयों के मैसेज आये कि जब इन्होनें पहले 'क्यूट जाटणी' निकाला और बाद में "लाल बाह्मणी' निकला तो हम ही क्यों शांति की पहल करें? कई तो यह तक बोले कि यही तो हैं पूरे हरयाणा में 35 बनाम 1 व् जाट बनाम नॉन-जाट खड़ा करने के मूल में|

आप सब भाईयों से यही अनुरोध है कि इस बात को समझा जाए कि किसी भी देश-सभ्यता-समाज-जाति के अस्तित्व का मूल उनकी स्त्रियों का सम्मान है, स्त्री की आबरू है| माना मासूम शर्मा ने 'क्यूट जाटणी' निकाल के इसकी अवहेलना करी| दुर्भाग्यवश कहो या संयोगवश कहो उधर से किसी जाट गायक ने 'लाल बाह्मणी' निकाल दिया| परन्तु यह बहस अब एक उस लेवल तक पहुंचने वाली थी जो 35 बनाम 1 वाले मामले से भी भयंकर रूप ले सकती थी| माना आप ताकत और संख्या में भी बड़े हो परन्तु समाज ताकत और संख्या से पहले सभ्यता और मर्यादा से चलते हैं| और जाट जीन्स का गहना ही औरत की मर्यादा और सभ्यता निभाना रहा है| जाट वो नहीं जो दलित-ओबीसी लाचार की बहु-बेटी को देवदासी बना के सार्वजनिक में उसका बलात्कार करें और उसमे आनंद लेवे; यह जाट का चरित्र नहीं|

और शांति व् सुलह करने की पहल करने से मैं कायर नहीं हो जाता, इससे यह बात नहीं मिट जाती कि ब्राह्मण ने सम्पूर्ण भारत में किसी को 'जी' लगा के बोला व् लिखा है तो सिर्फ जाट को "जाट जी" व् "जाट देवता" बोला है; जो कि उसने किसी भी अन्य, यहां तक कि सवर्ण क्लास जैसे कि बनिया-अरोड़ा/खत्री-राजपूत इत्यादि को भी नहीं बोला| तो ओहदे के हिसाब से जब खुद ब्राह्मण ने जाट को उससे बड़ा लिख दिया तो दब्बूपने की तो इसमें बात ही नहीं रहती, यकीन मानिये उस ओहदे से मैंने कोई छड़ेछाड़ नहीं की है|

अत: इस समझौता कहो या सुलह की पहल में अपने देवताई रूप को देखो, कायरता या दब्बूपने को नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 1 March 2017

फूहड़ गानों की वजह से हरयाणा के दो अग्रणी समाजों में वर्तमान में चल रहे क्लेश का अंदेशा सर्वखाप के महामंत्री ने पण्डित नेहरू के आगे 1954 में ही जता दिया था!

बात तब की है जब 1954 में हरयाणा सर्वखाप के 28वें महामंत्री दादा चौधरी कबूल सिंह बाल्याण जी ने तब के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को बॉलीवुड फिल्मों में बढ़ती नग्नता व् फूहड़ता पर रोक लगाने हेतु कहा था कि, "इस नग्नता को रोकने के लिए समय रहते कदम उठाईये, नहीं तो समाज के नैतिक मूल्यों में पतन होगा, और आपसी इज्जत व् प्रेम घट के क्लेश की वजह बनेगा!"

उस वक्त पण्डित नेहरू ने उनकी बात को हल्के में लेते हुए कहा था कि, "आप जरूर जाट होंगे, जो ऐसा सोचते हैं?"

खैर, नेहरू ने उस महान दार्शनिक व् दूरदृष्टाता की बात को थोड़ा बहुत भी सीरियस ले लिया होता तो आज हरयाणा में यह हालात नहीं होते कि फूहड़ गानों की वजह से जाट और ब्राह्मण समाज आमने सामने खड़े हैं|
जाट में तो सहनशक्ति फिर भी होती है इसीलिए तो जब मासूम शर्मा ने "क्यूट जाटणी" गाना निकाला था तो किसी को पता तक भी नहीं लगा और गाने को नार्मल लिया गया| गाना आया और गया हुआ हुआ| परन्तु ब्राह्मण में सहनशक्ति नहीं होती, और जैसे ही "लाल बाह्मणी" गाना आया तो सब बिदक पड़े| इसी को कहते हैं खुद को लागे तो जाने, इन्होनें मासूम शर्मा ने जब "क्यूट जाटणी" निकाला था तभी उसको डाँट देते तो किसी को "लाल बाह्मणी" बनाने तक की नौबत नहीं आती| अब फिर रहे हैं भभकते|

ऐसे वक्त पर उन 'गोल बिंदी गैंग', 'लेफ्टिस्ट गैंग', "खापों पे केस करने वाले साहनी" जैसों को पकड़ कर पूछना चाहिए कि क्या यही वो आज़ादी थी जिसके लिए दिन रात खाप जैसी संस्थाओं को डंडा दिए रहते थे? उनसे भी पूछना चाहिए जो "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" उठाये फिर रहे हैं, कहीं औरतों के आदर की तख्तियां उठाये फिर रहे हैं कि क्यों नहीं खापोलोजी के उस वक्त के "गाम-गौत-गुहांड" के नियम सुहाए थे तुम्हें? तुम ही चले थे ना छत्तीस बिरादरी की बेटी को अपनी बेटी मानने के सिद्धांतों को कुचलते हुए, इन आज के हालातों तक समाज को पहुंचाने हेतु? क्यों नहीं तुमने सामाजिक संस्थाओं की एक भी बात टिकने दी? आते क्यों नहीं अब आगे, क्रेडिट लेने को कि हाँ, सामाजिक संस्थाओं को दरकिनार करवा के जिस खुलेपन के सपने हमने समाज को दिखाए थे, उसका एक घिनौना पहलु यह भी है कि आज दो समाज एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं|

समाज के युवा को सन्देश: अपनी खाप व्यवस्था के "गाम-गौत-गुहांड" के नियम को पकड़ के रखो अगर चाहते हो कि समाज में तुम्हारी खुद की व् सर्वजात की बहु-बेटी की इज्जत बनी रहे| मत बहको इन भांडों के चक्करों में, सीखो अपने समाज के उस महान दार्शनिक दादा कबूल सिंह चौधरी से, जिसको नेहरू जैसे भी नहीं समझ पाए थे| अपनों की दार्शनिकता, दूरदृष्टता को कानों के ऊपर से मार के अनजानों के बहकावों में चलोगे तो यूँ ही खता खाओगे| बात इस बात की नहीं है कि कौन ताकतवर है और कौन शातिर; बात है जग-हंसाई की, इससे बच के चलने में ही इज्जत होती है|

गलत को गलत कहना शुरू करो, फ़िल्में-टीवी सीरियल्स खुदा नहीं; इनमें सही को सहेजो और गलत को ठोकर मारनी शुरू करो| आखिरकार हैं तो यह भी धंधेबाज ही, 10% सही दिखाते हैं तो 90% फूहड़ता भी यही परोसते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 13 December 2016

जो बिहार-बंगाल में पानी का गिलास भी खुद से उठाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वो हरयाणा में आ के मजदूरी तक करते हैं!

किस्सा मेरा आप-देखा है, इसलिए कहानी शत-प्रतिशत सच्ची लिख रहा हूँ; लेशमात्र भी बनावट या मिलावट नहीं है| बीच-बीच में हरयाणवी-बिहारी-बंगाली कल्चर का तड़का लगाते हुए कहानी आगे बढ़ेगी; इसलिए पढ़ने बैठो तो अंत तक पढ़ना|

बचपन में जब से होश संभाला, तब से हमारे खेतों में गेहूं कटाई और धान रोपाई के सीजनों पर बिहार-बंगाल-उड़ीसा-आसाम से वहाँ के सवर्णों के सताये दलित-महादलित-ओबीसी वर्गों के कभी 10 तो कभी 12 तो कभी 20 की मण्डली में दिहाड़ी-मजदूरी कर हमारे यहां रोजी कमाने आते देखा, आज भी आते हैं|

उधर बाहरवीं के एग्जाम खत्म हुए और इधर गेहूं कटाई-कढ़ाई का सीजन (हरयाणवी में लामणी) शुरू हो गया| पिता जी ने अबकी बार 14+1=15 बिहारी मजदूरों की आई टोली के साथ ट्रेक्टर-ट्राली-थ्रेसर की मशीनों, उनके खाने-पीने का अरेंजमेंट और देखभाल करने पर मेरी ड्यूटी लगाई थी| दिन-रात का कोई होश नहीं था, सोने-जागने का कोई वक्त नहीं था| सुबह 5 बजे निकल जाना, रातों को 12-1 बजे तक घर आना और कभी तो कई-कई रातें खेतों में ऊपर-की-ऊपर उतर जाना| रात को 1 बजे आओ या 2 बजे, सुबह के 5 बजे निकल जाना फिक्स था, वर्ना पिता जी का कहर झेलो| 45 एकड़ गेहूं की कढ़ाई और तूड़े की ढुलाई होनी थी, कम से कम 20 दिन लगने थे|

फोर्ड ट्रेक्टर के पीछे दो 4-4 पहियों वाली ट्रोलियां, उनके पीछे हिडिम्बा थ्रेशर की मशीन और फिर उसके पीछे थ्रेसर की पुलि में जुआ फँसा के उलझाए बुग्गी| बिहारी मजदूरों में कोई मेरे साथ ट्रेक्टर पर बैठा, कोई ट्रॉलियों में लेटा तो कोई बुग्गी पे ऊंघता; यूँ चला करता था मेरा लगभग 100 मीटर लम्बा काफिला|

जब तक हिडिम्बा गेहूं के गद्दों के लोड में रंभाती और फोर्ड की वो धुररर-धुररर की क्षितिज तक जाती प्रतीत होती धुंए की ये लम्बी-काली-घनी नागिन सी नाचती धार और आसमान को गुंजायमान कर देने वाली फोर्ड की रेंगती आवाजें कानों में नहीं गूंजती, नींद ही नहीं खुलती थी| आज भी जब यह दृश्य यादों के पट्टल पर गूंचे मारते हैं तो मन करता है अभी उड़ चलूँ, उन्हीं डोलों-गोहरों के गुलफाम में|

खैर, मुद्दे की बात पर आता हूँ| हुआ यूँ कि जो 14+1=15 बिहारी मजदूरों की टोली को मैनेज कर रहा था, उसमें एक उनका सरदार था और बाकी सब वर्कर| टोली के सरदार को वह आपस में ठेकेदार बुलाते थे| ठेकेदार का काम पूरी टोली का मेरे सहयोग और दिशानिर्देश से खाना-पीना, दवा-दारु और बही-खाता मैनेज और अरेंज करना होता था| उसकी टोली कब कितना काम करेगी यह निर्धारण करना उसका काम होता था; हमारे किसी भी प्रकार के प्रेशर से वो फ्री होते थे|

पर मेरे केस में मेरी मर्जी नहीं चलती थी, पिताजी के आदेशानुसार मुझे घेर में अपना सौ मीटर लम्बा काफिला कल्लेवार सूरज निकलने से पहले तेल-पानी फुल करके, खुद भी अध्-बिलोई लस्सी से फुल हो के, मुंह-अँधेरी खड़ा कर देना होता था| फिर चाहे वहाँ से मजदूर चलने में दो घण्टे लगाएं या एक। पर एक बात की मौज थी, जैसे ही मैंने मेरे फोर्ड, हिडिम्बा, दो ट्राली और बुग्गी का काफिला जोड़ के खड़ा किया, ठेकेदार भागा हुआ आता और कहता बाबु जी मजदूर रात को दो बजे ट्राली खाली करके सोये हैं, अभी थोड़ा वक्त लेंगे, आप एक काम करें आपके लिए वो खटिया बिछवा दी है, उस पर सुस्ता लें|

मैं उनको बोलता की देखो अभी सवा-पांच हुए हैं, सात बजे से पहले-पहले यहां से उड़ लेना होगा, वर्ना बड़े बाबु जी (मेरे पिता जी) का खुंडी-रूंडी-मर्दो-रोजनी-बोली-बड्डी-लागड़-हरर्या-फुल्ली-सिंगलो-भिंडों-भिड़नी-मारनी-फड़कनी पूंछ से मख्खियां उड़ाती, मस्ती में जुगाली करती शेरनी की चाल में चलती हुई भैंसों का लंगार (काफिला) जोहड़ से आ गया तो खुद भी सुनोगे और मुझे भी हड़कवाओगे| हाँ तुम्हें सोना-सुलाना है तो खेतों में जा के जिसका मन हो वो सो-सुस्ता लेना; पर यहां इससे ज्यादा देरी नहीं| और ठेकेदार कहता कि आप फ़िक्र ना करो, अभी तैयार करता हूँ सबको| यहां बताता चलूं कि दोपहर को यह लोग दो से तीन घण्टे लंच के बाद खेतों में सो लिया करते थे, इसलिए देर रात तक काम करते थे| क्योंकि रात को गर्मी कम होती थी|

उन दिनों गाम वाला झोटा जो कि अपने ही घर का छोड़ा हुआ था, वो रातभर खेतों में घूम के सुबह-सुबह ठीक मेरी खाट जो किठेकेदार घेर के नीम के पेड़ तले लगवा देता था, उसके किनारे आन खड़ा होता और मेरे को लाड-भरी खैड़ (अपना सर और सींग) मार के, उसके लिए भिगो के रखा हुआ चाट (रेहड़ियों वाला छोले-भटूरे वाला चाट नहीं, हमारे यहां भैंस-झोटे जो भिगोया हुआ अनाज-खल-बिनोला खाते हैं, उसको भी चाट कहते हैं, तो वो वाला चाट) मांगने लगता| मैं उसको वो डाल के खिलाता, थोड़ी उस गाँव के देवता की सेवा करता (हरयाणवी कल्चर में गाँव के झोटे व् सांड को देवता माना जाता है) और उधर इतने में ठेकेदार अपनी टोली को तैयार कर ट्रेक्टर-ट्रॉलियों में बैठा देता|

गेहूं कढ़ाई शुरू हुए दो-तीन दिन हुए, मैंने एक अजीब बात नोट करी| खेतों में गेहूं-कढ़ाई के दौरान जो कोई भी थोड़ा सा बैठ के सुस्ताने लगे, यहां तक कि खैनी-गुटखा-बीड़ी के लिए भी रुके तो ठेकेदार उसपे झल्ला के पड़े कि बैठो मत, वर्ना दिहाड़ी काट लूंगा; सिर्फ एक हट्टे-कट्टे से को छोड़ के| मेरा कई बार मन हुआ कि ठेकेदार से पूछूँ कि इस मोटे पे इतनी रहमत क्यों, पर सोचा कहीं काम में दखल ना पड़े इसलिए नहीं टोका|

छटे दिन, तीन बजे के करीब गेहूं की ट्राली ला के पुराणी हवेली (जो कि पिछले कई दशकों से हमारा अनाज गोदाम है) के आगे रोक दी| जब से कढ़ाई का काम शुरू हुआ था, यह पहला दिन था जब हम दिन का सूरज गाँव में देख रहे थे| ठेकेदार मेरे को तीसरे दिन से ही कहने लगा था कि बाबू जी टोली को मच्छी खाना है, कुछ जुगाड़ करो| मैं कहा मखा मेरे दादा का डोगा गाँव-गुहांड की न्यार (पशुचारा) पाड़ने वालियों का भूत है; अगर पता लग जाए ना कि खेत में फतेह सिंह नम्बरदार आ लिया है तो अपनी दरांती-पल्लियाँ ऐसे छोड़ के भागती हैं जैसे कोई धाड़ पड़ गई हो; तो तू क्या चाहता है कि तू अपने साथ-साथ मेरा भी बक्कल उतरवायेगा? मखा हमारे यहां दूध-दही-घी का खाना चलता है, इन मॉस-मच्छियों को हम हाथ ना लगाते| पर वो जिद्द करने लगे तो मैंने बोल दिया कि करता हूँ कोई जुगाड़|

तो उस दिन तीन बजे गाँव आ गए थे तो ठेकेदार बोला कि आज यह ट्राली अनलोड करने के बाद सब रेस्ट फरमाएंगे, और मच्छी-चावल की पार्टी करेंगे; सो आज आप इसका अरेंज कर दो| तो मैंने कहा कि चल ले-ले इनमें से एक बन्दे को साथ| तभी टोली से वो हट्टा-कट्टा मोटा आया और बोला बाबु जी मैं चलूंगा साथ| मैं उनको गाँव के नाई-वाले जोहड़ पर ले गया| हमारे एक जानकार ने उस जोहड़ में मच्छी-पालन का ठेका लिया था| मैंने उससे बात कर ली थी| वहाँ जा के उसको बोला कि निकाल लो जितनी की जरूरत है| वो मोटा जोहड़ में घुस के मच्छियां पकड़ने लगा| मैं ठेकेदार के साथ जोहड़ किनारे बैठ गया| तो तभी मुझे खेत वाली बात याद आई तो ठेकेदार से पूछा, वार्तालाप कुछ यूँ हुई:

मैं: तुम बाकियों को तो काम में थोड़ा सा ढीला पड़ते ही टोक देते हो और इस मोटे को कुछ नहीं कहते; जबकि यह काम के दौरान दो-दो घण्टे सोता भी रहता है?

ठेकेदार: वो क्या है बाबु जी, कि हम बाकी सब तो कोई दलित है, कोई महादलित, तो कोई ओबीसी परन्तु यह हमारे गाँव के ठाकुर हैं|

मैं (अचंबित होते हुए): हैयँ, गाँव का ठाकुर? तो फिर यह तुम्हारे साथ क्या करने आया है?

ठेकेदार: वो क्या है ना बाबु जी, यह आप लोगों की तरह मजदूरों के साथ खेतों में नहीं खटते| ना आपकी तरह मजदूर को सीरी-साझी यानी काम में पार्टनर मानते, बल्कि नौकर-मालिक की तरह व्यवहार करते हैं| जैसे मैं एक दलित होते हुए आपके बगल में बैठा हूँ, ऐसे हम हमारे बिहार में इनके बगल में बैठने की तो कल्पना भी नहीं कर सकते| यह सिर्फ खेत किनारे खड़े हो के हुक्म देना जानते हैं| खुद से पानी का गिलास उठा के पीना भी अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं| और इसीलिए इनके पास जमीनें होने पर भी यह अधिकतर कंगाल हो रखे हैं| दूसरा इनके सवर्णवादी रवैये और जाति-पाती के जहर के चलते, हम अधिकतर लोग इधर आपके यहां हरयाणा-पंजाब में इज्जत की मजदूरी करने चलते आते हैं; तो ऐसे में अब तो इनको खेतों के किनारे खड़ा हो के हुक्म देने को मजदूर भी नहीं बचे|

मैं: अच्छा तो, पर यह यहां तो औरों से कम बेशक परन्तु काम तो कर रहा है| अभी देख लो तुम दलित हो के मेरे साथ बैठे हो और यह ठाकुर हो के तुम्हारे लिए मच्छियां पकड़ने हेतु तालाब में उतरा हुआ है?

ठेकेदार: जनाब, यह इनकी मजबूरी है| वहाँ भूखे मरने की हालत है तो यहां साथ चले आये| और यह मछलियां तो इसलिए पकड़ रहा है, क्योंकि इसको वहाँ ट्राली अनलोड करने पे छोड़ के आते तो दो-दो मंजिल पर गेहूं के कट्टे चढ़ाना भारी हो जाता है| इसको उस काम से यह मच्छी पकड़ना आसान लगा| तो चुपके से मौका लपक लिया| अब यह ठहरा ठाकुर, तो इसके आगे बाकी की टोली वाले यह भी नहीं कह सके कि हम जायेंगे|

मैं: तो जब इनको खेतों में काम करना है तो यहां आ के करने की बजाये बिहार में अपने खेतों में क्यों नहीं करते?
ठेकेदार: झूठी आन और शान की वजह से|

मैं: तो फिर वहाँ तुम्हारे गांव में जब पता चलेगा कि यह यहां मजदूरी कर रहा है, उससे शान में कमी नहीं आएगी?

ठेकेदार: नहीं बाबु जी, क्योंकि वहाँ यह, यह बोल के आया है कि हम पिकनिक पे जा रहे हैं|

मैं: ओह, मखा यह खूब रही; साला इस म्हारे हरयाणे की माट्टी में ही कुछ चमत्कार है जो इसपे आ के लोगों को मजदूरी भी पिकनिक लगने लगती है| खैर, तू यह और बता कि जब तू औरों को टोक देता है और इसको नहीं टोकता तो बाकी टोली वाले तेरे इस पक्षपात का विरोध नहीं करते?

ठेकेदार: नहीं बाबु जी, क्योंकि हमें वापिस तो वहीँ जाना है ना| यहां जो इनके आराम करने पे आवाज उठाएगा, बिहार वापिस जाने पे ठाकुर और भूमिहार ब्राह्मणों को बोल के यह हमारा हुक्का-पानी बन्द करवा देगा; जो कुछ यहां से कमा के ले जायेंगे, वो तक छिनवा देगा|

मैं: ओह तेरी| ठाकुर के कहर का आतंक यहाँ भी चला आया|

इतने में उधर ठाकुर साहब ने तालाब से टोली की जरूरत के हिसाब से मच्छियां पकड़ ली|

अब मैंने ठेकेदार से कहा देख, तुम लोगों का बहुत मन था सो मच्छियां दिलवा दी हैं; परन्तु पकाने की जगह और वक्त ऐसा चुनना जब दादा जी घेर की तरफ ना हों; वर्ना इतना समझ लेना, ले डोगगें, दे डोगगें दादा थारा तो सूड़ सा ठा ए देगा; गेल्याँ बक्कल सा मेरा भी उतारा जागा| पहले बता दिया है कहीं बाद में फिर कहे|

ठेकेदार बोला, अरे चिंता ना करो बाबु जी, रात को बनाएंगे; वीसीआर पर सिनेमा देखते हुए|

मैं, ओह तो मतलब अब तुम्हारा वीसीआर का और जुगाड़ करना है|

इसके बाद, ठेकेदार ने ठाकुर साहब को मच्छियों की पोटली उठवा के घेर की तरफ रवाना किया और हम दोनों चले वीसीआर वाले की दूकान पे; उनके रात के सिनेमा का जुगाड़ करने|

माफ़ करना दोस्तों, कहानी थोड़ी लम्बी हो गई; परन्तु मुझे लगा कि इसमें साथ-साथ हरयाणवी-बिहारी कल्चर का तड़का लगा के, इसको पढ़ने वाले नॉन-हरयाणवीयों को हरयाणवी कल्चर का परिचय भी करवाता चलूं| तो कुल मिलाकर बात यह थी कि जो बिहार में पानी का गिलास भी खुद से उठाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं, वो हरयाणा में आ के मजदूरी तक करते हैं| बता दो यह बात टीवी के डब्बों में बैठे नॉन-हरयाणवी मुँहफटों को कि इज्जत करनी सीख लो कुछ इस हरयाणा की पावन धरा और कल्चर की|

मैंने, एम.बी.ए. एक नेशनल स्तर के ऐसे टॉप बिज़नस स्कूल से करी है जिसमें भारत की 24 स्टेटों के स्टूडेंट्स पढ़ते थे, परन्तु वहाँ कभी भी यह ऊपर वर्णित गौरव और अहम नहीं दिखाया; जो कि किसी भी अच्छे-से-अच्छे के तेवर ढीले कर दे| परन्तु जब मेरी ऐसी सुन्दर-विस्तृत-गहरी-गरिमामयी कल्चर पे इन्हीं राज्यों की तरफ के कुछ बेअक्ले भोंकते हैं तो यह पन्ने यूँ खोलने पड़ते हैं|

अगले भाग में एक ऐसी ही कहानी, दादा-दादी के जमाने में भारत विभाजन के वक्त पाकिस्तान से आये परिवारों की ले के आ रहा हूँ; जो मैंने मेरी दादी के कर-कमलों और दरियादिली से होती देखी थी| उसको पढ़ के सहज अंदाजा लगा लोगे कि जब लोग जाटों के बारे यह बोलते हैं कि हरयाणा में जाटों को गैर-जाट सी.एम. हजम नहीं हो रहा तो यह सुनके क्यों मेरा भीतर उबल पड़ता है|

अनुरोध: हर आत्मसम्मानी हरयाणवी युवा-युवती से अनुरोध है कि अपने-अपने जीवन के ऐसे किस्सों की सोशल-मीडिया पर ऐसी बाढ़ ला दो कि यह हरयाणा-हरयाणवी-हरयाणत की आलोचना-चुगली करने वालों की चोंच चूं तक ना कर पाए| You know 'लेखन-क्रांति ऑफ़ लिटरेचर', बस वही मचा दो|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ज्यादा चूं-चपड़ ना मुझे आती, ना मैं जानता और ना ही मैं किया करता!

परन्तु हरयाणा में हर तरह की बीमारी ढूंढने वालों (इसमें क्या राष्ट्रीय मीडिया, क्या जे.एन.यू. टाइप वाले झोलाछाप इंटेलेक्चुअल, क्या लेफ्ट-विंग की गोल-बिंदी गैंग और क्या कुछ स्वघोषित नव्या स्टाइल की हरयाणा पे भोंकने वाली एनजीओज) को एक चैलेंज देता हूँ कि हो अगर हिम्मत तो बिहार-बंगाल-आसाम-झारखण्ड-उड़ीसा-पूर्वी यूपी-मध्यप्रदेश आदि जगहों से मात्र बेसिक मजदूरी करने तक को जो पूरा साल-सीजनों पर वहां के दलित-महादलित-ओबीसी यहां तक कि ठाकुर-भूमिहार मजदूरों की जो ट्रेनें भर-भर हरयाणा-एनसीआर-वेस्ट यूपी और पंजाब (सनद रहे इस पूरे इलाके को मीडिया ही जाटलैंड या खापलैंड भी कहता है) में चलती/उतरती हैं, इनको उल्टी चला के दिखा दो| अगर हरयाणा तुम्हारे लिए ऐसा ही नरक है जैसा तुम हर वक्त पानी-पी-पी टी.वी. के डब्बों और क्लबों में बैठ के कोसते हो तो क्या ढोके (धार) लेने आते हो यहां? तुम्हारी तो इतनी भी औकात नहीं कि खुद के लिए एक ढंग की नौकरी अपने गृह-राज्यों में ही ढूंढ सको या अपने गृह-राज्यों को इस लायक बना सको कि यह मजदूरों की भर-भर ट्रेनें ही कम-से-कम चलनी बंद हो जाएँ|

जानते हो ना इस यहीं बैठ के नौकरी पा के हरयाणा पे ही जहर उगलने को क्या कहते हैं, इसको बेग़ैरती, अहसानफ़रामोशी, जिस थाली में खाओ उसमें छेद करो इत्यादि कहते हैं| और जो हरयाणा पे कही अपनी हर उल-जुलूल बात को "बोलने की आज़ादी" और "देश के किसी भी कोने में रोजगार करने के सवैंधानिक अधिकार" की दुहाई के पीछे छुपाते हो ना, मत भूलो कि वही सविंधान तुम्हें इस बात की भी नकेल डालता है कि तुम वहाँ की सभ्यता-कल्चर का आदर-मान-सम्मान करोगे| और यह कुत्ते की तरह टेढ़ी हो चली अपनी दुमें ठीक कर लो, वर्ना अब हर हरयाणवी तुम्हें यह बताने को खड़ा होने वाला है कि तुम यहां रोजगार कर सकते हो, परन्तु हमारी सभ्यता-कल्चर पर हग नहीं सकते| कुछ कानों के पट्ट और चक्षुओं के लट खुल रहे हैं कि नहीं? सामने वाले के कल्चर-मान-मान्यता-भाषा-लहजे की इज्जत करने की तमीज सीख लो कुछ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

धार ले ल्यो हरयाणा आळे!

हरयाणा के टैलेंट का किस हद तक शोषण और दोहन हो रहा है इसका अंदाज इसी बात से लगा लीजिये कि यहां के मंदिरों में पण्डे-पुजारी तक हरयाणवी ना हो के उत्तराखंडी या बनारसी बैठाये जाने लगे हैं? क्यों भाई क्या हरयाणा के ब्राह्मण मर गए या उनको ब्राह्मण ही नहीं माना जाता? ओह शायद इसीलिए रामबिलास शर्मा जी को सेकंड लीड की मिनिस्टरी मिली।

अरे हरयाणा में जाट तक पंडताई करते आये हैं, सो जो अगर हरयाणा के ब्राह्मणों पर से नागपुरियों का भरोसा उठ गया था तो जाटों को पुजारी बना देते? उसके पास तो लठ की ताकत भी होती है, सुसरा भगवान ज्योत-बत्ती से ना मानता तो जाट-पुजारी लठ की खोद दिखा के यूँ पल में मना देता। पर ये इम्पोर्टेड पुजारी क्यों? हरयाणा के ब्राह्मणों कहाँ सोये पड़े हो? ब्राह्मण वर्ण से उतार के शुद्र तो नहीं बना दिए गए हो, नागपुरियों द्वारा?

अब जब हरयाणा के ब्राह्मण-वर्ण तक का इतना शोषण हो रहा है, तो फिर यहां के किसान, उसकी जमीन और मजदूरों-व्यापारियों के तो क्या कहने। वैसे सुना है इस कैशलेस के जरिये हरयाणा के व्यापारी को कंगाल करके, यहां गुजराती व्यापारी घुसाए जा रहे हैं?

धार ले ल्यो हरयाणा आळे तो!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक