Wednesday, 11 May 2022

रिपब्लिक आर टीवी वालो, शिवजी भोळा कभी धर्म से बाहर के मसलों में नहीं पड़ता!

पड़ा हो आज तक के इतिहास में तो बताओ? हाँ, वह ब्रह्मा-विष्णुओं के बिगाड़े हालातों को ठीक करने बारे जरूर तांडव करता आया है जब भी किया है| उदाहरणार्थ 2020-21 में 13 महीने चला किसान-आंदोलन|

इसलिए हे रिपब्लिक भारत के अर्णव गोस्वामी, तुम यह जो ताजमहल को तेजा जी से व् तेजा जी को शिवजी से जोड़ के जो काम तथाकथित छतरी व् छतरियों को 21 बार मारने वालों से नहीं करवा के जाटों से करवाना चाहते हो, ऐसा है तुम्हारा यह षड्यंत्र जाटों के बालकों ने सोशल मीडिया पर ही धराशायी कर दिया है| आजकल जो ज्ञान व् अक्ल तुम लगाते हो उसको तो जाटों के बालक ही गेल-की-गेल निबटा दे रहे हैं|
कौन कहता है कि वैचारिक लड़ाईयां असर नहीं छोड़ती? हालाँकि अर्णव गोस्वामी जैसे इसको एक जाति पर ला कर छोड़ने की सोचते हैं; परन्तु हमारे जैसे साथियों ने जो पिछले 7 साल से ऑफिसियल तौर पर यूनियनिस्ट मिशन के जरिए व् उससे पहले 2006 से 2015 तक अनऑफिशियल तरीकों से सोशल मीडिया से ले ग्राउंड पर फंडियों की बुद्धि की औकात व् बिसात जो सर छोटूराम स्टाइल में पकड़ाई है अपने लोगों को; यह उसी का असर है कि अब जाट समाज के बालक ब्रह्मे-विष्णुओं की चालों में नहीं पड़ते| बल्कि असली शिवजी उर्फ़ स्केण्डेनेविया वाले दादा ओडिन जी महाराज की भांति बन के, तीसरी आँख खोल के चीजों का अवलोकन कर चलने लगे हैं|
और इस पर इनको अपनी किनशिप पकड़ाने वाली अगले स्तर की "खाप-खेड़ा-खेत" मुहीम जो चली है वह तो धीरे-धीरे तुम्हें ऐसा घर बैठायेगी कि बस तुम देखने के अलावा शायद ही कुछ कर पाओगे| जो कि एक बहुत ही सुखद बदलाव है जाट समाज में, वह भी सही वक्त व् सही हिसाब से|
अब इस समाज को फॉर-गारंटीड लेना छोड़ के; देश के हित के कामों में ध्यान लगाओ, रिपब्लिक आर टीवी वालो|
उद्घोषणा: लेखक माइथोलॉजी को नहीं मानता; परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं कि माइथोलॉजी नहीं जानता| जब-जब फंडी माइथोलॉजी के हथियार से समाज में उतरेगा, उसको उसी के माकूल तर्क व् जवाब मिलेंगे|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 5 May 2022

शुगरमिल-मैन चौधरी अजित सिंह जी को उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर शत-शत नमन!

आप अपनी राजनैतिक आइडियोलॉजी की विरासतीय रीढ़ "हिन्दू-मुस्लिम" एकता (आपके पिता जी से विरासत में मिली) को तब भी नहीं छोड़े जब मुज़फ्फरनगर 2013 हुआ था व् आपके ही पिता जी को गुरु कहने वाले इस एकता को तोड़ने में दो में से एक पार्टी बन गए थे|

ख़ुशी की बात है कि आपके बेटे चौधरी जयंत सिंह इसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं व् इस आइडियोलॉजी में कितना दम था व् आज भी है यह विगत यूपी चुनाव में आपकी पार्टी को मिले समर्थन ने जाहिर कर दिया, जब आप 0 से ऊठ 8 सीटों पर विजयी रहे व् 22 पर द्वितीय, वह भी 200-500 के मार्जिन से| और "यूपी में चौधरियों की चौधराहट खत्म हो गई" के तंज कसने वालों के मुंह बंद किये|
हम कटिबद्ध हैं आप जैसे अपने पुरखों की इस आइडोलोजिक्ल धरोहर की राजनीति को पोषित करने व् करवाने पर|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday, 4 May 2022

"कॉपीराइट कल्चर-किनशिप" बनाम "उधारा कल्चर-किनशिप"

यह इधर-उधर से आयातित कल्चर-किनशिप के चक्कर में अपनी "कॉपीराइट कल्चर-किनशिप" से मुंह मोड़ना आपको उसी तरह बर्बाद कर देगा, जैसे नेचुरल रिसोर्सेज के मामले में रूस वालों पर यूरोप की निर्भरता| जब तक सब सही चलता है तो सही और जब बिगड़ती है तो ऐसे ही "मुंह-बाएं खड़े लखाओ" ज्युकर नेचुरल गैस के लिए पूर्वी-उत्तरी यूरोप बंध सा गया है| इनका प्लान रूस को बड़ा सबक सिखाने का था, परन्तु नेचुरल रिसोर्सेज की इनकी रूस पर निर्भरता ने सब सिमित कर दिया| यही मामला "नेचुरल कॉपीराइट कल्चर-किनशिप" से निकलता होता है और आपके लिए वह है "खाप-खेड़ा-खेत"| यह जो खुद के साथ-साथ इतने प्रवासियों (विश्व में सबसे ज्यादा प्रवासी रहता है खापलैंड में) को भी पाल पा रहे हो यह किसी अन्तर्यामी, माया या चमत्कार की वजह से नहीं है अपितु आपकी कॉपीराइट कल्चर यानि "खाप-खेड़ा-खेत" से है| उधार के कल्चर्स के रंग-रस भी लो परन्तु अपने कॉपीराइट कल्चर को पहले कस लो|   


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Tuesday, 3 May 2022

आखा तीज!

आंखा तीज एक ऐसा त्योहार था जिसमें मंदिर और बाजार का कोई रोल नहीं था... ना किसी मूर्ती की पूजा ना किसी देवी-देवता की... किसी पंडे का भी कोई रोल नहीं था ... यह सिर्फ किसान का त्योहार था .. किसान का खेत ही अक्षय भण्डार होता है उसी अन्न भण्डार के हमेशा भरे रहने की कामना के लिये यह प्रतीकात्मक त्योहार मनाया जाता था... हार्वेस्टिंग के बाद किसान फुरसत में होते थे.. अपने बच्चों की शादियां भी इसी दिन करते रहे l
मगर किस तरह 'आखा तीज' को अक्षय तृतीया में बदल दिया गया.. आपको पता ही नहीं चला.. इसे कहते हैं कल्चरल अटेक.. सांस्कृतिक आक्रमण... मोठ बाजरे की खिचड़ी और हल कहीं पीछे छूट गये... बाजार ने इसे लक्ष्मी से जोड़ दिया.. चांदी के सिक्के पर लक्ष्मी की फोटो ऊकेर कर... क्योंकि बाजार को हल से कोई फायदा नहीं... पंडों ने इसे महाभारत के अक्षय पात्र से जोड़ दिया... ताकि अप्रत्यक्ष कंट्रोल उनका रहे आपके त्योहार पर l
वो अक्षय पात्र जिसकी कल्पना आप करते हैं..जो हमेशा भरा रहे वो किसान का खेत है... दुनियाँ में कोई भी अक्षय पात्र आज तक बिना पसीना बहाये नहीं भरा रहा.. और ना ही कभी भरा रहेगा... ओलम्पिक से अगर कोई मेडल लाता है तो आप क्रेडिट खिलाड़ी को देंगे या महाभारत को ? फिर किसान अन्न का भण्डार धरती से पैदा कर घर ला रहा है ... मंडियों में लायेगा..देश का पेट भरेगा... इसका क्रेडिट उसे क्यों नहीं दे रहे... उसको अन्न की पैदावार के लिये सम्मान क्यों नहीं... उसके खेत को अक्षय पात्र कहने में क्या दिक्कत है आपको ?
लूट के तरीके बेहद सुक्ष्म हैं...पर बेहद सुनियोजित हैं ...बेहद लुभावनी पेकिंग में पैक हैं l एक काल्पनिक अक्षय पात्र पर नारियल रख कर बाजार और पंडे ने आपको एक फोटू दे दी.. अब अाप सारे दिन उस फोटू को पोस्ट करते रहो/एक दूसरे को फॉरवर्ड करते हो l बाजार आपको आपके खेत की /आपके हल की / आपके घर बणने वाली खिचड़े की फोटू डिजाइन कर के कभी नहीं देगा क्योंकि पंडे का अप्रत्यक्ष कंट्रोल रहे आपके दिमाग पर l आपकी माँ ने आखातीज को आपको जो मोठ बाजरे का खिचड़ा खिलाया है देशी घी में उसकी बराबारी दुनियाँ की कोई अक्षय तृतीया नहीं कर सकती .. उसे उचित सम्मान देणा आपका कर्तव्य है ll
अाप सभी को आखातीज की बहुत बहुत
बधाई
l आपके खेत हमेशा भरे रहे ll
May be an image of sky, grass, tree and nature
Ravinder Singh Dhankhar, Satya Pahal Duhan and 59 others
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Saturday, 30 April 2022

हरयाणे में पूर्ण बहुमत से भाजपा आते ही दंगे-फसाद शुरू, पंजाब में पूर्ण बहुमत से आप आते ही दंगे-फसाद शुरू!

लगता है केजरीवाल के पुरखों की बुद्धि सर छोटूराम के बनाए सूदखोरी के कानूनों ने चटका दी थी व् वह केजरीवाल के बुड्ढे, केजरीवाल को यह दुःख पास करके गए हैं कि पोता बदला जरूर लेना है| और मौका मिलते ही नतीजा सबके सामने है|


थारे पुरखों की सोच व् इनके पुरखों की सोच का फर्क समझोगे तो ही इनको समझ पाओगे|

1 - एक तो इनकी सोच अपनी बिरादरी से बाहर कभी भी सामाजिक हुई ही नहीं ना यह बात इनके कांसेप्ट में| इसको ऐसे भी समझ सकते हो कि जहाँ-कहाँ आप-भाजपा टाइप वालों के पुरखे रहे हैं या हैं, वहां-वहां सीरी-साझी वर्किंग कल्चर नहीं मिलेगा, अपितु सामंती कल्चर मिलेगा| सीरी-साझी वर्किंग कल्चर सिर्फ सर छोटूराम व् उनके पुरखों वाली धरती पर मिलेगा यानि आज़ादी से पहले के यूनाइटेड पंजाब, वेस्ट यूपी व् उत्तरी राजस्थान तक; इस पूरे क्षेत्र को आप मिला के खापलैंड+मिसललैंड बोल सकते हो|

2 - क्योंकि यह बिरादरी के अंदर तो सामाजिक हैं परन्तु इससे बाहर नहीं, इसलिए यह हमेशा बदले की राजनीति के लागू हैं; सार्वभौमिक राजनीति जिस वर्किंग कल्चर यानि सीरी-साझी से निकलती है यह उसके तो सबसे बड़े दुश्मन हैं| जो-जो आगे के हिंदुस्तान में राजनीति में ऊपर उठना चाहता हो वह यह कांसेप्ट अच्छे से समझ ले; खासकर उत्तरी भारत में| आप सबके हित के काम करते हो, उसी का उदाहरण सर छोटूराम की राजनीति में देखने को मिलता है या फिर चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा के 10 साल के सीएम कार्यकाल में, जब हरयाणा में एक आंदोलन तक नहीं होने का रिकॉर्ड है|

3 - केजरीवाल जैसों को वह कल्चर पसंद नहीं जो 1907 के "पगड़ी संभाल जट्टा" किसान आंदोलन के तहत अंग्रेजों से कृषि बिल वापिस करवा लेते हों या 2020-21 में नरेंद्र मोदी से वापिस करवा लेते हों| यह लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी (वह भी इनकी गलती होते हुए) इन बातों को दिल से लगा के चलने वाले लोग हैं, जो बदला लेने की अंधपीड़ा में पीढ़ियों तक जल सकते हैं|

4 - उधर इसी बदला लेने की राजनीति भाजपा वालों को उनके पुरखे पानीपत की तीसरी लड़ाई के वक्त से दे के गए हुए हैं; जब महाराजा सूरजमल की नीति के आगे सारे पुणे के पेशवा धरसायी हुए थे|

हालाँकि, लिखना तो यह बात उसी दिन चाहता था जिस दिन आप, पंजाब में सत्ता में आई थी| फिर लगा अभी लिखूंगा तो बरगलाना व् बड़बड़ाना ज्यादा लगेगा; नतीजा हाथ ले लेने दो तो लिखेंगे|

अब रही बात पटियाला में कल जो हुआ: सिख भाइयों को घबराने की जरूरत नहीं, क्योंकि एक तो पूरी खापलैंड अबकी बार आपके साथ खड़ी है| लेकिन इनको कूटिनीति से मारो पहले; लठनीति तो कभी भी ट्राई कर देना इन पर| एक सर छोटूराम जब इन सब फंडियों की गाँठ बाँध सकता है तो आप भी खून तो वही हो; धर्म अलग है तो क्या हुआ, किनशिप-कल्चर तो आज भी एक है|

बस जरूरत है तो अपनी किनशिप-कल्चर पे सरजोड़ के, फंडियों के बारणे चाहे सोने-चाँदी के बिंदरवाल-झालर लटकते हों तो भी इनसे अपनी बाड़ करके; इनको घेरने के| यह तो यूँ जाएंगे जैसे भेड़ों के सर से सींग|

यह सरजोड़ इसलिए भी जरूर है क्योंकि फंडी को जब-जब इनके विपरीत विचारधारा की सत्ता आती दिखती है तो फंडी ऐसे भय बड़े बना के दिखाता है समाज को, जो वास्तव में होते नहीं परन्तु यह उनका हव्वा बना के लोगों को डरा लेते हैं| 1984 में खालिस्तान संत भिंडरावाला ने कभी नहीं माँगा, अपितु फंडियों के ही खड़े किये हुए एक चौहान ने माँगा व् भुगतना पंजाब को पड़ा| तब यह एक पावर थे, आज दो के रूप में आ चुके हैं, एक भाजपा व् एक आप पार्टी| तो आपको भी दोहरी सतर्कता से चलना होगा|

मुझे आशंका है कि भगवंत मान को साल-दो-साल से ज्यादा सीएम नहीं रखेंगे यह|

मूल राजनीति आइडियोलॉजी पर होती है, बिना आइडियोलॉजी के तो सिर्फ मौकपरस्ती होती है और मौकापरस्ती किसी को ठिकाने नहीं लगने दिया करती|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 25 April 2022

चौधरी राकेश टिकैत वाली बात हो जाए अब तो, "अडानी के साईलों में गौशालाएं खोलने की"!

जब गौशालाओं के लिए धक्के से ही तूड़ी की ट्राली खाली करवाने की बात है तो सारा टंटा ही खत्म; सीधा इन साईलों को ही गौशाला बना दो; एक पंथ दो काज|

लेख का निचोड़: धर्म-दान इच्छा के होते हैं, धक्के के नहीं| क्यों नहीं बोलते यह धर्म पर प्रवचन देने वाले, कथा करने वाले व् धर्मस्थलों पर आगे खड़े-हो-हो चंदे के थाल लेने वाले? यह इनकी ड्यूटी बनती है, अगर यह इस पर चुप हैं तो समझ लो कि फिर त्रिमूर्ति "ब्रह्मा-विष्णु-महेश" के पहले दो सही काम नहीं कर रहे हैं व् आपको तीसरा बन कर तीसरी आँख खोल के इन सबको ठीक करने की जरूरत आन पड़ी हुई है| सारा सामाजिक-धार्मिक सिस्टम बिगाड़ के रख दे रहे हैं, यह फंडी लोग| क्यों चुप हो, रामायण, महाभारत से धर्म-अधर्म की शिक्षा लेने वालो? याद रखो रामायण-महाभारत में धर्म से बाहर के धर्म वालों की वजह से युद्ध नहीं हुए थे; धर्म के भीतर वालों के ही त्राहिमाम मचा देने से युद्ध हुए थे (अगर हुए भी थे तो व् तुम इनको सच मानते हो तो) व् अब वही दौर ला दिया है इन फंडियों ने| यह तुम्हें बाहर से धर्म की रक्षा की पीपनी पकड़ाए हुए हैं जबकि खतरा अंदर से यही खड़ा कर दे रहे हैं, तुम्हारे जीने-मरने का; नहीं?
विवेचना: जब किसान द्वारा बिना कहे ही अपनी श्रद्धा से सबसे ज्यादा व् इतना बड़ा दान दे-दे कर भी अगर गाय को बचाने के लिए इतनी नौबत आ रही है कि धक्के से ट्रॉलियां खाली करवाई जा रही हैं तो इनमें बैठे लोग इस चंदे से क्या 35 बनाम 1 खेल रहे हैं? आखिर लगा कहाँ रहे हैं ये इतने दान को? हिसाब लेना शुरू करो समाज इनसे, वर्ना आज गाय की आड़ ले के तूड़े की ट्राली छीनी हैं, कल को किसी और बहाने से तुम्हारे घरों की बहु-बेटियां नोचेंगे ये लीचड़ लोग; सम्भल लो वक्त रहते|
जब से होश संभाला, हर लामणी सीजन पे मेरे घर से गौशाला में तूड़े की ट्रॉलियां व् अनाज की बोरियां तो फिक्स तौर पर जाती देखता आया हूँ| कई बार तो खुद ट्रेक्टर से ट्राली गौशालाओं में खाली करवा के आया हूँ| बाकी छुटमुट की तो कभी गिनती भी नहीं की| परन्तु यह हिसार-झज्जर में धक्काशाही की खबर सुन के खून उबल रहा है| सुनी है जिले से बाहर तूड़ा नहीं ले जाने पे धारा 144 भी लगाई है? आखिर, इन लोगों ने किसान के कारोबार को समझ क्या लिया है? गाय भी है तो क्या किसान की आमदनी को इतना फॉर-गारंटीड लोगे कि उनकी ट्रॉलियों पर धक्का करोगे? किसान तो पहले से ही अपनी औकात से बाहर जा कर गायों समेत तमाम जानवरों को पाल रहा है, यह बाकी क्या कर रहे हैं? इतनी ही जानवरों को अनाज-चारे की कमी पड़ी है व् धक्के से धर्म सिर्फ किसान से ही पलवाने हैं तो बाकियों के साथ धक्काशाही क्यों नहीं? क्या ऐसे तथाकथित धर्म का ठेका बाकियों का नहीं?
सबसे पहली यह धक्काशाही/सख्ती इस बात पे लागू हो कि हर धार्मिक स्थल की आमदनी सार्वजनिक की जाए व् इसका कहाँ-कितना इस्तेमाल होता है उसका हिसाब दिया जाए व् इसमें से एक फिक्स राशि गौशालाओं के चारा खरीदने के लिए सुनिश्चित की जाए| दिलाओ किसानों को खलिहान-की-खलिहान में तूड़े का मार्किट रेट व् भर लो जितने चाहो उतने गोदाम? यह क्या तरीका हुआ कि उसको एक तो 6 महीने पे आमदनी घर आती है और तुम उसके अपने खर्चे-घर के हालात देखे बिना यूँ धक्के से लूटोगे? क्या उसके बच्चों के ब्याह-भात-पीलिए-पढ़ाई के खर्च तुम भर दे रहे हो? क्या वह अपनी हस्ती-ब्योंत के हिसाब से भी ज्यादा पहले से ही नहीं दान दे रहा है? अब दान के लिए धक्का भी करोगे तो किसान के साथ?
दूसरे नंबर पे पकड़ो, व्यापारियों को; उनके जिम्मे क्यों नहीं लगाते एक-एक गौशाला; अगर तुम्हारे धर्म के ठेकेदारों को मिलने वाले दान को डकारने के बाद भी उनका नहीं भर रहा तो? कॉर्पोरेट वालों का "CSR" का फण्ड मोड़ दो गौशालाओं के लिए? क्या दिक्कत है?
इसके बाद सरकारी कर्मचारियों, प्राइवेट कर्मचारियों पर करो यह धक्काशाही| उनके तो बेसिक सैलरी के अतिरिक्त के सारे एडिशनल बेनिफिट्स का भी आधा ही इन कामों में लगवा लो तो बहुत|
परन्तु यह कैसा धर्म है, कैसा समाज है जिसको खसने के लिए, गालियां देने के लिए तो किसान चाहिए व् दूसरी तरफ उसको मान-सम्मान से अपनी उपज भी नहीं बेचने दी जा रही?
किसान यूनियनों को चाहिए कि इन मसलों बारे कॉर्पोरेट स्ट्रक्चर की भांति, अपनी हर जिला स्तर पर एक-एक सेल बनाएं व् किसानों की ऐसी समस्याओं हेतु फसल-आवक के हर सीजन पर सतर्क रहें| कब तक इस तथाकथित धर्म नाम की चादर व् फंडियों की सरकार को यूँ झेलोगे? इससे भी काम न चले तो सारी गौशालाओं की मैनेजमेंट किसान सीधा अपने हाथ में ले| हर गौशाला के दान-चंदे का हिसाब पब्लिक हो|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 24 April 2022

यहूदी, मुस्लिम, ईसाई व् जाट - इनकी समानताएं!

भक्तों को मुस्लिमों के ही खतना करवाने, एक ईश्वरवाद को मानने, सूदखोरी नहीं करने व् मूर्तिपूजा नहीं करने से दिक्कत है; जबकि चारों ही चीजें मुस्लिम धर्म में आई उसी यहूदी धर्म से हैं, जिनको भक्त अपना आर्दश व् आराध्य मानते हैं| और आज भी यह चारों बातें यहूदी धर्म की बुनियाद हैं| 


इन चारों बातों में से तीन बातें यानि एक ईश्वरवाद, रिश्तेदारी में सूदखोरी नहीं करना व् मूर्तिपूजा नहीं करने की साझी रीत जाट समाज की भी रही हैं व् आज भी हैं| जाट समाज का एकमुश्त सबसे बड़ा माना गया "दादा नगर खेड़ा/दादा भैया/बाबा भूमिया" का कांसेप्ट यही एक ईश्वरवाद व् मूर्ती-पूजा नहीं करने पर आधारित है| तो क्या इस हिसाब से जाट समाज, यहूदी व् मुस्लिमों के बाकी सब भारतीय कॉन्सेप्ट्स से अधिक नजदीक है?


मूर्तिपूजा नहीं करना व् एक ईश्वरवाद, ईसाईयों में भी है व् इन दोनों पहलुओं पर जाट ईसाईयों के भी नजदीक लगता है| 


वेशभूषा के हिसाब से देखो तो: यह चारों ही मर्द व् औरत दोनों के मामले में ऊपर से नीचे तक, जिनसे तन पूरा डंके, ऐसी वेशभूषाओं को तरजीह देते हैं| व्यापार व् फैशन के कपड़े जो कि कमर्शियल कांसेप्ट है; उसको अलग रख के देखा जाए तो चारों की ही ट्रेडिशनल-कल्चरल पहनावे में सभी शरीर के हर अंग ढंकने को तरजीह देते हैं| कहीं भी किसी ड्रेस में पेट-नाभि-पीठ-छाती आधी नंगी या उघड़ी रखने वाली पौशाकें पहनते नहीं देखे जाते| 


कम्युनिटी गैदरिंग के कांसेप्ट भी चारों के आपस में मिलते-जुलते हैं| 


तो एक इंटरनेशनल कल्चर होते हुए, क्यों इन फंडियों के फैलाए हुए गोबर को ढो रहे हो? गोबर, फ़ैल जाए तो उसको साफ़ किया जाता है, ना कि उसको सना जाता है| साफ़ करो इन संकुचित सोच के कॉन्सेप्ट्स को| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Saturday, 23 April 2022

आपकी औरतें किसके व् कैसे लोकगीत गा रही हैं, यह बता देता है कि आपका समाज अग्रणी है, बीच में कहीं है या पिछड़ा हुआ है!

एक जमाना होता था उदारवादी जमींदारों की औरतों के मध्य:

1 - एक छोटूराम आर्य हो गए,
2 - मैं सूं हरफूल जाट जुलाणी आळा, तू कित लुकैगा तैरे लुड़ेकी मारूंगा,
3 - बाज्या हे नगाड़ा म्हारे रणजीत का (पंजाब वाले महाराजा रणजीत सिंह व् भरतपुर वाले महाराजा रणजीत सिंह, दोनों पर होता आया है यह गीत)
4 - 1857 के गदर के कई गीत
5 - दादा शाहमल तोमर के गीत
6 - दादा नगर खेड़ा बड़ा बीर व्
7 - सर्वखाप की कई लड़ाइयों व् यौधेयों"
8 - जकड़ी-कात्यक-फाग्गण-साम्मण
के गीतों की भरमार होती थी| इन गीतों में हमारी औरतों की आध्यात्मिक-कल्चरल-वारफेयर सब इच्छाएं स्थाई तौर पर शांत रहती थी| इनकी भरमार होती थी तो ऋषि दयानन्द जैसे उत्तर भारत में जाने गए सबसे बड़े ब्राह्मण भी अपने ग्रंथों में जाटों को अपने से ऊपर का दर्जा देते हुए "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते थे; वह ब्राह्मण जो, किसी भी अन्य जाति तक के आगे-पीछे "जी" नहीं लगाया, किसी भी लेखनी में; उन्हीं ब्राह्मणों ने जाट को "जाट जी" बोला भी व् लिखा भी|
परन्तु एक जमाना यह है, जब समाज की लुगाइयों की जुबान पर अपने पिछोके व् यौधेयों के गीतों को छोड़ हर फंड-पाखंड-उल्ट-सुलट गीत धरे गए हैं व् रिफ़्ल-रिफ़्ल गाती घूम रही हैं|
इनको अहसास ही नहीं कि तुम्हारे समाज पर 35 बनाम 1 के एजेंडा करने वालों के लिए तुम्हारी जुबान पर कैसे गीत-लोकगीत हैं, यह उनके तुम पर 35 बनाम 1 रचने के सबसे बड़े पैमानों में से एक होता है| और इसमें गाम आळीयों से 2 चंदे अगाऊ शहर वाली कूदती हैं|
मेरे जैसों की तो यही लग्न है कि जिस दिन इन गीतों की दिशा मोड़ के वापिस अपने पिछोके-किनशिप पर ले आए; उस दिन 35 बनाम 1 अपने-आप छंटेगा| और यह तथ्य मन्दबुद्धियों को इतना सहज से समझ भी नहीं आता है| बहुतेरे गोबरचौथ तो यह तक तंज करते हैं कि गीत-संगीत की मंडली बनाने से क्या होगा; जरा देख तो लो झांक के हो क्या रहा है इन्हीं के बूते पे? आकंठ मर्दवाद तक डूबे बैठोगे तो तुमको अहसास भी नहीं होगा कि गेम किस स्तर तक व् किधर तक बिगाड़ा जा रहा है|
इसको वही समझेगा जो खाप-खेड़ा-खेत की सीरी-साझी फिलोसॉफी को पढ़ेगा; क्योंकि यही वो फिलोसॉफी रही जिसने तुमको ब्राह्मणों से "जाट जी" व् "जाट देवता" कुहाया-लिखवाया, वो भी बिना गली-गली भटके, घर बैठी-बैठों ने| ये आज वाली कुहा के दिखा सकती हैं क्या "जाट जी" व् "जाट देवता"? जोणसी में यह जज्बा हो, हम उनको ढूंढ रहे हैं|

ब्राह्मण का बार-बार जिक्र इसलिए किया क्योंकि ब्राह्मण का अप्पर वर्ग सबसे बड़ा मार्केटिंग एक्सपर्ट होता है और अगर वह किसी को "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखता गाता है तो इसके अर्थ होते हैं|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday, 20 April 2022

"सीरी-साझियों" की राजनीति की विरासत व् मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख!

"सीरी-साझी" से "मजगर", "मजगर" से "अजगर", "अजगर से यम" व् अब "यम" से वापिस सीधा "सीरी-साझी" की तरफ आता दीखता "सीरी-साझी राजनीति" का तिलिस्म| यह सब समझाएगी आपको यह पोस्ट, इसलिए जरा इत्मीनान से पढ़िएगा इसको| 

बात वहां से शुरू करते हैं, जहाँ से इस राजनीति ने रूप लेना शुरू किया और राष्ट्रीय व् अंतर्राष्ट्रीय राजनीति तक छाई व् फिर उतार पर गई| इसको आप सीरी-साझियों की आधुनिक युग की राजनीति भी कह सकते हैं, बीसवीं सदी की राजनीति| पॉलिटिक्स की टर्म में इसको "politics of class community" कहते हैं| सीरी-साझियों की यह क्लास इस वक्त एक ऑफिसियल आकार लेना शुरू करी थी| इसका कल्चरल क्लास वाला आकार "सर्वखाप व् मिसल थ्योरी" के जरिए सदियों से चला आ रहा था| 


बात शुरू हुई चाचा सरदार अजित सिंह के 1907 के "पगड़ी-संभाल-जट्टा किसान आंदोलन" से; जिसने तब के यूनाइटेड पंजाब में हिन्दू-मुस्लिम-सिख सब बिरादरी की एकता की वह मिशाल पेश की, कि अंग्रेजों को तीनों काले कृषि कानून वापिस लेने पड़े| हालाँकि यह आंदोलन गैर-राजनैतिक था परन्तु अंग्रेजों को झुका के गया| इस आंदोलन ने यह सीख भी दी कि जिसके साथ आप सबसे ज्यादा लड़ते हैं, आप उसी के साथ सबसे ज्यादा मिलकर भी रह सकते हैं; जैसे कि मुस्लिम व् जट्टों (सिख व् हिन्दू दोनों) के ऐतिहासिक युद्धों का दौर भी है तो इन्हीं का सबसे ज्यादा मिलजुल के रहना भी मिसाल है| फंडियों की आंख की रड़क आज भी यही तथ्य है|  


खैर, 1907 का आंदोलन इस सीरी-साझी राजनीति को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाने के बीज बो चुका था, जिसने आगे चल के सर छोटूराम, सर सिकंदर हयात खान, सर फ़ज़्ले हुसैन, इसी राजनीति के सबसे बड़े दलित चेहरे बाबा मंगोवलिया देने थे व् दिए| अंग्रेजों ने लंदन तक बखूबी नोट भी किए| फिर आज़ादी के बाद यह सीरी-साझी राजनीति सरदार प्रताप सिंह कैरों व् चौधरी चरण सिंह के जरिए 1987 तक बखूबी बुलंद चढ़ी| 


इस बीच फंडियों ने इसको पोलराइज करने को 1987 तक (चौधरी चरण सिंह की मृत्यु का साल) मजगर लिखना-कहना शुरू किया हुआ था| दरअसल यह लोग इसके जरिए "सीरी में से साझी" या कहिए "साझी में से सीरी" को दो फाड़ करने के काम पर लगे हुए थे| सनद रहे यहां अभी तक "सीरी-सझियों की राष्ट्रीय राजनीति" की बात चल रही है| यही दौर मान्यवर कांसीराम जी की दलित-चेतना का चल रहा था| ताऊ देवीलाल, सरदार प्रकाश सिंह बादल व् कांसीराम जी कोशिशें करते रहे, आपसी समझ से एक होने की|  


तब आती है चौधरी चरण सिंह के पीएम रहते वक्त बने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की लड़ाई| ताऊ देवीलाल इसको लागू करना चाहते थे व् उनके हाथों ऐसा होता तो यह "सीरी-साझी राजनीति" देश को नए आयाम दे चुकी होती| परन्तु फंडियों ने बात भांप ली कि अगर ताऊ मंडल कमीशन लागू कर गया तो अभी तो यह उप-प्रधानमंत्री है, जल्द ही प्रधानमंत्री होगा व् न्यूनतम 20 साल बाकी सब राजनीतियां वेंटिलेटर पर होंगी| इसलिए ताऊ द्वारा उनकी वोट-क्लब रैली के जरिए "मंडल-कमीशन लागू होने की" घोषणा से 2 दिन पहले फंडियों ने एक तरफ तो वीपी सिंह से इसको लागू करवा दिया (ताऊ देवीलाल की वजह से फंडियों की हालत "मरता क्या ना करता" वाली थी इस वक्त, इसलिए लागू करवानी पड़ी) व् दूसरी तरफ फंडियों ने 1989 से ही ताऊ देवीलाल व् वीपी सिंह को एक-दूसरे के विरुद्ध पहले से ही भड़का रखा था (यह बात "जियो और जीने दो" की फिलॉसोफी वाले जरूर नोट करें; जो इस तर्क का हवाला दे फंडियों की हरकतों पर ख़ामोशी अख्तियार किए चलते हैं व् कहते होते हैं कि "के बिगड़े स, देख लेंगे"; फंडी तुम्हारा इन्हीं "शून्यकालों" में सबसे ज्यादा 24*7 बिगाड़ने पे लगा रहता है और तुम "के बिगड़े से" पकडे बैठे ही रह जाते हो); तो मसला इतना बढ़ा कि जो ताऊ इसको लागू करने चले थे वही इसके विरोध में आ खड़े हुए| सर छोटूराम की ताऊ देवीलाल को कही वह बात सच साबित हुई कि, "तुम भीड़ जुटा के सत्ता तो ले लोगे, परन्तु चला नहीं पाओगे"| 


इसका असर यह हुआ कि 1987 के बाद से फंडी मीडिया जिस "सीरी-साझी" को पहले "मजगर" व् फिर "अजगर" तक सिकोड़ने पर लगा हुआ था; उसको अब मुलायम सिंह यादव घोषित तौर पर सिर्फ "यम" पर ले आए| अभी तक मीडिया ने सिकोड़ा था इसको, परन्तु नेता जी ने ऑफिसियल तौर पर सिकोड़ दिया| निसंदेह नेता जी में इस "सीरी-साझी राजनैतिक विरासत" की थोड़ी भी समझ रही होती तो वह इसको वापिस "अजगर" से "मजगर" व् "मजगर" से "सीरी-साझी" तक ले जाने की सोचते परन्तु वह इसको उससे भी छोटे दायरे में ले गए| जिसको कि नेता जी ने लगभग एक दशक तक भुनाया| यानि "सीरी-साझी" से "मजगर", फिर "अजगर" व् अंतत: यम यानि चौथे छोटे स्तर तक सिकुड़ गई, खासकर यूपी में| यह सिकुड़ी सोच इनको आगे चल के मूल-समेत खाने वाली थी| पढ़ते जाईये|   


यही वह दौर था जब "सीरी-साझी" राजनीति राष्ट्रीय पट्टल से उतर राज्य स्तरों पर बिखर गई थी| इसके धड़ों की आपसी खींचतान चलती गई व् यह आपस में एक-दूसरे को हराने पर केंद्रित हो कर रह गए व् इससे फंडी को वह "उसाण" आया जो कि फंडी सर छोटूराम के जमाने से 1991 तक सिर्फ ढूंढता ही रहा था| हालाँकि इस दौर में भी जो इंसान उत्तर-प्रदेश में "सीरी-साझी राजनीति" का दामन थामे रहा वह थे चौधरी अजित सिंह| क्योंकि पोस्ट शीर्षक से ही रालोद पर केंद्रित है तो अभी यूपी पर ही बात की जाएगी| 


यह वह दौर भी था जब इस राजनीति की रीढ़ यानि इसका अराजनैतिक व् कल्चरल प्रेशर ग्रुप "सर्वखाप" में भी काफी खाप चौधरियों में राजनीति करने के सुर उठे या कहिए एक षड्यंत्र के तहत उठवाए गए| आरएसएस इनके अराजनैतिक गुण से सीख के बनी व् यह इसी गुण की पटरी से डिरेल होने लगे| 


और इन संकुचित सोचों की प्रकाष्ठा तब हुई जब अगस्त-2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे हुए| समझ नहीं आई कि 'यम' ही सही परन्तु यह 'यम' भी तो "सीरी-साझी राजनीति" की विरासत से ही निकली थी, उसके नेताओं की सरकार होते हुए यह उनको ही मूल से खत्म कर देने वाला दंगा, उन्होंने होने कैसे दिया? क्या यह फंडियों ने बहका लिए थे कि तुम मुस्लिम (SP) ले लो और हम जाट (BJP) ले लेंगे? आग तो फंडियों की लगाई हुई थी, परन्तु काफी समय से "यम" के दम में प्रधानमंत्री बनने तक की ख्वाइश लिए चलते आ रहे मुलायम सिंह यादव व् अखिलेश यादव क्या प्रधानमंत्री बनने के लालच में आ गए थे व् उस तक पहुँचने का इतना संकुचित परन्तु असम्भव रास्ता ही देख पाए होंगे? और यह इसका दूसरा पार्ट नहीं देख पाए; जहाँ फंडी घोर तैयारियों में लगा पड़ा था? वो तैयारियां कि 2013 के डिरेल हुए 2014, 2017, 2022 में सत्ता से दूर ही रह गए?  


खैर, इसके बाद क्या-क्या कैसे-कैसे हुआ उसके आप सब साक्षी हैं| मैं सीधा आता हूँ उस आस की लहर व् बहार पर जो 1907 की भांति 2020 में फिर सरदार अजित सिंह जी के पंजाब से उठी व् किसान-आंदोलन के रूप में दिल्ली का घेरा पड़ गया| जो कि 13 महीने चला, पूरा विश्व उसका साक्षी हुआ| इस "सीरी-साझी" विरासत वालों ने इंडिया ही नहीं अपितु विश्व को शांतिपूर्ण व् कूटनैतिक आंदोलन करना सीखा दिया|   


माइथोलॉजी के जानकारों ने तो इसको "ब्रह्मा-विष्णु" की रचनाओं व् पालनहारी नीतियों के कुरीति बनने के चलते बिगड़े हालातों पर किसान द्वारा "शिवजी" की भांति तीसरी आँख खोलना बता दिया| 


अब बात करते हैं इस लेख के शीर्षक के दूसरे हिस्से "मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख" की:


जब से मार्च 2022 के पांच राज्यों के चुनाव हुए हैं एक नया पैटर्न देखने में आ रहा है, साम्रदायिक व् टार्गेटेड दंगों में बढ़ोतरी| व् इस बढ़ोतरी पर मुस्लिम, यादव व् जाट की एप्रोच नोट कर रहे हैं| सपा, रालोद व् इनके एमएलए इस वक्त पर उनके लिए क्या कर रहे हैं यह सब मुस्लिम समाज बारीकी से नोट कर रहा है| और पाया गया है कि जयंत चौधरी व् रालोद तो काफी हद तक एक्टिव हैं परन्तु सपा व् अखिलेश पूर्णत: खामोश हैं| 


मुस्लिम यह भी देख रहा है कि जाट, जिसके विरोध में है वह फिर सभी राज्यों में अमूमन समान रूप से ही उसके विरोध में है, जैसे कि बीजेपी-आरएसएस| जबकि उनकी ऑब्जरवेशन कहती है कि यादव, हरयाणा में बीजेपी की गोद में बैठा है व् दंगों पर तो हरयाणा व् यूपी दोनों ही जगह खामोश है| 


मुस्लिम इस वैचारिक व् पोलिटिकल स्थाईत्व को पकड़ रहा है| जयंत चौधरी जी की कल की आजम खान जी के घर की मुलाकात इसी तथ्य का परिणाम है कि यह खूंटा चौधरी चरण सिंह, चौधरी छोटूराम व् सरदार अजित सिंह के विचारों में जा के ही मजबूत होता है| परन्तु रालोद को अब यह मुलाकात धरातल पर साम्प्रदायिक दंगे ना भड़कें, इस ओर उतारनी होगी| गाम-जिला ही नहीं अपितु बूथ लेवल पर "सीरी-साझी भाईचारा" टीमें गठित करनी होंगी| 


उधर से अबकी बार जयंत चौधरी, फंडी मीडिया की उस शरारत को भी निबटाना चाहते से प्रतीत हो रहे हैं जिसके तहत फंडी मीडिया ने दलित व् ओबीसी को "सीरी-साझी पॉलिटिक्स" से छीना था| यानि चंद्रशेखर रावण जी को साथ ले के चल रहे हैं| लेखक की निजी जानकारी के अनुसार जयंत जी, रावण जी को साथ ले के चलना तो हाल में हुए यूपी चुनाव में भी चाहते थे, परन्तु गठबंधन के चलते ऐसा नहीं कर पाए; अन्यथा वेस्ट यूपी के राजनैतिक नतीजे कम से कम जरूर और ज्यादा बेहतर होते| 


साथ ही जयंत जी ओबीसी में भी अपनी विरासत को खड़ा करने पर लगे हैं| देखते हैं उनका वेस्ट-यूपी में जहाँ यह टूट के सिर्फ "यम" पर आ गई थी वहां इस "सीरी-साझी" विरासत को कितना जल्दी वापिस खड़ा कर पाते हैं| लहर, माहौल, विश्वास व् प्रेरणा "किसान आंदोलन" दे ही चुका है| 


एक ऐसा ही विस्तारित लेख, हरयाणा बारे लिखूंगा कि अब हरयाणा में इस "सीरी-साझी राजनीति" विरासत को कौन सही से पकड़ रहा है व् कितना मजबूती से इसको लड़ा जा सकता है| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Monday, 18 April 2022

मुझे लगता है कश्मीर-फाइल्स फिल्म ने पंडितों की हस्ती को छोटा कर दिया है!

मैदान छोड़ कर भाग खड़ा होने पर "कश्मीर फाइल्स" बनाने की बजाए, वहां अपना 21 बार क्षत्रियों को मारने वाला रिकॉर्ड फिर से दोहरा कर उस पर फिल्म बनाते तो हम भी मानते कि जो इतिहास में क्षत्रियों को मारने के दावे हैं वह वाकई में सच हैं| और नहीं तो वहां लड़ते-लड़ते जान दे देते परन्तु भागते नहीं तो भी मान लेते| ऐसी हरकतों से समाज को संदेश जाता है कि तथाकथित इतिहास के नाम पर जो-जो फैलाए हो, वह हकीकत छूते ही कितना खोखला है| कम-से-कम यह फिल्म ना दिखा के अपनी झूठी इज्जत ही ढंकी रख लेते| 


इस प्रदर्शन से बाकी तो पता नहीं, परन्तु खापलैंड वाली किसान-मजदूर कौमें तो शायद ही प्रभावित होवें| और इनमें भी खासकर जाट कौम में तो इस फिल्म ने इस समाज की महानता को छोटा और कर दिया है| क्योंकि इनसे ज्यादा तो जाट अड़ जाते हैं तो या तो जीत ले के उठते हैं या दुश्मन को उल्टा मोड़ के या लड़ते-लड़ते मरना पसंद करते हैं; फिर चाहे क्या तप 1669 का औरंगजेब से किसान आंदोलन रहा हो, क्या 1857 की किसान-क्रांति रही हो, क्या 1907 का "पगड़ी संभाल जट्टा" आंदोलन की जीत रही हो व् क्या 2020-21 का किसान आंदोलन की जीत रही हो; परन्तु मैदान छोड़ के भागना वह भी 21 बार क्षत्रियों को मारने के दावों का इतिहास होते हुए; हजम नहीं हुई यह बात| 


निःसन्देश जैनी मोदी-शाह; पंडितों पर ऐसी फिल्म बनवाये हैं व् जैनी, इस फिल्म के जरिए पंडितों का प्रभाव कम करने में कामयाब हुए हैं| क्योंकि जब इस फिल्म का खुमार उतरेगा तो लोगों के दिमाग में सवाल बचेगा कि 21 बार क्षत्रियों को धरती से मिटाने वालों के वंशज कश्मीर से भाग खड़े हुए, वह भी बिना लड़े ही? एक समझदार पंडित पीएम कभी यह गलती नहीं करवाता; ना पीवी नरसिम्हाराव पीएम ने उसके काल में करी ना अटलबिहारी ने करी और ना ही पंडित चलित मनमोहन सरकार ने करी| मैं इस फिल्म को जैनियों का सनातनियों की साइकोलॉजिकल रेपुटेशन डाउन करने का षड्यंत्र मानता हूँ; जिसमें चुपके से जैनी कामयाब हुए हैं|  


जय यौधेय! - फूल मलिक