Friday, 30 April 2021

जमींदारी आस्था के समक्ष मनुस्मृति का विश्लेषण!

पुस्तक संस्करण: 1917 में पंडित गिरिजाप्रसाद द्विवेदी द्वारा हिंदी में अनुवादित|

अध्याय 1:

1)      पृष्ठ 2 - उत्पत्ति से पूर्व संसार अंधकारमय था| - तथ्यात्मक बात नहीं है, मान लिया गया है| इस पर आजतक कुछ तथ्यात्मक सिद्द हुआ हो तो जरूर जानना चाहिए|

2)      पृष्ठ 3 - ब्रह्मा ने संसार के तीन टुकड़े किये, धरती, आकाश व् स्वर्ग| - इसकी संभावना पर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसा किस विज्ञानं के तहत सम्भव है?

3)      पृष्ठ 4 - किसान-जमींदार जिसको प्रकृति कहता है उसको मनुस्मृति परमात्मा कहती है| - क्या यहाँ किसान-जमींदार को इस शब्द का क्रेडिट नहीं देना चाहिए था? आखिर जब यह वार्तालाप हो रही है उस वक्त सब अन्न-फल तो खा ही रहे होंगे, तभी बैठ के यह बातें कर रहे होंगे? क्योंकि डार्विन की "इंसान से पहले बंदर" वाली थ्योरी यहाँ विरोधाभाष भी खड़ा करती है|

अहंकार व् पंचभूतों द्वारा ब्रह्मा की बनाई मूर्ती को शरीर कहते हैं| - यहाँ इंसान के पैदा होने की प्राकृतिक जनन प्रक्रिया के साथ इस बात का कड़ा विरोधभास है| आखिर बिना मर्द-औरत के अकेला पुरुष शरीर कैसे बना सकता है?

4)      पृष्ठ 8 - ब्रह्मा यानि परमात्मा ने ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र पैदा किये| - डार्विन कहता है पहले इंसान पहले बंदर थे और मनुस्मृति कहती है कि नहीं सीधे इंसान बनाये गए? यह तथ्य इस बात के विरोधाभाष का भी है कि वर्ण जन्म से नहीं अपितु कर्म से निर्धारित होते हैं| क्योंकि मनुस्मृति का यह पृष्ठ साफ़ कह रहा है कि मनुष्य का वर्ण जन्म से ही निर्धारित होता है कर्म से नहीं| ज्ञानी-विद्वानों का हस्तक्षेप चाहूंगा इस बिंदु पर, जो इस पर अन्यथा स्पष्टीकरण रखता हो कृपया सामने रखे|

5)      पृष्ठ 13, प्रथम पहरा - प्रजापति ने सृष्टि के पूर्व इस धर्मशास्त्र को बनाकर मेरे को उपदेश दिया| - क्या ऐसा सम्भव है कि मनु के अनुसार ही जब सृष्टि बनी ही नहीं थी, उस वक्त यह धर्मशास्त्र बना लिया गया?

द्वितीय पहरा - स्वायम्भुव मनु के वंश में छह मनु और हैं| - स्वायम्भुव शब्द तो नकारात्मक शब्द हुआ ना? यानी धक्काशाही जो करे वह स्वायम्भुव कहलाता है, नहीं? तो क्या मनु खुद को स्वायम्भुव बता रहे हैं?अध्याय प्रथम, पृष्ठ 18, प्रथम पहरा - पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, यह छह कर्म ब्राह्मण के हैं| प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और इन्द्रियों के विषयों में फंसना, यह क्षत्रियों के कर्म हैं| पशुओं को पालना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना , ब्याज लेना और खेती करना, यह सब काम वैश्य के हैं| परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बतलाया है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की भक्ति से सेवा करना|

इससे कई बातें और कई सवाल निकलते हैं:

1) यानि इसके अनुसार सिर्फ व्यापर करने वाले ही नहीं अपितु खेती और पशुपालन करने वाले जाट-यादव-गुज्जर आदि भी वैश्य हैं| तो पहले झटके तो जो बहुत से जाट-यादव-गुज्जर को शूद्र-शूद्र चिल्लाते रहते हैं, वह अपने तथ्य ठीक कर लें, यह सब शूद्र नहीं अपितु न्यूनतम वैश्य हैं| दूसरा शासक वर्ग होने की वजह से यह क्षत्रिय भी हैं| और तीसरा जाट को तो खुद महर्षि दयानन्द जैसे ब्राह्मण "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते हैं यानि खुद से ऊपर ही मानते होंगे जाट को तभी "जी" लगा के लिखा| यानि शूद्र का कांसेप्ट जाट-गुज्जर-यादव जैसी जातियां अपने ऊपर से आज के बाद हटा लें|

2) दूसरा तथ्य यह निकलता है कि शूद्र कौन है? यह मैं नहीं जानता कि मनुस्मृति ने शूद्र किसको कहा| वह आप खुद निर्धारित कर लें|

 

6)      पृष्ठ 18, प्रथम पहरा - पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, यह छह कर्म ब्राह्मण के हैं| प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और इन्द्रियों के विषयों में फंसना, यह क्षत्रियों के कर्म हैं| पशुओं को पालना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना , ब्याज लेना और खेती करना, यह सब काम वैश्य के हैं| परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बतलाया है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की भक्ति से सेवा करना|

इससे कई बातें और कई सवाल निकलते हैं:

यानि इसके अनुसार सिर्फ व्यापर करने वाले ही नहीं अपितु खेती और पशुपालन करने वाले जाट-यादव-गुज्जर आदि भी वैश्य हैं| तो पहले झटके तो जो बहुत से जाट-यादव-गुज्जर को शूद्र-शूद्र चिल्लाते रहते हैं, वह अपने तथ्य ठीक कर लें, यह सब शूद्र नहीं अपितु न्यूनतम वैश्य हैं| दूसरा शासक वर्ग होने की वजह से यह क्षत्रिय भी हैं| और तीसरा जाट को तो खुद महर्षि दयानन्द जैसे ब्राह्मण "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते हैं यानि खुद से ऊपर ही मानते होंगे जाट को तभी "जी" लगा के लिखा| यानि शूद्र का कांसेप्ट जाट-गुज्जर-यादव जैसी जातियां अपने ऊपर से आज के बाद हटा लें|

दूसरा तथ्य यह निकलता है कि शूद्र कौन है? यह मैं नहीं जानता कि मनुस्मृति ने शूद्र किसको कहा| वह आप खुद निर्धारित कर लें|

"परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बतलाया है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की भक्ति से सेवा करना|" - मुझे यह पंक्ति बड़ी विचलित कर रही है| क्या आपको लगता है परमात्मा यानि भगवान ऐसे भेदभाव वाले कृत्य करेंगे? परन्तु यह पुस्तक तो कम से कम यही कह रही है|

जैसे कि अध्याय एक के अध्ययन से निम्नलिखित ऐसी बातें सामने आई जो समाज में मनुस्मृति के बिलकुल विपरीत प्रसारित है: 1) मनुस्मृति इंसान का वर्ण कर्म से नहीं अपितु जन्म से निर्धारित कर देती है| 2) किसान और पशुपालक शूद्र नहीं वैश्य वर्ण में आते हैं| 3) जमींदार जिसको प्रकृति कहता है मनुस्मृति उसको परमात्मा कहती है व् दो अन्य 1) ब्रह्मा ने अप्राकृत जनन प्रक्रिया यानि बिना औरत के ही चार वर्णों के प्रथम-पुरुषों को स्वयं ही जना है, परन्तु उन प्रथम चार पुरुषों के नाम नहीं बता रखे| 2) शूद्र सिर्फ ऊपर वाले तीन वर्णों की सेवा-दासत्व के लिए बना है|

 

अध्याय 2:

पृष्ठ 24, प्रथम पहरा: "संसार में कोई काम बिना इच्छा के होते नहीं देखा गया|" सब कामों का मूल संकल्प है, संकल्प यानि कर्म की इच्छा-आकांक्षा-संकल्प के बिना कोई कर्म हो ही नहीं सकता| - जबकि गीता कहती है कि कर्म की इच्छा मत करो, इष्टफल की चिंता-अभिलाषा बिलकुल नहीं करनी है| अब किसकी मानी जाए, मनुस्मृति की या गीता की या फिर अपने पुरखों की?

 

तृतीय पहरा: जो पुरुष वेद और स्मृतियों में कहे धर्मों का पालन करता है, वह संसार में कीर्ति पाकर, परलोक में अक्षय सुख पाता है| - यह पंक्ति आगे के अध्यायों के लिए याद कर लीजिये, इसका जिक्र तब करेंगे जब कहीं ऐसा जिक्र आएगा कि कौन इनको पढ़ सकता है और कौन नहीं|

 

पृष्ठ 25 प्रथम पहरा: धर्मशास्त्र निर्विवाद, तर्क-कुतर्क से रहित हैं| कुतर्कों से इनकी निंदा करने वाले को शिष्टसमाज से निकाल देना चाहिए| - अकेली रामायण के विश्व में 300 से अधिक वर्जन हैं, उदाहरणार्थ बाल्मीकि की रामायण, तुलसीदास की रामायण आदि-आदि| इनमें से तो किसी को शिष्टसमाज से निकाला नहीं दिया गया और ना यह बताया गया कि तुलसी वाली पढ़ो या बाल्मीकि वाली? और ऐसे करते करते एक दूसरे से आशिंक या पूर्णत: असहमत होते हुए 300 वर्जन बन चुके रामायण के, परन्तु क्या कभी किसी पर कोई एक्शन हुआ? कृपया किसी को जानकारी हो तो जरूर बतावें|

 

द्वितीय पहरा: जो पुरुष, अर्थ-प्रयोजन, काम-अभिलाष में नहीं फंसे हैं उनको धर्म-ज्ञान होता है| - है कोई बाबा-संत-साधु जो इस परिभाषा को पूरी करता हो? और नहीं है तो इनको धर्मपालन नहीं करने पर किसी सजा, अनुशासन में रखने या सुधारने का विधान क्या है?

 

अध्याय 2, पृष्ठ 29: ब्राह्मण का नाम मंगलवाचक, क्षत्रिय का नाम थलवाचक, वैश्य का नाम धनयुक्त और शूद्र का नाम दासयुक्त होना चाहिए| - यहां उन विद्वानों से सवाल है जो यह कहते हैं कि मनुस्मृति या गुरुकुल परम्परा में ऋषि यानि अध्यापक बच्चे की शिक्षा पूरी होने पर उसके गुण-कर्म के आधार पर उसका वर्ण निर्धारित करते हैं? क्या बच्चे के नामकरण के वक्त उसकी आयु इतनी होती है कि उसकी भी शिक्षा पूरी हो चुकी होती है? अत: सिद्ध है कि मनुस्मृति व् सनातन धर्म में आपका वर्ण जन्म से निर्धारित होता है ना कि गुण-कर्म से| पहले अध्याय के बाद यह दूसरा तथ्य है जो इस बात को पुनर्स्थापित करता है|

 

अध्याय 2, पृष्ठ 30: वेदाध्यन और उसके अर्थज्ञान से बढ़ा तेज ब्रह्मवर्चस है| उसकी इच्छावाले ब्राह्मण का पांचवें वर्ष, बलार्थी क्षत्रिय का छठे वरह, धनी होना चाहने वाले वैश्य का आठवें वर्ष यज्ञोपवीत संस्कार करें|- यानि फिर से साबित होता है कि आपका वर्ण कर्म-गुण से नहीं जन्म से निर्धारित होता है|

 

अध्याय 2, पृष्ठ 31, प्रथम पहरा: कृष्णमृग, रुरुमृग और अज इनसे चरम को कर्म से तीनों वर्ण के ब्रह्मचारी धारण करें और सन, क्षौम (अलसी) और उन का वस्त्र धारण करें| - लीजिये फिर से सिद्ध हो गया कि आपका वर्ण जन्म से निर्धारित हो चुका है, जरा पुछवाईये उनसे जो कहते हैं कि मनुस्मृति या हिन्दू धर्म आदमी का वर्ण जन्म की बजाये कर्म से निर्धारित करते हैं? और शूद्र का तो इन चीजों में स्थान ही नहीं है|

 

अध्याय 2, पृष्ठ 31, द्वितीय पहरा: ब्राह्मण का यज्ञोपवीत (जनेऊ-धारण यही होता है ना मेरे ख्याल से, कृपया पाठक में कोई कन्फर्म करे) सूत का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेद की ऊन का बंटा हुआ तीन लर का होना चाहिए| - इसमें भी आपका वर्ण जन्म से निर्धारित होना साबित होता है, कर्म से नहीं| और शूद्र इसमें भी गायब है|

 

अध्याय 2, पृष्ठ 34, प्रथम पहरा: इसमें आचमन प्रक्रिया में भी भेद है| यह कहता है कि आचमन जल हृदय तक पहुँच जाने से ब्राह्मण, गले तक क्षत्रिय, मुख गीला होने से वैश्य और शूद्र तो होंठ स्पर्श करने से ही पवित्र हो जाता है|  

 

अध्याय 2, पृष्ठ 35, प्रथम पहरा, द्वितीय पंक्ति: स्त्रियों के केशान्त संस्कार के वक्त वेदमन्त्रोच्चारण नहीं होना चाहिए| विवाह-संस्कार ही स्त्रियों का उपनयन संस्कार है, पतिसेवा ही गुरुकुल वास है, घर का काम-काज ही हवनकर्म है| - स्त्री के बारे मनुस्मृति की इस सोच का विश्लेषण पाठक के लिए छोड़ा जाता है|

 

अध्याय 4, पृष्ठ 39 व् 40 का निचोड़: 11 इन्द्रियों यानि पांच ज्ञानेन्द्रियों (कान, आँख, नाक, जीभ व् खाल), पांच कर्मेन्द्रियों यानि (गुदा, मूतेन्द्रिय, हाथ, पैर व् वाणी) और ग्यारवहिं मन| पहली दसों को ग्यारहवें मन को रथ के सारथी की भांति काबू रखना चाहिए| मन को इन्द्रियों के विषय यानि काम, वासना आदि को भोगने की इच्छा में छोड़ देने से यह विषय उसी तरह कभी भी शांत नहीं होते जैसे आग में घी डालने से आग शांत नहीं होती| इसलिए इनका उत्तम उपाय है इन विषयों का मन के जरिये किये जाने से त्याग| - यही अब तक के ४० पन्नों के अध्ययन में सबसे काम की बात लगी, परन्तु इसको बताते हुए भी मन तब खट्टा हो जाता है; जब ऊपर की लय में पढ़ी हुई चीजें वर्ण के आधार पर करने में भी भेद है|

 

द्वितीय अध्याय के 29 से 40 पन्नों में यही सवाल बिंदु ख़ास लगे, जिन पर सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए| मैंने इनको गलत ना समझा हो और गलत अर्थ ना निकाला हो इसलिए इन पन्नों की प्रतिकोपी पोस्ट के साथ सलंगित कर रहा हूँ|

 

पृष्ठ 47, पहरा 1 - दस वर्ष के ब्राह्मण को, सौ वर्ष का क्षत्रिय भी पिता माने और अपने को पुत्र माने|   - यानि राजपूत क्षत्रिय 100 वर्ष का भी हो तो उसको १० वर्ष के ब्राह्मण को भी पिता कहना चाहिए|

 

पृष्ठ 48, पहरा 1, पंक्ति 6 - आचार्य उपाध्याय से दशगुणा, पिता आचार्य से सौ गुना और माता पिता से 1000 गुना अधिक पूज्य है| - यानि सामान्यत: जो गुरु-माता-पिता का बराबरी से सम्मान करने की बात सिखाई जाती है वह गलत है या यह सही?

 

मेरे द्वारा किये आंकलन व् विश्लेषण में कुछ गलती हुई होगी तो मैं उसको संज्ञान करवाते ही ठीक करने को तत्पर रहूँगा|  

 

उद्घोषणा: इन ग्रंथों के पठन-पाठन-विश्लेषण के जरिये मेरा मकसद किसी की आलोचना करना नहीं है और ना ही पाठकों को इन किताबों या मेरे विश्लेषणों में अपने फिट ढूंढने की जरूरत अपितु सिर्फ इतना मकसद है कि जमींदारी मान-मान्यताओं के मेल का इन पुस्तकों में क्या और कितना जिक्र है और उसका क्रेडिट इन्होनें जमींदारों को दिया है या नहीं| और जो इन पुस्तकों के हवाले से  समाज में फैलाया हुआ है वह कितना सच है और कितना झूठ|

फूल मलिक

"पैंडा छोड़" की जगह "आतंकवादी" कह देते बड्डे-बड़ेरे तो आज समस्या इतनी गंभीर ना होती!

इतनी गंभीर ना होती कि देश वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स की 159 देशों की सूची में 140 पे नंबर पर आया| इस बारे विगत वर्षों के आंकड़े भी लगे हाथ देख लीजिये:


India's World Happiness Index out of 159 countries:

In 2013 - Rank 111
In 2016 - Rank 118
In 2017 - Rank 122
In 2018 - Rank 133
In 2019 - Rank 140
अब जरा यह दो परिवेश समझिये:

1) एक वक्त में बड़े-बड़ेरे एक कहावत कहा करते थे फंडी बारे कि "पैंडा छोड़" क्योंकि फंडी उनसे अपनी बात मनवाने की जिद्द किया करते थे| जो हमारे बड़ों को पसंद ही नहीं आती थी बल्कि अव्यवहारिक भी लगा करती थी तो उनसे पीछा छुड़ाने व् आज वाली भाषा में कहूं तो अपने 'दिमाग की दही' बनवाने से बचने हेतु उनको बोल देते थे कि "पैंडा छोड़"| यह तो रही आपकी-हमारी चलती में आप आपकी नापसंद बात कहने वाले को कैसे दरकिनार करते रहे हो| आज वालों को तो यह दरकिनारी स्टाइल ही भूल चुका है और वह कितनी "दिमाग की दही" वाली स्टेज में जी रहे हैं उनको शायद अहसास होना भी मंद हो चुका है|

2) अब जरा इसी बात बारे फंडी की क्या एप्रोच रही है वह भी जानिये| फंडी की चलती और नहीं चलती दोनों अवस्थाओं में कोई उसको उसकी नापसंद बात कहेगा या फंडी से कोई अपनी बात मनवाना चाहेगा और फंडी को वह नहीं माननी होगी तो वह यह नहीं कहेगा कि "पैंडा छोड़" और बस इतने भर से बात खत्म| नहीं, अपितु वह आपको "आतंकवादी" बोलेगा-बुलवाएगा, वह आपको "दबंग", "लठैत" और तो और "देशद्रोही" तक कहने से भी नहीं चूकेगा|

यही फर्क है आमजन और फंडी की एप्रोच में| पहले वाले परिवेश में मामले को हल्के से लेते हुए वहीँ की वहीँ दबा के आगे बढ़ने की सोच है और दूसरे वाले में भिन्न सोच वाले को खत्म ही या बदनाम कर देने की सोच है| कम-से-कम भिन्न सोच वाले की साइकोलॉजी को भन्ना के रख देने वाली सोच तो है ही है|

"वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स" में जो देश टॉप पर हैं जरा उन पर भी नजर मार लीजिये| और मुझे बताईये (खासकर वह चिंतक जो इंडिया में इतने बुरे इंडेक्स के लिए नेताओं को देश देते हैं) कि क्या यहाँ इन देशों में नेता नहीं हैं? बिल्कुल हैं| तो फिर समस्या क्या है?

समस्या है बेलगाम धार्मिक कट्टरवादी ताकतें| और इन्हीं धार्मिक ताकतों द्वारा ऊपर बताये परिवेश एक वाले कमजोर कर दिए गए सोशल इंजीनियरिंग प्रेशर ग्रुप्स| वरना तो यह बताओ आज के दिन हमारे देश की लगभग हर दूसरी गली-चौक-चौराहे पर चौकियाँ-जगराते-जागरण-भंडारे चल रहे हैं, दे-धड़ा-धड़ दान पर दान हो रहे हैं; और फिर भी देश "वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स" में 159 देशों में 140 वें पे?

"वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स" में जो देश टॉप पर हैं वहां धर्म को तब से "बैलेंस्ड-वे" में रखा जा रहा है जब यहाँ 14वीं सदी में 'ब्लैक-प्लेग" की मौत का तांडव हुआ था| तब चर्चों में गॉड के नाम व् प्रभाव से बच जाओगे का सहारा ले जो चर्चों में आये, वह सब मारे गए बल्कि जो जंगलों में भाग गए वह सब बच गए| "ब्लेक-प्लेग" ने इन देशों में धर्म की अफीम का नशा इनके सर से ऐसा उतारा कि यहाँ कोई भी चर्च व् इनसे संबंधित संगठन अपने उत्सव चर्च परिसर से बाहर नहीं मना सकता| और ना चर्च को ना मानने वालों को हमारे यहाँ की भांति देशद्रोही, धर्मद्रोही आदि बुला सकता|

मुझे सबसे बड़ा ताज्जुब तो इस बात को देखकर होता है कि इंडिया से ऊठ के यहाँ चले आने वाले एनआरआई लोग, यहाँ के इतने खुशनुमा माहौल में रहने इसको देखने समझने के बावजूद भी इनमें से 90% इंडिया के वर्णवादी-जातिवादी-नश्लवादी सिस्टम को यूँ का यूँ बरकरार रखवाए रखना चाहते हैं| इसको सर्वोत्तम बताते हैं| हद करते हैं यह लोग, भाई अगर यह सर्वोत्तम है तो वह हमारी हरयाणवी भाषा वाली बात यहाँ यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया वगैरह में क्या डोकके लेवो हो फेर?

सही कहूं तो यही है इंडिया की "वर्ल्ड हैप्पी इंडेक्स" पर इतनी डांवाडोल स्थिति होने की सबसे बड़ी वजह|

मैं मध्यमार्गी इंसान हूँ| मुझे ना तो धर्म की कटटरता पसंद और ना धर्म की रुस्वाई पसंद| बल्कि मैं तो हिन्दू धर्म में भी ऐसी विचारधारा से आता हूँ जिसमें "दादा नगर खेड़ों" के तहत धोक-पूजा-पाठ सब कुछ औरतों के ही सुपुर्द है| आदमी तक को धोक-पूजा-पाठ औरत करवाती है| मर्द का किसी भी रूप में चाहे यह पुजारी का हो या महंत आदि का, उसका दखल ही नहीं रखा हमारे पुरखों ने अनंतकाल से| चाहे कोई कितना ही चिढ़ता हो इस पार्टिकुलर व्यवस्था से, परन्तु पूरे हिंदुस्तान में सबसे धनाढ्य और सम्प्पन लोग इसी व्यस्वस्था को मानने वाले रहे हैं और आजतलक भी हैं और कल भी रहेंगे अगर इसको मानते-मनाते रहे तो| बेशक यह सिस्टम औरत को देवी नहीं बनाता परन्तु औरत को पूजा-पाठ में 100% अगुवाई दे के रखता है| और पूरे विश्व में ऐसा अनोखा सिस्टम किसी भी धर्म या उसके पंथ समूह में नहीं जैसा इसमें हैं|

अत: निचौड़ यही है कि धर्म को "बैलेंस्ड-वे" पे लाये बिना हम कभी वर्ल्ड हैप्पी इंडेक्स पर बढ़िया रैंकिंग में नहीं आ पाएंगे!

और हाँ, फंडी को नापसंद बात करने पर "पैंडा छोड़" कहने की बजाये "आतंकवादी" कहना शुरू कर लीजिये, देश-समाज की 90% समस्या एक झटके में हल| वरना इन्होनें आपको आज से भी ज्यादा दबा देना है, मंदबुद्धि बना देना है| और यह इनका अंतिम टारगेट अंतिम मंजिल भी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"दादा नगर खेड़ा" के लोकगीत व् स्तुतिगानों बारे!

पांच बताशे पना का जोड़ा, ले खेड़े पै जाईयो जी,

जिस डाळी म्हारा खेड़ा बैठा, वा डाळी फळ ल्याईयो जी!

यह उस लोकगीत यानि स्तुतिगान का मुखड़ा है जो मैंने मेरी दादी-माँ-काकी-ताई-भाभी मेरे गाम में और बड़-बुआ, बुआ, बहन उनकी ससुरालों में "दादा नगर खेड़े पर धोक-ज्योत लगाने जाते हुए उनके मुखों से बचपन से सुनता आया हूँ| आपने भी अधिकतर ने यही सुना होगा|

परन्तु इतना भर बताना मकसद नहीं, इसको यहां डालने का| ताज्जुब की बात तो यह सुनिए; खासकर "दादा नगर खेड़े" आध्यात्म से जुड़े समाजों की औरतें जरूर ध्यान देवें|

आजकल फंडियों ने "दादा नगर खेड़ा" पर एक आरती घड़ डाली है, थारे-म्हारे घरों की गाढ़ी कमाई को खेड़े के नाम पर लूटने को| और ताज्जुब की बताऊँ उसमें क्या है?

"जय गणेश, जय गणेश देवा" वाली बॉलीवुड फ़िल्मी आरती की तर्ज पर "दादा नगर खेड़े" पर भी आरती बना डाली है| और उसमें यह पांच बताशे नहीं अपितु पेड़े खिला के दादा खेड़ा को खुश कर रहे हैं, उस दादा खेड़ा को जिसमें मूर्ती का ही कोई कांसेप्ट नहीं रखा पुरखों ने| क्योंकि हमारे यहाँ मरने के बाद हर पुरखा पूजनीय हो जाता/जाती है, इसलिए सब पुरखों का एक अरूप यह "खेड़े" होते हैं हमारे| अब आरती की पंक्ति भी पढ़ लीजिये:

चार भुजा सर छत्र विराजे, भोग लगे पेड़ा!
जो छट-छमाही धोकै, प्रसन्न हो खेड़ा!!

बताओ, बताशों की जगह पेड़े चाहियें इनको खाने को; चढ़वाएंगे खेड़े के नाम पर और डाल ले जायेंगे अपनी पंडोकली में| देखा कैसे अपग्रेड करते हैं अपनी लाड़ी जीभ को, बताशे की जगह पेड़े चढ़ाओ इनको| और देखो च्यांदण वाले रविवार के अलावा यह छट और छमाही की धोक किधर से आ गई खेड़े पे?

चलो कोई नी बहुत जल्द, "दादा नगर खेड़ा" की शुद्ध परम्पराओं के तहत वाली आरती ला रहा हूँ| जब आरतियां ही गानी-गवानी होंगी तो शत्प्रतिशत शुद्ध परम्पराओं वाली गवाएंगे| हमें इनसे कोई दिक़्क़त नहीं, यह जो चाहें गवाएं; परन्तु अब आरती हम भी ला रहे हैं|

जागरूक रहिये, जागरूकता ही असली समाजभक्ति है| इसको कायम रखिये और प्रचारित रखिये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक 

Thursday, 29 April 2021

हरयाणवी-पंजाबी-हिंदी में राम शब्द के अर्थ!

हरयाणवी व् पंजाबी में राम के दो अर्थ होते हैं, एक आराम व् दूसरा आसमान; उदाहरण देखिए:

1) पंजाबी: "राम नाळ पै जा" - यानि आराम से बैठ जा|

2) हरयाणवी: "राम कर लो" - यानि आराम कर लो|
3) हरयाणवी: "आज तो राम भोत बरस्या" - यानि आज आसमान ने बहुत बारिश की या आस्मां से बहुत बारिश हुई| ग्रेटर-हरयाणा का सबसे बड़ा भगवान शिव रहे हैं, परन्तु यह कहावत "आज तो शिव बहुत बरस्या" नहीं "राम बहुत बरस्या" से बनी है; तो निसंदेह यहाँ राम का तातपर्य आसमान से है|
4) हरयाणवी: "के राम पर तैं उतरया सै?" - यानि सीधे आसमान से टपके हो क्या? यहाँ कोई भगवान के बारे तो ऐसा नहीं कहेगा और कहेगा तो अर्थ की बजाए अनर्थ बनता है बात का|
5) हरयाणवी: कोई भी काम शुरू करते वक्त, "ले राम का नां" यानि "सहजता से कार्य शुरू करो"; सहजता यानि आराम|
6) हरयाणवी: "राम-राम" - यानि अभिवादन स्वरूप आप से पूछा जाता है कि "आराम से तो हो?" यानि आराम-ही-आराम है ना जिंदगी में?

7) हिंदी: हिंदी में राम का अर्थ "भगवान राम" से है| जैसे बोलो जय श्री राम|

8) राम अंग्रेजी के ओके शब्द का पर्यायवाची है। किसी के बीमार या घायल होने पर पूछा जाता है....राम आ गया? हजे राम नहीं आया। पता नहीं कदों राम आऊ। किंवे राम है। हां राम राम है।

सनद रहे हिंदी, ग्रेटर हरयाणा-पंजाब की मूल भाषा नहीं है अपितु अंग्रेजी की तरह ही विदेशज भाषा है| ग्रेटर हरयाणा की मूल भाषा हरयाणवी व् पंजाब की मूल भाषा पंजाबी है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 28 April 2021

कोरोना को भगाने हेतु यह जितने भी ऐसा कहने वाले हैं!

5 बार फलाना मंत्रोचार करो,

फलाना घी फलाने हवन में डालो,
फलाना जानवर की नासिका से नासिका लगा खड़े हो जाओ, ऑक्सीजन मिलेगी
इनको सोमनाथ मंदिर की लूट याद दिलाओ| वहां जब महमूद ग़ज़नी मंदिर के अंदर बढ़ रहा था तो तमाम पुजारी गगनभेदी मंत्रोचार ही कर रहे थे, कभी भयमुक्त होने वाले मंत्र, कभी ध्यान-भटकाने वाले मंत्र तो कभी कोई से कभी कोई से| परन्तु ग़ज़नी इन सबको को उसी मंदिर में दफना के सारा खजाना ऊंटों पे लाद ले निकला था|
वह तो शुक्र मनाओ, आगे सिंध के मैदानों में जेली-लठ-तलवार-भालों वाली सर्वखाप सेना ने दादा चौधरी रायसाल खोखर की अगुवाई में वो सब ऊँट लूट के देश की लाज बचाई थी|
यें निरे कान फोडन के हैं, "झींगा-ला-ला हुर्र-हुर्र" टाइप कलह मचा के; ना साइंस इनके पास से हो के गुजरी, ना साहस गुजरा| सारा आयुर्वेद भी थारे-म्हारे पुरखों को खेतों-बोझड़ों-जंगलों में काम-करते देख, उनके तरीके उनकी उपज उनके लाइफ-स्टाइल से कॉपी-पेस्ट मार के पोथे पाथें बैठे हैं; वह भी बिना उन पुरखों को कोई क्रेडिट या रिफरेन्स दिए|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जब तक अपनी औरतों और फंडियों के बीच तार्किकता की बाड़ नहीं करोगे, फंडी को नहीं हरा सकते!

मैं इस नोट का लेखक, जाट-जमींदार है मेरा पिछोका; मेरे नानके के यहाँ "काकी भल्ले की बाह्मणी" रसोई का रोटी-टूका करने व् बर्तन-भांडा मांजने आती थी| मेरे दादा जब मेरी माँ को देखने गए थे तो इन काकी ने खाना बनाया था व् दादा ने खाना खा कर नाना को काकी के खाने की तारीफ करते हुए कहा था कि, "चौधरी, मिश्राणी खाना तो सुवाद बनावै सै"| यहाँ यह बात मैं उन काकी के खाने की तारीफ़ हेतु लिखी है व् समाज को यह बताने के लिए लिखी है कि सामाजिक-समरसता का बैलेंस मत बिगाड़ो, किन्हीं विशेषों को अति-विशेष बना के या समझ के; कोई इसको अन्यथा ना ले| और ले तो ले, सच्चाई लिखी है किसी फंडी की तरह फंड नहीं रचे| जब इतना भिग्न समाज में मच चुका है तो यह सच्चाइयां सामने लानी जरूरी हो चुकी हैं| खासकर उन घमंडी व् नखरैल लोगों के लिए जो बना के वर्णवादी व्यवस्था समाज को ऊंचे-नीचे वर्णों में बांटने को आमादा हुए फिरते हैं| इन नीचों की बेशर्मी की हद देखो कि जिनके यहाँ यह चीजें कहने को रही हैं वह इन बातों को तवज्जो नहीं देते परन्तु जिनके यहाँ कभी थी ही नहीं, जमीनें तक दानों में पाई हैं वह समाज को वर्ण-व्यवस्था समझाते हैं|

इस खून व् पिछोके का मैं, इसीलिए इनकी बकवासों से कभी प्रभावित नहीं होता| अब सुनिए दो ऐसे ही किस्से जो मेरे घर में मेरी दादी व् मेरे पिता की जिंदगी से सीखे; अपने घर के उदाहरण दे कर यह बातें इसलिए समझा रहा हूँ ताकि आपको इस लेख के शीर्षक की महत्वता समझ आए|
मैं आठवीं में पढ़ता था, तब एक बार मेरी दादी को दो बाणनी व् एक विधवा बुआ जाटणी बहका के मेरे पिता-दादा से छुपा के निडाना गाम की कोकोबगड़ी में सतसंग में ले गई थी| इसका पता लग गया मेरे पिता को| मेरे पिता ने दादी को सिर्फ एक ही बात कही थी कि, "माँ, जिनके यहाँ रात बिता के आई है; क्या उनके घरों की औरतें भी किसी गैर के घर, गैर बख्त गाती-बिगोती-मटकती हांडें सैं? जो अगर इनके घरों में इहसा ही भगवान उतर रह्या सै तो इनके मर्द म्हारे गेल क्यों ना मुंह-माथा होते; यु कुणसा मतलब सै घर की लुगाईयों के जरिये म्हारे घरों में पाड़ लगाने का? के उनके एक भी मर्द नैं नहीं कही तेरे ताहिं कि, "ए फलाने की बहु, फलाने की माँ; बेटी गैर टेम दूसरे बगड़ किहसी आई"? सुबह का वक्त था, बाबू धार काढ़ के घर देने आया था; दूध ले के आता था सुबह बाबू तो रुक्के मारया करता, "माँ, उठ लो धार काढ़ ल्याया सूं"| जिसके साथ ही मैं भी उठ जाया करता था| यूँ कहो कि बाबू का सुबह के 5 बजे के अड़गड़े का यह रुक्का मेरा मॉर्निंग-अलार्म होता था| वो दिन था और दादी का मरण-दिन, आजीवन कभी किसी सतसंगी की चौखट नहीं देखी| हालाँकि बाबू, दादी से पूरा एक महीने अनबोल रहा था, उस वक्त|
ऐसा नहीं है कि सिर्फ बेटा (यानि मेरा बाप) ही अपनी माँ के साथ इतना वोकल था| माँ (मेरी दादी) अपने बेटे पे इससे भी ज्यादा वोकल थी| दादी बताती थी कि थम छोटे हुआ करते थे, तो घर-कुनबे के ही कुछ जलकंडों ने तेरे बाप को दारु पीने की राह पर डालने की जी-तोड़ कोशिशें करी| परन्तु वह तो मैं इतनी चौकस हुआ करती थी कि थारे दादा तक बात जाने से पहले ही थारे बाप को सीधा कर देती थी| एक बार हुआ यूँ कि कुनबे के जलकंडों के यहाँ कोई सी छोरी का बटेऊ आया हुआ था और वह दारु पी रहे थे तो चुपके से तेरे बाप को भी ले गए बुला के| तेरे बाप को ले के मुझे पूर्वाभास हो जाते हैं कि जरूर किते गलत जगह गया है| रात के 8 बजे, आसुज का महीना, बाजरा पैर (खलिहान) में पड़ा तो मैंने पहले तो सीरी उधर दौड़ाया कि जा देख के आ वहां पहुंचा कि नहीं, क्योंकि जब पैर लगते थे तो तेरे बाप की सोने की ड्यूटी वहीँ की लगा करती थी, सुबह की धार-डोकी तेरा दादा देखा करता| सीरी खाली हाथ आया तो मेरा माथा ठनका, भंते में तेरे ताऊ तेलु होर के खन्दाया तो उड़ै भी ना पाया| तब मैं खुद लिकड़ी, न्यूं छटपटाती हुई ज्यूँ बिन बाछ्डू गाय हो जाया करै; उन जलकंडों के घर भी पूछी, जड़ै बिठा के दारु प्यावें थे तेरे बाप नैं; पर वें मना कर गए कि बेबे (दादी की जेठानी) उरै तो कोनी आया| तो मैं फेर पैर कानी भाजी, मखा पैर में ही पहोंच लिया हो? बाखै पै नाइयां आळे कोणे पै, तेरे बाप की अर मेरी सेटफेंट| वो चेतु आळी गली तैं लड़खड़ाता चाल्या आवै और मैं मैदान आळी सदर गाळ में| मैंने देखते ही बोल्या, "कड़ै हांडै सै तिगना (दामण) ठाएं इस गैर-टेम?" मैंने उसकी बांह पकड़ कें झिड़कते हुए कही कि, "कोए ना, क्यों छोह मान रह्या इस बात का; इन्हें राह्यं रह्या तो दुनियां ए ठा देगी इस तिगने नैं तो| और मेरे-मेरे नैं के तेरी बाहणां अर बहु के नैं भी ठावैगी|" बस इतनी सुणी थी तेरे बाप नैं अर सीधा पैर में जा कें पाछा देखा, एक शब्द और नहीं लिकड़ा मुंह तें| फेर मेरे कुणसा चैन, बेरा पाड़ कैं छोड्डी अक किन ठाईगिरा की करतूत थी| वें दारु प्यानिये तो पाछै देखे पहल्यां वो बटेऊ को ही सुनाई अच्छी-अच्छी जिसके आने की ख़ुशी में वा पार्टी हो री थी और फेर सुनाई उस जेठानी को| वो बटेऊ तो फेर जिंदगी भर स्याहमी नहीं आया मेरै| सबेरै तेरा बाप आया, पैर म्ह तैं; मेरी आँख बळें और जाड करड़ावें| अपने हाथां घी में रोटी बेल्ले में दाब कें धरया करती और आ कें मेरे पै ही मांग्या करता| इहसा जी नैं क्लेश करया था कई दिन; वें दिन सैं अर आज का दिन, कदे फेर दारु के हाथ नहीं लगाया| और यह सच भी है मेरा पिता जी दारु-स्मोकिंग, यहाँ तक कि घर पर तो चाय भी नहीं पीते|
अब नोट कीजिए: इन दोनों किस्सों को; किसी ओपरी-पराई का साया मान के, या घर में क्लेश मान के खुद घर-की-घर में हैंडल करने की बजाए मेरा बाप या मेरी दादी, फंडियों के चक्करों में पड़ते तो क्या कभी यूँ इतने प्रेरणादायक तरीके से अपने घर को सहेज पाते? बस डायलॉगिंग रखिये अपने घरों में| आपके तर्क में दम होगा तो चाहे घर में गलत कोई औरत हो या मर्द; सब लाइन पे रहेंगे| और जो उदारवादी जमींदार हो गया या इस किनशिप का हो गया; वह गृहस्थ रहते हुए भी साधू है, उसके घर रोज सतसंग है| कम्युनिकेशन गैप पैदा ना करें, अपने घर के सदस्यों से; कुछ गुबार हो भी जाए आपस में तो कुवाड़ मार के भीतर बैठ के निकाल लें|
यह फंडी कोई सौदा नहीं, चढ़ी में चाँद तक और उतरी में थारी जूतियों में| समत्व भाव निष्काम कर्मयोग के असली वारिस भी हम ही हैं; फंडी नहीं| फंडियों का आपको बौद्धिक-आर्थिक तौर पर बर्बाद व् कंगाल करने का सबसे बड़ा "modus-oprendi" होता है आपके यहाँ आपकी औरतों के जरिए सेंधमारी करना| और वह घर इनके पहले निशाने होते हैं जिन घरों में धन है और क्लेश भी है| अपने क्लेश मिटा के रखो घर-की-घर में| और किसी आध्यात्मिक विचारधारा को मानना भी है तो उसको जो आपके दान-पुण्य के बदले आपको सोशल सिक्योरिटी व् बराबरी का सम्मान दे; उन उठाईगीरों को नहीं जो आपके दिए दान से ही आप पर आपके समाज पर ही "जाट बनाम नॉन-जाट" यानि 35 बनाम 1 रचते फिरें|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 24 April 2021

सरदार चौधरी कमांडेंट हवा सिंह सांगवान जी - 21वीं सदी में खापलैंड पर सिखिज्म की लहर के प्रणेता!

खाप-खेड़ा-खेत कैलेंडर में शामिल होने लायक सबसे प्रमुख जीवित हस्ती - एक देदीप्यमान रौशनी भरे मार्ग के दिग्गज प्रणेता|
इस बार का खाप-खेड़ा-खेत कैलेंडर जब बन रहा था तो "उदारवादी जमींदारी" के परिवेश की "लिटरेचर से संबंधित जिन जिन्दा हस्तियों" का नाम आया उसमें सबसे प्रमुख नाम है "सरदार चौधरी कमांडेंट हवा सिंह सांगवान जी"| परन्तु क्योंकि कैलेंडर में जीवित हस्तियों को जगह नहीं दी जानी थी इसलिए नाम कैलेंडर में नहीं आया| आगे जिन वजहों से आप इस कैलेंडर में स्थान पाएंगे वह हैं:
1) फंडियों की पोल खोलती व् उदारवादी जमींदारों के दिमाग-पट्ट खोलती आपकी लिखी किताबें| आपकी लेखनी ने मेरी समझ दुरुस्त करी कि जैसे फसलों को आवारा जानवरों से बचाने हेतु बाड़ की जरूरत होती है, ऐसे ही नश्लों को फंडी रूपी आवारा जानवर से बचाने हेतु, इनसे नश्लों की बाड़ की जरूरत होती है| आपकी ही लिखी किताबें थी जिनसे मुझे यह समझ आई कि इस विश्व में वास्तविक शूद्र-नीच-अछूत कोई है तो वो जो खुद को वर्णवादी व्यवस्था का धोतक बोलता है| विदित रहे जो इंसान को बराबर का इंसान मानता हो वह अपना भाई, वरना तलाक्की नहीं लगता चाहे जिस वर्ण का हो|
2) आरक्षण की चिंगारी को गाम-गाम गली-गली सबसे पहले व् सबसे व्यापक स्तर पर फ़ैलाने वाली हस्ती के नाम से|
3) इक्कीसवीं सदी में सबसे पहले सिख धर्म अपना कर, समाज के लोगों को इन फंडियों को दुत्कारने की शक्ति व् प्रेरणा बनने के कारण| बेशक कोरोना के चलते आप लोगों को हरमिंदर साहिब की तरफ से कम संख्या में आने का सुझाव था व् आप लोगों ने उसको माना भी परन्तु आप लोगों के इस कदम ने एक बार फिर से समाज को सिखी की तरफ जाने का मार्ग प्रसस्त कर दिया; जिसके कि आने वाले वक्त में व्यापक नतीजे मिलने वाले हैं|
आप को हमेशा साभार याद व् आने वाले इतिहास में हम हमेशा अमर रखेंगे, यह सुनिश्चितता हम आपको देते हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Thursday, 22 April 2021

सैद्धांतिक बात कहूंगा - पिछले हफ्ते जिस नेता ने मोदी को किसानों के लिए खत लिखा था!

उनको यह वैश्विक सत्यता दरकिनार नहीं करनी चाहिए कि, "किसी के गहणे धरा इंसान, कदे मालिकों के फैसले ना करवाया करता, कि वो आपको इतनी तवज्जो देगा कि आपके लिखे खतों के अनुसार व् समय रहते एक्शन लेगा| और आपने तो ऐसा राजा गले डाल लिया कि ताउम्र उसकी चौखट पे क़ुरबानी-पे-क़ुरबानी भी चढ़ाते रहोगे तो भी उसकी नजरों में इस लायक तक नहीं बन पाओगे कि क़यामत के वक्त वह तुम्हारे जनाजे पर "नजर-ए-मेहरबानी" तक फरमाने भी झांक जाए|

अर्थात कहीं बहम में मत रहना कि सरकार बचवा दी तो यह आपका कोई बड़ा अहसान मान रहे होंगे; आप तो छोटी सी कुर्सी पे हो; आपके तो पड़दादा को "डिप्टी पीएम" की कुर्सी से ऐसा नेस्तोनाबूत किया था इन्होनें कि पड़दादा जी को उसके बाद बोहड़ के संसद में भी राजयसभा के रास्ते चढ़ना पड़ा था| सच्चाई कड़वी है, आपके इर्दगिर्द वाले बताएंगे नहीं परन्तु हम अपना मानते हैं आज भी कहीं-ना-कहीं तो अंतर्नाद रोता है आपकी "कैद में है बुलबुल" टाइप हालत देख के| आपके पड़दादे के साथ क्या करी थी इन्होनें यह देख के भी इनके साथी हुए जाते हो, और तो और पड़दादा को "नेचुरल संघी" तक बता जाते हो? जबकि इनके किये उस धोखे के अक्स उस अलाही इंसान के चेहरे पर ताउम्र यूँ झलकते रहे जैसे "ठाड्डा हुलिया किसान के पैर नैं उड़ा दिया करै"| इस नोट के शब्दों से ज्यादा इस बात के मर्म को समझना|
थारी एक ही सूरत है अपना भविष्य बचाए रखने की कि बाहर आ जाओ इस सरकार से अब भी| किसान-मजदूर इतना गुस्सा जरूर रखेंगे कि 2024 में शायद थमनें ना हेजैं परन्तु 2029 में बोहड़ आओ इस लायक जरूर रह जाओगे; नहीं तो 2039 तक भी बोहड़ना ना बने| भूलें कोनी, अरड अणखी किसान सैं हरयाणा के, देखा नहीं 2019 में इनपे "फरवरी 2016 का 35 बनाम 1" करने वाले व् उनके साथ जा खड़े होने वाले कैसे चुन-चुन के हराए थे? सबसे बड़ा उदाहरण सीम-के-सीम लगती सफीदों-जुलाना का देख लो, सफीदों दी कांग्रेस को और जुलाना आपको सिर्फ इसलिए कि बीजेपी वाला हराना था| लहर थारी 2019 में ही ना थी, वरना होती तो सफीदों भी जीतते| और बीजेपी को हराने के चक्कर में इन्होनें तुम्हें जितवा दी नारनौंद तक, नहीं तो जिह्सा थमनें उड़ै कैंडिडेट दिया था, वो ताउम्र जीत नहीं सकै था वहां से| न्यूं भी मत ना मानियो कि नारनौंद से कैप्टेन अभिमन्यु थमनें हराया, ना फरवरी 2016 का गुस्सा ही इतना था कि बीजेपी उड़ै किसी और को भी खड़ा करती तो उसको भी ऐसी ही पटखनी मिलनी थी; कटबाढ़े हराए थे सारे; बस खटटर-विज बचगे क्यूकरे; विज तो कांग्रेस की इंटरनल पॉलिटिक्स के चलते बच गया वरना मिल जाती चौधरी निर्मल सिंह या उनकी बेटी को वहां से टिकट, विज तो बिठा दिया था पढ़न बाकियां के गैल ही, ज्युकर रोहतकिया बिठाया| फेर कैप्टेन पर तो डबल-डबल गुस्सा था एक बीजेपी से होने का, दूसरा उनका अपने कौमी बच्चों के प्रति तब तक के रूख का|
थारे चक्कर में 10 नहीं बल्कि 20 सीट खराब गई थी, जो थारी एब्सेंस में जानी ऐसी साइड थी कि बीजेपी की सरकार कम-से-कम रिपीट ना होती किसी भी सूरत से| और अब तो आप जितनी देरी करते जा रहे हो, किसान बीजेपी से भी डबल गुस्से पे आपको धरते जा रहे हैं| और इनके गुस्से का सैंपल 2019 में देख ही चुके हो| आखिर डरते किस बात से हो? संशय किस बात का है? मार के ठोकर बाहर क्यों नहीं आ जाते? इस कौम के भूल ना पड़ा करती; कहावत है इसपे कि, "ये किसी का घाल्या न्योंदा उधारा नहीं राख्या करते" फिर चाहे उल्टा नयोंदने में देर कितनी ही हो जावे| इन्नें तो बख्शें नहीं किसी सूरत में, फरवरी 2016 बहुत भारी हो के गुजरेगा इस जमात पे, चाहे गुजरियों कितना ही वक्त ले के| आ जाओ वक्त रहते बाहर, वही बात 2024 की तो कहता नहीं परन्तु 2029 में लोग थमनें फिर तैं सुन लेंगे इस लायक रह जाओगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 17 April 2021

समाज के इतिहासकारों से अनुरोध!

हमारे आध्यात्म व् कल्चर में किसी भी कार्यक्रम का आगाज व् समापन "बोल नगर खेड़े की जय" उद्घोष से होता आया है और युगों-युगों से होता आया है| सिंधु सभ्यता व् हड़प्पा सभ्यता हमारी रही है के पर्याप्त सबूत मिलते हैं आर्कियोलॉजिकल भी व् लिखित भी[ सिंधु व् हड़प्पा खुदाई की साइट्स पर बसासत के लेआउट हमारे पुरखों की अद्भुत नगर-गाम बसाने की कला की धाती हैं| कुछ लोग इनको आज वाले शहरियों मात्र की सिद्ध करने पर लगे हुए हैं जो कि वह बहुत भयंकर भूल कर रहे हैं|

हमारे समाज का इतिहास लिखने वाली शुरूआती खेप के लेखकों ने एक बहुत बड़ी गलती पहले ही कर रखी है कि इनकी लेखनी में हर दूसरा लेखक हमारे इतिहास को ले-दे-के अंत में घुमा-फिरा के माइथोलॉजी में घुसाए मिलता है; जिसको अब रेक्टिफाई करने का हमें एक्स्ट्रा काम करना पड़ रहा है| और इस गलती का मैं खुद भुगतभोगी भी रहा हूँ, मेरे लेखन के शुरुवाती सालों में; क्योंकि अपनों ने लिखा है तो सच ही लिखा होगा का प्रभाव उतरते-उतरते व् गलती अपनों से भी हो सकती है लेखन में, यह समझ थोड़ी देर से बनी|
आप इस आज की खेप वाले लेखक इस बात पर तो
बधाई
के पात्र हैं कि आपने माइथोलॉजी की लाइन से हट के वास्तविक इतिहास लिखने की राही पकड़ी परन्तु इस "नगर" शब्द को ले कर आप भी पहली खेप जैसी ऐसी भूलें कर रहे हो जो शायद हमें रेक्टिफाई करनी या करवानी ना पड़ जाएँ| कृपया इससे बचें| आज की पीढ़ी अपने इतिहास में मिलावट के प्रति फंडियों से भी ज्यादा सतर्क है| यह वक्त की कमी के चलते आप जितना समर्पित वक्त तो हर वक्त नहीं दे सकते होंगे, परन्तु जब भी इन चीजों पर बैठते हैं तो इतनी बारीकी से पढ़ते हैं कि पढ़ाई से पहले एनालिसिस निकाल लेते हैं कि कुणसी खूंट में लिख-बोल गया फलाना लेखक|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक