Saturday 18 March 2017

भारत में परिभाषाओं का यह घालमेल भारतीय सभ्यता के लिए शुभ संकेंत नहीं!

बचपन से योग की एक ही परिभाषा सिखाई गई कि योग वह व्यक्ति धारण करता है जो संसार की मोहमाया, सत्ता-सुख, लोभ-लालच से ऊपर उठना चाहता हो| अब जिसने यही तपस्या पूरी नहीं की हो वह संसार का क्या ख़ाक भला करेगा?

वैसे चलो अगर योग धारण करके भी इनसे सांसारिक मोहमाया से पार नहीं हुआ गया और संसार में वापिस लौटते भी हैं तो कम से कम इनको योग के वस्त्र को उसी तरह वापिस त्याग के समाज में एंट्री लेनी चाहिए, जैसे योग धारण करते वक्त सांसारिक वस्त्र त्याग के योग के धारण किये थे|

आखिर कहीं ना कहीं समाज को भी तो अपनी श्रेष्ठता धरने दोगे या नहीं? आखिर जो गृहस्थ चलाते हैं उनके योग का भी तो कोई वजूद होगा? या जिधर देखो जब चाहो तुम हर जगह घुस जाओगे और वेशभूषा भी नहीं बदलोगे?
योगी बना भोगी,

तू क्यों बावली होगी!
चलती जा रंडापे की राह,
कभी तो तू भी जोगन होगी!

गुरूद्वारे से निकल कर ना सिख ग्रन्थी सत्ता में आता है|
मस्जिद से निकल कर ना मौलवी सत्ता में आता है|
चर्च से निकल कर ना पादरी सत्ता में आता है|
ना ही मठ से कोई बौद्ध भिक्षुक सत्ता का रूख करता है|

तो फिर इन भगवा बाणे वालों को ऐसी क्या तलब रहती है कि योगी हो के भी 'सांसारिक मोहमाया, सत्ता-सुख, लोभ-लालच' नहीं त्याग पाते और वापिस सांसारिकता में नियत लगाने को आतुर हुए रहते हैं? यह जब योग ही नहीं निभा पाते तो संसार को क्या मार्ग दिखाएंगे?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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