पड़ा हो आज तक के इतिहास में तो बताओ? हाँ, वह ब्रह्मा-विष्णुओं के बिगाड़े हालातों को ठीक करने बारे जरूर तांडव करता आया है जब भी किया है| उदाहरणार्थ 2020-21 में 13 महीने चला किसान-आंदोलन|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Wednesday, 11 May 2022
रिपब्लिक आर टीवी वालो, शिवजी भोळा कभी धर्म से बाहर के मसलों में नहीं पड़ता!
Thursday, 5 May 2022
शुगरमिल-मैन चौधरी अजित सिंह जी को उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर शत-शत नमन!
आप अपनी राजनैतिक आइडियोलॉजी की विरासतीय रीढ़ "हिन्दू-मुस्लिम" एकता (आपके पिता जी से विरासत में मिली) को तब भी नहीं छोड़े जब मुज़फ्फरनगर 2013 हुआ था व् आपके ही पिता जी को गुरु कहने वाले इस एकता को तोड़ने में दो में से एक पार्टी बन गए थे|
Wednesday, 4 May 2022
"कॉपीराइट कल्चर-किनशिप" बनाम "उधारा कल्चर-किनशिप"
यह इधर-उधर से आयातित कल्चर-किनशिप के चक्कर में अपनी "कॉपीराइट कल्चर-किनशिप" से मुंह मोड़ना आपको उसी तरह बर्बाद कर देगा, जैसे नेचुरल रिसोर्सेज के मामले में रूस वालों पर यूरोप की निर्भरता| जब तक सब सही चलता है तो सही और जब बिगड़ती है तो ऐसे ही "मुंह-बाएं खड़े लखाओ" ज्युकर नेचुरल गैस के लिए पूर्वी-उत्तरी यूरोप बंध सा गया है| इनका प्लान रूस को बड़ा सबक सिखाने का था, परन्तु नेचुरल रिसोर्सेज की इनकी रूस पर निर्भरता ने सब सिमित कर दिया| यही मामला "नेचुरल कॉपीराइट कल्चर-किनशिप" से निकलता होता है और आपके लिए वह है "खाप-खेड़ा-खेत"| यह जो खुद के साथ-साथ इतने प्रवासियों (विश्व में सबसे ज्यादा प्रवासी रहता है खापलैंड में) को भी पाल पा रहे हो यह किसी अन्तर्यामी, माया या चमत्कार की वजह से नहीं है अपितु आपकी कॉपीराइट कल्चर यानि "खाप-खेड़ा-खेत" से है| उधार के कल्चर्स के रंग-रस भी लो परन्तु अपने कॉपीराइट कल्चर को पहले कस लो|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Tuesday, 3 May 2022
आखा तीज!
Saturday, 30 April 2022
हरयाणे में पूर्ण बहुमत से भाजपा आते ही दंगे-फसाद शुरू, पंजाब में पूर्ण बहुमत से आप आते ही दंगे-फसाद शुरू!
लगता है केजरीवाल के पुरखों की बुद्धि सर छोटूराम के बनाए सूदखोरी के कानूनों ने चटका दी थी व् वह केजरीवाल के बुड्ढे, केजरीवाल को यह दुःख पास करके गए हैं कि पोता बदला जरूर लेना है| और मौका मिलते ही नतीजा सबके सामने है|
Monday, 25 April 2022
चौधरी राकेश टिकैत वाली बात हो जाए अब तो, "अडानी के साईलों में गौशालाएं खोलने की"!
जब गौशालाओं के लिए धक्के से ही तूड़ी की ट्राली खाली करवाने की बात है तो सारा टंटा ही खत्म; सीधा इन साईलों को ही गौशाला बना दो; एक पंथ दो काज|
Sunday, 24 April 2022
यहूदी, मुस्लिम, ईसाई व् जाट - इनकी समानताएं!
भक्तों को मुस्लिमों के ही खतना करवाने, एक ईश्वरवाद को मानने, सूदखोरी नहीं करने व् मूर्तिपूजा नहीं करने से दिक्कत है; जबकि चारों ही चीजें मुस्लिम धर्म में आई उसी यहूदी धर्म से हैं, जिनको भक्त अपना आर्दश व् आराध्य मानते हैं| और आज भी यह चारों बातें यहूदी धर्म की बुनियाद हैं|
इन चारों बातों में से तीन बातें यानि एक ईश्वरवाद, रिश्तेदारी में सूदखोरी नहीं करना व् मूर्तिपूजा नहीं करने की साझी रीत जाट समाज की भी रही हैं व् आज भी हैं| जाट समाज का एकमुश्त सबसे बड़ा माना गया "दादा नगर खेड़ा/दादा भैया/बाबा भूमिया" का कांसेप्ट यही एक ईश्वरवाद व् मूर्ती-पूजा नहीं करने पर आधारित है| तो क्या इस हिसाब से जाट समाज, यहूदी व् मुस्लिमों के बाकी सब भारतीय कॉन्सेप्ट्स से अधिक नजदीक है?
मूर्तिपूजा नहीं करना व् एक ईश्वरवाद, ईसाईयों में भी है व् इन दोनों पहलुओं पर जाट ईसाईयों के भी नजदीक लगता है|
वेशभूषा के हिसाब से देखो तो: यह चारों ही मर्द व् औरत दोनों के मामले में ऊपर से नीचे तक, जिनसे तन पूरा डंके, ऐसी वेशभूषाओं को तरजीह देते हैं| व्यापार व् फैशन के कपड़े जो कि कमर्शियल कांसेप्ट है; उसको अलग रख के देखा जाए तो चारों की ही ट्रेडिशनल-कल्चरल पहनावे में सभी शरीर के हर अंग ढंकने को तरजीह देते हैं| कहीं भी किसी ड्रेस में पेट-नाभि-पीठ-छाती आधी नंगी या उघड़ी रखने वाली पौशाकें पहनते नहीं देखे जाते|
कम्युनिटी गैदरिंग के कांसेप्ट भी चारों के आपस में मिलते-जुलते हैं|
तो एक इंटरनेशनल कल्चर होते हुए, क्यों इन फंडियों के फैलाए हुए गोबर को ढो रहे हो? गोबर, फ़ैल जाए तो उसको साफ़ किया जाता है, ना कि उसको सना जाता है| साफ़ करो इन संकुचित सोच के कॉन्सेप्ट्स को|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Saturday, 23 April 2022
आपकी औरतें किसके व् कैसे लोकगीत गा रही हैं, यह बता देता है कि आपका समाज अग्रणी है, बीच में कहीं है या पिछड़ा हुआ है!
एक जमाना होता था उदारवादी जमींदारों की औरतों के मध्य:
Wednesday, 20 April 2022
"सीरी-साझियों" की राजनीति की विरासत व् मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख!
"सीरी-साझी" से "मजगर", "मजगर" से "अजगर", "अजगर से यम" व् अब "यम" से वापिस सीधा "सीरी-साझी" की तरफ आता दीखता "सीरी-साझी राजनीति" का तिलिस्म| यह सब समझाएगी आपको यह पोस्ट, इसलिए जरा इत्मीनान से पढ़िएगा इसको|
बात वहां से शुरू करते हैं, जहाँ से इस राजनीति ने रूप लेना शुरू किया और राष्ट्रीय व् अंतर्राष्ट्रीय राजनीति तक छाई व् फिर उतार पर गई| इसको आप सीरी-साझियों की आधुनिक युग की राजनीति भी कह सकते हैं, बीसवीं सदी की राजनीति| पॉलिटिक्स की टर्म में इसको "politics of class community" कहते हैं| सीरी-साझियों की यह क्लास इस वक्त एक ऑफिसियल आकार लेना शुरू करी थी| इसका कल्चरल क्लास वाला आकार "सर्वखाप व् मिसल थ्योरी" के जरिए सदियों से चला आ रहा था|
बात शुरू हुई चाचा सरदार अजित सिंह के 1907 के "पगड़ी-संभाल-जट्टा किसान आंदोलन" से; जिसने तब के यूनाइटेड पंजाब में हिन्दू-मुस्लिम-सिख सब बिरादरी की एकता की वह मिशाल पेश की, कि अंग्रेजों को तीनों काले कृषि कानून वापिस लेने पड़े| हालाँकि यह आंदोलन गैर-राजनैतिक था परन्तु अंग्रेजों को झुका के गया| इस आंदोलन ने यह सीख भी दी कि जिसके साथ आप सबसे ज्यादा लड़ते हैं, आप उसी के साथ सबसे ज्यादा मिलकर भी रह सकते हैं; जैसे कि मुस्लिम व् जट्टों (सिख व् हिन्दू दोनों) के ऐतिहासिक युद्धों का दौर भी है तो इन्हीं का सबसे ज्यादा मिलजुल के रहना भी मिसाल है| फंडियों की आंख की रड़क आज भी यही तथ्य है|
खैर, 1907 का आंदोलन इस सीरी-साझी राजनीति को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाने के बीज बो चुका था, जिसने आगे चल के सर छोटूराम, सर सिकंदर हयात खान, सर फ़ज़्ले हुसैन, इसी राजनीति के सबसे बड़े दलित चेहरे बाबा मंगोवलिया देने थे व् दिए| अंग्रेजों ने लंदन तक बखूबी नोट भी किए| फिर आज़ादी के बाद यह सीरी-साझी राजनीति सरदार प्रताप सिंह कैरों व् चौधरी चरण सिंह के जरिए 1987 तक बखूबी बुलंद चढ़ी|
इस बीच फंडियों ने इसको पोलराइज करने को 1987 तक (चौधरी चरण सिंह की मृत्यु का साल) मजगर लिखना-कहना शुरू किया हुआ था| दरअसल यह लोग इसके जरिए "सीरी में से साझी" या कहिए "साझी में से सीरी" को दो फाड़ करने के काम पर लगे हुए थे| सनद रहे यहां अभी तक "सीरी-सझियों की राष्ट्रीय राजनीति" की बात चल रही है| यही दौर मान्यवर कांसीराम जी की दलित-चेतना का चल रहा था| ताऊ देवीलाल, सरदार प्रकाश सिंह बादल व् कांसीराम जी कोशिशें करते रहे, आपसी समझ से एक होने की|
तब आती है चौधरी चरण सिंह के पीएम रहते वक्त बने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की लड़ाई| ताऊ देवीलाल इसको लागू करना चाहते थे व् उनके हाथों ऐसा होता तो यह "सीरी-साझी राजनीति" देश को नए आयाम दे चुकी होती| परन्तु फंडियों ने बात भांप ली कि अगर ताऊ मंडल कमीशन लागू कर गया तो अभी तो यह उप-प्रधानमंत्री है, जल्द ही प्रधानमंत्री होगा व् न्यूनतम 20 साल बाकी सब राजनीतियां वेंटिलेटर पर होंगी| इसलिए ताऊ द्वारा उनकी वोट-क्लब रैली के जरिए "मंडल-कमीशन लागू होने की" घोषणा से 2 दिन पहले फंडियों ने एक तरफ तो वीपी सिंह से इसको लागू करवा दिया (ताऊ देवीलाल की वजह से फंडियों की हालत "मरता क्या ना करता" वाली थी इस वक्त, इसलिए लागू करवानी पड़ी) व् दूसरी तरफ फंडियों ने 1989 से ही ताऊ देवीलाल व् वीपी सिंह को एक-दूसरे के विरुद्ध पहले से ही भड़का रखा था (यह बात "जियो और जीने दो" की फिलॉसोफी वाले जरूर नोट करें; जो इस तर्क का हवाला दे फंडियों की हरकतों पर ख़ामोशी अख्तियार किए चलते हैं व् कहते होते हैं कि "के बिगड़े स, देख लेंगे"; फंडी तुम्हारा इन्हीं "शून्यकालों" में सबसे ज्यादा 24*7 बिगाड़ने पे लगा रहता है और तुम "के बिगड़े से" पकडे बैठे ही रह जाते हो); तो मसला इतना बढ़ा कि जो ताऊ इसको लागू करने चले थे वही इसके विरोध में आ खड़े हुए| सर छोटूराम की ताऊ देवीलाल को कही वह बात सच साबित हुई कि, "तुम भीड़ जुटा के सत्ता तो ले लोगे, परन्तु चला नहीं पाओगे"|
इसका असर यह हुआ कि 1987 के बाद से फंडी मीडिया जिस "सीरी-साझी" को पहले "मजगर" व् फिर "अजगर" तक सिकोड़ने पर लगा हुआ था; उसको अब मुलायम सिंह यादव घोषित तौर पर सिर्फ "यम" पर ले आए| अभी तक मीडिया ने सिकोड़ा था इसको, परन्तु नेता जी ने ऑफिसियल तौर पर सिकोड़ दिया| निसंदेह नेता जी में इस "सीरी-साझी राजनैतिक विरासत" की थोड़ी भी समझ रही होती तो वह इसको वापिस "अजगर" से "मजगर" व् "मजगर" से "सीरी-साझी" तक ले जाने की सोचते परन्तु वह इसको उससे भी छोटे दायरे में ले गए| जिसको कि नेता जी ने लगभग एक दशक तक भुनाया| यानि "सीरी-साझी" से "मजगर", फिर "अजगर" व् अंतत: यम यानि चौथे छोटे स्तर तक सिकुड़ गई, खासकर यूपी में| यह सिकुड़ी सोच इनको आगे चल के मूल-समेत खाने वाली थी| पढ़ते जाईये|
यही वह दौर था जब "सीरी-साझी" राजनीति राष्ट्रीय पट्टल से उतर राज्य स्तरों पर बिखर गई थी| इसके धड़ों की आपसी खींचतान चलती गई व् यह आपस में एक-दूसरे को हराने पर केंद्रित हो कर रह गए व् इससे फंडी को वह "उसाण" आया जो कि फंडी सर छोटूराम के जमाने से 1991 तक सिर्फ ढूंढता ही रहा था| हालाँकि इस दौर में भी जो इंसान उत्तर-प्रदेश में "सीरी-साझी राजनीति" का दामन थामे रहा वह थे चौधरी अजित सिंह| क्योंकि पोस्ट शीर्षक से ही रालोद पर केंद्रित है तो अभी यूपी पर ही बात की जाएगी|
यह वह दौर भी था जब इस राजनीति की रीढ़ यानि इसका अराजनैतिक व् कल्चरल प्रेशर ग्रुप "सर्वखाप" में भी काफी खाप चौधरियों में राजनीति करने के सुर उठे या कहिए एक षड्यंत्र के तहत उठवाए गए| आरएसएस इनके अराजनैतिक गुण से सीख के बनी व् यह इसी गुण की पटरी से डिरेल होने लगे|
और इन संकुचित सोचों की प्रकाष्ठा तब हुई जब अगस्त-2013 के मुज़फ्फरनगर दंगे हुए| समझ नहीं आई कि 'यम' ही सही परन्तु यह 'यम' भी तो "सीरी-साझी राजनीति" की विरासत से ही निकली थी, उसके नेताओं की सरकार होते हुए यह उनको ही मूल से खत्म कर देने वाला दंगा, उन्होंने होने कैसे दिया? क्या यह फंडियों ने बहका लिए थे कि तुम मुस्लिम (SP) ले लो और हम जाट (BJP) ले लेंगे? आग तो फंडियों की लगाई हुई थी, परन्तु काफी समय से "यम" के दम में प्रधानमंत्री बनने तक की ख्वाइश लिए चलते आ रहे मुलायम सिंह यादव व् अखिलेश यादव क्या प्रधानमंत्री बनने के लालच में आ गए थे व् उस तक पहुँचने का इतना संकुचित परन्तु असम्भव रास्ता ही देख पाए होंगे? और यह इसका दूसरा पार्ट नहीं देख पाए; जहाँ फंडी घोर तैयारियों में लगा पड़ा था? वो तैयारियां कि 2013 के डिरेल हुए 2014, 2017, 2022 में सत्ता से दूर ही रह गए?
खैर, इसके बाद क्या-क्या कैसे-कैसे हुआ उसके आप सब साक्षी हैं| मैं सीधा आता हूँ उस आस की लहर व् बहार पर जो 1907 की भांति 2020 में फिर सरदार अजित सिंह जी के पंजाब से उठी व् किसान-आंदोलन के रूप में दिल्ली का घेरा पड़ गया| जो कि 13 महीने चला, पूरा विश्व उसका साक्षी हुआ| इस "सीरी-साझी" विरासत वालों ने इंडिया ही नहीं अपितु विश्व को शांतिपूर्ण व् कूटनैतिक आंदोलन करना सीखा दिया|
माइथोलॉजी के जानकारों ने तो इसको "ब्रह्मा-विष्णु" की रचनाओं व् पालनहारी नीतियों के कुरीति बनने के चलते बिगड़े हालातों पर किसान द्वारा "शिवजी" की भांति तीसरी आँख खोलना बता दिया|
अब बात करते हैं इस लेख के शीर्षक के दूसरे हिस्से "मुस्लिमों पर हो रहे साम्रदायिक दंगों के मध्य जयंत चौधरी व् उनकी रालोद का रूख" की:
जब से मार्च 2022 के पांच राज्यों के चुनाव हुए हैं एक नया पैटर्न देखने में आ रहा है, साम्रदायिक व् टार्गेटेड दंगों में बढ़ोतरी| व् इस बढ़ोतरी पर मुस्लिम, यादव व् जाट की एप्रोच नोट कर रहे हैं| सपा, रालोद व् इनके एमएलए इस वक्त पर उनके लिए क्या कर रहे हैं यह सब मुस्लिम समाज बारीकी से नोट कर रहा है| और पाया गया है कि जयंत चौधरी व् रालोद तो काफी हद तक एक्टिव हैं परन्तु सपा व् अखिलेश पूर्णत: खामोश हैं|
मुस्लिम यह भी देख रहा है कि जाट, जिसके विरोध में है वह फिर सभी राज्यों में अमूमन समान रूप से ही उसके विरोध में है, जैसे कि बीजेपी-आरएसएस| जबकि उनकी ऑब्जरवेशन कहती है कि यादव, हरयाणा में बीजेपी की गोद में बैठा है व् दंगों पर तो हरयाणा व् यूपी दोनों ही जगह खामोश है|
मुस्लिम इस वैचारिक व् पोलिटिकल स्थाईत्व को पकड़ रहा है| जयंत चौधरी जी की कल की आजम खान जी के घर की मुलाकात इसी तथ्य का परिणाम है कि यह खूंटा चौधरी चरण सिंह, चौधरी छोटूराम व् सरदार अजित सिंह के विचारों में जा के ही मजबूत होता है| परन्तु रालोद को अब यह मुलाकात धरातल पर साम्प्रदायिक दंगे ना भड़कें, इस ओर उतारनी होगी| गाम-जिला ही नहीं अपितु बूथ लेवल पर "सीरी-साझी भाईचारा" टीमें गठित करनी होंगी|
उधर से अबकी बार जयंत चौधरी, फंडी मीडिया की उस शरारत को भी निबटाना चाहते से प्रतीत हो रहे हैं जिसके तहत फंडी मीडिया ने दलित व् ओबीसी को "सीरी-साझी पॉलिटिक्स" से छीना था| यानि चंद्रशेखर रावण जी को साथ ले के चल रहे हैं| लेखक की निजी जानकारी के अनुसार जयंत जी, रावण जी को साथ ले के चलना तो हाल में हुए यूपी चुनाव में भी चाहते थे, परन्तु गठबंधन के चलते ऐसा नहीं कर पाए; अन्यथा वेस्ट यूपी के राजनैतिक नतीजे कम से कम जरूर और ज्यादा बेहतर होते|
साथ ही जयंत जी ओबीसी में भी अपनी विरासत को खड़ा करने पर लगे हैं| देखते हैं उनका वेस्ट-यूपी में जहाँ यह टूट के सिर्फ "यम" पर आ गई थी वहां इस "सीरी-साझी" विरासत को कितना जल्दी वापिस खड़ा कर पाते हैं| लहर, माहौल, विश्वास व् प्रेरणा "किसान आंदोलन" दे ही चुका है|
एक ऐसा ही विस्तारित लेख, हरयाणा बारे लिखूंगा कि अब हरयाणा में इस "सीरी-साझी राजनीति" विरासत को कौन सही से पकड़ रहा है व् कितना मजबूती से इसको लड़ा जा सकता है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
Monday, 18 April 2022
मुझे लगता है कश्मीर-फाइल्स फिल्म ने पंडितों की हस्ती को छोटा कर दिया है!
मैदान छोड़ कर भाग खड़ा होने पर "कश्मीर फाइल्स" बनाने की बजाए, वहां अपना 21 बार क्षत्रियों को मारने वाला रिकॉर्ड फिर से दोहरा कर उस पर फिल्म बनाते तो हम भी मानते कि जो इतिहास में क्षत्रियों को मारने के दावे हैं वह वाकई में सच हैं| और नहीं तो वहां लड़ते-लड़ते जान दे देते परन्तु भागते नहीं तो भी मान लेते| ऐसी हरकतों से समाज को संदेश जाता है कि तथाकथित इतिहास के नाम पर जो-जो फैलाए हो, वह हकीकत छूते ही कितना खोखला है| कम-से-कम यह फिल्म ना दिखा के अपनी झूठी इज्जत ही ढंकी रख लेते|
इस प्रदर्शन से बाकी तो पता नहीं, परन्तु खापलैंड वाली किसान-मजदूर कौमें तो शायद ही प्रभावित होवें| और इनमें भी खासकर जाट कौम में तो इस फिल्म ने इस समाज की महानता को छोटा और कर दिया है| क्योंकि इनसे ज्यादा तो जाट अड़ जाते हैं तो या तो जीत ले के उठते हैं या दुश्मन को उल्टा मोड़ के या लड़ते-लड़ते मरना पसंद करते हैं; फिर चाहे क्या तप 1669 का औरंगजेब से किसान आंदोलन रहा हो, क्या 1857 की किसान-क्रांति रही हो, क्या 1907 का "पगड़ी संभाल जट्टा" आंदोलन की जीत रही हो व् क्या 2020-21 का किसान आंदोलन की जीत रही हो; परन्तु मैदान छोड़ के भागना वह भी 21 बार क्षत्रियों को मारने के दावों का इतिहास होते हुए; हजम नहीं हुई यह बात|
निःसन्देश जैनी मोदी-शाह; पंडितों पर ऐसी फिल्म बनवाये हैं व् जैनी, इस फिल्म के जरिए पंडितों का प्रभाव कम करने में कामयाब हुए हैं| क्योंकि जब इस फिल्म का खुमार उतरेगा तो लोगों के दिमाग में सवाल बचेगा कि 21 बार क्षत्रियों को धरती से मिटाने वालों के वंशज कश्मीर से भाग खड़े हुए, वह भी बिना लड़े ही? एक समझदार पंडित पीएम कभी यह गलती नहीं करवाता; ना पीवी नरसिम्हाराव पीएम ने उसके काल में करी ना अटलबिहारी ने करी और ना ही पंडित चलित मनमोहन सरकार ने करी| मैं इस फिल्म को जैनियों का सनातनियों की साइकोलॉजिकल रेपुटेशन डाउन करने का षड्यंत्र मानता हूँ; जिसमें चुपके से जैनी कामयाब हुए हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक