Friday, 7 April 2017

सिर्फ दादा खेड़ा को हृदय से लगाओ, एक वही व्यवहारिक है; बाकी सब मिथ्या है, संकुचित है!

1) क्योंकि उसकी कोई जात नहीं कोई धर्म नहीं, उसको हिन्दू भी मानता है, मुस्लिम भी और सिख भी, स्वर्ण भी और दलित भी|

2) क्योंकि उसके दर पर दिया जलाने हेतु ना जात चाहिए ना धर्म, सिर्फ इंसान को इंसान होना चाहिए|

3) क्योंकि उसमें कुछ भी माइथोलॉजी नहीं, शुद्ध वास्तविकता में हो के गए पुरखों की निशानी है; उनके जौहर, बलिदान, इतिहास की बाणी है|

4) क्योंकि वह उस अन्नदाता की कहानी है, जिसका उगाया हर धर्म-जात खाती है; परन्तु वह किसी पर रोक नहीं लगाता, ना उस अन्न का धर्म-जाति के हिसाब से प्रारूप बनाता-बताता|

5) क्योंकि ना उस पर कोई धर्माधीस बैठता, ना उस पर वीआईपी की पंक्ति अलग और सामान्य की पंक्ति अलग लगती; सबकी समान अर्ज लगती है|

नोट: गंगा से ले के रावी-व्यास तक फैली इस शक्ति का क्षेत्र व् बोली के फर्क के हिसाब से भिन्न पर्यायवाची जैसे दादा बड़ा बीर, दादा भैया, ग्राम खेड़ा, बाबा भूमिया आदि हैं परन्तु स्वरूप एक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आम-मानव के हिसाब से किसान को बोलना क्यों नहीं आता?

क्योंकि उसकी रोजगारी-रोटी-रोजी भगवान (प्रकृति) के हाथ में होती है, जबकि आम इंसान की रोजी-रोटी आम इंसान के ही हाथ में होती है| और जिसके हाथ में रोजी-रोटी होती है इंसान उसी के आगे झुकता है, उसी से विनम्र बोलता है|

स्पष्ट शब्दों में कुछ यूँ समझिये: किसान की फसल अच्छी होगी, बुरी होगी सब निर्भर करता है प्रकृति की मर्जी पर| सूखा पड़ा, बाढ़ आई, बेमौसम बरसात आई, ओले पड़े, बीमारी आई तो फसल खत्म; वक्त की बारिश हुई, सही वक्त पर सही तामपान चला, बीमारी ना आई तो फसल अव्वल और किसान की बचत अव्वल| तो यह सब होना या नहीं होना निर्भर हुआ प्रकृति पर यानि भगवान पर| मतलब साफ़ है किसान को कमाई देने वाला उसका बॉस इंसान नहीं अपितु भगवान है|

जबकि एक सरकारी या प्राइवेट नौकरी करने वाले इंसान का, उसकी नौकरी की प्रमोशन-डिमोशन का पैरोकार कौन; दुकान करने वाले दुकानदार का कारोबार चलाने वाला कौन; मन्दिर में पुजारी का पेट पालने वाला व् उसका घर चलाने वाला कौन; जवाब एक ही है - इंसान| इसलिए अगर आपको सुरक्षित नौकरी, बढ़िया सैलरी, बढ़िया कारोबार व् बढ़िया चढ़ावा चाहिए तो आपको इंसान की जी-हजूरी करनी पड़ती है| उसको भाव देना पड़ता है, उसको खुश करना पड़ता है| अत: आपकी भाषा में आपको विनम्रता झक मार के भी लानी ही पड़ती है|

जबकि किसान के बॉस भगवान के केस में कोई जी-हजूरी काम नहीं आती| प्रकृति को कितना सहेज के रखो, वह उतनी किसान पर खुश होती है| तभी तो किसानी परिवेश की पहली पीढ़ी जो बाहर नौकरियों या कारोबारों में हाथ आजमाने आती है तो जल्दी से जी-हजूरी नहीं कर पाती; क्योंकि उसके पैतृक कारोबार का बॉस भगवान रहा होता है, इंसान नहीं|

दूसरा अहम पहलु, किसान (सनद रहे यहां किसान की बात हो रही है, उन सामन्तों की नहीं, जो खेत के किनारे खड़े होकर दूसरों से खेती करवाते हैं) कितना ही अमीर हो जाए, विनम्रता नहीं छोड़ता, हेराफेरी, छलावा नहीं सीखता; क्योंकि उसके खेत रुपी दफ्तर में प्रकृति व् भगवान रुपी बॉस के आगे यह सब नहीं चलते| जबकि जिन कार्यों में बॉस भी इंसान और एम्प्लोयी भी इंसान वहाँ हेराफेरी, डर, भय छलावे सब पनपते हैं|

और यही दो सबसे बड़े डिसकनेक्ट हैं, किसान और बाकियों के कारोबार में| और क्यों फिर दूसरे कारोबार वाले किसान को अपने से कम आंकने व् दिखाने और अपना झूठा अहम् ऊपर रखने के लिए अक्सर किसान पर तोहमत लगाते पाए जाते हैं कि उसको बोलना नहीं आता|

किसान को बोलना आता है, किसान को अपने बॉस भगवान को खुश रखने की भाषा भली-भांति आती है; जबकि बाकि अधिकतर भगवान को खुश करने हेतु भी उसको रिश्वत रुपी दान-चन्दा-चढावा चढ़ाते हैं| जिन कार्यों में इंसान ही इंसान का बॉस है वहाँ उनको दोनों यानी इंसानी बॉस को भी और भगवान् (किसान के बॉस) को भी रिश्वत देनी पड़ती और खिलानी पड़ती है, कभी पैसे की रिश्वत तो कभी खुशामद की रिश्वत| जबकि किसान को इंसानों को खुश करने की ना ही तो कला आती होती और बस हाँ दाता की भांति अन्नदाता बन भूखा पेट वो दुश्मन का भी भर देता है|

किसान का प्रकृति से, भगवान से वन-टू-वन कनेक्शन खेत के जरिये होता है तो उसको किसी इंसान की जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती| उसको स्वच्छन्दता रहती है|

परन्तु इस स्वच्छन्दता का एक नुकसान भी है| किसान उसकी फसलों के भाव निर्धारति करने वाले इंसानों और उसकी फसलें खरीदने वाले इंसानों से इंसान लेवल की डालॉगिंग नहीं करता या कहो कि इन मसलों को अपने हाथों में नहीं रखता| क्योंकि उसकी आदत भगवान की यानी प्रकृति की स्तुति करने की बनी होती है तो वह इंसानी आढ़तियों-मंडियों से बार्गेनिंग करने को सीरियस नहीं लेता; सीरियस लेवे तो उसकी फसलें उसी भाव पे बिकें, जिसपे वो चाहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फूटी कौड़ी > दमड़ी > पाई > धेल्ला > पैसा > रुपया!

फूटी कौड़ी > दमड़ी > पाई > धेल्ला > पैसा > रुपया!

Tuesday, 4 April 2017

यह उनके लिए, जिनको सर छोटूराम और सरदार भगत सिंह के रिश्तों को ले के चुरणे हुए रहते हैं!

चुरणे, इसलिए क्योंकि ऐसे-ऐसे सवाल वही घाघ करते हैं जो बस इसी उधेड़-बुन में रहते हैं कि कैसे इन दोनों हस्तियों के बीच कुछ तकरार सा मिले और सिख व् हिन्दू जाटों में दरार डालने का कुछ और मसाला मिले|
इस पोस्ट में सलंगित कटिंग "Sir Chhoturam - A saga of Inspirational Leadership" - लेखक बलबीर सिंह जी की पुस्तक से ली है| इसमें साफ़ लिखा है कि सर छोटूराम ने सरदार भगत सिंह द्वारा उठाये कदमों को देशभक्ति की पराकाष्ठा में उठाये कदम बताते हुए, उनको क्रिमिनल नहीं माने जाने की दरख्वास्त की थी| सनद रहे कि इस मामले में गांधी ने यह कहा था, "अगर इन बच्चों को मरने का शौक चढ़ा है तो मैं क्या करूँ, दे दो फांसी!"

यह दूसरा ऐसा किस्सा है जब सरदार भगत सिंह व् सर छोटूराम के बीच के भावनात्मक रिश्ते का पता चलता है| इससे पहले जब काकोरी काण्ड के बाद सरदार भगत सिंह भेष बदल कर कलकत्ता चले गए थे तो उनका वहाँ दो महीने अज्ञातवास में रहने का प्रबन्ध सर छोटूराम ने ही अपने धर्म पिता व् उस जमाने में कलकत्ता के जूट किंग सेठ छाजूराम जी को कहके करवाया था|

इन दोनों में एक देशभक्ति का भगवान था तो दूसरा किसानी का भगवान था| सो अपने दोनों भगवानों के रिश्ते बड़े ही भावुक थे, निश्चिन्त होकर कहो| और जिनको चुरणे हैं, वो रेतीली मिटटी में घिसणी कर लें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एंटी-रोमियो स्क्वैड के चलते कृष्ण की जाति-चरित्र इत्यादि पर छिड़ चली बहस, बैठे-बिठाये इस चरित्र की पॉलिशिंग कर देगी; ऐसी नादानी से बाज आओ!

यह जो भारतीय माइथोलॉजी का इतिहास है ना यह इतना परिवर्तनशील है कि इनको रचने वाले जनता के ओपिनियन के अनुसार इनको समय-समय पर ढाल देते हैं| सो यह जो एंटी-रोमियो स्क्वैड के बहाने सोशल मीडिया पर कृष्ण की जाति व् चरित्र पर थीसिस लिखने की टाइप की जो दुकानें खोलें बैठे हैं, यह कृपया बन्द करें| क्योंकि जो परिवर्तित हो जाए वह इतिहास नहीं होता और जिसकी सच्चाई न पता चल सके वह माइथोलॉजी होती है| सो माइथोलॉजी को घसीट के इतिहासकार बनने की बजाये आपके समाज की सोशियोलॉजी-साइकोलॉजी-आइडियोलॉजी व् डीएनए प्रॉपर्टीज के तर्क से किसी बात का निचोड़ निकालो| इन भांडों (प्राचीन काल में भाट) की लेखनी पैसे के दम पर तर्क-वितरक को ताक पर रखती रही है और जैसा पैसे ने बोला वैसा लिखती रही है| तो ऐसे में कोई तरीका बचता है इन बातों की सच्चाइयों को जांचने का तो वह है लॉजिक्स पर चलते हुए आपके समाज की सोशियोलॉजी-साइकोलॉजी-आइडियोलॉजी व् डीएनए प्रॉपर्टीज के साथ इन तथ्यों की मैपिंग करो; मेल निकले तो आपका नहीं तो बहरूपियों का|

अब काम की बात, मेरी दिवंगत दादी जी के भतीजे के यहां मलिक गौत की लड़की ब्याह रखी है; जो कि दादी की तरफ वाले नाते से मेरी काकी लगी; परन्तु क्योंकि जाट के यहां गाम-गौत-गुहांड रिश्ते निर्धारित करने की सबसे उच्च थ्योरी है तो इस थ्योरी के चलते उस लड़की को हम आज भी बुआ कहते हैं और बावजूद मेरे पिताजी के नानके (जहां भांजे को मान-पैसा मिलता है) में भी उस बुआ को हाथ रुपया दे के अपने गौत की मान पुगाते हैं| लेकिन स्वाभिमान यह भी है कि उस काका को काका ही कहते हैं , फूफा या जीजा नहीं; क्योंकि उधर से दादी का गौत और नाता पहले माना जाता है और इधर से मलिक गौत का|

ऐसे ही खुद मेरे चार मामाओं में से दो के यहां मलिक गौत की पत्नियां हैं, जो नानके के नेग से तो मामी लगी परन्तु हम अपने गौत के नेग से उनको बुआ कहते हैं और हर बार हाथ रुपया दे के आते हैं| परन्तु नाना के गौत के नाते उन मामाओं को मामा ही कहते हैं, फूफा या जीजा नहीं|

ऐसे ही बात आती है कृष्ण, बलराम और इनकी बहन सुभद्रा, बुआ कुंती और बुआ के लड़के अर्जुन की| पहली कक्षा से ले के दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में पढा हूँ और छटी कक्षा में आरएसएस वालों ने जो महाभारत पढ़वाई थी, उसके अनुसार कृष्ण, बलराम व् सुभद्रा, दो माओं व् एक पिता यानि वासुदेव की औलाद थे| कुंती उनकी बुआ थी और अर्जुन उसका बेटा| अब आरएसएस की रिफरेन्स से जो महाभारत पढ़वाई गई हो, उसपे तो सन्देह का कारण नहीं बचना चाहिए? और फिर भी बचता है तो ऐसे स्वघोषित ज्ञानियों का कोई कुछ नहीं कर सकता|

पहली तो बात जाट सभ्यता में अगर एक आदमी की दो बीवियां हैं (चाहे वो दोनों जिन्दा हों, या एक के मरने के बाद दूसरी से ब्याह किया गया हो) उन दोनों औरतों की उस एक मर्द से पैदा हुई औलादें सगे-भाई बहन ही होते हैं| ठीक ऐसे ही केस कृष्ण, बलराम व् सुभद्रा, दो माओं व् एक पिता यानि वासुदेव का है| यहाँ तक तो ठीक है कि वो जाट रहे हों| परन्तु असली लोचा पड़ता है इस बिंदु पे आ के कि कृष्ण ने सुभद्रा को अर्जुन के साथ भगा के उसका ब्याह करवा दिया| जो कि जाट सभ्यता के अनुसार किसी भी एंगल से गले उतरने की बात नहीं है| मैं अपनी बहन को अपनी बुआ के लड़के के साथ भगाने या ब्याहने की तो सोच भी नहीं सकता| और इन्हीं मान-मान्यताओं की वजह से जाट को ब्राह्मणों ने एंटी-ब्राह्मण कहा है सदा से| नए-नए खून वाले युवाओं को इस बात का ना पता हो तो जा के अपने दादा वाली पीढ़ी के बुजर्गों से पूछो, आप सदा से एंटी-ब्राह्मण कहलाते आये हो यानी पांचवा वर्ण|

तो अब इसके ऊपर इतने बेइंतहा थीसिस मत लिखो कि कृष्ण का चरित्र घड़ने वालों को पता लगे कि कृष्ण को जाट बता देने से जाटों की जेबें धर्म के नाम पर ज्यादा ढीली करवाई जा सकती हैं तो फिर वो उसको जाट ही घोषित कर दें|

दूसरी बात कयास लगाने की उत्तेजना मत दिखाओ, क्योंकि महाभारत की कोई भी पुस्तक हो, फिल्म हो या टीवी सीरियल; जैसे इनमें कृष्ण के यादव होने का जिक्र आता रहता है, ऐसे एक बार तो कहीं जाट होने का जिक्र भी आता? तो किस बात की बेचैनी एक मैथोलोजिकल चरित्र को जाट घोषित करवाने की? इनका कुछ ना लगने वाला, इनको तो पैसा चाहिए, जब दिखेगा कि कृष्ण को यादव की बजाये जाट घोषित करने में ज्यादा कमाई होवेगी तो यह तो घोषित कर देंगे; और तो और कृष्ण और सुभद्रा भाई-बहन नहीं थे, यह भी साबित कर देंगे|
चलते-चलते यही कहूंगा कि अगर कोई जाट की सोशियोलॉजी-साइकोलॉजी-आइडियोलॉजी व् डीएनए प्रॉपर्टीज के आधार पर कृष्ण को जाट साबित कर दे तो मुझे सबसे ज्यादा हर्ष होगा|

लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा तब आएगी जब कृष्ण की गोपियों संग रासलीलाएं आड़े आएँगी क्योंकि जाट सभ्यता में ऐसा कोई बखान नहीं, चरित्र नहीं और मान्यता नहीं कि लड़के को यूँ खुलेआम लड़कियां छेड़ने का लाइसेंस दे देते हों और फिर उसको भगवान भी बना लेते हों| ऐसे लड़कियां छेड़ने वाले को तो सबसे पहले उसके घर वाले ही झाड़-झाड़ जूते मारेंगे और फिर समाज उसकी जो बैंड बजायेगा वो अलग से| इसलिए माइथोलॉजी को माइथोलॉजी रहने दो और कुछ करना ही है तो किसानों को फसलों के एम.एस.पी. दिलवाने व् बैंकों से लोन माफ़ करवाने बारे करो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 29 March 2017

साइंस में पूरे विश्व में इनका ही रिवर्स गियर क्यों लगा?

सलंगित अख़बार की कटिंग में दिखाई ईमानदारी के लिए यह प्रसंशा के पात्र हैं, कम-से-कम कुँए से बाहर निकल दावे करने तो शुरू किये| परन्तु भारत से बाहर इन बातों को मनवाने के लिए इनको अमेरिका-यूरोप-जापान जैसे देशों से प्रतियोगिताएं करनी होंगी| वर्ना अपने मुंह मियां मिठठू बनने वाली बात ना हो जाए कहीं|

अमेरिका-यूरोप-जापान इत्यादि वालों ने जो भी साइंटिफिक रिसर्च करी हैं, उनकी सब तारीखें-स्थान सम्भाल के रखे हुए हैं| इनको सबसे बड़ी बाधा तो यही तारीखें व् स्थान साबित करने में आनी है और उससे भी बड़ी हास्यसद्पद स्थिति तब बनेगी जब इनसे पूछा जायेगा कि 1947 से ले जितने भी सालों पुराने इन अविष्कारों के दावे किये जायेंगे, उनका लाभ भारत हजारों-हजार साल क्यों नहीं ले पाया, यह इनको आगे जारी क्यों नहीं रख पाए| जब विदेशी लुटेरों ने भारत पर आक्रमण किये तो तब यह रॉकेट, हवाई जहाज व् न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी इस्तेमाल क्यों नहीं किये?

माना भारत शांतिप्रिय देश था, कभी अपनी सीमा से बाहर किसी मुल्क पर आक्रमण करने नहीं गया; परन्तु जब रामायण-महाभारत (क्योंकि यह आपस में ही लड़ के ही, भाई-को-भाई से लड़वा के ही विश्व विजेता बन लिया करते थे) में इन सारे औजारों का प्रयोग हुआ बताया जाता है तो विदेशी लुटेरों के वक्त क्यों नहीं किया? रावण ने राम की सीता उठा ली तो इसी बात पे राम ब्रह्मास्त्र निकाल के खड़ा हो गया था, तो जब विदेशी लुटेरे आये तब कहाँ थे यह सब यन्त्र-आविष्कार?

ऐसी क्या फिरकी फिरि थी इन आविष्कारों की कि दुनिया में आजतक कोई भी साइंस रिवर्स गियर में नहीं चली, तो फिर इनकी साइंस को ऐसा क्या उल्टा गियर लगा कि सब मलियामेट हो गया? साइंस में पूरे विश्व में इनका ही रिवर्स गियर क्यों लगा?

बस अंत में घूम-घुमा के कहीं इन दावों को साबित करने में भी कोई हिंदुत्व मत घुसा लाना कि तुम तो कम से कम इनको हिन्दू होने के नाते सपोर्ट करो, तुम ही नहीं करोगे तो कौन करेगा? उम्मीद है कि यह लोग इन दावों को साइंस के हिसाब से सिद्ध करेंगे, ना कि धर्म के नाम पर इन बातों को सच मानने का समर्थन कैंपेन चला देंगे|
विश्व के पट्टल पर इनको साबित करो, सबसे ज्यादा प्रचार मैं करूँगा| वर्ना विश्व अक्ल ले चुका, तुम भी ले लो कि धर्म को साइंस में और साइंस को धर्म में नहीं घुसाया करते|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 28 March 2017

जाट समाज में पाई जाने वाली "विधवा-पुनर्विवाह" की प्रथा स्वेच्छा है बाध्यता नहीं!

उद्घोषणा: इस पंक्ति को पढ़ के मुझे घोर जातिवादी बताने वाले इस पोस्ट से दूर रहें, क्योंकि जब इस प्रथा की कमियों की बात आती है तो इसकी कमियां बतलाने वाले इसको जाटों की प्रथा बता के कमियां गिनवाते हैं, और यह मुझे जातिवादी कहने वाले उस वक्त बिलकुल नहीं बोलते कि यह तो हमारी भी प्रथा है; तो फिर मैं इसकी खूबियां भी इसको मुख्यत: जाटों की बता के क्यों ना गिनवाऊँ?

अब विषय की बात: अस्सी के दशक में एक हरयाणवी फिल्म आई थी "सांझी" जो "विधवा-पुनर्विवाह" को बाध्यता बना के दर्शाती है| जो इस फिल्म में दिखाया गया है वह मुश्किल से 5-7% मामलों में होता है, जबकि इस फिल्म ने जो 90-95% मामलों में होता है वह तो दिखाया ही नहीं था| वह आपको मैं बताता हूँ| लगे हाथों बता दूँ कि हरयाणा में "विधवा पुनर्विवाह" को "करेवा" या "लत्ता ओढ़ाना" भी बोलते हैं|

विधवा-पुनर्विवाह औरत की स्वेच्छा होती है बाध्यता नहीं: इसके 4 उदाहरण खुद मेरे परिवार-कुनबे के देता हूँ|

उदाहरण एक: काकी सम्भल (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो काकी की उम्र 35-40 वर्ष के बीच रही होगी| सिर्फ दो बेटियां थी| छोटा काका कुंवारा था, उसका लत्ता ओढ़ने का ऑफर हुआ| तो काकी ने छोटे काका के सामने कुछ टर्म्स एंड कंडीशन्स रखी| बात नहीं बन पाई तो काकी दिवंगत काका यानि अपने दिवंगत पति से (पति के बाद पत्नी उसकी चल-अचल सम्पत्ति की बाई-डिफ़ॉल्ट मालकिन होती है, वैसे होती तो जीते-जी भी है परन्तु वकीलों-रजिस्ट्रारों की मोटी फीसों व् खर्चों के चलते कागजी कार्यवाही कोई-कोई ही करवाता है) नियम के तहत अपनी दोनों बेटियों के साथ ख़ुशी से रहने लगी| थोड़े दिन बाद पीहर में जा बसी और आज दोनों बेटियां पढ़ा-लिखा के ब्याह दी|

उदाहरण दो: काकी सिद्धा (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ तीन बेटियां थी| विधवा होने के वक्त उम्र 30-35 वर्ष के बीच रही होगी| जेठ का लत्ता ओढाने का ऑफर हुआ, क्योंकि पति के सभी भाई ब्याहे जा चुके थे| काकी ने मना कर दिया और अपने दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति पे स्वाभिमान से मेहनत कर तीनों बेटियों को पढ़ाया लिखाया व् ब्याह दिया|

उदाहरण तीन: काकी सुजीत (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम) काका की बहु| काका गुजरे तो सिर्फ दो बेटे थे, काकी की उम्र भी 30 साल से कम, M.A. पास| छोटा देवर कुंवारा था, परन्तु करेवा करवाने से मना कर दिया| अपने दोनों बच्चों को पढ़ा-लिखा रही है, working from home woman (वर्किंग फ्रॉम होम वीमेन) है| खेत भी सम्भालती है और प्राइवेट नौकरी भी करती है|

उदाहरण चार: सुदेश बुआ (व्यक्तिगत प्राइवेसी के चलते बदला हुआ नाम), 30 साल की उम्र में विधवा हो गई, सिर्फ दो बेटे थे| पीहर में रहती हैं, परन्तु एक बेटा दादा-दादी के पास छोड़ रखा है और एक खुद के पास| कोई चक-चक नहीं अपनी मर्जी से जीवन जीती है| दोनों लड़के कॉलेज गोइंग हो चुके हैं|

तो यह है जाट समाज में पाई जाने वाली "विधवा-पुनर्विवाह" की प्रथा|

इस प्रथा की कमियां: कई बार जमीन-जायदाद के लालच में, औरत को अपने काबू में रखने के चक्कर में, विधवा के पुनर्विवाह के वक्त उसकी मर्जी नहीं पूछी जाती| ऐसे 5-7% मामले हैं; परन्तु उन समाजों के सिस्टम से तो लाख गुना बेहतर सिस्टम है यह, जहां औरत को विधवा होते ही उसकी उम्र देखे बिना, उसको उसके दिवंगत पति की चल-अचल सम्पत्ति से बेदखल कर, आजीवन विधवा आश्रमों में सड़ने व् गैर-मर्दों की वासनापूर्ति का साधन बनने हेतु फेंक दी जाती हैं| यह विधवा-आश्रम सिस्टम गंगा के घाटों पर खासकर पाया जाता है| इस अमानवता व् पाप का एक बड़ा अड्डा वृन्दावन के विधवा-आश्रम भी हैं|

जाटों में इस प्रथा के होने को राजस्थान के कुछ स्वघोषित उच्च समाज इसको जाटों का पिछड़ापन व् नीचता मानते हैं और इसको जाटों से नफरत करने के मुख्य कारणों में एक गिनते हैं (अब इसके कारण किसी की नफरत के पात्र जाट बनें तो फिर इस प्रथा की अच्छाइयों का श्रेय जाट अपने सर क्यों न धरें?)| पता नहीं यह कैसे उच्च हैं जो नारी को सम्मान का जीवन देने को भी नीचता कहते हैं|

चलते-चलते बता दूँ कि हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी-दिल्ली में सिर्फ जाट ही नहीं वरन यहां की सम्पूर्ण जातियां इस प्रथा को गर्व से फॉलो करती हैं|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 27 March 2017

परजीवियों से सत्ता चलवाओगे तो मनवांछित फल कहाँ से पाओगे?

जिसने सदा संसार से मांग के खाया, उसको सीएम तो क्या पीएम भी बना दो, उसमें उम्रभर खिलाने वाले किसान का कर्ज माफ़ करने की बुद्धिमत्ता कदापि नहीं आ सकती| वो एक परजीवी की तरह पला होता है तो दाता कहाँ से बन जायेगा?

यह उनके लिए है जो यूपी की योगी सरकार से किसानों के कर्जमाफी हेतु मुंह धोये बैठे थे; आखिर इतना ज्ञान तो अपने पुरखों के इतिहास से सीख लो तुम परन्तु तुम्हें यह भी तो बहुत बड़ी बीमारी है ना कि अपने बताये पुरखे की बात से इन नौसिखियों के जुमले ज्यादा पसंद आते हैं|

उधर देखो पंजाब में एक राजाई गद्दी के किसान-पुत्र की सरकार ने कर्जा उगाही के लिए किसानों की जमीन की कुर्की नहीं होने का आते ही कानून बना दिया और कर्जमाफी पर भी जल्द ही फैसला आने वाला है, क्योंकि कर्जमाफी कमेटी स्टडी पे बैठा दी थी आते ही|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 26 March 2017

भारत डार्क ऐज में पुनः जा रहा है!

यूरोप में एक जमाने में चर्च इतना ताकतवर था कि वह राजा तक की परवाह नहीं करता था l एक बार राजा से कोई गलती हो गई और वो पोप को मनाने के लिए दो दिन तक चर्च के बाहर खड़ा रहा लेकिन पोप ने राजा को घास तक नहीं डाली l चर्च जिसे दिल चाहता था उसे जन्नत का परवाना बना देता था जिसे दिल चाहता जादूगर कह कर जिन्दा जला दिया जाता था l 1610 में जब टेलिस्कोप का आविष्कार हुआ और मनुष्य दूर तक देखने में सक्षम ...हुआ और गैलिलीयो को यह एहसास हुआ कि पृथ्वी universe का केंद्र नहीं बल्कि यह तो खुद सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा रही है जो बाइबल के दर्शन के बिल्कुल विपरीत था l

गैलिलीयो को चर्च की अदालत में तलब कर लिया गया और गैलिलीयो को अदालत में जान बचाने के लिए माफी मांगनी पड़ी l पादरियों ने ज़ूरदानो ब्रूनो को यह कहने पर ज़िंदा जला दिया था कि पृथ्वी सूर्य के चारो ओर घूमती है। बाइबिल कहती है कि पृथ्वी universe का केंद्र है।

इसी घुटन भरे वातावरण में चर्च के अंदर से ही विद्रोह हुई l मार्टिन लूथर ने चर्च की इस एकाधिकार को चुनौती दी l यूरोप में इसे दौर को डार्क- ऐज कहा जाता है l एक लंबी जद्दोजहद के बाद यूरोप ने चर्च को राज्य मामलों से अलग कर दिया और यहीं से उनका विकास शुरू हुआ, लोकतंत्र आया, जुडिशल सिस्टम बने लेकिन आज भी यूरोप इस पीरियड पर शर्मिंदा है और हजार साल के पीरियड को डार्क -ऐज कहते हैंl

अब हमें यह फैसला करना है कि हमने अपनी सोसाइटी को आगे की ओर ले के जाना है या फिर हमारी आने वाली नस्लों को हमारा किया भुगतना पड़ेगा , जैसे मुस्लिम मज़हबी मुल्को में आज की नस्लों को भुगतना करना पड़ रहा है।

Courtesy: Sir Dayanand Singh Chahal

Thursday, 23 March 2017

सरदार भगत सिंह चालीसा!

देशभक्ति के भगवान (God of patriotism) शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह और राजगुरु व् सुखदेव को राष्ट्रीय शहीदी दिवस पर कोटि-कोटि नमन!

शहीद-ए-आज़म की शान में प्रस्तुत है "सरदार भगत सिंह चालीसा":

जय भगत सिंह, देशभक्ति के सागर,
जय सरदारा, तिहुँ लोक उजागर!

किसान-पुत्त, अतुलित बल धामा,
विद्यावती पुत्र, बंगे पिंड जामा!

महाबीर बिक्रम बसन्त-रंगी,
कायरता उखाड़, वीरता के संगी!

किसान कर्म, विराज खटकड़-कलां का,
सर पर पगड़ी, मूछें जबर सा!

हाथ इंकलाब और बसन्ती ध्वज विराजे,
काँधे फटका किसान का साजे!

संधू सुवन किशन सिंह नन्दन,
तेज प्रताप महाजंग वन्दन!

विद्यवान गुनी अति चातुर,
देश काज करिबे को आतुर!

सरदारी चरित्र पढ़िबे को रसिया,
लेनिन-सराबा-खालसा मन बसिया!

रूप बदल धरि, केश कटावा,
अंग्रेजन को चकमा दे जावा!

इंकलाबी रूप धरि, सांडर्स संहारे,
धरती-माँ के काज सँवारे!

बनाये बम, असेंबली बजाए,
पर प्राण किसी के ना जाए!

भारत किन्हीं बहुत बड़ाई,
तुम मम प्रिये आमजन सहाई!

सहस मुल्क तुम्हरो यश गावे,
ऐसा-कही माँ कण्ठ लगावे!

संकाधिक मजदूर-मुनीसा,
किसान-जवान सहित महीसा!

तुम उपकार लाजपत कीन्हा,
मार सांडर्स सम्मान बचीना!

तुम्हरो मन्त्र गांधी माना,
अंग्रेज भये सब जग जाना!

67 रोज भूख हड़ताल ठानूँ,
अंग्रेजन को झुका के मानूँ!

धरती-माँ मेहर, मन माही,
फांसी झूल गए, अचरज नाहीं!

दुर्गम काज जगत के जीते,
भगता तुम गजब के चीते!

देशभक्ति द्वारे तुम उजयारे,
जुमला से ना हुए गुजारे!

आपका तेज सम्हारो आपही,
तीनों लोक ना दूजा कोई!

भूत-पिशाच निकट नाही आवे,
जो भगत सिंह नाम सुनावे!

नासे रोग हरे सब पीड़ा,
जपत निरन्तर भगत सिंह बीरा!

पंगुता से भगत सिंह छुडावे,
गाम-गौत-गुहांड जो पुगावे!

चारों युग प्रताप तुम्हारा,
है प्रसिद्ध जगत उजियारा!

किसान-मजदूर के तुम रखवारे,
मंडी-फ़ंडी निकन्दन, अजीत दुलारे!

देशभक्ति रसायन, तुम्हारे पासा,
सदा रहो देशभक्ति के बाहसा!

संकट कटे-मिटे सब पीड़ा,
जो सुमरै भगत सिंह शेरा!

जय जय जय भगत सिंह शाही,
अवतारों फिर, बन नई राही!

जो यह पढ़े भगत सिंह चालीसा,
होये निर्भय सखी दुर्गा भाभी-सा,

फुल्ले-भगत सदा भली तेरा,
कीजे सरदार हृदय में डेरा!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 22 March 2017

क्या है 20 जनवरी 1934 को सीकर में शुरू हुए बीसवी शताब्दी के सबसे बड़े महायज्ञ का सच?

देशी और विदेशी इतिहासकारों ने लिखा है कि 20 जनवरी से 26 जनवरी तक चलने वाले इस यज्ञ के अंतिम दिन जाट यज्ञपति हुकमसिंह काे हाथी पर सवार कर जुलूस निकालना चाहते थे किंतु पूर्व रात्रि को ही सीकर ठिकाने ने इस उद्देश्य के लिए लाए गए हाथी को चुरा लिया। इससे जाट आक्रोशित हुए और उन्होंने हाथी की सवारी के बिना यहां से न हटने का फैसला कर लिया। 3 दिन तक भयंकर तनातनी और उत्तेजना का माहौल बना रहा। दीनबंधु छोटूराम ने जयपुर महाराजा के पास सूचना भिजवाई कि एक भी जाट के साथ अगर कुछ गलत घटित हो गया तो पूरे देश में ईंट से ईंट बजा दी जाएगी। जयपुर पुलिस के इंस्पेक्टर जनरल एफ. एस. यंग स्थिति का जायजा लेने के लिए स्वयं हवाई जहाज से सीकर आए और यज्ञ स्थल के ऊपर हवाई जहाज उड़ाया। स्थिति के विकराल रुप धारण करने के बाद अंततः सीकर ठिकाने को झुकना पड़ा और दसवें दिन इस शर्त पर जुलूस निकालने के लिए स्वयं सजा सजाया हाथी प्रदान कर दिया कि हाथी पर सवारी यज्ञपति हुकमसिंह नहीं बल्कि उनके स्थान पर यज्ञ के पुरोहित पंडित खेमराज शर्मा करेंगे किन्तु जुलूस के समय जाटों ने पंडित खेमराज शर्मा के साथ सरदार हरलाल सिंह (झुंझुनू के प्रसिद्ध जाट नेता) के पुत्र नरेंद्र को हाथी पर बैठा दिया।

वास्तव में यह यज्ञ 7 दिन तक ही चला था और हाथी चुराने की घटना यज्ञ की पहली रात्रि को ही हो गई थी, जिसका प्रमाण मैं इस पोस्ट के कमेंट बॉक्स में समकालीन समाचार पत्रों की कतरन के रूप में दे रहा हूं। 7 दिन तक चले इस यज्ञ में लगभग 3 लाख लोगों ने भाग लिया और अंतिम दिन के जुलूस में 1 लाख इकट्ठा हुए।
क्यों किया गया यह यज्ञ - आर्थिक और सामाजिक रुप से प्रताड़ित यहां के किसान (जो मुख्य रूप से जाट थे) संगठित होना चाहते थे किंतु राजनीतिक और आर्थिक समस्या के समाधान के लिए सीकर ठिकाना उनको एकत्रित होने की अनुमति नहीं दे सकता था। इसलिए उन्होंने धर्म का सहारा लेकर जातिगत यज्ञ करने का निर्णय लिया। धार्मिक मामला होने के कारण सीकर ठिकाना किसानों को संगठित होने से रोक नहीं पाया। यज्ञ के दौरान लाखों लोगों के इकट्ठा होने से किसान स्वयं को संगठित करने का सपना साकार करने में सफल रहे।-------
इतिहासकार अरविंद भास्कर की शानदार पोस्ट।


Saturday, 18 March 2017

भारत में परिभाषाओं का यह घालमेल भारतीय सभ्यता के लिए शुभ संकेंत नहीं!

बचपन से योग की एक ही परिभाषा सिखाई गई कि योग वह व्यक्ति धारण करता है जो संसार की मोहमाया, सत्ता-सुख, लोभ-लालच से ऊपर उठना चाहता हो| अब जिसने यही तपस्या पूरी नहीं की हो वह संसार का क्या ख़ाक भला करेगा?

वैसे चलो अगर योग धारण करके भी इनसे सांसारिक मोहमाया से पार नहीं हुआ गया और संसार में वापिस लौटते भी हैं तो कम से कम इनको योग के वस्त्र को उसी तरह वापिस त्याग के समाज में एंट्री लेनी चाहिए, जैसे योग धारण करते वक्त सांसारिक वस्त्र त्याग के योग के धारण किये थे|

आखिर कहीं ना कहीं समाज को भी तो अपनी श्रेष्ठता धरने दोगे या नहीं? आखिर जो गृहस्थ चलाते हैं उनके योग का भी तो कोई वजूद होगा? या जिधर देखो जब चाहो तुम हर जगह घुस जाओगे और वेशभूषा भी नहीं बदलोगे?
योगी बना भोगी,

तू क्यों बावली होगी!
चलती जा रंडापे की राह,
कभी तो तू भी जोगन होगी!

गुरूद्वारे से निकल कर ना सिख ग्रन्थी सत्ता में आता है|
मस्जिद से निकल कर ना मौलवी सत्ता में आता है|
चर्च से निकल कर ना पादरी सत्ता में आता है|
ना ही मठ से कोई बौद्ध भिक्षुक सत्ता का रूख करता है|

तो फिर इन भगवा बाणे वालों को ऐसी क्या तलब रहती है कि योगी हो के भी 'सांसारिक मोहमाया, सत्ता-सुख, लोभ-लालच' नहीं त्याग पाते और वापिस सांसारिकता में नियत लगाने को आतुर हुए रहते हैं? यह जब योग ही नहीं निभा पाते तो संसार को क्या मार्ग दिखाएंगे?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 March 2017

जब रंग-नश्ल भेद, छूत-अछूत जातीय आधार की अपेक्षा वर्ण आधार पर होता है तो फिर कौनसे जातीय अभिमान से ऊपर उठने की बात की जाती है?


जाति नश्लभेद का आधार नहीं है, अपितु वर्ण है| क्या एक दलित जाति वाले चमार को दूसरी दलित जाति वाले धानक से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक यादव को एक गुज्जर से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक गौड़ ब्राह्मण को एक मराठी ब्राह्मण से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक सिसोदिया राजपूत को कुशवाहा राजपूत से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या एक अग्रवाल बनिये को गर्ग बनिये से रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है? क्या पांचवें वर्ण कहे जाने वाले जाटों में देशवाली जाट व् बागड़ी जाट में रंग-नश्ल भेद पर नफरत करते देखा है?

लेकिन वर्ण आधार पर देखा है| ब्राह्मण के लिए दलित अछूत है तो व्यापारी के लिए किसान निम्न है| तो खत्म करने हैं तो वर्ण खत्म करो, जाति नहीं| जाति तो इंसान का डीएनए बताती है, उसका इतिहास बताती है, उसकी पहचान बताती है| नहीं बताती हो तो बता दो? क्या कभी सुना है व्यापारी वर्ण का इतिहास, दलित वर्ण का इतिहास या क्षत्रिय वर्ण का इतिहास? लेकिन राजपूत जाति का इतिहास, जाट जाति का इतिहास, बनिया जाति का इतिहास, ब्राह्मण जाति का इतिहास, चमार जाति का इतिहास आदि-आदि खूब सुनते हैं|

इसलिए इन जातीय अभिमान या स्वाभिमान से ऊपर उठने वालों को बोलो कि ऊपर उठना है तो वर्ण अभिमान या स्वाभिमान से उठो| जातियों में कोई लोचा नहीं है, इनमें सब ठीक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक