पहले तो "नगर खेड़ों वालों" में नगर शब्द नोट करो; तुम्हारे गाम थे ही नगर, बस तुम उस प्रोपगंडा वाले प्रचार का मुकाबला नहीं कर पाए; जिसके तहत तुम में धक्के से ग्रामीण होने की भावना ठूंसी गई; वरना तुम नगर वालों से पहले ही नागरिक व् नगर वाले थे|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Friday, 8 April 2022
शहरी RWA वाले, गाम के बगड़ों के कांसेप्ट कॉपी कर गए परन्तु इन्हीं गामों केे "नगर खेड़ों" वालों ने ही यह कांसेप्ट बिसरा दिए!
Tuesday, 5 April 2022
मानसिक शूद्रता/दरिद्रता का बदलता चेहरा!
हरयाणवी समाज के जमींदारों का कोई परिवार शहर में निकलेगा या इनमें एक को ढंग की नौकरी लग जाए तो सबसे पहले फंडी-फलहारी के पाखंडों में रिफल-रिफल के भाग लेगा| व् साथ-की-साथ पीछे गाम का सारा कुनबा-ठोला इसमें लिपटवाने की कोशिश करेगा| और यह जो लॉबी बन रही है जमींदारों में, यही आने वाली शूद्र कहलाने वाली है, अगर इन्होनें यह रिफलने नहीं छोड़े तो| इनके घर के मर्द-औरतों ने बैठ के आपस में डाइलॉगिंग नहीं की तो|
Monday, 4 April 2022
लोकल लेवल पे वोकल हो जाओ, अगर 35 बनाम 1 को फंडी बनाम नॉन-फंडी में तब्दील चाहो!
समस्या कितनी बड़ी खड़ी कर दी है फंडी ने आपके आगे यह तो देख ही रहे होंगे; वह भी स्वधर्मी होते हुए? तुम किसी के इतने बड़े भी दोषी नहीं हो, जितना बड़ा बना के फंडी ने तुम्हें परोस दिया है| तुम्हारी कौम-कल्चर-किनशिप को राह चलती उस बेचारी अकेली लाचार लड़की की तरह बना डाला है, जिसपे गुंडे किसी भी वक्त टूट पड़ते हों व् बच के निकल भी जाते हो? कब तक होने दोगे यह खुद के साथ?
ऐसे ही चलता रहा तो, ना तुम्हें नेता बनने लायक छोड़ेंगे ना पंचायती| वक्त है, सम्भल के सर जोड़ लो व् इस फंडी को पहले झटके तोड़ लो| फंडी, भांप के धधकते उस बुलबुले की तरह होता है, जो सतह पर आते ही फुस्स और वह सतह है तुम्हारा सरजोड़|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Friday, 1 April 2022
साइलेंस में बहुत ताकत होती है - matter of Chandigadh!
राजनीति में बैठे घाघों के कोई भी मुद्दा उछालते ही, उसको उड़ते तीर की तरह नहीं लेना चाहिए| इन्होनें चंडीगढ़ बोला और आपने सोशल मीडिया पर झड़ी लगा दी| स्पष्ट राय अपनों को दो, दुनिया को नहीं; क्योंकि दुनिया में फंडी भी हैं| यह आपकी रिएक्शन के आधार पर मिनट में अगला स्टेप निर्धारित कर लेते हैं व् आपको ऐसे ही अगले-से-अलगे स्टेप की पिच पे खिलाते चले जाते हैं| जबकि आप भ्रम में रहते हो कि मैंने पब्लिकली बोल के समाज को चेता दिया, अपना फर्ज निभा दिया| यूं निभाए फर्ज, गली में भोंकते कुत्ते से ज्यादा कोई अहमियत व् असर नहीं रखते होते|
13 महीने किसान आंदोलन लगा के, दोनों स्टेटस ने जो आपसी भाईचारा बनाया, क्या उसको यूँ एक क्षण में इनकी भेंट चढ़ा दोगे? ऐसे इनके उछाले मुद्दों में कूदने से पहले रत्ती भर भी नहीं सोचना दिखाता है कि आपकी उस 13 महीने लगा के बनाए भाईचारे को बचाये रखने के प्रति कितनी एकाग्रता है|
यह नेता तो चंडीगढ़ बनते ही इसको मुद्दा बनाते आ रहे यहीं, परन्तु निकला क्या और क्या निकालोगे? इससे अच्छा हाईकोर्ट की भांति राजनधानी के भी रीजनल सेंटर्स मांग लो, टंटा खत्म| नेताओं को भी पता लगे कि जनता क्या चाहती है व् क्यों अब तुम्हारी बनाई पिचों पर नहीं खेलेगी| इनको आपकी बिछाई पिच दो, तब बात बनेगी|
वैसे भी फंडी अब इस पर काम कर रहे हैं कि दोबारा ऐसा किसान आंदोलन फिर ना हो तो उसके लिए क्या किया जाए? और यह चंडीगढ़ का राग उसी की एक स्ट्रेटेजी है, आपकी एकता को तोड़ने की| आपकी आपसी समझ व् तालमेल खत्म करने की| ऊपर से आगे 2024 में इनको फिर सरकार चाहिए, जिसके लिए आपकी एकता व् समझ फिर से खतरा इनके लिए| इन बातों को समझ के ही सोशल मीडिया पर लिखा करो|
कुछ सौदा ना है इन फंडियों का, अगर आप इनको अपने साइकोलॉजिकल वॉर गेम में उलझाने हेतु लिखने लगो तो| कोई दिमाग भी नहीं है इनमें और ना बुद्धि है; बस यह सर्वाइव ही आपकी ऐसी जल्दबाजी पर करते हैं, जैसे पिछले दो दिन से चंडीगढ़ वाले मुद्दे पर मचाते हो|
थोड़ा ठहरो, सोचो व् चुप रह के चिंतन करके ही आगे बढ़ो; यह सब मलियामेट होते जायेंगे|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Thursday, 31 March 2022
"नेग में सबसे बड़ा बूढा होता था ठोळों-बगड़ों का कॉउंसलर"!
दादा चौधरी दरिया सिंह मलिक: मेरे पड़दादा थे, उम्र में मेरे दादा, असल में कई दादाओं से छोटे; परन्तु नेग में एक पीढ़ी ऊपर| उनको मैंने मेरे ठोळे व् बगड़ (जिनको तुम आज शहरों में RWA कहते हो) की सभी छोटी-बड़ी औरतों की मासिक अथवा तिमाही रूटीन में कॉउंसलिंग मीटिंग लेते हुए देखा है| सभी की समस्याएं सुनी जाती थी, गलत को गलत व् सही को सही बताया जाता था| जो गलत होती थी उसको डांट पड़ती थी| फंडी-फलरहियों से एकमुश्त दूर रहने की सबको हिदायत होती थी| बूढ़े मानते थे कि औरत ही घर की मुदई होती है, उसकी कॉन्सलिंग होती रहे तो छोटे बच्चे, कल्चर-किनशिप सब सही रहता है|
परन्तु वह मेरे बगड़ का आखिरी दादा था; जिसको मैंने ऐसे अपने बच्चों में, औरतों के साथ बैठ, अपनी किनशिप को ट्रांसफर करते देखा था| हालाँकि कई औरतें उनकी ज्यादा सख्ती से खफा भी रहती थी व् इस बात की शिकायतें भी करती थी, अपने बेटे-पतियों को| परन्तु सबको पता होता था कि कल्चर-किनशिप कायम रखनी है तो इतना अनुसाशन तो चाहिए ही| ऐसी औरतों को सख्ती व् अनुसाशन में फर्क बताया जाता था या बताने की कोशिश मैंने देखी हैं|
यही होता है एक "स्वर्ण" समाज| आज किधर खड़े हो तुम, खुद देख लो| स्वर्ण से कितने गिर के शूद्र बन चुके हो; आईना सामने हैं| यही गति से गिरते रहे तो आने वाले जमाने के अति-पिछड़े, महा-शूद्र तुम ही कहलाओगे; फिर बेशक कितने ही चमकते-दमकते महले-दुमहलों में बैठे रहना|
जय यौधेय! - फूल मलिक
स्वर्ण क्या है, व् शूद्र क्या है?
स्वर्ण: जो अपनी जाति-समुदाय के भीतर सम्पूर्ण लोकतंत्र रखे व् बाहरी जाति-समुदायों में तोड़फोड़ मचवाये रखे| या जो अपनी सोशल-आइडेंटिटी की प्रोटेक्शन का ठेका स्वर्ण को दे दे व् बदले में स्वर्ण को चंदा-चढ़ावा देता रहे; परन्तु व्यक्तिगत नहीं उसकी पूरी जाति-बिरादरी की सोशल प्रोटेक्शन का| इन प्रोटेक्शन का ठेका देने वालों को स्वर्ण, आधा-स्वर्ण कहता है|
शूद्र: जो अपनी छोड़, अपने परवार-ठोले-कुनबे-पान्ने-जाति की छोड़ बाकी सभी के लोकतंत्र की चिंता करे| अपनी के लिए सिर्फ व्यक्तिगत प्रोटेक्शन हेतु छुपे रूप से स्वर्ण को यह समझ के चंदा-चढ़ावा चढ़ाए कि वह उसकी सोशल आइडेंटिटी की रक्षा करेगा| परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है| स्वर्ण उसको प्रोफेसर बनने पर भी स्वर्ण में शामिल ना करके, शूद्र ही कहते-मानते रहते हैं| स्वर्ण की चुसाई छद्म राष्ट्रवाद व् धर्मवाद की घूंटी यही सबसे ज्यादा पिए होते हैं|
और यह नई सदी के नए शूद्र, तमाम उन बिरादरियों के लोग हैं, जो दो-तीन जनरेशन पहले तथाकथित स्वघोषित अर्बन हुए हैं| इनके पुरखे जब ग्रामीण थे तो अपने-अपने गाम के स्वर्ण थे, परन्तु यह मूढ़मति 99% अर्बन तो हुए परन्तु स्वर्ण वाला स्टेटस खो चुके| जबकि फंडियों ने जो ट्रडीशनली शूद्र घोषित किये हुए थे, वह कुछ-ना-कुछ स्वर्णता को अर्जित करते जा रहे हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक
पूंछ पाड़ैगा मेरी!
यही क्रेडबिलिटी है इस रंग वालों की| तुम ऐसे ही इनके चढ़ाए, ताड़ पे टँगते रहना; यह इतनी ही सिद्द्त से तुम्हें नीचे पटकते रहेंगे| तुम्हारा सब कुछ काबू करेंगे और अंत में तुम्हें बोलेंगे, "पूंछ पाड़ैगा मेरी"| और यह तो था भी उस वर्ग से जिसको फंडी, शूद्र बोलते हैं; इनके असली वर्ण वाले कितने खतरनाक होंगे; अंदाजा लगा पा रहे हो या नहीं?
Wednesday, 30 March 2022
ऐसे संघठनों से प्रोफेशनल मतलब निकालने को बेशक जुड़ना, परन्तु इनको अपना कल्चर-किनशिप-बोली-भाषा कभी गिरवी ना रखना!
कौनसे-कैसे संघठन?: जो खुद को तुम्हारे आगे शालीन-सभ्य-मृदुलभाषी दिखने को व् यह दिखाने को कि वह खुद जातिवाद से कितने दूर हैं; इन बातों हेतु तुम्हारे नाम के आगे से गौत हटाने की कहें व् उसकी जगह नाम के पीछे "जी" लगा के बोलने की कहें; फिर तुम चाहे 5 साल के बच्चे हो या 50 साल के वयस्क| जैसे "विजय जी", "विकास जी"; परन्तु उन्हीं की टॉप लीडरशिप में ना सिर्फ वह एक ही जाति के सब बंदे रखने का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विधान रखते हों अपितु वह अपना गौत भी ज्यों-का-त्यों कायम रखते हों|
ऐसे संघठन सत्ता में हों तो इनसे प्रोफेशनली तो बना के रखो परन्तु अपना कल्चर-किनशिप-बोली-भाषा भूल के भी इनके आगे गिरवी मत रखना| क्योंकि यह चाहते होते हैं कि तुम अपने गौत-नात छोड़ दो परन्तु खुद के नहीं छोड़ेंगे; इसलिए इनकी टॉप-लीडरशिप गौत लगाती भी मिलेगी व् सबसे घोर जातिवादी व् वर्णवादी भी मिलेगी; क्योंकि सारे-के-सारे एक ही वर्ण-जाति के होते हैं टॉप में| हाँ, यदा-कदा 100 में 1 बार झूठा दिखावा करने को किसी दूसरी जाति वाले को ले भी लेंगे टॉप में तो भी दिखावे को|
तुम्हारा क्या जाता है, ऐसे ही चिकना-चुपड़ा "जी" जुबान पे रख के तुम अपने काम निकालते रहो, वो कहावत है ना कि, "जाट, कहे जाटणी से, जै चाहवै राजी रहना; चींटी ले गई हाथी को, हांजी-हांजी कहना" इसकी तर्ज पे इनके साथ दीखते रहो; परन्तु अपने कल्चर-किनशिप-बोली-भाषा को कतई मत छोड़ना|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Saturday, 26 March 2022
सीरी-साझी कौम की आज की सबसे बड़ी विडंबना, जो इसको तोड़ सकेगा, वही आगे राज करेगा!
या तब तक वह राज करेंगे, जिन्होनें यह विडंबना बनाई है|
जो कोई भी पोलिटिकल पार्टी, सोशल मिशन या संगठन, क्रमश: इस वोटबैंक को एक जगह गिरवाने की व् इनकी किनशिप को बचाने की चिंता करता है; उसको यह उलझन सुलझानी होगी| या कम-से-कम से इसके सवालों के जवाब समाज में उतारने होंगे, इसके बगैर राह नहीं आगे| खाली ड्राइंग रूम्स की बैठकें, क्यास, आंकड़े व् पार्टी के बाहर-भीतर के तोड़जोड़ कामयाबी नहीं देने वाले|
आज की यथास्थिति व् इलेक्शन की अगली तारीख के बीच 2 साल हैं; इस बीच निबट सकते हो तो इस विडंबना से निबटो| पब्लिकली नहीं निबटना, नीचे-नीचे निबटना है| आपके पुरखों की "साइकोलॉजिकल वॉर गेम छापामार" नीतियों से इनको निबटाना है| वह छापामार नीतियां जो सर्वखाप ने विजयनगर साम्राज्य से ले गोलकुंडा-हैरदाबाद को ट्रेनिंग दे-दे सिखाई| जिससे आपकी खापें औरंगजेब व् अंग्रेजों से लड़ी| शिवाजी तक ने यह छापामार नीतियां अपनाई|
क्या बला है यह विडंबना?: यह विडंबना फंडी की बनाई ऐसी पिच है जिसपे वह आपको खेलने को बुलाएगा; आप खेले तो समझो आप निश्चित हारे| अपितु इन अगले 2 सालों में इस विडंबना को तोड़ आपको अपनी पिच बनानी होगी| तो क्या है यह पिच व् विडंबना?
फंडी (हर जाति-वर्ण-धर्म में मिलता है; किसी में कम अनुपात में तो किसी में ज्यादा में) का polarisation व् manipulation की पिच तोड़ो /बिगाड़ो तब बात बनेगी (पब्लिकली नहीं, फंडी के ही स्टाइल वाली छुपम-छुपाई से): और वो क्यों बिगाड़ो? क्योंकि फंडी उसकी polarisation व् manipulation की धाती को सीरी-साझी में इस स्तर तक ले जा चुका है कि कल तक इनमें जो छूत-अछूत-ऊंच-नीच-स्वर्ण-शूद्र-वर्णवाद के दंश से पीड़ित जातियां, वर्णवादियों से सीधा लोहा लेने की हुंकार भरती थी; वह इन मुद्दों पर चुप रहने लगी हैं, सहन करने लगी हैं| इसकी वजह फंडियों का फैलाया भय-द्वेष-लालच-दबाव-विघटन सब हैं| आपको यही भय-द्वेष-लालच-दबाव-विघटन क्षत-विक्षत करने होंगे|
दूसरा किसान व् खेत-मजदूर के बीच फंडियों ने कुछ और भी जहर के मटके भर के धर दिए हैं, वह भी फोड़ने होंगे व् दफनाने होंगे| इनके प्रकार व् उनको दफनाने के सारे सूत्र, आपको मिल जायेंगे| परन्तु काम अभी से शुरू करना होगा; अखिलेश यादव की भांति इलेक्शन से 5-6 महीने पहले या इलेक्शन डेट देलकारे होंगे के बाद अखिलेश के साथ आन मिलने वाले OBC नेताओं जितना देरी से नहीं|
साथ ही प्रवासी मजदूर वोटों पर भी सफलता पाई जा सकती है, इसके भी ऐसे अकाट्य सूत्र हैं; जिनको फंडी भी नहीं काट सकता|
मतलब दिन-रात कैडर झोंकना होगा, तब जा के कहीं आसपास पहुंचा जाएगा| फंडियों के घड़े फैलाए narratives काट के अपने narratives देने होंगे; यानि अपनी पिच बनानी होगी|
सत्ता चाहिए तो पहले सीरी-साझी बीच धरे, जहर के मटके फुड़वाइये; फिर ऊंच-नीच के इस अन्याय पर इनमें चर्चा करवाइए; रास्ता खुलता चला जाएगा| यह कर लिया तो वोट हैं वरना कोई तिगड़म, कोई अनुभव, कोई लिगेसी कुछ ही काम आए शायद|
सब नीचे-नीचे करना होगा; पब्लिक में बता-दिखा के कुछ भी नहीं होगा| अब शेर दहाड़ के हिरण मारने चलेगा तो हिरण थोड़े ही हाथ आएगा; इसलिए सब चुपचाप करना होगा|
फंडियों से मत घबराओ, इनकी ताकत बस दो चीजें हैं; एक सामने वाले की अकर्मण्यता यानि चुप्पी व् दूसरा यह ज्ञान का दुरूपयोग करने में सबसे ज्यादा माहिर हैं; परन्तु दुरूपयोग की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह तभी तक चलता है जब तक सदुपयोग साइड धरा है| आप सदुपयोग से चुप्पी तोड़िए; रास्ते खुलते चले जाएंगे|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Friday, 25 March 2022
सुधांशु त्रिवेदी बाबू, "चौधराहट खत्म हुई या लौटने लगी है"?
उद्घोषणा: लेख पढ़ने से पहले पाठक सनद रखें कि चौधर किसी एक जाति की लागू नहीं है, यह खाप व्यवस्था का कांसेप्ट है जो किसी भी जाति के आदमी के पास हो सकती है; परन्तु फंडियों ने षड्यंत्र के तहत इसको एक बिरादरी का सिंबॉलिक बना छोड़ा है|
जयंत चौधरी व् किसान आंदोलन; दोनों का जलवा या उनकी दी भड़क व् खौफ ही कहिये कि पिछली भाजपा की यूपी सरकार वाले जहाँ यह कहते थे कि "चौधरियों की चौधराहट खत्म हो गई" व् एक भी इस बिरादरी से मंत्री नहीं बनाया था; इस बार उसी बिरादरी से 4 मंत्री बनाए हैं| अभी जल्द ही सेण्टर में भी बनाने वाले हैं|
जातिवादी तो मैं नहीं हूँ, परन्तु यह तो देखना ही पड़ेगा कि मुझे कोई "for guaranteed" भी ना ले| इतना जबरदस्त साइकोलॉजिकल करंट दिया है किसान आंदोलन व् जयंत चौधरी के उभार ने फंडियों को कि आगे के पाँच साल कुलमुलाते हुए ही निकलेंगे| बैलट वोट व् अपंग वृद्ध सिटीजन के घर जा के लिए वोटों की धोखाधड़ी से बहुमत लिए हैं, यह इनको भी पता है; इसलिए जीत कर भी वह रौनक गायब है जो अक्सर इनमें होती है|
दूसरा सुखद पहलू यह है कि किसान आंदोलन के सबसे स्ट्रांग-होल्ड्स में बीजेपी का सूपड़ा साफ़ हुआ है; यानि पंजाब व् वेस्ट यूपी के मुज़फ्फरनगर-शामली-मेरठ-बागपत-बड़ौत क्षेत्र की 19 में से 13 सीटें बीजेपी हारी है| तीसरा स्ट्रांग होल्ड हरयाणा था, वहां अभी चुनाव नहीं थे|
सबसे सुखद बात यह है कि पंजाब ने वह साइकोलॉजिकल स्वछंदता पा ली है जो उसको अमेरिका-यूरोप का सिस्टम लागू करने का माहौल व् साहस देती है| बेसक वहां बनी सरकार संदेह के दायरे में है, फंडियों से अंदरखाते संदेह के चलते, परन्तु यह वाले वह बिन दांत वाले सांप हैं; जो अब पंजाब को साइकोलॉजिकली उतना नहीं काट पाएंगे, जितना पंजाब काट चुका| और कोई बात नहीं किसान यूनियनें अबकी बार वहां लड़े एलेक्शंस में ज्यादा सफल नहीं हुई तो, हो जाती अगर MSP ले के उठते तो, बस 15 दिन की जल्दी मचा दी; दिसंबर भी पूरा किसान आंदोलन जमाए रखा होता तो MSP भी मिलता व् वो साख व् क्रेडबिलिटी भी मिलती जो चुनाव जीतने को चाहिए|
इन चुनावों व् किसान आंदोलन के कुछ साइड के फायदे: ना सिर्फ सरदार भगत सिंह दोगुने स्ट्रांग हो के उभरे अपितु उनके चाचा सरदार अजित सिंह व् उनके गुरु सरदार करतार सिंह सराभा की जड़ें और गहराई पा गई| यह जो कुछ बेअकले "जैसे काटड़ा अपने को मारता है, ऐसे इनको मारने पे तुले हैं"; कुछ ना निकाल पाएंगे अपितु अपना दायरा व् साख खुद मिटटी में मिला लेंगे|
सुधांशु त्रिवेदी, हरयाणा में पानीपत के तीसरे युद्ध से एक कहावत चलती आती है कि, "जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया"; (यह कहावत पुणे पेशवा सदाशिवराव भाऊ द्वारा महाराजा सूरजमल का उपहास उड़ाने व् उनको धोखे से बंदी बनाने की कुचेष्टा के बाद जब पानीपत में पेशवाओं की हार हुई तो तब चली थी); इसका संदेश साफ़ है कि, "चौधर जितनी कटती है, उतनी बढ़ती है"| हमेशा एक बात याद रखना, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा दावा; तभी तक है जब तक वह चौधर से ढांक के रखा हो; जिस दिन खुले में आ के बोल दिया, उसी दिन से तुम्हारे जैसे चंदा ज्यूँ गहने शुरू हो जाते हैं| जा, पूछ बीजेपी से कि यह यूपी में 4-4 जाट मिनिस्टर क्यों बना दिए; जबकि तूने तो इनकी चौधराहट खत्म का ऐलान कर दिया था?
अभी क्या अभी तो 13 महीने का किसान आंदोलन व् फरवरी 2016 म्हारी छाती म्ह ए धरे सैं| और न्योंदे उधारे रखने का इतिहास भी नहीं म्हारा| वक्त चाहे कितना ही लगे; परंतु अबकी बार सारी अलसेट मेटते चले हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Thursday, 17 February 2022
यूं ही कैसे भुला दें 19-20-21-22 फरवरी 2016 की शाहकाली थोंपी गई दंगाई रातों को; कोई सनातनी शूद्र थोड़े हैं!
विशेष: इस लेख में सिर्फ कड़वी सच्चाई है, विद्रोह तो हम भगवान के सिवाए किसी का किया ही नहीं करते, क्योंकि हम उस कौम से आते हैं जो अपने खेत बीच खड़ा हो ऊपर वाले से आँखें मिला उसको धमकाने से भी नहीं कतराती| जिसको इस कौम की यह फिलोसॉफी सही-सही समझ आती होगी, वह इस लेख को समझ पाएगा/गी|
Monday, 14 February 2022
शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष!
कृषि-दर्शनशास्त्र, युद्ध-दर्शनशास्त्र व् वैवाहिक-दर्शनशास्त्रों के प्रख्यात हरयाणवी शेक्सपियर, शहीद सूर्यचंद्र कवि "दादा फौजी जाट मैहर सिंह दहिया जी" की जन्मजयंती (15 फरवरी 1918) पर विशेष:
Friday, 11 February 2022
कोक्को व् हाऊ!
चौधरी राकेश टिकैत जी को धन्यवाद जो उन्होंने शुद्ध हरयाणवी भाषा के ऐसे शब्द पुनर्जीवित करने का विगत एक साल से जैसे सिलिसला सा चला रखा हो, जो गैर-हरयाणवी पत्रकार लॉबी व् हरयाणवी को हिंदी का सबसेट समझने की भूल करने वालों को सक्ते में डाल दे रहे हैं| जैसे कि "गोला-लाठी दे देंगे", "बक्क्ल तार देंगे", "भुरड़ फेर देंगे" व् कल बोला "कोक्को ले गई"| कोक्को की केटेगरी का एक शब्द और है "हाऊ"| आइए थोड़ा इन बारे विस्तार से जानते हैं|
"कोक्को" व् "हाऊ" शब्द ऐसे विचार का प्रतिबिम्ब होते हैं जो आसपास की कई चीजों का सामूहिक दर्पण होता है| जो चीजें हम देख सकते होते हैं व् उनका अस्तित्व भी होता है; परन्तु वह डरावनी होती हैं| जैसे कि
"कोक्को": यह ऐसे पक्षियों की केटेगरी का नाम है जो आपके सर पर हमला कर देते हैं, आपकी थाली से रोटी उठा ले जाते हैं| बच्चों की थाली व् हाथ से तो जबरदस्ती उठा के या छीन के ले जाते हैं| जैसे कि कव्वा-कव्वी, चील, काब्बर आदि| काब्बर हालाँकि हमला नहीं करती, परन्तु आपकी थाली के पास मंडराती रहती है व् आपके इधर उधर होते ही या आपकी नजर इधर उधर होते ही चुपके से खा जाती है या उठाने लायक टुकड़ा हो तो ले के उड़ जाती है| और बच्चों के दिमाग में ऐसे पक्षियों के इम्प्रैशन का फायदा बड़े-स्याणे बच्चों से कोई चीज छुपाने को करते हैं व् नाम "कोक्को" का लगा देते हैं ताकि बच्चे को यकीन हो जाये कि वाकई में कोक्को ही ले गई|
हाऊ: कपास के खेतों में, गोदामों में, धतूरे-आक-आकटे के पेड़ों-बोझड़ों के पास छोटी गेंद के आकार का सफेद रंग का बालों का चमकीला झुण्ड सा उड़ता हुआ देखा होगा? किसान व् खेत-मजदूरों के बालकों ने तो अवश्य ही देखा होगा? उसी को हाऊ कहते हैं| इसको सफ़ेद भूतों की केटेगरी में रखा जाता है, क्योंकि इसको छूने पे यह अटपटा सा अहसास देता है; उब्क या उल्टी या ग्लानि सी आने का| हानिकारक नहीं होता परन्तु इसका चिपकना किसी को अच्छा भी नहीं लगता| स्पर्श में अति-मुलायम व् सफ़ेद भूतों जैसा अहसास करवाता है|
यह ज्यादा मशहूर तब हुआ था जब 1761 की पानीपत लड़ाई में आये पुणे के पेशवे भाउओ (भाऊ) से भी हमारी औरतों ने इस हाउ को जोड़ दिया| क्योंकि यह लोग भी यही गलानि व् ग्लीजता का अहसास दिलाते थे; इसीलिए हरयाणवी औरतों ने कहावत शुरू कर दी कि, "गैर-बख्त बाहर मत जाईयो, नहीं तो हाउ यानि भाउ उठा ले जायेंगे"|
यह हरयाणवी भी कमाल की भाषा है, एक शब्द बोल दो; तथाकथित ज्ञानियों को इतने में ही दस्त लग जाते हैं|
बाकी पहले दौर की कल हुई वोटिंग में गठबंधन 40 सीटें (हो सकता है ज्यादा भी जीते) तो आराम से जीत रहा है; बस यह फंडी लोग एडमिनिस्ट्रेटिव मशीनरी का दुरुप्रयोग नहीं करेंगे तो|
जय यौधेय! - फूल मलिक