Thursday, 1 October 2020

"सांझी की सांझ - 2020" - जानें पहले दिन के क्रिया-कलाप दादीराणी फूलपति पहल की जुबानी!

सौजन्य: उज़मा बैठक| Video Credit: शोधार्थी शालू पहल|


वीडियो बारे: दादी फूलपति जी बता रही हैं सांझी की पहली सांझ को वह कैसे मनाया करती थी/हैं| क्या-क्या तैयारियां करनी होती हैं, क्या पकाया जाता है आदि-आदि| साथ में दादी जी ने सांझी का यह गीत भी सुनाया है, "ढूँगी सी डाब्बर रे, के फूलां की महकार; देखण चालो हे, सांझी के ननिहार"|
सांझी: दशहरा, दुर्गा पूजा, नवरात्रे, डांडिया, रामलीला के समानांतर 10 दिन मनाया जाने वाला हरयाणवी त्यौहार|

सांझी क्या है?: असल में तो सांझी ना कोई देवी है और ना कोई मायावी कल्पना; वरन प्रतीक है, "हरयाणवी कल्चर की रंगोली की 10 दिन की वर्कशॉप" के उन वास्तविक क्रियाकलापों का जिसके जरिये ब्याह की उम्र के नजदीक पहुँचती कुंवारी युवा लड़कियों (कुंवारी कन्याएं देवी नहीं होती) को ब्याह के बाद के 10 दिन कैसे बीतेंगे के बारे प्रैक्टिकल ट्रेनिंग दे; उनको मानसिक तौर उन दिनों के लिए सबल, सहज व् विश्वासयुक्त करना|

उज़मा बैठक बारे: हरयाणवी-पंजाबी-मारवाड़ी कल्चरों में धर्म-जाति-वर्ण से रहित पाई जाने वाली उदारवादी जमींदारी की "खेड़ा - खाप (मिसल/पाल) - खेत" की किनशिप को मेन्टेन करने का वैचारिक विजन| उदारवादी जमींदारी वह होती है जिसमें
1) "सीरी-साझी" का वर्किंग कल्चर;
2) गाम-गौत-गुहांड व् गाम की 36 बिरादरी की बेटी सबकी बेटी के सामाजिक रहते हुए असमय अनैतिक वासना से दूर रहने के सिद्धांत;
3) "दादा नगर खेड़ों" रुपी मर्द धर्मप्रतिनिधि व् मूर्ती-रहित आध्यात्म में औरत को धोक-ज्योत की 100% लीडरशिप;
4) सर्वखाप के रूप में सोशल सिक्योरिटी व् सोशल जूरी सिस्टम;
5) हर गाम में अखाड़ों के जरिये "मिल्ट्री कल्चर";
6) "खेड़े के गौत" के तहत "देहल-धाणी-बेटी की औलाद" के सिद्धांत के तहत माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकने का सिस्टम;
7) "सालाना नौ मण अनाज, दो जोड़ी जूती" के नियम के तहत तलाकशुदा औरत को गुजाराभत्ता" व् "स्वेच्छा से विधवा पुनर्विवाह" की जेंडर न्यूट्रैलिटी व् सेन्सिटिवटी का सिस्टम व् ऐसे कुछ अन्य स्वर्णिम पहलु होते हैं|

विशेष: उज़मा बैठक के काफी सदस्य "सांझी" बारे अपने-अपने स्तर पर इसके पूरे 10 दिनों के क्रियाक्लापों बारे शोध कर रहे हैं, जिनको इस पोस्ट की भांति 1-1 करके पब्लिश किया जाता रहेगा| उज़मा बैठक इस बार 25 अक्टूबर 2020 को ज़ूम प्लस फेसबुक के जरिये अंतराष्ट्रीय स्तर पर "सांझी की सांझ" मना रही है| आपसे भी आशा रहेगी कि आप इसका हिस्सा बनें या अपने स्तर पर "सांझी की सांझ" जरूर मनावें|

सौजन्य: उज़मा बैठक!
जय यौद्धेय!

Sunday, 20 September 2020

फंडियों ने 3 कृषि अध्यादेशों के जरिये किसान रुपी भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का अंग्रेजों से भी जुल्मी तरीके से हनन किया है!

फंडियों ने 3 कृषि अध्यादेशों के जरिये किसान रुपी भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का अंग्रेजों से भी जुल्मी तरीके से हनन किया है!

सविंधान के मूल-रूप से छेड़छाड़ पर, यह कानून लोकसभा-राज्यसभा में पास हो के भी सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज हो सकते हैं| नीचे समझिये कैसे?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



थाईलेंडियो, भारत छोडो!

आज जिस प्रकार से राज्यसभा में धक्काशाही करके दो कृषि बिल पास किये गए हैं, ऐसी धक्काशाही तो शायद गैरधर्मी होते हुए अंग्रेजों ने भी कभी शायद की हो; और यह तो खुद के धर्म वाले होने का दावा करते हैं जिनकी सरकार है| निसंदेह इनका सहधर्मी होने का दावा सिर्फ एक ढोंग है, फंड है, आडंबर है वरना ऐसा जुल्म कि खुद के धर्म का किसान रोड़ों-सड़कों पर विरोध कर रहा है और इनके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही? कैसा धर्म है यह जिसकी सरकारें उसी के किसान से किसान से ही संबंधित विधेयकों पर ही राय-सुमारी करना तक जरूरी नहीं समझती? निसंदेह यह भी अंग्रेजों की तरह विदेशी ही होंगे यह भारतीय नहीं हो सकते| दो-तीन सालों से सोशल मीडिया पर इन बारे थाईलैण्डी, कम्बोडियाई, लाओसी व् वियतनामी होने के जो दावे लहराए जा रहे थे कहीं वो सच में ही ऐसा तो नहीं? अगर ऐसा है तो मुझे वह वक्त नजदीक आता दिख रहा है जब "थाईलेंडियो भारत छोडो" के मूवमेंट चला करेंगे|

दूसरा रास्ता शायद अब इन बिलों ने वह भी खोल दिया है जो 1850 का वह वक्त वापिस लाएगा धीरे-धीरे जिसके चलते लोग सिखिज्म में जाना शुरू हुए थे| अब या तो यह 1850 का दौर वापिस आएगा या कोई-ना-कोई नया धर्म जरूर जन्म लेगा; ऐसा प्रतीत हो रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 18 September 2020

किसी भी राजसत्ता की जड़ में धर्म-कल्चर-इकॉनमी होती है और हरयाणवियों के तीनों बिचळे पड़े हैं!

हरयाणवी ग्रामीण परिवेश के लोग जब 1970-80 में ज्यादा वेग से गामों से शहरों में आये तो इनको शहरियों का औरत को दबा के रखने का धर्म का नुस्खा बहुत फबा| इस चक्कर में बावले अपने "दादा नगर खेड़ों" के औरत को 100% धोक-ज्योत में दी जाने वाली लीडरशिप को धर के ताक पे, चढ़ा दी कहो या चढ़ने दी कहो अपनी लुगाईयां उन धर्मस्थलों पर जहाँ 100% मर्द-धर्मप्रतिनिधि खड़े होते हैं और यह भी वही निर्धारित करते हैं कि औरत कब इन धर्म-स्थलों पर चढ़ेगी और कब नहीं| और तो और ये औरत भी फिर रिफली-रिफली जब भी गामों में जाती, जो इनके धोरै नए धार्मिक फंड बिगोने के अलावा दूसरा कोई काम होता तो, बिठा दी गाम आळी भी इन 100% मर्दवाद के अड्डों पे पढ़ण| अपने पुरखों की सभ्यता-हरयाणत के बिल्कुल विपरीत चलोगे तो यह तो देखना ही था जो आज हो रहा है, 3 कृषि अध्यादेशों के रूप में| अब इतनी सिद्द्त से 4-5 दशक लगा के अपनी सभ्यता का मलियामेट किया है तो इतनी जल्दी शक्ल सुधर भी कैसे जाएगी| हमें 100% मर्दवाद के धार्मिक स्थल वालों से ऐतराज नहीं, क्योंकि इनको तो आजीविका चलानी ही औरत को दोयम दर्जे पे रख कर आती है, परन्तु तुम क्यों बौराए इनके पीछे; जिनके यहाँ औरत इतनी लिबरल रही? बौराए और फिर भी 1990 से 2020 तक अखबारों-मीडिया में तालिबानी-तुगलकी भी तुम ही कुहाए? इसको कह्या करैं "ऊँगली कटा के शहीद होना"| अब भी आ जाओ अपने पुरखों की आध्यात्मिक स्वछंदता पर जिसमें 100% धोक-ज्योत औरत के हाथ में है, ना किसी मर्द-धर्मप्रतिनिधि का दखल ना कोई मूर्ती-पूजा के आडंबर यानि अपने "दादा नगर खेड़ों/भैयों/बैयों/भूमियों/जठेरों/बड़े बीरों" पर| स्मृति व् प्रेरणा हेतु घर में मूर्ती रखो पुरखों की, कौम में हुए अलाही मसीहाओं की; परन्तु वो मिलें न मिलें इन फंडियों की बिसाई दर्जनों मिल रही हैं आजकल|


यह आध्यात्म का एंगल सबसे पहले ठीक करना होगा, फिर कल्चर ठीक होगा और यह दोनों मिलके इकॉनमी को वापिस पटरी पर लाएंगे और तीनों मिलके राजसत्ता|

विशेष: हरयाणवी यानि वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, वेस्ट यूपी, दक्षिणी उत्तराखंड, उत्तरी राजस्थान|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!

 मेरी हरयाणवी भाषा में रचित यह कविता पढ़िए:

यह सन 1355 में चंगेज खान के चुगताई वंश की सेना के चार कमांडरों को गोहाना से ले बरवाला के मैदानों के बीच दौड़ा-दौड़ा पीट-पीट के मारने वाली सर्वखाप आर्मी की यौद्धेया जिला जिंद की "दादिराणी भागीरथी कौर" के विलक्षण पराक्रम को दर्शाती है|

साथ ही यह उन नादानों के लिए भी एक ऐतिहासिक पन्ना है जिनको जाट-खाप-हरयाणा में 1980 से पहले नारी उत्थान, नारी किरदार के रूप में सिर्फ इनकी मनघड़ंत क्रूर-तालिबानी-निर्दयी खाप ही दिखती हैं| देखो कैसे थारी नजर में निर्दयी खापों में ही ऐसी यौद्धेयायें हो जाया करती थी कि जिन चुगताईयों को देख के तुम्हारी घड़ी वीरांगनाएं शायद सीधा जौहर करने को कूद पड़ें, म्हारी जाटणी उनकी ले सांटा-तलवारां खाल उतार लिया करती, चाम छांग दिया करती, रमाण्ड ले लिया करती| तो पेश-ए-नजर है May-2014 में लिखी मेरी यह कविता:

"जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!"

चंगेजों की उड़ी धज्जियाँ, जब चली रणचंडी चढ़ कें,
घोड़े की जब चापें पड़ें, धरती दहले धड़ाम धड़ कें|
सर्वखाप चले जब धुन में, दुश्मन के कळेजे फड़कें,
दिल्ली-मुल्तान एक बना दें, मौत नाचती चढ़ै अंबर म||
जब प्रकोप जाटणी का झिड़कै, दुश्मन पछाड़ मार छक जें,
पिंड छुड़ा दे दादीराणी तैं, मालिक रहम कर तेरे बन्दे पै|||

चालीस हजार की महिला आर्मी, खड़ी कर दूँ क्षण म,
जित बहैगा खून म्हारे मर्दों का, हथेळी उड़ै धर दे वैं|
वो आगे-आगे बढ़ चलें, हम पीछे मळीया-मेट पटमेळैं,
अटक नदी के कंटकों तक, दुश्मन की रूह जा कंब कैं||
खापलैंड की सिंह जाटणी सूं, तेरी नाकों चणे भर दूँ,
दुश्मन बहुत हुआ भाग ले, नहीं "के बणी" ऐसी कर दूँ|||

पच्चीस कोस तक लिए भगा के, दुश्मन के पसीने टपकें,
खुल्ला मैदान है तेरा भाग ले, विचार करियो ना मुड़ कैं|
पार कर गया तो पार उतर गया, वर्ना लूंगी साँटों के फटकैं,
चालीस हजार यौद्धेयायें नभ म, करें कोतूहल चढ़-चढ़ कैं||
सर्वखाप है यह हरयाणे की, बैरी नहीं लियो इसको हल्के हल म,
जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं|||

प्राण उखड़ गए मामूर के, 36 धड़ी सिंहनी ने जब लिया आंट में धर कैं,
अढ़ाई घंटे तक दंगली मौत खिलाई, फिर फाड़ दिया छलणी कर क|
जट्टचारिणी दादीराणी म्ह फ्लाणों की दुर्गा-काळी, सब दिखी एक शक्ल म्ह,
दुश्मन भोचक्का रह गया, या के बला आई थी घुमड़ कैं||
हरयाणे की सिंहनी गर्जना तैं, मंगोलों के सीने फ़टे फड़-फड़ कर कैं,
"फुल्ले भगत" पे मेहर हो दादी, दूँ छंद तेरे पै निरोळे घड़-घड़ कैं||

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बिचौलिया बनाम प्राइवेट सेक्टर और कृषि क्षेत्र!

बिचौलिये यानि आढ़ती सरकार और किसान के बीच होते थे, और सरकार किसान को MSP आदि के जरिये बिचौलिये से बचा के रखे; यही कानून सर छोटूराम "मंडी-एक्टस" में बना के गए थे| परन्तु फंडियों तुमने तो सरकार ही प्राइवेट को गिरवी रख के, मंडी की MSP वाली सिक्योरिटी लेयर हटा के प्राइवेट को किसान पे खुला छोड़ दिया|

कभी कम, कभी ज्यादा परन्तु MSP एक ऐसा हथियार है जो किसान कानूनी तौर पर आंदोलन करके भी सुरक्षित रखता आया है| परन्तु यह जो प्राइवेट सेक्टर लाया गया है इसको सर छोटूराम की तरह किसी MSP की कंडीशन में नहीं बाँधा गया है और SDM से ऊपर किसान की सुनवाई नहीं इसमें| लगता है जैसे इन्होनें देश का हर तरफ से भट्टा बैठाने की जिद्द सी लगा ली हो देश से कि अभी ताजा-ताजा आये GDP के आंकड़ों में यह जो मात्र कृषि-सेक्टर की +3.4% की ग्रोथ GDP आई है आखिर यह अकेली पॉजिटिव कैसे रह सकती है जब हमने बाकी सारी की -23.4% तक की डाउन ग्रोथ वाली तली निकाल दी तो इसकी भी निकाल के ही मानेंगे|

क्योंकि ऐसा प्राइवेट सेक्टर वालों में टैलेंट होता तो यह इनके सेक्टर्स की ग्रोथ -23.4% तक की डाउन ग्रोथ में जाने देते क्या? महानिकम्मे-महानाकारा लोग हैं प्राइवेट सेक्टर के; अच्छे-खासे खेती के सेक्टर का जो अगर 2 साल में भट्टा ना बैठा देवें तो देखना| सनकी लोगों का ईलाज पागलखाना है सिर्फ| भक्तो, तुह्मारे घर की टूम-ठेकरी जब तक नहीं बिक लेंगी, चुसकना मत|

चंगुल में भी तो उनके फंस चुके हो तुम, कि अगर कल को इन्होनें तुम्हारी बहु-बेटियां देवदासियाँ बना के नचा दी और सामूहिक भोग लगा दी तो इसमें भी तुमको धार्मिक पुन्य नजर आएगा| निकल लो वक्त रहते इस अंधभक्ति से वरना यह "hypnotism" यानि वशीकरण के इतने बड़े खिलाडी हैं कि यह तुम्हारी बेटियों की साउथ-इंडिया व् थाईलैंड की तरह देवदासियां बना रहे होंगे और तुम आत्मिक व् मानसिक बल से कमजोर खड़े-खड़े सिर्फ देख रहे होंगे| वशीकरण की हद तक जो चीज चली जाए, वह धर्म नहीं होता; वह उड्डंदता होती है, जो यह तुमको जल्द ही दिखा के छोड़ेंगे अगर यूँ ही पागल बने रहे तो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 15 September 2020

आप यह बात मत लिखा करो कि, "जिस दिन किसान ने खेती करनी छोड़ दी, उस दिन क्या करोगे, क्या खाओगे"?

ये जो उदारवादी जमींदारी परिवेश के किसान-जमींदारों के बालक हो ना, आप यह बात मत लिखा करो कि, "जिस दिन किसान ने खेती करनी छोड़ दी, उस दिन क्या करोगे, क्या खाओगे"? 

ऐसा है लाड़लो, यह वर्णवादी व्यवस्था की उस सामंतवादी जमींदारी के पैरोकार लोग हैं जो ओबीसी-एससी-एसटी से बिहार-बंगाल की तरह दलित से भी नीचे महादलित बना के बेगारी करवा के भी अपने लिए अन्न उगवा लेंगे| हाँ, बस फर्क यह होगा कि आप उदारवादी जमींदारी वाले सीन में नहीं होंगे| आपकी अनख वाली उदारवादी जमींदारी की जगह इनकी क्रूरता-अमानवता-घमंड वाली सामंती जमींदारी आ जाएगी और वही यह लाने को आमादा हैं इस 3 कृषि अध्यादेशों के षड्यंत्र के जरिये| तो आप इस "जिस दिन खेती करनी छोड़ दी" लाइन के जरिये इनको अपील कर रहे हो या डरा रहे हो तो ना इनको आपकी अपील का असर पड़ता और ना ये इससे डरते| क्योंकि इनको आपकी उदारवादी जमींदारी का हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी का मॉडल जमता ही नहीं; इनको तो सामंती जमींदारी जमती है और इसके लिए यह तैयार बैठे हैं| 

तो बजाये इन स्टेटसों के उन लोगों को अपनी बात समझाईये जो आपकी साथी बिरादरी हैं, जैसे कि उदारवादी जमींदारी के तरीके से खेती करने वाले हरयाणे-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी के जाट-बाह्मण-राजपूत-रोड़-बिश्नोई, ओबीसी व् एससी/एसटी| यह सारा झगड़ा ही आपका उदारवादी सिस्टम खत्म कर बिहार-बंगाल वाला वह सामंतवादी सिस्टम लाने की योजना है कि जिसके तहत 8 एकड़ वाला बिहार-बंगाल का जमींदार भी हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी के 2 एकड़ वाले के यहाँ आके जीरी लगाता है तब जा के उसका घर चलता है| कल को आपके साथ भी यही होगा| आज अभिमान करते हो ना कि बिहार-बंगाल तक के लोगों को रोजगार देते हो, अगर यह 3 कृषि अध्यादेश यूँ के यूँ लागू हो गए तो कल को तैयारी कर लो, ऐसे ही बाहर जा के मजदूरी करके परिवार पालने की| और इससे बचना है तो जगाओ उदारवादी जमींदारी के "सीरी-साझी" वर्किंग कल्चर के जाट-बाह्मण-राजपूत-रोड़-बिश्नोई, ओबीसी व् एससी/एसटी को कि आवें वह भी रोड़ों पर अन्यथा इसके बाद कुछ नहीं बचना| 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

3 कृषि अध्यादेशों पर दो हरफी बात सै!

जैसे विभिन्न "व्यापार मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "व्यापार/मैन्युफैक्चरिंग जगत" अपनी सर्विस या उत्पाद का "सेल्लिंग/सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-पुजारी-मजदूर "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|   

जैसे विभिन्न "पुजारी मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "मठ-मंदिर-डेरा जगत" (मैं इस धर्म से संबंधित हूँ तो इनकी कहूंगा, आप किसी और से संबंधित हैं तो यहाँ आप वाले को समझें) अपनी सर्विस या उत्पाद यानि यज्ञ-हवन-कर्मकांड-पूजा-पाठ-आरती-दर्शन (सामान्य दर्शन, वीआईपी दर्शन, वीवीआईपी दर्शन) आदि का "सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-व्यापारी-मजदूर "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|   

जैसे विभिन्न "मजदूर/कर्मचारी मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "मजदूर/कर्मचारी जगत" अपनी सर्विस का "सर्विस चार्ज" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-पुजारी-व्यापारी "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|   

ठीक ऐसे ही विभिन्न "किसान/जमींदार यूनियनों/मंडलों/संगठनों" को भी चाहिए कि वह भी अपनी पैदा की फसल व् सर्विस के "सेल्लिंग/सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करें, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखें; किसी भी व्यापारी-पुजारी-मजदूर "एकल या संगठन" को इसमें दखल देने तक की इजाजत नहीं होनी चाहिए| 

जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन क्लेश काटेंगे किसान/जमींदारों के; अन्यथा यह अन्य तीन यूँ-ही चूंट-चूंट खाएंगे किसान-जमींदार को| इन 3 कृषि अध्यादेशों के बाद देश की तमाम "किसान/जमींदार यूनियनों/मंडलों/संगठनों" को मिलकर एक देशव्यापी मंत्रणा दौर चलाना चाहिए और यह समझना चाहिए कि धर्म अपनी जगह है और धंधा अपनी जगह| जब एक ही धर्म के होते हुए "व्यापारी-पुजारी-मजदूर" आपके हकों के लिए खड़े नहीं होते तो समझिये कि यह धंधे की बात है; यह आपको सह-धर्म वालों से झगड़ा-लड़ना करके भी लड़नी पड़ सकती है| और इसीलिए जरूरी है कि कोई सरकार अगर आपको आपकी आवाज उठाने हेतु धर्म के अस्तित्व का हवाला देवे या भावनात्मक रूप से धर्म की आड़ में आपके धंधे को लूटे तो हवाला दीजिये कि क्या "व्यापारी-पुजारी-मजदूर" यह खड़े हैं मेरे साथ? नहीं खड़े ना? तो स्पष्ट है धर्म और धंधा दोनों अलग हैं| ऊपर उदाहरण भी तो दिया, धर्म वाला अपनी सर्विस चार्ज करते वक्त आप पर रियायत करता है क्या, तो धंधे के वक्त किसान-जमींदार से रियायत की कैसी और क्यों उम्मीद? 

जय यौद्धेय! - फूल मलिक    

सर्वखाप व्यवस्था में तलाक व्यवस्था!

भारत सरकार में जहाँ 2014 में आ कर तलाक पर स्पष्ट कानून बनता है, वहीँ सर्वखाप व्यवस्था में इसके लिए जमानों से निर्धारित प्रावधान रहे हैं; जिसको "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" गुजारा-भत्ता कहा जाता रहा है| हरयाणवी कल्चर में तलाक शब्द का स्थानीय शब्द है "छोड़ी हुई"| हर "छोड़ी हुई" औरत को "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" नियम के तहत तलाक देने वाले खसम से तब तक गुजारा भत्ता मिलता था जब तक:

1) पंचायत केस का पूरा फैसला नहीं कर देती थी|
2) जब तक लड़की दूसरी जगह नहीं ब्याह दी जाती थी|
3) इस अवस्था में बच्चे होते तो बच्चों के स्याणे (खाने-कमाने जोगे) होने तक लालन-पालन का सारा खर्चा पति के यहाँ से आता था|
4) स्याणे होने के बाद औलाद माँ के साथ रहेगी या पिता के साथ इसका फैसला औलाद पर छोड़ा जाता था|
5) हर अवस्था में पिता की प्रॉपर्टी में औलाद का हक़ फिक्स रहता था|
6) अगर छोड़ी हुई औरत आजीवन दूसरा ब्याह नहीं करने का फैसला करती थी तो उसको बाप-भाईयों की तरफ से रहने-कमाने के संसाधन-जायदाद सब दिया जाता था| अगर औलाद भी माँ के साथ माँ के पीहर यानि मामा के यहाँ ही आ कर बसती थी तो उनको पिता का गौत छोड़ माँ के खेड़े का गौत यानि माँ का गौत धारण करना होता था और वो गाम-ढूंग-खूंट के हिसाब से "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद कहलाते थे/हैं" जो कि आज भी खापलैंड के लगभग हर गाम में देखने को मिल जाते हैं| "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद" में दूसरी केटेगरी उनकी भी होती है जो पिता समेत भीड़ पड़ी में या किसी मजबूरी आदि में माँ के पीहर आ के बसते हैं| पिता की जगह माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकने का यह अद्भुत, अद्वितीय व् जेंडर सेंसिटिविटी/न्यूट्रैलिटी का नियम पूरे विश्व में बहुत ही कम गिनी-चुनी सभ्यताओं में देखने को मिलता है जिसमें "सर्वखाप" एक है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 7 September 2020

भाषा-भाषा का अंतर् समझिये व् इसी के अनुसार चलिए!

व्यवहार व् भावनाओं के आधार भाषा तीन प्रकार की होती है:

1) मातृ-भाषा: वह भाषा जो माँ को बोलते-देखते हुए बच्चा सीखता है व् जिसमें आपके लोकगीत-लोक्कोक्ति-लोकव्यवहार आदि होता है|
2) सहेली-भाषा: वह भाषा जिसमें आपकी मातृ-भाषा के 50% से अधिक शब्द मिलते हैं, लोकगीत-लोक्कोक्ति-लोकव्यहार मिलते हैं|
3) व्यापारिक-मात्र-भाषा: वह भाषा जो रुपया-पैसा कमाने को प्रयोग की जाती है या इसमें सहायक हो, परन्तु इसमें "व्यापारिक-मात्र" क्यों लिखा, क्योंकि व्यापार आप अपनी मातृभाषा व् सहेली-भाषा के जरिये भी कमा सकते हो, लेकिन इनसे मुख्यत: व्यापार ही कमा सकते हो इसलिए|

एक हरयाणवी (हरयाणवी के 10 रूप वर्तमान हरयाण-दिल्ली-वेस्ट यूपी में बोले जाते हैं) के मद्देनजर इन तीनों प्रकारों को जानते हैं:
एक हरयाणवी की मातृ-भाषा हरयाणवी है: क्योंकि यही एक हरयाणवी जब पैदा होता है तो माँ को बोलते-बरतते सुनता-देखता है और सीखता है व् इसी में एक हरयाणवी का लोकगीत-लोक्कोक्ति-लोकव्यवहार चलता है|
एक हरयाणवी की सहेली भाषाएँ: पंजाबी, मारवाड़ी व् उर्दू; क्योंकि इनके लोकगीतों से ले लोकव्यहार व् बोलने में प्रयोग आने वाले 50% से अधिक शब्द साझे हैं|
एक हरयाणवी की व्यापारिक-मात्र भाषाएँ: हिंदी, संस्कृत, इंग्लिश, फ्रेंच आदि| हिंदी "सहेली-भाषा" में आ सकती थी परन्तु सिर्फ शब्द कॉमन हैं शायद 40-50% के करीब परन्तु लोकगीत-लोक्कोक्ति व् लोकव्यवहार हिंदी व् हरयाणवी दोनों के भिन्न हैं|

विशेष: कोई भाषा अनादरणीय नहीं है, सभी का अपना-अपना महत्व व् आदर है; यहाँ सिर्फ इनकी प्रकार समझाने के उद्देश्य से इनका एक हरयाणवी के परिवेश में वर्गीकरण किया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आदरणीय कृष्णचन्द्र दहिया सर आपकी "जाट कृषि व् इतिहास" बारे लेखनी में एक छोटा सा सुझाव!

क्योंकि आप शुद्ध जाट इतिहास पर पुस्तक लिख रहे हैं तो इसको इसके शुद्धतम रूप तक ले जाने बारे कुछ विचार आये, जो इस प्रकार हैं|

"जाट संस्कृति" शब्द की जगह "जाट की जाटियत", "जाट की जातकी" या "जाट का जाटपन" या फिर सिर्फ "जाट इतिहास" जैसा कोई उचित शब्द प्रयोग कीजिए क्योंकि संस्कृति शब्द एक भाषा संस्कृत से घड़ा गया शब्द है| और यह पैटर्न सिर्फ संस्कृत को छोड़ किसी भी अन्य भाषा में देखने को नहीं मिलता| इंग्लिश देख लीजिये उसमें इसका वर्ड "कल्चर (culture) है ना कि संस्कृति की तरह इंग्लिश से "इंग्लिशिति" टाइप कुछ; फ्रेंच देख लीजिये इसमें इसका शब्द कुल्चर (culture) है ना कि संस्कृति की भांति "फ्रेंचीति"| इन्होनें सिर्फ संस्कृत बोलने भर वालों के लिए बना दिया है संस्कृत-संस्कृति-संस्कार; जबकि इसमें व्यवहार नगण्य है या है तो वह सिर्फ संस्कृत बोलने-बरतने वालों तक को ही रिप्रेजेंट करता है|

तो जब ऐसे ही प्रेजेंट करवाना है तो मेरे ऊपरी पहरे की प्रथम लाइन में दिए सुझाव से क्यों ना किया जाए? यानि जैसे भाषा से ही संस्कृति बनती है तो फिर हरयाणवी से "हरयाणवी-हरयाणी-हरयाणत-हरयाणव" होना चाहिए और जातकी भाषा से "जातकी-जाटियत-जाटपन-जाट" जैसा कोई उचित शब्द प्रयोग करें (सुझाव ऊपर दिए)| क्योंकि और जैसा कि ऊपर कहा जब किताब शुध्द जाट पर लिखी जा रही है तो जातकी उसकी भाषा रही है, उसी के अनुरूप यह शब्द होना चाहिए यानि जाट संस्कृति नहीं अपितु "जाट की जाटियत" या "जाट का जाटपन" या "जाट की जातकी" या जाट का इतिहास" या संस्कृति तर्ज पर शब्द चाहिए तो "जाट की जटिति" टाइप कुछ हो|

हालाँकि मार्केटिंग के उद्देश्य से देखा जाए तो ब्रैकेट में (संस्कृति) शब्द प्रयोग कर सकते हैं, जैसे "जाट की जटिति (संस्कृति)" या फिर "जाट कल्चर" ही रख लीजिये इससे भी ज्यादा व्यापक शब्द है यह|

हमें यह चीज भी समझने की जरूरत है कि विश्व में कहीं भी अन्य भाषा में ऐसा पैटर्न ही नहीं है कि culture जैसे चीज को agriculture के बजाये भाषा से निकाला गया हो, बल्कि आपके ही एक लेख में पढ़ा था कि इंग्लिश हो या फ्रेंच इनके यहाँ cult शब्द से agriculture व् culture निकले हैं तो यह शब्द भाषा से कैसे निकल सकता है फिर? और क्योंकि आप तो "जाट की जटिति यानि संस्कृति" के नाम पर ला ही agriculture मुख्यत: रहे हो तो फिर शब्दों का चुनाव भी उसी के अनुरूप हो| हालाँकि संस्कृत एक अच्छी भाषा है, इससे मेरा भी प्रेम है, धातु-रूप मुझे भी आजतक याद हैं परन्तु इसी का लॉजिक लिया जावे तो जैसे संस्कृत-संस्कृति-संस्कार हैं ऐसे ही जातकी-जटिति-जाटियत-जाटपन होना चाहिए या जाट के सबसे नजदीक लगती दो भाषाएँ हरयाणवी व् पंजाबी से ड्राइव किया जाए इस शब्द को| बाकी आपका विजडम|

चलते-चलते, एक शब्द पर और प्रकाश डाल दूँ; वह है universe| इंग्लिश हो या हिंदी, फ्रेंच हो या उर्दू क्या इनमें किसी भी भाषा में यह शब्द किसी जाति या वर्ण से निकला हुआ है या नश्ल-न्यूट्रल है? नश्ल-न्यूट्रल है ना? तो फिर यह ब्रह्म-ब्राह्मण-ब्रह्मा-ब्रह्मचारी-ब्रह्माण्ड क्यों हैं अगर यह हिन्दू धर्म की सम्पूर्ण जातियों-वर्णों को ही मान लो रिप्रेजेंट करते हैं तो? यूँ तो फिर इस तर्ज पे मैं जाट-जाटपन-जट्टा-जट्टचरयता-जाटांड क्यों ना कहने लग जाऊं; अगर इतना ही आत्म-जाति या वर्ण मुग्ध (आत्मुग्ध ) होने की बात है तो या नहीं?

Note: क्योंकि शुद्ध जाट चीजों पर पुस्तक ला कर आप जाट को इन विसंगतियों से निकालते प्रतीत होते हैं तो आशा है कि यह सुझाव आपके इस उद्देश्य में कुछ कारगर सिद्ध होवे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 2 September 2020

"माइथोलॉजी मिक्स" से बाहर निकाल "वास्तविक जाट इतिहास" लिखते 20th व् 21st शताब्दी के चेहरे:

इस केटेगरी में भी सिर्फ उन लेखकों का जिक्र होगा जो archeological प्रूफ्स के साथ अपनी लेखनी लिखे हैं|


सबसे पहला चेहरा: "हरयाणा के वीर यौद्धेय" सीरीज लिखने वाले आचार्य भगवान देव जी| हो सकता है इनसे भी पहले कोई और हो जिसने माइथोलॉजी से हट के जाट इतिहास को लिखा हो, ऐसी शोध कभी बंद नहीं होती; ऐसा कोई नाम सामने आया या मिला तो जरूर लिखूंगा|

दूसरा चेहरा: G व् J की कोडिंग को डिकोड करके पहली बार इंडिया की सीमा से बाहर जाट जड़ों का पटाक्षेप करने वाले पूर्व IRS डॉक्टर भीम सिंह दहिया जी (मेरी सगी चचेरी भाभी के सगे ताऊ जी)|

तीसरा चेहरा: वेटरन आर्कियोलॉजिस्ट सर रणबीर सिंह फोगाट| 2012 में जब हरयाणवी व् उदारवादी जमींदारी इतिहास को इसके शुद्धतम वास्तविक रूप में निडाना हाइट्स (www.nidanaheights.com) की वेबसाइट के जरिये ऑनलाइन लाने की ठानी तो सर से दिल खोल कर सहायता मिली; सर के शोधित व् लिखित 50 के करीब शोधपत्र व् आर्टिकल्स निडाना हाइट्स की वेबसाइट के विभिन्न सेक्शंस में पड़े हैं| सर के साथ "उदारवादी जमींदारी" पर मेरी पहली किताब भी आने की तैयारी हो चुकी थी, जो कि 150 पन्नों की तो लिखित पीडीएफ में आज भी पड़ी है, परन्तु अन्य व्यस्तताओं के चलते अभी तक पब्लिश नहीं हो पाई है, क्योंकि इसमें 100 पन्ने का कंटेंट और जोड़ना था|

चौथा चेहरा: हरयाणवी आर्ट-कल्चर-मोनुमेंट्स की फोटोग्राफी के लीडिंग चेहरे सर राजकिशन नैन जी (मेरे दादके अजायब से हैं, मेरी दादी के कुनबे से व् रिश्ते में मेरे ताऊ जी लगते हैं)| 2017 व् 2018 में इंडिया आया था तो आधा-आधा दिन ताऊ जी के पास बिताया| निडाना हाइट्स पर "मोखरा" का इतिहास वाला 20 से ज्यादा पेज का शोधपत्र ताऊ जी का ही है|

पांचवा चेहरा: सर धर्मपाल सिंह डूडी, लंदन में रहते हैं, "फ्रांस टू कारगिल" जैसी शुद्ध Jat War HIstory with archeological proofs लिखने वाले अद्भुत लेखक| जब अगस्त 2016 में लंदन में सर छोटूराम पर दूसरी इंटरनेशनल कांफ्रेंस की थी तो सर से वहीँ मुलाकात हुई थी| मेरी प्रेजेंटेशन को सर की तरफ से स्टैंडिंग ओवेशन मिली थी|

छटा चेहरा: सर कृष्ण चंद्र दहिया, इनकी शोध सीरीज की पहली बुक मार्किट में आ चुकी है, दूसरी आने को है| कई सालों से ईमेलों पर अपने शोध मुझे भेजते रहे हैं व् ईमेल और चैट्स के जरिये अच्छी खासी चर्चाएं हुई हैं| मैं इनके लेखन के प्रति सदा उत्साहित रहता हूँ व् इनकी किताबों के प्रति मेरी क्यूरोसिटी निरंतर बनी रहती है|

सातवां चेहरा: प्रोफेसर विवेक दांगी| अभी परसों ही जब पहली बार फ़ोन पर बातें हुई तो चर्चा इतनी रूचिकर हुई कि 1.5 घंटे तक चली| प्रोफेसर साहब के अंदर ना सिर्फ गॉड-गिफ्टेड टैलेंट है आर्कियोलॉजी के प्रति वरन एक ऐसी आग है अपने वास्तविक इतिहास को उभारने की जो मुझे मेरे अंदर समानांतर उबलती दिखती है| मेरे लिए खास बात यह है कि मेरे हमउम्र हैं और कौम-कल्चर-इतिहास-अस्तित्व के कई मर्म-दर्द पर मेरे से साझे मिलते हैं|

हालाँकि सहलेखक के तौर पर हरयाणवी लिंग्विस्टिक्स पर 2 बुक्स मेरी भी आ चुकी हैं परन्तु स्वछंद तौर पर पहली आनी अभी बाकी है, परन्तु आर्टिकल अनंत आ चुके हैं; उदारवादी जमींदारों के गैर-मैथोलॉजिकल इतिहास पर| अधिकतर निडाना हाइट्स पर पड़े हैं व् उदारवादी जमींदारी परिवेश के दीवानों में सोशल मीडिया पर जूनून के तौर पर एक दशक से ज्यादा से यदाकदा सर्कुलेट होते देखे जाते हैं|

बहुत खलती थी यह बातें जब बड़े-बड़े इतिहासकारों को जाट इतिहास को ले-दे-के घुमा-फिरा के माइथोलॉजी में घुसा दिया हुआ पाता था| "जट झट संघते" या "जटाओं से निकले जाट" या ऐसे ही किस्से को "जाट इतिहास" के नाम पर पढ़ता था; धन्य हो इन लेखकों व् शोधार्थियों का जो इस जूनून को वास्तविक रूप दे पाए| आगे भी कई युवा शोधार्थी आ रहे हैं, वास्तविक इतिहास को लेकर; जो अत्यंत सुखद अनुभूति है|

विशेष: हो सकता है कि कोई और चेहरा भी छूट गया हो, तो कृपया ऐसा सिर्फ जानकारी के अभाववश ही मानियेगा| और कृपया ऐसा हर नाम इस सूची में जुड़वाईयेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 28 August 2020

हिंदी मूवमेंट के जैसे हरयाणवी मूवमेंट!

 हिंदी मूवमेंट के जैसे हरयाणवी मूवमेंट:

अगर चलाया जाए तो फंडी इस तरह की किल्की तो नहीं मारेंगे कि:

1) यह देखो अलग दिशा निकाल रहे हैं|
2) यह देखो झगड़े के बीज बो रहे हैं|
3) यह देखो समाज को बाँट रहे हैं|
4) यह देखो समाज को पथभृष्ट कर रहे हैं .... आदि-आदि

क्योंकि अगर आपको हरयाणवी कल्चर से प्यार है तो वह बिना भाषा के नहीं बचेगा| किसी भी कल्चर का मूल होती है उसकी भाषा और हिंदी जो है वह हरयाणवी कल्चर के मूल यानि हरयाणवी भाषा को खा रही है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती| आज की हरयाणा सरकार तो इतनी बेगैरत और धूर्त साबित हो रही है कि आजकल हर गाम में लगवाए जा रहे "शौर्य-पट्टों" पर हरयाणा के हरयाणवी गाम होते हुए भी उसकी भाषा सिर्फ "हिंदी" लिखवा रही है, यह नहीं कि चलो हिंदी लिखवाना है कोई नी लिखवा लो परन्तु उसके साथ हरयाणवी भी तो लिखी जाए? यह अवस्था बहुत ही घातक है| एक-दो पीढ़ी बाद बच्चे इन्हीं पट्टों के रिफरेन्स में जब देखेंगे कि हरयाणवी तो कहीं, है ही नहीं, तो क्या मोह, क्या अपनापन पनपेगा उनमें हरयाणवी के प्रति? और कमाल की बात है कि कुछ-एक संस्थाओं, कुछ विशेष हरयाणवी प्रेमियों को छोड़ कर कोई नहीं चुसक रहा है इन पहलुओं पर|

आज तक तो पुरखों के तप का असर था कि चीजें पास होती आई और हरयाणवी अभी तक बची हुई है| परन्तु जिस तरीके से फंडी और फंडियों की सरकारें लगी हुई हैं उसको देख कर तो लगता है कि जैसे यह खुद ही हरयाणवी को खत्म करने का कोई एजेंडा लिए हुए हों; उदाहरण ऊपर दिया है कि कैसे हर गाम में लगाए जा रहे हैं शौर्य पट्टों पर गाम की भाषा सिर्फ हिंदी ही लिखवाई जा रही है| हमें हिंदी से नफरत नहीं, हम हरयाणवी हैं; हम हिंदी तो क्या गैर-हिंदी से भी प्यार करते हैं; परन्तु उस प्यार का यह मतलब तो नहीं हो सकता कि हमारी ही भाषा ऐसे कुचल दी जाए?

और भाषा खत्म तो कल्चर खत्म| यानि ना फिर तीज में कोई स्वाद रहेगा, ना संक्रांत में, ना बसंत पंचमी में और ना बैशाखी/मेख में; जो कि पूर्णत: शुद्ध हरयाणवी-पंजाबी त्यौहार हैं| भाषा का मर जाना यानि तीज-त्यौहारों समेत कस्टम-कॉस्ट्यूम सब कुछ नदारद होते चले जाना|

अत: इन सबको देखते हुए ही ख्याल आता है कि अगर हमें हरयाणवी बचानी है तो इसके लिए 1960-1970 के दशक में जब आज का हरयाणा, पंजाब, हिमाचल एक होते थे, तब यहाँ जो "हिंदी-मूवमेंट" चलाया गया था, वह अब "हरयाणवी" के लिए चलाने की जरूरत आन पड़ी है| आप क्या कहते-सोचते हैं इस पर? और अगर यह सम्भव हो सकता है तो कैसे?

इनकी चिंता मत करना जो आपको कॉर्पोरेट से ले स्कूलों तक में हरयाणवी बोलने पर नफरत करते हैं या आपको दरकिनार करते हैं| यह वही लोग हैं जो मौका मिलते ही व् 2-4 इकठ्ठे होते ही कॉर्पोरेट की हिंदी-इंग्लिश को छोड़, अपनी स्थानीय भाषा में बात करते हुए मिलते हैं, वह भी ऑफिसों में ही, कहीं कोने-खाबों में| यह हरयाणवी से नफरत इसलिए करते हैं क्योंकि एक तो इनमें अधिकतर वो हैं जो माइग्रेट हो के दूसरों राज्यों-कल्चरों से यहाँ आ के बसे हैं| और दूसरा इनको भय रहता है कि ऐसा नहीं करेंगे तो यह इनका कल्चर-राज्य ना भूल जाएँ कहीं| और तीसरा इसलिए कि इनको इस हीन भावना से ऊपर रहना होता है कि इनको यह हरयाणा, इसके हरयाणवी लोग ही भाषावाद, क्षेत्रवाद की शर्तों वाला गुजरात-महाराष्ट्र टाइप का माहौल नहीं देते, यानि हरयाणवी इतने लिबरल होते हुए भी इनको पसंद नहीं| यह आपकी-हमारी लिबरल सोच से चिढ़ते हैं| और बावजूद इसके चिढ़ते हैं कि आपके-हमारे क्षेत्र में बैठ के ही रोजगार से ले कारोबार पाते हैं, रेन-बसेरा पाते हैं; इन सब बुनियादी जरूरतों के लिए सबसे उपयुक्त माहौल पाते हैं| तो ऐसा माहौल, ऐसा लिबरल स्पेस जो कल्चर दे, उस कल्चर की बुनियाद उसकी भाषा बचानी लाजिमी हो जाती है कि नहीं?

विशेष: मुझे माफ़ कीजियेगा कि मैंने यह अपील फ़िलहाल हिंदी में लिखी| लिख हरयाणवी में भी सकता हूँ परन्तु नॉन-हरयाणवी लोगों तक भी यह जरूरत पहुंचे, खासकर उन तक जो पीढ़ियों से हरयाणा में रह रहे हैं और आजतक भी हरयाणा-हरयाणी-हरयाणत-हरयाणवी को तिजारत देते हैं (जो प्यार करने लगे हैं, वो इस लिस्ट में शामिल नहीं हैं), कुछ वह भी सोच सकें| सोच सकें कि क्यों-किस भाषा-माहौल-लिबरलिज्म के चलते वह इतने कम वक्त में इतने समृद्ध बन पाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक