Saturday, 30 November 2019

80 वर्षीय IAS रिटायर्ड ऑफिसर "सर सुखबीर सिंह मलिक जी" से बात करने का सौभाग्य मिला पिछले दिनों!

बोले कि बेटा आप वह काम कर रहे हो जो हम समाज की इलीट क्लास होते हुए भी नहीं कर सके| और वह है हरयाणवी समाज में "KINSHIP - किनशिप" को कंटिन्यू (निरंतरता में जारी रखना) रखने का|

सर ने बताया कि बेटा वक्त की कमी कहो या शहरों में आने के चलते गाम-खेड़ों से हमारा कटाव कहो या उचित मौके नहीं बन पाए या नहीं बना पाए कहो परन्तु यह कमी हमें सालती रही कि हमारी 'किनशिप' कहीं पीछे छूट गई है|

परन्तु जब प्रोफेसर दिव्याज्योति के जरिये आप बारे जाना तो आपसे बातें करने का मन हुआ| आप एक बहुत ही अहम् छूटा हुआ पहलु आगे बढ़ा रहे हो, इसको विशालतम स्तर तक लेकर जाना| क्योंकि हर कामयाबी-शौहरत का अंत हासिल यही है कि अगर आपने जीवन में अपनी 'किनशिप' को कंटिन्यू नहीं रखा तो बुढ़ापे में आपको यह चीज खासी सालती है|

किनशिप का अर्थ: आपके जेनेटिक्स-जनरेशन-कस्टम-कल्चर-भाषा-सोशल आइडेंटिटी व् उसके रुतबे की निरंतरता-स्थिरता-दृढ़ता-अखंडता-प्राकाष्ठा बारे राजनीती व् धर्मनीति से अलग व् समानांतर बनाया जाने वाला आइडियोलॉजिकल थिंकटैंक सोशल प्रेशर ग्रुप, जिसकी कमांड एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी (इस कांसेप्ट बारे सबसे जागरूक-सेंसिटिव व् डेडिकेटेड ग्रुप) को एक उत्तराधिकार के रूप में सौंपी जाती है|

सर बोले कि बिहारी देखे, बंगाली देखे, मराठी-तमिल-सिख-मुस्लिम-ईसाई सब देखे| सबने अपनी किनशिप कन्फर्म कर रखी हैं जिनमें गैर-धर्मी या गैर-एथनिसिटी वाले पंख भी नहीं मार सकते, पैर भी नहीं धर सकते| परन्तु हम हरयाणवी इस बारे अभी तक सबसे विखंडित हैं, बेगोल हैं, नॉन-सीरियस हैं| जब दिव्या ने बताया कि आपने यह पहलु विदेश में बैठे हुए भी आठ-दस साल के लगभग वक्त से इतने व्यापक स्तर पर उठाया हुआ है तो अंदर एक रौशनी हुई, तो बात करने का मन हुआ आपसे; इससे पीछे मत हटना कभी| याद रखना अपने बुढ़ापे के लिए हर तरह की इज्जत-शौहरत-ताकत-दौलत-बुलंदी के साथ आप वह 'किनशिप' कमाने जा रहे हैं जिसके लिए हम लोगों तक को इस उम्र में आकर कमी महसूस होती है| काश हम यह किनशिप जारी रख पाते, इसको टूटने नहीं देते तो हरयाणा में फरवरी 2016 शायद ही होता|

Honorable sir, with due respect and honour to your visionary guidance; your words shall always work for me on this path as cement does in holding a building.

अपने बुजुर्गों से बात करते रहिये, चाहे वह गाम-खेड़े में बसते हों या शहरों की RWAs में|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 28 November 2019

उर्दू व् हरयाणवी:

उर्दू व् हरयाणवी भाषा की 80 प्रतिशत वोकल डिक्शनरी सेम है और ऐसे ही हरयाणवी-पंजाबी की 70% से ज्यादा वोकल डिक्शनरी सेम है; बस लिखित की स्क्रिप्ट हरयाणवी की पंजाबी व् उर्दू से भिन्न है| हरयाणवी को बोली बताकर धक्के से "वेस्टर्न-हिंदी' ग्रुप में घुसाया गया ताकि हरयाणवी खत्म करके हिंदी चला दी जाए| जबकि हरयाणवी की हिंदी से 50% भी वोकल डिक्शनरी नहीं मिलती|

परन्तु जिसके भी हैं यह षड्यंत्र पकड़ में आ रहे हैं| यहाँ हमारे पुरखे, पुरखों के पुरखे सब हरयाणवी बोलते आये और यही हम बोलेंगे; आगे की पीढ़ियों को पास करेंगे| अब तो बल्कि हरयाणवी ही हरयाणा की राजभाषा हो, यही निरंतर प्रचारित करना चाहिए; तब तक जब तक कि यह वाकई में ही हरयाणा की ऑफिसियल भाषा नहीं बना दी जाती|

अब देखना, इस पर भी "हरयाणा एक, हरयाणवी एक" का नारा देने वाले छद्म हरयाणवी कुछ ना कुछ तन्त्रम ना घड़ लाएं; इसीलिए ऐसे लोग हमारे पुरखों की नजर में फंडी कहलाये| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

बात विशाल हरयाणा की!


हुड्डा साहब ने विधानसभा में जो विशाल हरयाणा की बात करी वह मेरे जैसे अनेक साथी अपने लेखों में दशक से भी ज्यादा बरसों से करते आ रहे हैं| पढ़िए और जानिये विशाल हरयाणा बारे मेरे द्वारा लिखे गए सन 2012 के इस लेख से: http://www.nidanaheights.com/choupal-d1.html

हुड्डा साहब आप बेझिझक आगे बढ़ें इस मुद्दे पर, हम आपके साथ विशाल हरयाणा को एक करने के लिए जान पे जान लड़ा सकते हैं| जितना चाहिए उतना समर्थन आपको जोड़ कर दे सकते हैं इस मुद्दे पर|

और रही अनिल विज द्वारा हुड्डा साहब को चण्डीगढ पर घेरने की| अनिल विज, महाशय ऐसा है आप चंडीगढ़ की बात करते हैं, पहले पंजाब में उन 5% हिन्दुओं को वापिस तो बसा के दिखा दो, जो 1984 से वहां के सिखों से पिटे-छिते हरयाणा में शरण लिए हुए हैं? बात करते हैं चंडीगढ़ पर हरयाणा का हक बनाये रखने की| यह भी प्योर हरयाणवी ही कर सकें हैं क्योंकि आपके बस का सिर्फ एक काम है कि संघ के इशारे रायता फैलाना और जब वह रायता इतना ज्यादा फ़ैल जाए कि 1984 जैसा कुछ हो जाए तो पंजाब के सिखों से पिट-छित के वहाँ से भाग खड़े होना| इसलिए आप तो ऐसे मुद्दों पर ना बोलें तो बेहतर|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

सन 1761 के 10 लाख रूपये की आज की तारीख में क्या कीमत होगी, कोई CA दोस्त बता सकता है?

सलंगित कटिंग को देखिये - यह उस खर्चे का ब्यौरा है जो सन 1761 की पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली से मात खाये दर पर मदद की गुहार लिए आए ब्राह्मण पेशवे व् साथ मरवाई मराठा सेना की जाट महाराजा सूरजमल सुजान जी ने अपने राज के खजानों के मुँह खोल इनकी मरहमपट्टियों से ले आर्थिक मददें करने व् इनको जाट सेना की सुरक्षा में वापिस महाराष्ट्र छुड़वाने में ख़र्च कर दिए थे|

रै रलदू; यह रकम इतनी तो बैठती ही होगी कि जितने का नुकसान बीजेपी सरकार ने पिछले पाँच साल में चार बार हरयाणा जला कर, कर दिया, उसमें भी सबसे ज्यादा फरवरी 2016 का जाट बनाम नॉन-जाट रचकर? इतने नुकसान के बराबर के पैसे यह जाटों को यूँ ही दे देते तो इनके पुरखों पर जाटों के पुरखों द्वारा किये अहसान जरूर कुछ बराबर लग जाते, है कि नहीं?

लेकिन ना यह इतिहास से कुछ सीखने को तैयार ना अपना दम्भ छोड़ने को, फरवरी 2016 में स्टेट-सेण्टर में इनकी सरकारें होते हुए भी उसी हरयाणा में जाट बनाम नॉन-जाट किया या इन्होनें होने दिया जहाँ पर इनके पुरखों को मरहमपट्टियाँ मिली थी| कर लो इनपे अहसान, अहसान के बदले जाट बनाम नॉन-जाट देते हैं यह; फिर ज्यादा कहूंगा तो भगत बिलबिलायेंगे| इनके ऐसे ही घावों के चलते यह मीडिया की भाषा वाली जाटलैंड पर उन्हीं दिनों से आज तलक भी भाऊ नहीं अपितु हाऊ कहलाते हैं|

आने वाली 6 तारीख को पानीपत फिल्म आ रही है, यह इतने हवाबाज हैं कि धरातल पर रहना शायद इनके डीएनए में ही नहीं| देखें क्या गपोड़-घस्से भर के ला रहे हैं इस फिल्म में| वैसे तो हर हरयाणे का बच्चा परन्तु उनमें भी खासकर हर जाट का बच्चा यह ऐसे-ऐसे ऐतिहासिक तथ्य याद रखे यह फिल्म देखने जाते हुए, अगर जाओ तो| नहीं तो रिलीज के दो-चार दिन बाद इंटरनेट पर आ ही जाएगी|

डाटा सोर्स: कुंवर प्रवीर नागिल|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Saturday, 23 November 2019

जेनएयू वालों के ज्ञान-बुद्धि-टेलेंट पर कोई कमेंट या संदेह नहीं क्योंकि यहाँ सबसे ज्यादा वही स्वर्ण पढ़ते मिलेंगे जिनके समाजों में!

1) आज भी विधवा को पुनर्विवाह की इजादत नहीं| जो आज भी दिवंगत पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर सर मुंडवा कर हरिद्वार से हुगली तक की गंगा के विधवा-घाटों या वृन्दावन जैसे विधवा आश्रमों में फ़ंडी-फलहरियों की कामवासना पूर्ती हेतु फेंक दी जाती हैं| वृन्दावन में तो 80% उसी बंगाल की स्वर्ण विधवाएं हैं जो जेनएयू में सबसे ज्यादा कोटाधारी होते हैं और पूरे देश के स्वघोषित सबसे बड़े विद्वान् कहलाते हैं| इन पर कभी नहीं बोलेंगे यह जबकि इनको हरयाणा की जाट-खाप इन मामलों में सबसे प्रिय टारगेट दिख जायेंगे| वह जाट-खाप जिसके यहाँ पूरे देश में सबसे सम्भव शान से दिवंगत पति की प्रॉपर्टी पर बसते-घसते हुए जीवन जीती हैं विधवाएं| कोई माई का लाल हमारे यहाँ किसी विधवा को उसकी प्रॉपर्टी से इनकी तरह बदहाली करके बेदखल तो करके दिखाए| कभी शादी-ब्याह के मौकों पर विधवा का खड़ा होना अशुभ नहीं माना जाता बल्कि घर की बाकी औरतों के बराबर हर फंक्शन में शामिल की जाती हैं|

2) इनको खाप-पंचायतों के चबूतरों पर महिलाएं नहीं होती पहले झटके दीखता है परन्तु मंदिरों के चबूतरों पर, गृभगृहों में, पुजारी की पोस्टों पर महिलाएं नहीं होती वह इनमें से अधिकतर को होता तब भी नहीं दीखता जब रोज-रोज मंदिरों में घंटा भी बजा के आते हैं और पूजा-प्रसाद भी चढ़ा के आते हैं| सुसरे जो धरती के सबसे बड़े हिपोक्रेट व् घुन्ने ना हों तो|

3) इनको हरयाणा का दलित, बिहार-बंगाल के महादलित से भी दुखी व् प्रताड़ित लगता है| और इसपे बिना हुए भी विवाद खड़े करवाने को जाट नाम का शब्द व् पात्र इनका सबसे प्रिय होता है| वह हरयाणा जहाँ, इनके बिहार-बंगाल में सवर्णों का सताया हुआ दलित-महादलित-ओबीसी बेसिक दिहाड़ी वाला रोजगार पाता है, इनको उसको वहीँ बिहार-बंगाल में रोजगार मुहैया करवाने बारे प्लान-प्रोजेक्ट बनाने से ज्यादा, उस हरयाणा के जहाँ दलित को इतनी नौबत तो कभी आती ही नहीं कि मात्र बेसिक दिहाड़ी को उसको अपना गृहराज्य छोड़ हजारों कोस दूर जाना पड़े, वहां दलित-जाट का गेम इनका सबसे फेवरेट है|

4) इनको शहरों की आरडब्लूए वाली सोसाइटीज के हर उलटे-सीधे-पाबंदी के नियम आधुनिकता दीखते हैं बस तालिबान-तुगलकी फरमान तो एक हरयाणा उसमें भी खासकर जाट व् खाप के यहाँ नजर आता है; फिर चाहे खुद सुसरे तुगलकाबाद की ही किसी आरडब्लूए में रहते हों|

और सुनी है कि फीस तो इतनी सस्ती है कि इतना सस्ता तो बीपीएल वालों को अनाज भी नहीं मिलता?
ओ भाई, ऊपर लिखा शीर्षक में कि तुम्हारे ज्ञान-टैलेंट पर कोई सवाल नहीं परन्तु पहले अपने यह प्रेजुडाइस भी क्लियर कर लो| जाटों-खापों की चिंता करने से पहले अपने बिहार-बंगाल की चिंता कर लो क्योंकि सुना है जेएनयू में तुम 80% वही से हो? बिहार-बंगाल को इतना समृद्ध व् समर्थ बना के दिखाओ कि वहां से मजदूर अन्य राज्यों में रोजगार ढूंढने नहीं जाने की बजाये वहीँ की वहीँ रोजगार पावें तो मानें तुम्हारे इंटेल्लेक्ट को| वरना इन सूखे आडिलियस्टिक इंटेल्लेक्ट के सगूफों पर तो मेरा दादा मुझे "बोळी-खयल्लो" कर मेरी पीठ थपथपा सर पुचकार कर न्यूं कह दिया करदा जा घरां, तेरी दादी दूध गर्म कर रही सै, पी कें सो जा|

बाकी थारी फीस माफ़ी की मांग में थारे साथ हूँ, थारी ही क्या पूरे देश में हर लेवल की शिक्षा निशुल्क होनी चाहिए| पर थोड़ा अपनी ईगो व् एरोगेंस को इतने तो बैलेंस में रखो कि मुझे यह अंतिम तुम्हारे समर्थन वाली ही लाइन लिखने की जरूरत पड़े, ऊपर वाला उपदेश ना पाथना पड़े|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 21 November 2019

बीएचयू में मुस्लिम प्रोफेसर को संस्कृत पढ़ाने नहीं देने का एपिसोड!

जिस तरीके से बीएचयू में एक मुस्लिम प्रोफेसर को संस्कृत नहीं पढ़ाने दी जा रही, इसको देखते हुए तो ऐसा लग रहा है कि धीरे-धीरे वह युग वापिस आ रहा है जिसके बारे बताते हैं कि संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने का हक एक धर्म के अंदर भी एक जाति-नश्ल-वर्ण विशेष को ही होता था या ऐसा उनके द्वारा स्वघोषित था? तो क्या अब अगला कदम यह होगा कि गैर-धर्मी के बाद दलित-ओबीसी प्रोफेसरस को भी संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने से रुकवा दिया जायेगा?

इसको देखते हुए तो फिर नंबर आर्यसमाजी जाटों का भी आएगा, जो ब्याह-शादियों में फेरे तक अपने बच्चों के खुद करते-करवाते हैं? अपनी जाति से बाहर वाले से फेरे करवाना तो बहुत से गाम-कुनबों में आज भी अशुभ भी माना जाता है और स्वीकार्य भी नहीं है| मेरे तो खानदान-कुनबे-ठोले तक में पीढ़ियों से चला यह दस्तूर आज भी कायम है कि ब्याह फेरे हों या मरगत-उद्घाटन के हवन, हमेशा घर बड़ा बुड्ढा जानता हो तो उससे अन्यथा जाट शास्त्री से ही फेरे-हवन आदि करवाते हैं| मेरे बड़े भाई-भाभी के फेरे, भाभी जी के दादा जी ने करवाए, मेरे बाप-दादा-पड़दादा के फेरे जाट-बडेरों ने करवाए, छोटे भाई के फेरे जाट आर्यसमाजी ने करवाए| अभी 2018 में जब इंडिया गया था तो मेरी चचेरी दादी की मरगत का हवन तक जाट आर्यसमाजी से ही करवाया था फिर भले ही उसके लिए स्पेशल 2 घंटे इंतज़ार करना पड़ा सबको|

भाई, इन हालातों तो एक सलाह है कि जल्दी-जल्दी इन फेरों के मंत्रों को अपनी हरयाणवी में ट्रांसलेट मार लो और संस्कृत के साथ-साथ हरयाणवी में फेरे करवाने शुरू कर लो| क्या पता कब फरमान आ जाये कि संस्कृत पे तो हमारा कॉपीराइट है तुम प्रयोग नहीं कर सकते| साथ-साथ अग्नि के साथ-साथ सिख धर्म में जैसे "उनके धर्मग्रंथ" के राउंड्स काट के फेरे लेते हैं ऐसे ही "दादा नगर खेड़ों" के राउंड्स काट के फेरे लेने भी शुरू कर लो वरना पता लगा कि अग्नि वाले फेरों पे भी कॉपीराइट लागू हो गया कि यह वाले तो विशेष वर्ण-समूह वाले ही कर-करवा सकते हैं बस|

जुनसे ने हरयाणवी में फेरे करवाने की बढ़िया फीस चाहिए बेशक इब से ही हरयाणवी में ट्रांसलेट करके और सुर-ताल-लय ज्यों-की-त्यों संस्कृत वालों के तर्ज पे बिठाना शुरू कर लो| क्योंकि चिंता ना मानियो, इतनी जागरूकता फैला दी है साथियों ने हरयाणवी को ले के कि आने वाले वक्त में थम बेरोजगार भूखे नहीं मरोगे, इतनी डिमांड बढ़वा देंगे थारी|

फेर चाहे सर पे धर के नाच लियो इस संस्कृत ने और संदूकों में बंद करके रख लियो यह बीएचयू वाले| हद होती है जाहिलता-गंवारपणे और नस्लीय नफरत व् भेदभाव की भी| मेरे हैं मेरा धर्म है तो क्या मैं इसमें इतनी हद से ज्यादा की नस्लीय नफरत व् घमंड को भी पी जाऊँ? यहाँ फ्रांस की यूनिवर्सिटीज-स्कूल-कॉलेज तो क्या पूरे यूरोप-अमेरिका का दिखाओ इनको, इतने ईसाई टीचर बाइबिल ना पढ़ाते गोरों को जितने कई-कई इंस्टीटूशन्स में तो अरबी व् अफ्रीकन मूल के मुस्लिम पढ़ाते हैं| समझ ना आती देश इन गँवारों को झेल क्यों रहा है आखिर|

जो चीज इतनी बड़ी नफरत का पर्याय बनती हो वह किसी भी सभ्य धर्म का अंग तो कतई नहीं ही हो सकता; फिर किसी को इस लेख में लिखी बातें पसंद आवें या ना आवें| हम तो औरों के ही धर्म की वाहियात बातें नहीं सुनते तो अपने में कैसे सहन कर लें?

इनको दण्ड़काना शुरू करो कि, "या तो तुम सुधरो वरना अपनी पदवी से उतरो"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

ए री दादी, ए री माँ; सुनती जाईए री!

हरयाणवी अणख, हरयाणवी किनशिप का चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया थी मेरी दादी! आज दादी की 17वीं मरगत-तिथि सै!

16 साल हो गए तुझे हमको छोड़ के गए हुए और मेरे से बिछड़े हुए तो 18 साल| तेरी वह बुझी सी सूरत आज भी जेहन में तरोताजा है जब मेरी फ्रांस जाने की बात सुनके सब खुश थे परन्तु तू जैसे शॉक में पलंग पे ही जमी रही 3 दिन, और मेरे फ्रांस आने की तैयारियां तेरे इर्द-गिर्द तेरे ही दिशा-निर्देश अनुसार चलती रही थी| आते हुए तुझे झकझोरा परन्तु तू बुत बनी बैठी थी| परन्तु यह इंस्ट्रक्शन देनी फिर भी नहीं भूली कि, "आपणे रीत-रवाज-पच्छोका सदा गेल राखिए"|

छह दिन का था जब जामण आळी चली गई थी, तेरे में ही माँ अर दादी दोनों रूप मिले| वो जो दुनियाँ को कई बार कहता हूँ ना कि, "पोतड़ों में पॉलिटिक्स सीख के बड़ा हुआ हूँ"| वह सबसे ज्यादा तुझसे ही तो सीखी थी|

जब तू सर धुवा कें चुण्डा करवाती थी और फिर सर पे लत्ता धरती थी तो तेरे चेहरे व् माथे का ललाट ऐसी आभा बिखेरता था कि महारानी भी फेल होती थी तेरे उस डठोरे के आगे|

जब तू मरी थी तो कईयों की जुबानों से कहते सुना था कि "गाम का मोड़ गया", "मैदान का बड़ गया"|

खैर तू जानती है फंडी-पाखंडियों वाले पुनर्जन्म-मरण-पितृ आदि से तेरे जैसे पुरखों ने दूर रहना ही सिखाया; थमनै इतना जरूर बताया कि अगले-पिछले जन्म का नहीं पर अगली-पाछली पीढ़ी का करया होया, उसतैं आगली पै जरूर चढ़या करै; तो इसे खातर इतना जरूर कर दिया था अक तेरी चिता की राख उठा के उसकी एक-एक मुट्ठी अपने सारे खेतों-रजबाहों में बहा दी थी, बिखेर दी थी| वहीँ होगी ना तू अपने खेतों में? कभी उनमें काम करती हुई, कभी उनकी डोल पे बैठ के तेरे बेटे यानि मेरे बाप की बाड़ बनी उसकी रूखाळी करती हुई? घर-कुणबे पै आई मुसीबतों में मेरे बाप-दादे से पहले उठा जेली हाथ में अपना धड़ उनसे आगे अड़ाते हुई, आज भी खड़ी है ना तू गाम के मैदान पे गरजती हुई कि, "आ जाओ मेरे तल्लाकियो, जमा-ए-सुन्ने ला लिए"? तुझसे ही सीखा है कि जाटणियां, हमले होते देख; "आग के कुंड सजा के उनमें कूदने की बजाए; जेळी से बैरी के मुंड छेद लिया करती हैं"| 

चिंता ना कर उधम के डब्बी आज भी कई बार कह देते हैं कि भाई दादी को देख उसके भय से हम जब गाल छोड़ दिया करते थे, वह गालें आज भी छोड़ने का जी करता है बस काश दादी फिर से मैदान-चौराहे पे पीढ़ा घालें बैठी दिख जाए तो|

तेरे छींट आळे दामण की झाल, तेरी छींट-चित्ते वाली चूंडे पे धरी चुन्दड़ियाँ, चर-चर करती तेरी जूती, चिंता ना करिये सब घर की बाहण-बेटी-बहुओं को भी पास कर रहा हूँ| सबसे ज्यादा दबाव मैं ही दिए रहता हूँ सब बुआ-बाहण-भाभियों को कि यही चीजें ही नहीं छोड़नी बस| सुलोचना की होक्के गेल आळी हरयाणवी ड्रेस की फोटो दिखाते तुझे जिन्दा होती तो|

तेरी वह रेहड़ी पर से बिना तुलवाए चीज नहीं खाने की सीख आज भी फ्रांस के शॉपिंग-माल्स तक में साथ ले के चलता हूँ और चीज को चखता भी तभी हूँ जब तुलवा लेता हूँ| वह तेरी "भूखा-माडा-नंगा भूखा नहीं जाने देने की और फंडी मुंह नहीं लाने की "दादा नगर खेड़े वाली सीख" भी साथ लिए हुए हूँ| सीरी-साझी को कुनबे शामल खाना खिलाने की सीख म्हारी माँ यानि तेरी बहु आज भी यूँ की यूँ चलाये हुए है|

एक वो तेरा जो तेरी गाम-गुहांड की अपने घर आई डब्बणों (म्हारी दादियों से) से तीन बार गाल-से-गाल मिला के गाफी भर-भर मिलना होया करता ना (के कह के मिला करती जो घनी प्यारी होया करती उससे कि "हे आ जा मेरी तल्लाकण, काळजे के लाग जा"; वो यहाँ फ्रांस के कल्चर में भी यूँ का यूँ ही है| यहाँ देखता हूँ तो सुखद अनुभूति लेता हूँ कि क्या ग्लोबल स्टैण्डर्ड का कल्चर विरासत में मिला; थारे बरगे पुरखों के जरिए| 

और कितने किस्से गाऊं तेरे आ के बता जा तू ही|

आज तक भी जितना रोमांचित मुझे मोहळे व् ज्याब की (तेरे पीहरों की यानि मेरे दोनों दादकों की) यादें करती हैं इतना रोमांचित बाकी यादों में होता तो हूँ परन्तु इन जितना नहीं| मोहळा (हिसार) की गलियों के तब के वेस्ट-मैनेजमेंट के सिस्टम, साफ़-सफाई इतनी कि आज की मोदी की सफाई अभियान फेल हो जाए, इतनी चमचमाती गलियां और वो रूख, वो परस, वो काका रमेश के ब्याह में केसूहड़े आगे नाचती घुंघरुओं वाली घोड़ी, घोड़ी के आगे बजता धौंसा और तेरा दामण पकड़ें उनको देखता मैं; सब यूँ के यूँ धरे दिमाग में कि जी में आवै उठा के गूंची सब उतार दूँ पेंटिंग में|

जब तू मरी थी तो उस वक्त गया था तेरे दोनों पीहर, अब भी जाता रहता हूँ| उस वक्त मोहळा में दादा होशियारा बड़ी नदी के पार वाले खेतों वाली वह पाळ दिखा के लाया था जहाँ बालकपन में तुम भाई-बहन इकट्ठे डांगर चराया करते| दादा रोने लग गया था तुझे याद करता-करता| बहुत किस्से सुनाएँ थारे बचपन के, क्यूकर तुझे भुळा के बड़ी बहन का हवाला दे, अधिकतर वक्त तेरे से ही डांगर हिरयवाया करते और फिर जब तुझे उनकी स्यानपत पता लगती तो तू कैसे उन सारों की कुटाई किया करती| जितना तेरे से डरते थे तेरे भाई उससे कई गुणा ज्यादा प्यार करते थे तुझसे; उस दिन खेत की डोल पे दादा होशियारे को बैठ के तेरी याद में रोते देख इस बात का अहसास हुआ मुझे| दादा बोला पोता तेरा बाप आ लिया, तेरा दादा आ लिया तेरे भाई-बाहण भी आ लिए पर जो हरक तेरी दादी के नाम का तैने ठुवा दिया इसकी टीस ही न्यारी सै| और इसकी वजह बताई कि जो छड़दम तू तारया करता मोहळा आ के वें सबतैं न्यारे होया करते और सबतैं निश्छल व् प्यारे भी; इसीलिए तुझे आता देख के तो न्यू लगया जानूं खुद धूळा  चाली आवै सै|

तेरे दूसरे पीहर ज्याब (रोहतक) भी गया था| वहां सारे दादी-काके-ताऊ-भाईयों में तेरे नाम की, तेरी याद की चमक-धमक दोनों उतने ही वेग की ताजा हैं; जैसे कभी तेरे साथ हमें आते देख; भाजड़ पड़ ज्याया करती; "बुआ आ गई, बुआ आ गई" करते हुओं की| ज्याब जित थम मैंने घाल्या करते या छोड़ के आया करते 2-4 दिन के लिए और मैं मोरा मार के 20-20 दिन सारी छुटियाँ वहीँ काट आया करता| क्योंकि मुझे वहां कोई रोक-टोक नहीं होती थी; आइशर-मेसी-फोर्ड-HMT चारों ट्रेक्टर चलाने मुझे ज्याबियों ने ही तो सिखाए थे| वो कलानौर में ताऊ आळे घर में बेबे के फेरों के वक्त, मिठाई के कोठे पे डिठोरे से एक हाथ चौखट पर व् एक हाथ में मुझे पकड़े; आज भी खड़ी दिखती है तू| दोनों दादकों में ब्याह-वाणो में मिठाई के कोठों का चार्ज तुझे मिलता, आज भी देखना चाहूँ सूं| ईबी भी म्हारे में तें कोई सा चला जाओ, सबकी निगाह तैने टण्डवालती पावें म्हारे म|  

इब बता कित-तैं-ल्या कैं द्यूं तैने इन ताहिं| ज्याबियों की खजानी तू और मोह ळी यों की धनकौर उर्फ़ धूळा तू, बता कित तैं ल्या कें दयूं तैने इन ताहीं? अर और के-के तो लिखूं और के-के छोडूं? कदे जिंदगी ने फुरसत दी तो किताब ही लखूँगा तेरे पे|

सलंगित फोटो में हैं मेरी दादी, बाबू, बाबू की गोदी में मैं और दादी के बगल में बड़ा भाई मनोज| 

जय यौधेय! - फूल मलिक









ज्यादा जायदाद प्रॉपर्टी पर कण्ट्रोल के नाम पर परिसीमन होवे तो जमीन-दुकान-फैक्ट्री-मठ-मंदिर-मस्जिद हर किसी की प्रॉपर्टी का बराबर से होवे अन्यथा अकेले किसान-जमींदार का ना होवे!


भजनलाल सरकार के वक्त एक बात आई थी कि ज्यादा लैंड प्रॉपर्टी का परिसीमन यानि कण्ट्रोल किया जाए और जमींदारों के यहाँ एक जमींदार के नाम 12-15 एकड़ से ज्यादा लैंड नहीं होनी चाहिए?

आगे का रास्ता: आवाज उठाये रखनी होंगी कि ज्यादा प्रॉपर्टी तो दुकान-फैक्ट्री-इंडस्ट्री-कॉर्पोरेट वालों की भी होती है, मठ-मंदिर-अखाड़े-चर्च-मस्जिद आदि वालों की भी होती है; कभी इनका भी परिसीमन करे गवर्नमेंट| यह भी एक हद से ज्यादा किसी के पास हों तो हद तक की छोड़ के बाकी दूसरों में बाँट दे|

जैसे दुकान-फैक्ट्री व्यापारी का कारोबार है, मठ-मंदिर-मस्जिद धर्म के झण्डाबदारों का कारोबार है; ऐसे ही लैंड किसान-जमींदार की फैक्ट्री होती है| इसलिए या तो हर प्रकार की प्रॉपर्टी का परिसीमन होवे अन्यथा अकेले किसान-जमींदार पर इसकी मार क्यों?

यह आवाजें अभी से उठानी शुरू कर दीजिये सोशल मीडिया व् ग्राउंड दोनों पर अन्यथा किसान-जमींदार तैयार रहे अपने हाथों से जमीनें जाती देखने को| क्योंकि जिस तरीके से यह सरकार हर सरकारी संस्था-कंपनी बेच रही है प्राइवेट के हाथों, अचरज मत मानना अगर भजनलाल के ज़माने वाला दूसरा परिसीमन ना थोंप देवें तो आप पर|

इसलिए यह अंधभक्ति और धर्मभक्ति उतनी ही करो जितने से तुम्हारे घर-कारोबार-पुरखों की खून-पसीनों की बनाई जमीन-जायदादें बची रहें उनको छूने तक से यह डरते रहें| तुम्हारी अंधभक्ति इनको तुम्हारे घरों-प्रॉपर्टी तक की नीलामी करने की गुस्ताखी करने की ताकत देती हैं|

और एक ख़ास बात, किसान-जमींदार के तो अकबर के ज़माने से पहले व् उसके बाद के तो निरंतर अपनी प्रॉपर्टी के टैक्स वगैरह भरने के रिकार्ड्स तक हैं और जो टैक्स भरते हों उनको सरकार ऐसे परिसमनों के बहाने नीलाम नहीं कर सकती| और बावजूद इसके यह चीजें होने की दस्तक है| बावजूद इसके कि व्यापारी और पुजारी सबसे ज्यादा टैक्स चोर, सबसे ज्यादा लोन-फ्रॉड्स करते हैं वह भी करोड़ों-करोंड़ के, किसान की तरह एक-दो लाख के नहीं और फिर भी इनकी प्रॉपर्टीज को कोई नहीं छूता पता है क्यों? क्योंकि यह धर्म को धंधे वाली वेश्या की तरह धन कमाने को प्रयोग करते हैं और तुम अंधभक्त बनके इस धंधे को पोसते हो अपने घर धो के पोसते हो| या तो इतने बड़े उस्ताद बनो की इनकी तरह धर्म को धंधा बना के पैसा बना सको वरना मेरे दादा वाली भाषा वाली "घर फूंक तमाशा देख वाली बोली-ख्यल्लो" बनने में कुछ ना धरा|

बैलेंस में आ जाओ और सुधर जाओ, वरना अपनी बर्बादी की इबारत अपने हाथों लिख रहे हो ध्यान रखना; कल को किसी और के सर कम व् तुम्हारे सर सबसे ज्यादा उलाहना होगा| और इसमें दोनों ही आ गए, क्या शहरी क्या ग्रामीण| वर्ण के भी चारों आ गए क्या ब्राह्मण, क्या क्षत्रिय, क्या वैश्य, क्या शूद्र व् पाँचवा आवरण जाट भी आ गया| और के धर्म भी सारे आ गए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 12 November 2019

जब सर छोटूराम के आगे गाँधी-नेहरू-जिन्नाह फ़ैल हुए तो सरदार पटेल को लांच कर सर छोटूराम के प्रभाव को काउंटर करने की कोशिश की गई!

आज़ादी से पहले के यूनाइटेड पंजाब में जिन्नाह को सर छोटूराम का अल्टरनेटिव बनाने की गाँधी-नेहरू से ले हिन्दू महासभा (आज की आरएसएस) व् मुस्लिम लीग की सारी कोशिशें नाकामयाब हो चुकी थी| तीनों यानि कांग्रेस, हिन्दू महासभा व् मुस्लिम लीग सर छोटूराम को पंजाब से खत्म करना चाहते थे| तो कांग्रेस के सरदार पटेल पर ट्राई करने की सोची|

बात 1943 की है लायलपुर (आज का फैसलाबाद) कॉलेज, पाकिस्तान की| जिस दिन, तारीख व् स्थान यानि लायलपुर कॉलेज में सर छोटूराम का झलसा था, कांग्रेस ने वहीँ उसी समय-स्थान पर सरदार पटेल की रैली रखवा दी| यूनियनिस्ट पार्टी ने प्रशासन से आग्रह भी किया कि यह स्थान व् समय जब हमारी रैली के लिए बुक था तो कांग्रेस को कैसे दिया गया? तो प्रसाशन ने आधा घंटा का वक्त आगे करके कांग्रेस की रैली पहले रखवा दी, ताकि सर छोटूराम को सुनने आने वाली भीड़ पहले पटेल को सुने और उन पर पटेल का प्रभाव बढ़े| योजनाबद्ध तरीके से पटेल का भाषण शुरू हुआ, रैली लम्बी खिंचनी थी इतनी कि यूनियनिस्टों की रैली का वक्त हो जाए; तो ऐसा होते देख अंग्रेजों की लंदन रिपोर्टिंगस की भाषा में "अक्खड़ जिद्दी जाट सर छोटूराम" ने ठीक अपना वक्त होते ही दूसरी तरफ अपना स्टेज संभाल बोलना शुरू किया तो सरदार पटेल के पंडाल की सारी भीड़ सर छोटूराम ने ठीक वैसे ही खींच ली, जैसे गढ़ी सांपला में जब कवि दादा लख्मीचंद का कवि दादा फौजी मेहर सिंह से आमने-सामने का मुकाबला हुआ तो देखते-देखते दादा लख्मीचंद के मंच की सारी भीड़ दादा मेहर सिंह के मंच पर जा जुटी थी| यानि सरदार पटेल का पंडाल खाली| बताते हैं कि सर छोटूराम ने एक ही बड़ी बात कही कि पहले वह वोहरा मुस्लिम जिन्नाह आया था गुजरात से अब पटेल को लाये हैं, बताओ यह गुजराती, पंजाबियों के हक-हलूल ठीक से समझेंगे या मैं तुम्हारे अपने बीच का?

बताते हैं कि इसके बाद सरदार पटेल को गाँधी-नेहरू-जिन्नाह द्वारा उनको सर छोटूराम के आगे प्रयोग करने की चाल समझ आई व् शर्मिंदा महसूस किये और उसके बाद कभी सर छोटूराम के आगे रैली नहीं की|

Source: Prof. Divyajyoti Singh, author of "mera ram sir chhoturam" book

जय यौद्धेय! - फूल मलिक     

तुम्हारी सांस नहीं निकल रही जबसे मोदी ने राम-मंदिर पर फैसला करवाया है?

कुछ भक्त दोस्त बोल रहे हैं कि तुम्हारी सांस नहीं निकल रही जबसे मोदी ने राम-मंदिर पर फैसला करवाया है? तो सुन भाई मेरी साँस की बात, तूने बिलबिलाना तो फिर भी है; फिर भी सुन ही ले:

राम मंदिर इतना बड़ा मुद्दा होना ही नहीं था अगर राजीव गाँधी थोड़ा और जी जाते और एक योजना और पीएम रह जाते| वो इन लोगों को 30 साल राजनैतिक रोटियाँ सेकनें का मौका ही नहीं देते इस मुद्दे पर| मंदिर की निर्माण स्थापना तो उन्होंने उनके प्रधानमंत्री रहते हुए 9 नवंबर 1989 को ही ना करवा दी थी| यह तो अब तब जा के चेते हैं जब 30 साल इस मुद्दे पे जनता का वक्त-ऊर्जा-संसाधन-दिमाग सब चूस छोड़ा, ताकि देश में हर तरफ पसरी पड़ी मंदी-बेरोजगारी-आरजकता से जनता का ध्यान कुछ और समय के लिए भटकाए रखा जा सके| नहीं तो स्पेशल 30 साल लगाने से कौनसा हिन्दुओं का मक्का हरिद्वार से अयोध्या शिफ्ट किया जाना था या है?


बाकि मेरे जैसों के लिए तो राम हो या श्याम, शिवजी हो या हनुमान, संतोषी हो या काली, अल्लाह हो या वाहेगुरु; मेरे पुरखों के सिद्धांत वाले "दादा नगर खेड़े" में मेरे ज्ञात पुरखों समेत यह सब भी ऑटोमेटिकली समाहित हैं अगर जैसे कि दावे किये जाते हैं कि यह हमारे असली वाले पुरखे थे तो| पुरखे थे तो पुरखों का तो हमारे यहाँ एक ही सर्वधाम है और उसमें यह सब व् अन्य जो भी गाम-खेड़े में आम हो या ख़ास हो के गए, मरने के बाद सब बराबर तुलते हैं| अब इस बहस में तो मुझे घसीटना मत कि नहीं राम सबसे बड़ा या शिवजी या कृष्ण या कोई और; इतनी ऊर्जा ना है मेरे में| इन पर गुटबाजी ना होवे, या तेरे जैसे कौनसा बड़ा कौनसा छोटा की तुलना ना करे, इसलिए पुरखों ने खेड़ो में मूर्ती ही ना रखी कोई से की भी| न बिठाया मर्द-पुजारी, दे के 100% पूजा-धोक का इंचार्ज अपनी औरतों को; सारे क्लेश एक ठोड ही काट राखे सदियों से|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 11 November 2019

जब मेरे दादा व् उनके दोस्तों की मंडली ने भिक्षा मांगने आये बाबा जी से अपनी ही सेवा करवा ली!

सार: वह किस्सा जो बताता है कि कैसे मेरे दादा और उनके दोस्त बाबे-मोड्डों से अपनी सेवा करवा लिया करते थे| यह उनके समझने के लिए है जो आज इनके आगे साष्टांग पड़े रहते हैं| समझें कि तुम्हारे पुरखे बुद्धि-बल से कितने स्वछंद हुआ करते थे वह भी ग्रामीण होते हुए; ग्रामीण होते हुए वह देवते कहलवा लिया करते थे और एक आप कितने स्वछंद बचे हो वह भी तथाकथित आधुनिक यहाँ तक कि बहुत से तो शहरी होते हुए भी; कितने स्वछंद बचे हो कि 35 बनाम 1 झेलने को मजबूर हो|

लेख पे बढ़ने से पहले एक ख़ास बात: मैं शहर-अन्य स्टेट-विदेश तक में पढ़ा, जब भी घर फ़ोन करता दादा से बात होती तो मेरे बोलने से पहले दादा बोलते थे, "नमस्ते फूल, कैसे हो बेटा"| यह राम-राम में नमस्ते समझने का चलन अभी 10-20 साल का है, कम-से-कम मैं तो मेरे बाप-दादाओं को नमस्ते बोलते-कहते ही सुना| हाँ, राम शब्द का हरयाणवी भाषा के दो अर्थों में प्रयोग खूब सुना, एक अर्थ होता है राम यानि आराम और एक होता है राम यानि आकाश| अक्सर कहते हैं ना कि आज तो राम खूब बरसया, इसका हिंदी में मतलब है कि आज तो आकाश खूब बरसा| दूसरा कहते हैं राम-राम, यानि आराम से तो हो; या कहेंगे बहुत काम करे सै राम कर ले यानि आराम कर ले| अपनी मातृ भाषा हरयाणवी का ज्ञान सहेज के रखिये| बाकी भगवान के तौर पर जो जाना जाता है उस राम की भी जय|

अब दादाओं द्वारा बाबा जी से सेवा करवाने का किस्सा:

हुआ यूँ कि एक भगवाधारी मोड्डा निडाना नगरी में चढ़ आया| गाम के मर्दों से आगा-पाछा कर लुगाईयों को डरा-चुपला डेड किलो साइज का कमंडल, घी का इतना पूरा भर लिया मांग-मांग कि घी छलक-छलक कमंडल से बाहर को गिरने को आवै|

उधर दादा बेद (मंगोल वाले जोहड़ के सामने घर है, हमारे गाम को बसाने वाले प्रथम पुरखे दादा चौधरी मंगोल सिंह जी महाराज के पर नाम है इस जोहड़ का) की बैठक में मेरे दादा फतेह सिंह व् उनके दो-चार साथी बैठे फुरसत में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे| मोड्डे का उधर से निकलना हुआ और ये करी गलती और दादा बेद के घर के आगे खड़ा हो के हलकारा दे दिया कि, "अल्ख माई, राम थारे सब दुःख-दर्द दूर करै, घर के क्लेश मिटावै, सब भय भगावै; लगा झलकारा"| अब उसको आईडिया नहीं था ना कि इस घर में आगे मर्दों की बैठक और औरतों का जनाना पीछे है| फंस गया मोड्डा|

दादा होर बोले कि बाबा बड़ा पहुँचा हुआ है तुझे कैसे पता कि इस घर में दुःख-दर्द हैं, क्लेश हैं, भय हैं?
बाबा सकपका गया कि चढ़ गया हत्थे, दे जवाब इब? बाबा बोला कि बच्चा यह तो अमूमन सबकी जिंदगी में होते ही हैं|

मेरे वाले दादा फतेह सिंह बोले कि होते हैं या तुक्का मारता है औरतों को इमोशनली डराने को? पहले झटके औरतों को यह दुःख-दर्द-भय होने के तान्ने मार के डराओगे, अपना सा बन के दिखाओगे और फिर वह घर के कुशल-मंगल की मारी तुम्हारी झोली भर देंगी? बाबा जी ये फंड करने ही थे तो दुनियादारी क्यों छोड़ी? इतने अपनेपन बरसाने थे तो अपना ही घर क्यों ना बसा लिया था? और थमनें तो न्यूं भी ना देखी कि आगे मर्द बैठे हैं, इनमें माई तो एक भी कोनी? बाकी म्हारे ऊपर म्हारे असली राम यानि म्हारे पुरखों का हाथ है, तुमने क्यों चिंता उठाई हमारे दुखों की और वाकई चिंता है तो छोड़ इस भगवे छलावे को और आ के समाज में मिटा समाज के दुःख-दर्द?

दादा बेद बोल्या, "माई की छोड़, माई के खसम से दक्षिणा-भिक्षा कैसे लेते हैं यह बोल के दिखा; फिर सोचते हैं कुछ"|

बाबा - "बच्चा थम तो जन्मजात देवते हो, थारै भय-क्लेश-दुःख-दर्द के मांगै; थारै कारण तो दुनिया चाल री"|

दादा फतेह सिंह - तो दुनियाँ चलाने वालों से दान लेना चाहिए या उनको देना चाहिए? और इतनी जल्दी एक झटके में समझ भी आई गई कि दुनिया किसके कारण चल री?

बाबा - चौधरियो, क्यों मजाक करो सो, गरीब सा माणस सूं, बस थारै बरगे रहम-कर्म वालों से जो मिले गेल-की-गेल खा, पेट पाल लिया करूँ| बाकी थम बताओ के सेवा-बाड़ी ठाउँ थारी, हुक्का भर ल्याऊं थारा?

दादा फतेह सिंह - पेट तो तेरा भूखा कोनी मरने दें, हम खेत के जानवर को पेटभर चरने से ना रोकते तू तो इंसान हो गया तो इतनी तो चिंता दिखा मत; हम खेत से ले खेड़े तक मानवता ही पालें हैं| परन्तु यह बता खाने जितना तो तू पहले से ही लिए हुए है, शायद उससे भी ज्यादा; देख यु डेड किल्लो पक्का तेरा कमंडल घी इतना भरा हुआ है कि छलक के बाहर गिर रहा है और गेल-की-गेल कितना खा लिया करै? चल तू इसने गेल-की-गेल यानि अभी की अभी हमारे सामने पूरा कमंडल घी का पी के दिखा, नहीं तो यु बेद पी के दिखायेगा, क्यों रै बेद कितने दिन होये घी पियें?

दादा बेद - नंबरदार न्यूं तो थारी बौड़िया रोज ए प्या दे सै, पर कोई ना जै मोड्डे नैं नहीं पिया तो कमंडल की बेइज्जती थोड़ी होने देंगे|

दादा फतेह सिंह - हाँ भाई बाबा जी, ले तेरा कॉम्पिटिटर भी तैयार बैठा सै| पी ठोड-की-ठोड|

बाबा फंस गया बोला यु तो मैं हवन खात्तर ल्याया सूं मांग के|

तीसरा दादा अचरज करते हुए, "इतना डेड किल्लो पक्के में हवन होवै तेरा? हवन का तो पाईया-छटाँक ओड भी कोनी"| मोड्डे दिखै घणी दुनियादारी की याद आ री, तू मोडपणा छोड़ उल्टा समाज में ही क्यों ना आ जाता?

बाबा - मैंने समाज ए शामिल समझो चौधरियो| ल्यो थम ए पी ल्यो| जैसे मोड्डा समझ गया था कि पैंडा छुड़ाना भारी है यहाँ तो| और दादा बेद को घी का कमंडल दे देता है|

और दादा बेद लगा के मुंह के सारा कमंडल खाली कर देते हैं|

अब दादा फतेह सिंह - के कहवै था बाबा जी कि के सेवा-बाड़ी ठाउँ थारी? रै इतने बड़े बोल मत बोल, सेवा-बाड़ी करणिया होता तो घर-संसार छोड़ मोड्डा ना बनता| मोड्डा तुम लोग बनते ही इसलिए हो कि घर-बारियों से फ्रीफंड की सेवा बाड़ी करवा सको; नहीं तो समाज में रह के समाज के साथ-साथ माँ-बाप-कुणबे की ही सेवा ना करता मिलता| और एक बात बता क्या फायदा हुआ तेरा बाबा बनने का अगर लालच-बदनीयत ही नहीं छोड़ पाया तो, पेट भरने जितना तुझे जब मिल ही गया था तो टुर क्यों नहीं गया था?

बाबा - मैंने तो पहले ही कह दी थी कि थम देवतों के ज्ञान आगै हम बाबाओं के ज्ञान की के औकात? मति मारी गई थी, थारी इजाजत हो तो जाऊं इब?

दादा बेद, "सेवा करने की कही थी तैने, तो तेरी सेवा तो लेंगे ना; जा यु हुक्का भर के ला"|

बाबा के जच ली कि असली पहुंचे हुए जाट-जमींदारों के हत्थे चढ़ गया, जितने ज्ञान का तुझे बहम है उसका डबल प्रैक्टिकल ज्ञान तो यह हुक्का गुड़गुड़ाते-गुड़गुड़ाते ही सुना दिए| अत: फटाफट हुक्का भरा और इजाजत मांगी|
तीसरा दादा - नंबरदार, अपने स्टाइल का स्वागत तो बनै सै इसका|

यह सुन के बाबा की पिंडी कांप गई| और अभी तक जो मोड्डा हाँजी-हाँजी करके, हुक्का भर के पिंड छुड़वाना चाह था, बिना बोले चुपचाप एड़ियाँ थूक लगा, काक्कर काढ़ गया यानी लांडा ला गया यानि फुल स्पीड भाग लिया|

शिक्षा: हालंकि कि यह किस्सा दादा की बजाये काका सुरेंद्र से पता लगा था परन्तु दादा अक्सर बता देते थे कि ऐसा नहीं है कि हमें मोड्डों से कोई जन्मजात बैर है; हम क्या दान देते नहीं, देखो आर्यसमाज के मठ-धाम-गुरुकुल सब हमारे ही पुरखों की दी जमीनों पर उन्हीं के दिए पैसे से बने हैं| परन्तु हम भय-लालच-द्वेष-डर में आ के नहीं अपितु ख़ुशी-सद्भाव बढ़े वहां दान देते हैं| भय-लालच-द्वेष दिखा के मांगने वालों को तो धिक्कारते हैं हम| हम उनको दान नहीं देते जो दरवाजे आगे खड़ा होते ही हमारी दुवाएं मांगने लग जाए, दुःख-दर्द दूर करने-होने की प्रार्थनाएं करने लग जाये; अपितु वहां दान देते हैं जो कि शिक्षा के लिए स्कूल-गुरुकुल खोलूंगा या समाज के काम आने की परस-चौपाल आदि बनाएंगे की कहे| अपनी निजी व् सामाजिक अर्थव्यस्था की बढ़ोतरी व् सद्भाव-शांति को फोकस में रख के दान दो, इसके अन्य कहीं भी दान मत दो| अन्यथा दान दिया तो वह उस पैसे से पहले तुम्हारी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने के षड्यंत्र रचते हैं| और ऐसों को तो दो ही मत जो तुम्हारे मानसिक भय जगावें, तुम में डर-लालच-द्वेष भर के माँगते हों, उसको माँगना नहीं फंड व् छलावा कहते हैं| और फंडी को कभी मुंह मत लगाना जिंदगी में|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला! सतनाम वाहेगुरु!

इस धर्म की महानता का अंदाजा इसी से लगा लीजिये कि 1850 के आसपास हिन्दू जाट लगभग इसकी तरफ झुक गया था| तब हिन्दू जाट को सिखिज्म में जाने से रोकने के लिए, "जाट जी" व् "जाट देवता" लिख-लिख जाट की स्तुति भरा "सत्यार्थ-प्रकाश" लाया गया, जाट की मान-मान्यताओं को पहली बार ऑफिशियली स्वीकार कर, जाट के "दादा नगर खेड़ों" के "मूर्ती-पूजा" नहीं करने के कांसेप्ट पर आधारति "आर्य-समाज" 1875 में स्थापित करवाया गया व् इस तरह से सनातनियों के प्रति भरे पड़े जाट के गुस्से को शांत करते हुए जाट को सिखिज्म में नहीं जाने से मनाने में कुछ हद तक बात बनी| कुछ हद तक इसलिए क्योंकि करनाल-थानेसर-कैथल तक सिखिज्म फ़ैल चुका था, बस "आर्य-समाज" की वजह से यह आगे फैलने से रुका|

और यह बात 35 बनाम 1 रचने वाले आज फिर से भूले लगते हैं कि जाट तुम्हारे साथ है तो तुम्हारी अपनी बुद्धि की इसमें किसी करामात के चलते नहीं अपितु जाट को यथोचित "जाट जी" व् "जाट देवता" वाला सम्मान देने व् उसके "मूर्ती पूजा" नहीं करने जैसे बसिक सिद्धांतों को ग्रंथों में अंगीकार करने की वजह से| इसलिए यह 35 बनाम 1 के षड्यंत्र बंद ही कर दें तो अच्छा होगा अन्यथा जाट फिर से विमुख हुआ तो अबकी बार शायद ही रुके| यह 35 बनाम 1 रचने वाले वे लोग हैं जिनको जाट को सिखिज्म में जाते देख सबसे ज्यादा बेचैनी-छटपटाहट हुई थी कि हाय-हाय जाट ही चला गया तो हमारी दान-दक्षिणा रुपी इनकम कहाँ से आएगी| 

बाबा नानक के प्रकाश पर्व की सबनू वधाईयाँ जी|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Saturday, 9 November 2019

"दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की मास्टर-इंचार्ज औरते हैं?

आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता, उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?

दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|

तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|

इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|

तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं|

फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|

तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|


"दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की मास्टर-इंचार्ज औरते हैं?:

आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता, उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?

दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी| उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|

तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|

इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|

तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं |

फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|

तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|

और पोता यही "मूर्ती-पूजा" नहीं करने का कांसेप्ट आर्य-समाज में लिया गया है; यही तो वजह है सबसे बड़ी कि क्यों हरयाण की उदारवादी जमींदारी व् सहयोगी जातियों में आर्य-समाज इतने कम समय में इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार्य हुआ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जय यौद्धेय! - फूल मलिक