Monday 11 November 2019

जब मेरे दादा व् उनके दोस्तों की मंडली ने भिक्षा मांगने आये बाबा जी से अपनी ही सेवा करवा ली!

सार: वह किस्सा जो बताता है कि कैसे मेरे दादा और उनके दोस्त बाबे-मोड्डों से अपनी सेवा करवा लिया करते थे| यह उनके समझने के लिए है जो आज इनके आगे साष्टांग पड़े रहते हैं| समझें कि तुम्हारे पुरखे बुद्धि-बल से कितने स्वछंद हुआ करते थे वह भी ग्रामीण होते हुए; ग्रामीण होते हुए वह देवते कहलवा लिया करते थे और एक आप कितने स्वछंद बचे हो वह भी तथाकथित आधुनिक यहाँ तक कि बहुत से तो शहरी होते हुए भी; कितने स्वछंद बचे हो कि 35 बनाम 1 झेलने को मजबूर हो|

लेख पे बढ़ने से पहले एक ख़ास बात: मैं शहर-अन्य स्टेट-विदेश तक में पढ़ा, जब भी घर फ़ोन करता दादा से बात होती तो मेरे बोलने से पहले दादा बोलते थे, "नमस्ते फूल, कैसे हो बेटा"| यह राम-राम में नमस्ते समझने का चलन अभी 10-20 साल का है, कम-से-कम मैं तो मेरे बाप-दादाओं को नमस्ते बोलते-कहते ही सुना| हाँ, राम शब्द का हरयाणवी भाषा के दो अर्थों में प्रयोग खूब सुना, एक अर्थ होता है राम यानि आराम और एक होता है राम यानि आकाश| अक्सर कहते हैं ना कि आज तो राम खूब बरसया, इसका हिंदी में मतलब है कि आज तो आकाश खूब बरसा| दूसरा कहते हैं राम-राम, यानि आराम से तो हो; या कहेंगे बहुत काम करे सै राम कर ले यानि आराम कर ले| अपनी मातृ भाषा हरयाणवी का ज्ञान सहेज के रखिये| बाकी भगवान के तौर पर जो जाना जाता है उस राम की भी जय|

अब दादाओं द्वारा बाबा जी से सेवा करवाने का किस्सा:

हुआ यूँ कि एक भगवाधारी मोड्डा निडाना नगरी में चढ़ आया| गाम के मर्दों से आगा-पाछा कर लुगाईयों को डरा-चुपला डेड किलो साइज का कमंडल, घी का इतना पूरा भर लिया मांग-मांग कि घी छलक-छलक कमंडल से बाहर को गिरने को आवै|

उधर दादा बेद (मंगोल वाले जोहड़ के सामने घर है, हमारे गाम को बसाने वाले प्रथम पुरखे दादा चौधरी मंगोल सिंह जी महाराज के पर नाम है इस जोहड़ का) की बैठक में मेरे दादा फतेह सिंह व् उनके दो-चार साथी बैठे फुरसत में हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे| मोड्डे का उधर से निकलना हुआ और ये करी गलती और दादा बेद के घर के आगे खड़ा हो के हलकारा दे दिया कि, "अल्ख माई, राम थारे सब दुःख-दर्द दूर करै, घर के क्लेश मिटावै, सब भय भगावै; लगा झलकारा"| अब उसको आईडिया नहीं था ना कि इस घर में आगे मर्दों की बैठक और औरतों का जनाना पीछे है| फंस गया मोड्डा|

दादा होर बोले कि बाबा बड़ा पहुँचा हुआ है तुझे कैसे पता कि इस घर में दुःख-दर्द हैं, क्लेश हैं, भय हैं?
बाबा सकपका गया कि चढ़ गया हत्थे, दे जवाब इब? बाबा बोला कि बच्चा यह तो अमूमन सबकी जिंदगी में होते ही हैं|

मेरे वाले दादा फतेह सिंह बोले कि होते हैं या तुक्का मारता है औरतों को इमोशनली डराने को? पहले झटके औरतों को यह दुःख-दर्द-भय होने के तान्ने मार के डराओगे, अपना सा बन के दिखाओगे और फिर वह घर के कुशल-मंगल की मारी तुम्हारी झोली भर देंगी? बाबा जी ये फंड करने ही थे तो दुनियादारी क्यों छोड़ी? इतने अपनेपन बरसाने थे तो अपना ही घर क्यों ना बसा लिया था? और थमनें तो न्यूं भी ना देखी कि आगे मर्द बैठे हैं, इनमें माई तो एक भी कोनी? बाकी म्हारे ऊपर म्हारे असली राम यानि म्हारे पुरखों का हाथ है, तुमने क्यों चिंता उठाई हमारे दुखों की और वाकई चिंता है तो छोड़ इस भगवे छलावे को और आ के समाज में मिटा समाज के दुःख-दर्द?

दादा बेद बोल्या, "माई की छोड़, माई के खसम से दक्षिणा-भिक्षा कैसे लेते हैं यह बोल के दिखा; फिर सोचते हैं कुछ"|

बाबा - "बच्चा थम तो जन्मजात देवते हो, थारै भय-क्लेश-दुःख-दर्द के मांगै; थारै कारण तो दुनिया चाल री"|

दादा फतेह सिंह - तो दुनियाँ चलाने वालों से दान लेना चाहिए या उनको देना चाहिए? और इतनी जल्दी एक झटके में समझ भी आई गई कि दुनिया किसके कारण चल री?

बाबा - चौधरियो, क्यों मजाक करो सो, गरीब सा माणस सूं, बस थारै बरगे रहम-कर्म वालों से जो मिले गेल-की-गेल खा, पेट पाल लिया करूँ| बाकी थम बताओ के सेवा-बाड़ी ठाउँ थारी, हुक्का भर ल्याऊं थारा?

दादा फतेह सिंह - पेट तो तेरा भूखा कोनी मरने दें, हम खेत के जानवर को पेटभर चरने से ना रोकते तू तो इंसान हो गया तो इतनी तो चिंता दिखा मत; हम खेत से ले खेड़े तक मानवता ही पालें हैं| परन्तु यह बता खाने जितना तो तू पहले से ही लिए हुए है, शायद उससे भी ज्यादा; देख यु डेड किल्लो पक्का तेरा कमंडल घी इतना भरा हुआ है कि छलक के बाहर गिर रहा है और गेल-की-गेल कितना खा लिया करै? चल तू इसने गेल-की-गेल यानि अभी की अभी हमारे सामने पूरा कमंडल घी का पी के दिखा, नहीं तो यु बेद पी के दिखायेगा, क्यों रै बेद कितने दिन होये घी पियें?

दादा बेद - नंबरदार न्यूं तो थारी बौड़िया रोज ए प्या दे सै, पर कोई ना जै मोड्डे नैं नहीं पिया तो कमंडल की बेइज्जती थोड़ी होने देंगे|

दादा फतेह सिंह - हाँ भाई बाबा जी, ले तेरा कॉम्पिटिटर भी तैयार बैठा सै| पी ठोड-की-ठोड|

बाबा फंस गया बोला यु तो मैं हवन खात्तर ल्याया सूं मांग के|

तीसरा दादा अचरज करते हुए, "इतना डेड किल्लो पक्के में हवन होवै तेरा? हवन का तो पाईया-छटाँक ओड भी कोनी"| मोड्डे दिखै घणी दुनियादारी की याद आ री, तू मोडपणा छोड़ उल्टा समाज में ही क्यों ना आ जाता?

बाबा - मैंने समाज ए शामिल समझो चौधरियो| ल्यो थम ए पी ल्यो| जैसे मोड्डा समझ गया था कि पैंडा छुड़ाना भारी है यहाँ तो| और दादा बेद को घी का कमंडल दे देता है|

और दादा बेद लगा के मुंह के सारा कमंडल खाली कर देते हैं|

अब दादा फतेह सिंह - के कहवै था बाबा जी कि के सेवा-बाड़ी ठाउँ थारी? रै इतने बड़े बोल मत बोल, सेवा-बाड़ी करणिया होता तो घर-संसार छोड़ मोड्डा ना बनता| मोड्डा तुम लोग बनते ही इसलिए हो कि घर-बारियों से फ्रीफंड की सेवा बाड़ी करवा सको; नहीं तो समाज में रह के समाज के साथ-साथ माँ-बाप-कुणबे की ही सेवा ना करता मिलता| और एक बात बता क्या फायदा हुआ तेरा बाबा बनने का अगर लालच-बदनीयत ही नहीं छोड़ पाया तो, पेट भरने जितना तुझे जब मिल ही गया था तो टुर क्यों नहीं गया था?

बाबा - मैंने तो पहले ही कह दी थी कि थम देवतों के ज्ञान आगै हम बाबाओं के ज्ञान की के औकात? मति मारी गई थी, थारी इजाजत हो तो जाऊं इब?

दादा बेद, "सेवा करने की कही थी तैने, तो तेरी सेवा तो लेंगे ना; जा यु हुक्का भर के ला"|

बाबा के जच ली कि असली पहुंचे हुए जाट-जमींदारों के हत्थे चढ़ गया, जितने ज्ञान का तुझे बहम है उसका डबल प्रैक्टिकल ज्ञान तो यह हुक्का गुड़गुड़ाते-गुड़गुड़ाते ही सुना दिए| अत: फटाफट हुक्का भरा और इजाजत मांगी|
तीसरा दादा - नंबरदार, अपने स्टाइल का स्वागत तो बनै सै इसका|

यह सुन के बाबा की पिंडी कांप गई| और अभी तक जो मोड्डा हाँजी-हाँजी करके, हुक्का भर के पिंड छुड़वाना चाह था, बिना बोले चुपचाप एड़ियाँ थूक लगा, काक्कर काढ़ गया यानी लांडा ला गया यानि फुल स्पीड भाग लिया|

शिक्षा: हालंकि कि यह किस्सा दादा की बजाये काका सुरेंद्र से पता लगा था परन्तु दादा अक्सर बता देते थे कि ऐसा नहीं है कि हमें मोड्डों से कोई जन्मजात बैर है; हम क्या दान देते नहीं, देखो आर्यसमाज के मठ-धाम-गुरुकुल सब हमारे ही पुरखों की दी जमीनों पर उन्हीं के दिए पैसे से बने हैं| परन्तु हम भय-लालच-द्वेष-डर में आ के नहीं अपितु ख़ुशी-सद्भाव बढ़े वहां दान देते हैं| भय-लालच-द्वेष दिखा के मांगने वालों को तो धिक्कारते हैं हम| हम उनको दान नहीं देते जो दरवाजे आगे खड़ा होते ही हमारी दुवाएं मांगने लग जाए, दुःख-दर्द दूर करने-होने की प्रार्थनाएं करने लग जाये; अपितु वहां दान देते हैं जो कि शिक्षा के लिए स्कूल-गुरुकुल खोलूंगा या समाज के काम आने की परस-चौपाल आदि बनाएंगे की कहे| अपनी निजी व् सामाजिक अर्थव्यस्था की बढ़ोतरी व् सद्भाव-शांति को फोकस में रख के दान दो, इसके अन्य कहीं भी दान मत दो| अन्यथा दान दिया तो वह उस पैसे से पहले तुम्हारी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करने के षड्यंत्र रचते हैं| और ऐसों को तो दो ही मत जो तुम्हारे मानसिक भय जगावें, तुम में डर-लालच-द्वेष भर के माँगते हों, उसको माँगना नहीं फंड व् छलावा कहते हैं| और फंडी को कभी मुंह मत लगाना जिंदगी में|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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