सौजन्य: उज़मा बैठक| Video Credit: शोधार्थी शालू पहल|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Thursday, 1 October 2020
"सांझी की सांझ - 2020" - जानें पहले दिन के क्रिया-कलाप दादीराणी फूलपति पहल की जुबानी!
Sunday, 20 September 2020
फंडियों ने 3 कृषि अध्यादेशों के जरिये किसान रुपी भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का अंग्रेजों से भी जुल्मी तरीके से हनन किया है!
फंडियों ने 3 कृषि अध्यादेशों के जरिये किसान रुपी भारतीय नागरिकों के मूल अधिकारों का अंग्रेजों से भी जुल्मी तरीके से हनन किया है!
सविंधान के मूल-रूप से छेड़छाड़ पर, यह कानून लोकसभा-राज्यसभा में पास हो के भी सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज हो सकते हैं| नीचे समझिये कैसे?जय यौद्धेय! - फूल मलिक
थाईलेंडियो, भारत छोडो!
आज जिस प्रकार से राज्यसभा में धक्काशाही करके दो कृषि बिल पास किये गए हैं, ऐसी धक्काशाही तो शायद गैरधर्मी होते हुए अंग्रेजों ने भी कभी शायद की हो; और यह तो खुद के धर्म वाले होने का दावा करते हैं जिनकी सरकार है| निसंदेह इनका सहधर्मी होने का दावा सिर्फ एक ढोंग है, फंड है, आडंबर है वरना ऐसा जुल्म कि खुद के धर्म का किसान रोड़ों-सड़कों पर विरोध कर रहा है और इनके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही? कैसा धर्म है यह जिसकी सरकारें उसी के किसान से किसान से ही संबंधित विधेयकों पर ही राय-सुमारी करना तक जरूरी नहीं समझती? निसंदेह यह भी अंग्रेजों की तरह विदेशी ही होंगे यह भारतीय नहीं हो सकते| दो-तीन सालों से सोशल मीडिया पर इन बारे थाईलैण्डी, कम्बोडियाई, लाओसी व् वियतनामी होने के जो दावे लहराए जा रहे थे कहीं वो सच में ही ऐसा तो नहीं? अगर ऐसा है तो मुझे वह वक्त नजदीक आता दिख रहा है जब "थाईलेंडियो भारत छोडो" के मूवमेंट चला करेंगे|
Friday, 18 September 2020
किसी भी राजसत्ता की जड़ में धर्म-कल्चर-इकॉनमी होती है और हरयाणवियों के तीनों बिचळे पड़े हैं!
हरयाणवी ग्रामीण परिवेश के लोग जब 1970-80 में ज्यादा वेग से गामों से शहरों में आये तो इनको शहरियों का औरत को दबा के रखने का धर्म का नुस्खा बहुत फबा| इस चक्कर में बावले अपने "दादा नगर खेड़ों" के औरत को 100% धोक-ज्योत में दी जाने वाली लीडरशिप को धर के ताक पे, चढ़ा दी कहो या चढ़ने दी कहो अपनी लुगाईयां उन धर्मस्थलों पर जहाँ 100% मर्द-धर्मप्रतिनिधि खड़े होते हैं और यह भी वही निर्धारित करते हैं कि औरत कब इन धर्म-स्थलों पर चढ़ेगी और कब नहीं| और तो और ये औरत भी फिर रिफली-रिफली जब भी गामों में जाती, जो इनके धोरै नए धार्मिक फंड बिगोने के अलावा दूसरा कोई काम होता तो, बिठा दी गाम आळी भी इन 100% मर्दवाद के अड्डों पे पढ़ण| अपने पुरखों की सभ्यता-हरयाणत के बिल्कुल विपरीत चलोगे तो यह तो देखना ही था जो आज हो रहा है, 3 कृषि अध्यादेशों के रूप में| अब इतनी सिद्द्त से 4-5 दशक लगा के अपनी सभ्यता का मलियामेट किया है तो इतनी जल्दी शक्ल सुधर भी कैसे जाएगी| हमें 100% मर्दवाद के धार्मिक स्थल वालों से ऐतराज नहीं, क्योंकि इनको तो आजीविका चलानी ही औरत को दोयम दर्जे पे रख कर आती है, परन्तु तुम क्यों बौराए इनके पीछे; जिनके यहाँ औरत इतनी लिबरल रही? बौराए और फिर भी 1990 से 2020 तक अखबारों-मीडिया में तालिबानी-तुगलकी भी तुम ही कुहाए? इसको कह्या करैं "ऊँगली कटा के शहीद होना"| अब भी आ जाओ अपने पुरखों की आध्यात्मिक स्वछंदता पर जिसमें 100% धोक-ज्योत औरत के हाथ में है, ना किसी मर्द-धर्मप्रतिनिधि का दखल ना कोई मूर्ती-पूजा के आडंबर यानि अपने "दादा नगर खेड़ों/भैयों/बैयों/भूमियों/जठेरों/बड़े बीरों" पर| स्मृति व् प्रेरणा हेतु घर में मूर्ती रखो पुरखों की, कौम में हुए अलाही मसीहाओं की; परन्तु वो मिलें न मिलें इन फंडियों की बिसाई दर्जनों मिल रही हैं आजकल|
जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!
मेरी हरयाणवी भाषा में रचित यह कविता पढ़िए:
यह सन 1355 में चंगेज खान के चुगताई वंश की सेना के चार कमांडरों को गोहाना से ले बरवाला के मैदानों के बीच दौड़ा-दौड़ा पीट-पीट के मारने वाली सर्वखाप आर्मी की यौद्धेया जिला जिंद की "दादिराणी भागीरथी कौर" के विलक्षण पराक्रम को दर्शाती है|
साथ ही यह उन नादानों के लिए भी एक ऐतिहासिक पन्ना है जिनको जाट-खाप-हरयाणा में 1980 से पहले नारी उत्थान, नारी किरदार के रूप में सिर्फ इनकी मनघड़ंत क्रूर-तालिबानी-निर्दयी खाप ही दिखती हैं| देखो कैसे थारी नजर में निर्दयी खापों में ही ऐसी यौद्धेयायें हो जाया करती थी कि जिन चुगताईयों को देख के तुम्हारी घड़ी वीरांगनाएं शायद सीधा जौहर करने को कूद पड़ें, म्हारी जाटणी उनकी ले सांटा-तलवारां खाल उतार लिया करती, चाम छांग दिया करती, रमाण्ड ले लिया करती| तो पेश-ए-नजर है May-2014 में लिखी मेरी यह कविता:
"जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं!"
चंगेजों की उड़ी धज्जियाँ, जब चली रणचंडी चढ़ कें,
घोड़े की जब चापें पड़ें, धरती दहले धड़ाम धड़ कें|
सर्वखाप चले जब धुन में, दुश्मन के कळेजे फड़कें,
दिल्ली-मुल्तान एक बना दें, मौत नाचती चढ़ै अंबर म||
जब प्रकोप जाटणी का झिड़कै, दुश्मन पछाड़ मार छक जें,
पिंड छुड़ा दे दादीराणी तैं, मालिक रहम कर तेरे बन्दे पै|||
चालीस हजार की महिला आर्मी, खड़ी कर दूँ क्षण म,
जित बहैगा खून म्हारे मर्दों का, हथेळी उड़ै धर दे वैं|
वो आगे-आगे बढ़ चलें, हम पीछे मळीया-मेट पटमेळैं,
अटक नदी के कंटकों तक, दुश्मन की रूह जा कंब कैं||
खापलैंड की सिंह जाटणी सूं, तेरी नाकों चणे भर दूँ,
दुश्मन बहुत हुआ भाग ले, नहीं "के बणी" ऐसी कर दूँ|||
पच्चीस कोस तक लिए भगा के, दुश्मन के पसीने टपकें,
खुल्ला मैदान है तेरा भाग ले, विचार करियो ना मुड़ कैं|
पार कर गया तो पार उतर गया, वर्ना लूंगी साँटों के फटकैं,
चालीस हजार यौद्धेयायें नभ म, करें कोतूहल चढ़-चढ़ कैं||
सर्वखाप है यह हरयाणे की, बैरी नहीं लियो इसको हल्के हल म,
जब तक मुंह ना लावें, ना लावें, लावें तो खींच लें खाल तन तैं|||
प्राण उखड़ गए मामूर के, 36 धड़ी सिंहनी ने जब लिया आंट में धर कैं,
अढ़ाई घंटे तक दंगली मौत खिलाई, फिर फाड़ दिया छलणी कर क|
जट्टचारिणी दादीराणी म्ह फ्लाणों की दुर्गा-काळी, सब दिखी एक शक्ल म्ह,
दुश्मन भोचक्का रह गया, या के बला आई थी घुमड़ कैं||
हरयाणे की सिंहनी गर्जना तैं, मंगोलों के सीने फ़टे फड़-फड़ कर कैं,
"फुल्ले भगत" पे मेहर हो दादी, दूँ छंद तेरे पै निरोळे घड़-घड़ कैं||
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
बिचौलिया बनाम प्राइवेट सेक्टर और कृषि क्षेत्र!
बिचौलिये यानि आढ़ती सरकार और किसान के बीच होते थे, और सरकार किसान को MSP आदि के जरिये बिचौलिये से बचा के रखे; यही कानून सर छोटूराम "मंडी-एक्टस" में बना के गए थे| परन्तु फंडियों तुमने तो सरकार ही प्राइवेट को गिरवी रख के, मंडी की MSP वाली सिक्योरिटी लेयर हटा के प्राइवेट को किसान पे खुला छोड़ दिया|
कभी कम, कभी ज्यादा परन्तु MSP एक ऐसा हथियार है जो किसान कानूनी तौर पर आंदोलन करके भी सुरक्षित रखता आया है| परन्तु यह जो प्राइवेट सेक्टर लाया गया है इसको सर छोटूराम की तरह किसी MSP की कंडीशन में नहीं बाँधा गया है और SDM से ऊपर किसान की सुनवाई नहीं इसमें| लगता है जैसे इन्होनें देश का हर तरफ से भट्टा बैठाने की जिद्द सी लगा ली हो देश से कि अभी ताजा-ताजा आये GDP के आंकड़ों में यह जो मात्र कृषि-सेक्टर की +3.4% की ग्रोथ GDP आई है आखिर यह अकेली पॉजिटिव कैसे रह सकती है जब हमने बाकी सारी की -23.4% तक की डाउन ग्रोथ वाली तली निकाल दी तो इसकी भी निकाल के ही मानेंगे|
क्योंकि ऐसा प्राइवेट सेक्टर वालों में टैलेंट होता तो यह इनके सेक्टर्स की ग्रोथ -23.4% तक की डाउन ग्रोथ में जाने देते क्या? महानिकम्मे-महानाकारा लोग हैं प्राइवेट सेक्टर के; अच्छे-खासे खेती के सेक्टर का जो अगर 2 साल में भट्टा ना बैठा देवें तो देखना| सनकी लोगों का ईलाज पागलखाना है सिर्फ| भक्तो, तुह्मारे घर की टूम-ठेकरी जब तक नहीं बिक लेंगी, चुसकना मत|
चंगुल में भी तो उनके फंस चुके हो तुम, कि अगर कल को इन्होनें तुम्हारी बहु-बेटियां देवदासियाँ बना के नचा दी और सामूहिक भोग लगा दी तो इसमें भी तुमको धार्मिक पुन्य नजर आएगा| निकल लो वक्त रहते इस अंधभक्ति से वरना यह "hypnotism" यानि वशीकरण के इतने बड़े खिलाडी हैं कि यह तुम्हारी बेटियों की साउथ-इंडिया व् थाईलैंड की तरह देवदासियां बना रहे होंगे और तुम आत्मिक व् मानसिक बल से कमजोर खड़े-खड़े सिर्फ देख रहे होंगे| वशीकरण की हद तक जो चीज चली जाए, वह धर्म नहीं होता; वह उड्डंदता होती है, जो यह तुमको जल्द ही दिखा के छोड़ेंगे अगर यूँ ही पागल बने रहे तो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
Tuesday, 15 September 2020
आप यह बात मत लिखा करो कि, "जिस दिन किसान ने खेती करनी छोड़ दी, उस दिन क्या करोगे, क्या खाओगे"?
ये जो उदारवादी जमींदारी परिवेश के किसान-जमींदारों के बालक हो ना, आप यह बात मत लिखा करो कि, "जिस दिन किसान ने खेती करनी छोड़ दी, उस दिन क्या करोगे, क्या खाओगे"?
ऐसा है लाड़लो, यह वर्णवादी व्यवस्था की उस सामंतवादी जमींदारी के पैरोकार लोग हैं जो ओबीसी-एससी-एसटी से बिहार-बंगाल की तरह दलित से भी नीचे महादलित बना के बेगारी करवा के भी अपने लिए अन्न उगवा लेंगे| हाँ, बस फर्क यह होगा कि आप उदारवादी जमींदारी वाले सीन में नहीं होंगे| आपकी अनख वाली उदारवादी जमींदारी की जगह इनकी क्रूरता-अमानवता-घमंड वाली सामंती जमींदारी आ जाएगी और वही यह लाने को आमादा हैं इस 3 कृषि अध्यादेशों के षड्यंत्र के जरिये| तो आप इस "जिस दिन खेती करनी छोड़ दी" लाइन के जरिये इनको अपील कर रहे हो या डरा रहे हो तो ना इनको आपकी अपील का असर पड़ता और ना ये इससे डरते| क्योंकि इनको आपकी उदारवादी जमींदारी का हरयाणा-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी का मॉडल जमता ही नहीं; इनको तो सामंती जमींदारी जमती है और इसके लिए यह तैयार बैठे हैं|
तो बजाये इन स्टेटसों के उन लोगों को अपनी बात समझाईये जो आपकी साथी बिरादरी हैं, जैसे कि उदारवादी जमींदारी के तरीके से खेती करने वाले हरयाणे-पंजाब-दिल्ली-वेस्ट यूपी के जाट-बाह्मण-राजपूत-रोड़-बिश्नोई, ओबीसी व् एससी/एसटी| यह सारा झगड़ा ही आपका उदारवादी सिस्टम खत्म कर बिहार-बंगाल वाला वह सामंतवादी सिस्टम लाने की योजना है कि जिसके तहत 8 एकड़ वाला बिहार-बंगाल का जमींदार भी हरयाणा-पंजाब-वेस्ट यूपी के 2 एकड़ वाले के यहाँ आके जीरी लगाता है तब जा के उसका घर चलता है| कल को आपके साथ भी यही होगा| आज अभिमान करते हो ना कि बिहार-बंगाल तक के लोगों को रोजगार देते हो, अगर यह 3 कृषि अध्यादेश यूँ के यूँ लागू हो गए तो कल को तैयारी कर लो, ऐसे ही बाहर जा के मजदूरी करके परिवार पालने की| और इससे बचना है तो जगाओ उदारवादी जमींदारी के "सीरी-साझी" वर्किंग कल्चर के जाट-बाह्मण-राजपूत-रोड़-बिश्नोई, ओबीसी व् एससी/एसटी को कि आवें वह भी रोड़ों पर अन्यथा इसके बाद कुछ नहीं बचना|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
3 कृषि अध्यादेशों पर दो हरफी बात सै!
जैसे विभिन्न "व्यापार मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "व्यापार/मैन्युफैक्चरिंग जगत" अपनी सर्विस या उत्पाद का "सेल्लिंग/सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-पुजारी-मजदूर "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|
जैसे विभिन्न "पुजारी मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "मठ-मंदिर-डेरा जगत" (मैं इस धर्म से संबंधित हूँ तो इनकी कहूंगा, आप किसी और से संबंधित हैं तो यहाँ आप वाले को समझें) अपनी सर्विस या उत्पाद यानि यज्ञ-हवन-कर्मकांड-पूजा-पाठ-आरती-दर्शन (सामान्य दर्शन, वीआईपी दर्शन, वीवीआईपी दर्शन) आदि का "सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-व्यापारी-मजदूर "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|
जैसे विभिन्न "मजदूर/कर्मचारी मंडलों/संगठनों" के जरिये पूरा "मजदूर/कर्मचारी जगत" अपनी सर्विस का "सर्विस चार्ज" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करता है, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखता है; कोई किसान-पुजारी-व्यापारी "एकल या संगठन" में भी इनके बीच दखल नहीं दे सकता|
ठीक ऐसे ही विभिन्न "किसान/जमींदार यूनियनों/मंडलों/संगठनों" को भी चाहिए कि वह भी अपनी पैदा की फसल व् सर्विस के "सेल्लिंग/सर्विस प्राइस" व् "प्रॉफिट मार्जिन" खुद निर्धारित करें, यह कार्य अपने अधिकार क्षेत्र में रखें; किसी भी व्यापारी-पुजारी-मजदूर "एकल या संगठन" को इसमें दखल देने तक की इजाजत नहीं होनी चाहिए|
जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन क्लेश काटेंगे किसान/जमींदारों के; अन्यथा यह अन्य तीन यूँ-ही चूंट-चूंट खाएंगे किसान-जमींदार को| इन 3 कृषि अध्यादेशों के बाद देश की तमाम "किसान/जमींदार यूनियनों/मंडलों/संगठनों" को मिलकर एक देशव्यापी मंत्रणा दौर चलाना चाहिए और यह समझना चाहिए कि धर्म अपनी जगह है और धंधा अपनी जगह| जब एक ही धर्म के होते हुए "व्यापारी-पुजारी-मजदूर" आपके हकों के लिए खड़े नहीं होते तो समझिये कि यह धंधे की बात है; यह आपको सह-धर्म वालों से झगड़ा-लड़ना करके भी लड़नी पड़ सकती है| और इसीलिए जरूरी है कि कोई सरकार अगर आपको आपकी आवाज उठाने हेतु धर्म के अस्तित्व का हवाला देवे या भावनात्मक रूप से धर्म की आड़ में आपके धंधे को लूटे तो हवाला दीजिये कि क्या "व्यापारी-पुजारी-मजदूर" यह खड़े हैं मेरे साथ? नहीं खड़े ना? तो स्पष्ट है धर्म और धंधा दोनों अलग हैं| ऊपर उदाहरण भी तो दिया, धर्म वाला अपनी सर्विस चार्ज करते वक्त आप पर रियायत करता है क्या, तो धंधे के वक्त किसान-जमींदार से रियायत की कैसी और क्यों उम्मीद?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
सर्वखाप व्यवस्था में तलाक व्यवस्था!
भारत सरकार में जहाँ 2014 में आ कर तलाक पर स्पष्ट कानून बनता है, वहीँ सर्वखाप व्यवस्था में इसके लिए जमानों से निर्धारित प्रावधान रहे हैं; जिसको "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" गुजारा-भत्ता कहा जाता रहा है| हरयाणवी कल्चर में तलाक शब्द का स्थानीय शब्द है "छोड़ी हुई"| हर "छोड़ी हुई" औरत को "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" नियम के तहत तलाक देने वाले खसम से तब तक गुजारा भत्ता मिलता था जब तक:
1) पंचायत केस का पूरा फैसला नहीं कर देती थी|
2) जब तक लड़की दूसरी जगह नहीं ब्याह दी जाती थी|
3) इस अवस्था में बच्चे होते तो बच्चों के स्याणे (खाने-कमाने जोगे) होने तक लालन-पालन का सारा खर्चा पति के यहाँ से आता था|
4) स्याणे होने के बाद औलाद माँ के साथ रहेगी या पिता के साथ इसका फैसला औलाद पर छोड़ा जाता था|
5) हर अवस्था में पिता की प्रॉपर्टी में औलाद का हक़ फिक्स रहता था|
6) अगर छोड़ी हुई औरत आजीवन दूसरा ब्याह नहीं करने का फैसला करती थी तो उसको बाप-भाईयों की तरफ से रहने-कमाने के संसाधन-जायदाद सब दिया जाता था| अगर औलाद भी माँ के साथ माँ के पीहर यानि मामा के यहाँ ही आ कर बसती थी तो उनको पिता का गौत छोड़ माँ के खेड़े का गौत यानि माँ का गौत धारण करना होता था और वो गाम-ढूंग-खूंट के हिसाब से "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद कहलाते थे/हैं" जो कि आज भी खापलैंड के लगभग हर गाम में देखने को मिल जाते हैं| "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद" में दूसरी केटेगरी उनकी भी होती है जो पिता समेत भीड़ पड़ी में या किसी मजबूरी आदि में माँ के पीहर आ के बसते हैं| पिता की जगह माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकने का यह अद्भुत, अद्वितीय व् जेंडर सेंसिटिविटी/न्यूट्रैलिटी का नियम पूरे विश्व में बहुत ही कम गिनी-चुनी सभ्यताओं में देखने को मिलता है जिसमें "सर्वखाप" एक है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
Monday, 7 September 2020
भाषा-भाषा का अंतर् समझिये व् इसी के अनुसार चलिए!
व्यवहार व् भावनाओं के आधार भाषा तीन प्रकार की होती है:
आदरणीय कृष्णचन्द्र दहिया सर आपकी "जाट कृषि व् इतिहास" बारे लेखनी में एक छोटा सा सुझाव!
क्योंकि आप शुद्ध जाट इतिहास पर पुस्तक लिख रहे हैं तो इसको इसके शुद्धतम रूप तक ले जाने बारे कुछ विचार आये, जो इस प्रकार हैं|
Wednesday, 2 September 2020
"माइथोलॉजी मिक्स" से बाहर निकाल "वास्तविक जाट इतिहास" लिखते 20th व् 21st शताब्दी के चेहरे:
इस केटेगरी में भी सिर्फ उन लेखकों का जिक्र होगा जो archeological प्रूफ्स के साथ अपनी लेखनी लिखे हैं|
Friday, 28 August 2020
हिंदी मूवमेंट के जैसे हरयाणवी मूवमेंट!
हिंदी मूवमेंट के जैसे हरयाणवी मूवमेंट:
अगर चलाया जाए तो फंडी इस तरह की किल्की तो नहीं मारेंगे कि: