Tuesday, 24 January 2023

सुसरा, कुछ तो है इस जाट शब्द में!

जिसनैं देखो ओहे पाछै पड़ रह्या सै!

और तो और आरएसएस के लोग भी चुप हैं; उसी आरएसएस के कि जिनकी शाखाओं में आपने अपने परिचय में "फूल मलिक" नाम बता दिया तो; शाखा प्रभारी का शहद से भी मीठी चिपड़ी जुबान में उपदेश आएगा कि, "बेटा, हम जाति-गोत्र विहीन तंत्र हैं, जाति-गोत्र तो हमें खत्म करनी है; इसलिए सिर्फ "फूल" बोलो, "मलिक" को छोड़ दो; फिर बेशक तो इनकी टॉप कार्यकारिणी जैसे कि "मोहन भागवत" अपने नाम के पीछे "भागवत" लगाए रखे या इनकी ही पोलिटिकल विंग बीजेपी से WFI प्रेजिडेंट बृजभूषण शरण, उसकी संस्था में भेदभाव बारे वर्ल्ड-क्लास रेसलर क्रीम उसको शिकायत करे, तो भी उनको गंभीरता से लेने की बजाए "जाति-विशेष" बोल के टरकाता नजर आए| और इसपे ना बीजेपी बोलती है ना आरएसएस?
रै आरएसएस आल्यो, फेर थारे में और पंडाल में कथा-कहानी सुना के लोगों का फद्दू काटने वालों में क्या फर्क; सिर्फ इतना कि वह पंडाल में बैठ के फद्दू काटता है और तुम शाखाओं में?
मतलब यार, एक ऐसी कम्युनिटी जो तुम्हारे अनुसार हिन्दू भी है, समर्पित भी है व् दान-धर्म के नाम पर सबसे ज्यादा तुम्हें देती भी है; उसकी ऐसी रे-रे माट्टी कि उनके यहाँ से किसान आवाज उठाये तो "खालिस्तानी"; जवान उठाये तो "देशद्रोही", पहलवान उठाये तो "जाति-विशेष"? यह तो धर्म नहीं होता, विश्व की कौनसी किताब में यह परिभाषा है धर्म की; या अपनी ही घड़े बैठे हो?
और एक और नया सगूफा: हरयाणे की लगभग हर एमपी सीट पर बीजेपी-आरएसएस के लोग लोगों के कानों में फूंकते फिर रहे हैं कि:
1 - जाट, तुम्हें दबा लेंगे; इसलिए हमारे साथ रहो!
2 - जाटों से तुम्हारा अभिमान ऊंच रहना चाहिए, इसलिए हमारे साथ रहो!
3 - जाटों को सबक सिखाना है इसलिए हमारे साथ रहो!
4 - तुम्हारा अहम्, जाट से कम है क्या?
अरे, किस जाट ने कही कि किसी का अहम् उनसे कम है या कोई जाट किसी को दबा लेगा? अब जाट का कल्चर-किनशिप का सिस्टम ही ऐसा है कि उसके यहाँ से 90% ओलिंपिक मटेरियल पहलवान निकलते हैं तो इसमें जाट ने किसको दबाया? उसको किसानी सबसे अच्छी आती है तो इसमें किस से कम्पटीशन कर लिया उसने? उसको हक-न्याय के लिए आवाज उठानी आती है तो इससे कोई क्यों जलेगा जाट से, तुम्हारे कहे से?
और कमाल है अगर सिर्फ इन कुतर्कों पर कोई जाट से छिंटकता है तो| फिर तो ऐसे लोग वाकई में बुद्धि से बहुत पीछे चल रहे हैं| मैं नहीं, मानता कि ऐसे समाजों के बुद्धिजीवी लोग, अपने लोगों को ऐसे शियारों की बहकाई आने से रोकने हेतु उनको यह शिक्षा नहीं देते होंगे कि, "अगर जाट में यह गुण हैं तो उनसे जलो मत, रीस करो"|
खैर फंडियो; चिंता मत ना करो; न्यू मत ना समझियों जाट इन हरकतों से दबते जायेंगे; नहीं; बल्कि इतिहास याद रखो, और वह मौके भी याद रखो जब जिनकी बदौलत यह कहावतें चली कि, "जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया"|
किसी ने सही कही है, "जाट हो जाना, यूँ ही अकस्मात नहीं होता"! थोबेंगे तुम्हारे मुंह और वो भी बड़ी सुथरी ढाळ थोबेंगे! थमने पांच पीढ़ी लगी, हो सके हमें भी लगें परन्तु एक-दो पीढ़ी में ही बंदोबस्त कर देंगे थारा; हम थारी ढाळ पांच-पांच पीढ़ी ना लगावें!
जय यौधेय! - फूल मलिक

Monday, 23 January 2023

बीबीसी की डाक्यूमेंट्री व् मोदी का 'पठान' फिल्म पर ब्यान!

जब वेस्टर्न वर्ल्ड वाले कान खींचते हैं तो कुछ इस अंदाज में खींचते हैं कि उधर बीबीसी ने गोधरा काण्ड पर मोदी के रोल बारे इंग्लैंड में डॉक्यूमेंटरी का फर्स्ट पार्ट जारी किया और इधर मोदी ने खुद आगे आ कर, भक्तों से "पठान" फिल्म का विरोध नहीं करने की ही कह डाली| लगता है पूंछ पर पैर जोर से धरा गया| यही ऐसे ही कनेक्शंस हमारी किनशिप को बचाने हेतु, मैं हमेशा कहता भी हूँ व् इसी कोशिश में लगा भी हूँ कि हमारी कौम में इतने NRI हैं, बस एक-दो यहाँ से मजबूत कनेक्शन निकाल लो जैसे सर छोटूराम ने निकाल रखे थे; यह फंडी और इनकी तथाकथित 1 बनाम 35 सी टाइप की नौसिखियाँ तो खिंडी-खिंडी हॉन्डेंगी| यह क्या कभी "जाति-विशेष" और "जाट बनाम नॉन-जाट" किये फिरते हैं आज के दिन; यह तो वापिस इनके पुरखों की भांति जाटों की स्तुति में "जाट-जी" व् "जाट-देवता" लिख-लिख ग्रंथ पाथते हाँडेन्गे| 


मैंने तो आज के दिन तमाम धरातलीय कोशिशों के साथ-साथ यहाँ ख़ास ध्यान धर रखा है; खासतौर से फरवरी 2016 के बाद से| चीजें इतनी बिगड़ चुकी हैं हमारी अपनी आंतरिक खामियों के चलते कि शायद सर छोटूरामी टाइप के नेटवर्क खड़े करते-करते ही ज्यादातर वक्त ना गुजर जाए| परन्तु शुकून व् तसल्ली इस बात की है कि भक्त बने मेरी ही बिरादरी के लोगों की भांति मुझ जैसों में भटकन नहीं है; सही राह पर हैं इसकी तसल्ली शत-प्रतिशत% है| और इसीलिए फरवरी 2016 के बाद से उन जमानों वाली पोस्टें लिखने पे ध्यान कम है जिनपे 300-400 लाइक्स व् 50इयों शेयर्स औसतन आते थे; फरवरी 2016 से समझे हुए हैं कि यह शेयर्स व् लाइक्स वाली पोस्टें तो कभी भी लिख लेंगे परन्तु "कल्चर-किनशिप" के नाम पर होमवर्क करने का जो बैकलॉग का ढेर लग चुका है पहले वह निबटवाया जाए; अपनी व्यक्तिगत व् प्रोफेशनल लाइफ चलाने के साथ-साथ| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Sunday, 22 January 2023

"जाति-विशेष" ना हो गई, सुसरा; दूसरे विश्वयुद्ध वाले यहूदी हो गए, जिसको देखो हिटलर-मुसोलिनी-हिरोहितो की भांति लपेटे फिर रहा है!

धन्यवाद है तुम सब नौसखियों का तुम हमें यहूदियों की तरह तुम्हारी हमारे प्रति नफरत की धोंकनी में झोंक के इतना पका रहे हो कि उस विश्वयुद्ध के बाद यहूदियों ने कैसे सबको काबू किया; उसके आज तक सब मुरीद हैं| मत भूलो," हम पिछोके से किसान हैं, बोने से बेहतर काटना जानते हैं"! किन्हीं जमानों में, किन्हीं जमानों से याचकों को अपने यहाँ शरण दे-दे हमने ही बसाया है, हमें तुम्हारे पॉजिटिव व् नेगेटिव सब पता हैं; बस सूचियां बन रही हैं कि किधर से किसको मरोड़ना है| हमें भले ही आरएसएस की भांति 5 पीढ़ियां नहीं लगेंगी; 1-2 पीढ़ी में ही सुधार लेंगे; हमारी अति-उदारवादिता को|


"जाति-विशेष" इस दौरान ठहर के बस इतना जान ले कि हिटलर से मार खाने वाले जमाने में जो हालत यहूदियों के कल्चर-भाषा-किनशिप की थी आज वही तुम्हारी है| उन पर हिटलर-मुसोलिनी-हिरोहितो सिर्फ इसीलिए चढ़े-चढ़े आते थे क्योंकि उन जमानों यहूदियों ने उनकी "कल्चर-भाषा-किनशिप" ऐसे ही बिसरा रखी थी जैसे आज तुमने; भाषा के नाम पर तुमने तुम्हारी हरयाणवी बिसरा रखी है; कल्चर के नाम पर हरयाणत बिसरा रखी है व् किनशिप के नाम पर "खाप-खेड़ा-खेत" बिसरा रखे हैं| हैं, कुछ ग्रुप्स इस जाति-विशेष में जो इन्हीं पहलुओं को वापिस समेट; अपनी कल्चर-भाषा-किनशिप पर दिन-रात काम कर रहे हैं| हालाँकि कुछ छोटे-मोटे स्टेप्स क्रियान्वित हो चुके हैं; उनका प्रचार-प्रसार व् अभ्यास जारी है| 

तुम नौसिखियों को तुम्हारी ही भाषा में बड़े अच्छे जवाबों की तैयारी फरवरी 2016 की उन चार रातों के बाद से हो ही रही हैं| इन कोशिशों का पहला बड़ा रिजल्ट आने में अब बस साल भर का वक्त भर लगना है|

विशेष: यहूदी किन्हीं और वजहों से हिटलर जैसों से मार खाए थे, जाति-विशेष किन्हीं और वजहों से खा रही है; परन्तु अब अपनी उन वजहों को करेक्ट करने की नींव डल चुकी है; कार्य दिन-रात जारी है|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday, 21 January 2023

बृजभूषण सरण इनको "जाति-विशेष" नहीं "सर्वखाप मिल्ट्री कल्चर" से ऑर्गेनिकली निकलने वाले पहलवान कहो!

बृजभूषण शरण द्वारा पहलवानों को "जाति-विशेष" का कहना इस आदमी की उस हताशा व् हीनता को दिखाता है जिसके तहत जब से (पिछले 11 साल से) यह रेसलिंग फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (WFI) का अध्यक्ष चला आ रहा है तब से ले के आज तक; इसकी तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह जाट-पहलवानों (इसके अनुसार "जाति-विशेष) के विल्कप नहीं ढूंढ पाया; ना तो इसके इलाके से और ना लगभग पूरे इंडिया से ही| इसकी इस हीन-भावना से पता चलता है कि इस आदमी ने कितनी कोशिशें नहीं की होंगी, "जाति-विशेष पहलवानों" जैसे ओलिंपिक मटेरियल ढूंढने की; व् शर्तिया बात है यह कि अगर इसको विकल्प मिल जाते तो पक्का; इसने जाति-विशेष पहलवान साइड करके, वह आगे बढ़ाने-ही-बढ़ाने थे| जो एक-दो आगे बढ़ भी पाए तो वह उसी हरयाणा देस (वर्तमान हरयाणा, वेस्टर्न यूपी के "सर्वखाप मिलिट्री कल्चर") के तहत गाम-गेल चलने वालों अखाड़ों से आते हैं जहाँ से तमाम जाति-विशेष के पहलवान निकलते हैं; अन्य जाति पहलवानों में उदाहरणार्थ योगेश्वर दत्त व् दिव्या काकराण|

हाँ, एक पहलवान मिला आज तक इसको पिछले 11 साल में भाई नर सिंह यादव (वह भी इसके वर्णवाद के ग्रसित सामंतवाद वाले गृह-जिलों व् इलाकों से नहीं); तो देख लीजिये उस पहलवान को इस आदमी ने कितनी गहरी राजनीति का शिकार बनवाया| पहले तो उसको सुशील कुमार से ट्रायल ना देने के लिए नए नियम लाया; उसपे भी सुशील कुमार के बार-बार कहने पर भी उसको बिना ट्रायल ही रियो में भेज दिया था व् इधर इस बहाने इसकी पोलिटिकल पार्टी ने जाट बनाम यादव व् तमाम अन्य वाली जो इनकी 35 बनाम 1 टाइप राजनीति चलती है; उसमें सारा खेल उलझा के रख दिया था|
जनाब आप जिस "विश्व की दुष्टम नस्लवाद व् अलगाववाद वाली वर्णवादी व्यवस्था" के प्रोडक्ट हो; उसके चलते आपसे ना प्रोडूस हो पाएंगे ओलिंपिक मटेरियल पहलवान; वरना कोई आदमी 11 साल से WFI का प्रेजिडेंट हो व् उससे एक ओलिंपिक मटेरियल प्रोडूस नहीं हो पाया, लखनऊ से पूर्व के इलाकों से; पूरे सिस्टम-तामझाम को 'जाति-विशेष" वालों के खिलाफ झोंके देने पर भी?
ऐसा है महाशय; ओलिंपिक मटेरियल प्रोडूस करने के लिए मनुवाद पर आधारित वर्णवादी व्यवस्था की दबी-कुचली मानसिकता से बाहर आना पड़ता है व् बच्चों की सोच स्टील-हार्ड बने उसके लिए "खापलैंड" के दो नियम खासतौर से गर्भ में पड़ते वक्त ही बच्चों को देने पड़ते हैं; एक "गाम-गौत-गुहांड" व् दूसरा "सर्वखाप मिल्ट्री कल्चर यानि गाम-गेल मिटटी के अखाड़े"; जहाँ बालक हठखेलियाँ भी मिटटी में लौट के करना सीखता है; और यह इकोसिस्टम बनता है "खाप-खेड़ा-खेत" की फिलॉसॉफी" से|
ऐसा है जब "जाति-विशेष" की बात कर ही दी है तो थोड़ा और सुन लो? तुम "क्षत्रिय" हो ना; वर्णवाद में जिनको तुमसे ऊपर वाले वर्ण का बॉडीगॉर्ड कहा जाता है? बेटा ऐसा है देश के लिए खेलने का ऐटिटूड इस वर्णवादी मानसिकता से नहीं निकल सकता; इसके लिए तो तुम सिर्फ उतने डेवेलोप हो पाते हो; जितना कि तुम्हें जिनकी बॉडी की रक्षा करनी है, उतने हो सको| इससे ज्यादा चाहिए तो उसके लिए ज्ञान मिलेगा यूनिवर्स के सिर्फ और सिर्फ "जट्टज्ञान" की फिलोसॉफी से; थोड़ा ठहर कर जाना करो इस बारे|
बल्क में ओलिंपिक मटेरियल (इक्का-दुक्का तो कहीं से भी निकल आते हैं, वह भी माँ-बापों की मेहनत ज्यादा व् सिस्टम की कम) चाहियें तो वर्णवाद से रहित उदारवादी सिस्टम में आओ; सामंती से नहीं आते इतने बल्क में पहलवान कि बाकी देश की धरती से 10-20% पहलवान भी नहीं निकाल पाते हो| अब ऐसे में "जाति-विशेष" से कुंठा ना होगी तो और क्या होगा? हमें सहानुभूति है आपसे जनाब|
हमारे पहलवानों समेत "खाप-खेड़ा-खेत" के लोगों से अपील: इस उदाहरण से आप समझ तो गए ही होंगे कि कैसे यह लोग हमारे इकोसिस्टम को तहस-नहस करने पर लगे हुए हैं? ओलिंपिक के लिए पहलवान या अन्य खिलाडी बनाने का काम इनको देना मतलब "बंदर के हाथ में बंदूक" देने जैसा है| क्योंकि वर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त यह लोग यह नहीं देखते कि सामने ओलिंपिक मेडलिस्ट धरने पर बैठे हैं; देश की शान वाले हीरो बैठे हैं और वह अगर कोई ऑब्जेक्शन कर रहे हैं तो वह यूँ तो नहीं होगी? परन्तु उनको सीरियसली लेने की बजाये "जाति-विशेष" जैसी बात करने की लाइन पकड़ना; भविष्य में कुश्ती जैसे खेलों में देश की अंतराष्ट्रीय उपलब्धियों पर बंदूक चला देना है| क्यों, क्योंकि इनके लिए वर्णवाद सबसे बड़ी चीज है, राष्ट्रवाद तो सिर्फ पीपनी है; अंधभक्तों के लिए| वरना इनमें "राष्ट्रवाद" का जरा सा भी बीज होता तो एक कुश्ती जैसे किसी भी सिस्टम की खामियां दिखाने को उसकी टॉप क्रीम के बोलने से बेस्ट संदेश क्या हो सकता था कि सिस्टम में वाकई में गड़बड़ी है; उसको ठीक किया जाए? तो ऐसे में आप-हम का व्यक्तिगत दायित्व बनता है कि ना तो यह "मिल्ट्री-कल्चर" की किनशिप को टूटने देना है व् ना ही पहलवानों समेत तमाम समाज को किसी मानसिक व् सिस्टेमेटिक दबाव में आने देना है|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Friday, 13 January 2023

सवाली: मिस्टर फूल मलिक, तुम नौसिखिया हो चुके हो!

 सवाली: मिस्टर फूल मलिक, तुम नौसिखिया हो चुके हो, जो रोज-रोज खामखा के ऐसे त्यौहार घड़ ले आते हो जो पहले कभी थे ही नहीं! चाहते क्या हो तुम? ऐसे तो जिनको तुम फंडी बोलते हो उनमें व् तुम में क्या फर्क? आज ही देख लो, आज के दिन तुमने यह "सर्वखाप अनुकम्पा दिन" ला खड़ा किया? क्या औचित्य है इसका? हमें बाकी समाजों के साथ रहने दोगे या नहीं?

मैं: मखा, कैसे रहना चाहते हो तुम बाकी समाजों के साथ? 35 बनाम 1 झेलते हुए क्या? या अपने पुरखों वाली उस अणख के साथ जिसमें आज जो तुम पे शौक से 35 बनाम 1 किये हुए हैं, कल इन्हीं के पुरखे मजबूरीवश तुम्हारी स्तुति में तुम्हें "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते-कहते फिरते थे? ध्यान देना, मैंने मजबूरीवश लिखा है, इसका मतलब मुझे मेरे लिए तो यह भी नहीं चाहिए| परन्तु मुझ पर जो शौक से 35 बनाम 1 करना चाहेगा; उससे मैं उसकी मजबूरीवश "जाट जी" व् "जाट देवता" ही कहलवाना पसंद करूँगा; या मैं उससे बनिया-बाह्मण वाला समझौता जब तक नहीं होता तब तक नहीं रुकूंगा|
सवाली: बनिया-बाहमण वाला कौनसा समझौता?
मैं: मखा, बनिया बाह्मण को दान देता है तो बदले में क्या लेता है?
सवाली: क्या?
मैं: पता करो, फुल्ला जाट समझ आ जायेगा तुम्हें|
सवाली: समझना क्या है, तुम निरे फ्रॉड हो; तुम्हें हमें बरगलाने-बहकाने से मतलब है बस|
मैं: मखा, तुम अगर मेरे कहे से बरगलाये जा सकते हो तुम मेरे किसी काम के नहीं; कौम के भी किसी काम के नहीं!
सवाली: हमें पता है, जब धुन में आ के लिखते हो तो तुम्हारी कौन ही कलम पकड़ सकता है; इसीलिए यह शब्दों के जाल में मत घेरो मुझे व् सीधा-सीधा जवाब दो कि बनिया-बाह्मण का कौनसा समझौता?
मैं: बनिया बाहमण को धन देता है उसकी ब्रांडिंग व् बिज़नेस चलवाने के लिए! बाह्मण उस धन से मंदिर बनवाता है व् बदले में बनिये को ग्राहक देने के साथ-साथ सोशल उसकी सोशल रेपुटेशन की सिक्योरिटी की गारंटी देता है|
सवाली: सोशल रेपुटेशन की सिक्योरिटी की गारंटी?
मैं: देखा किसी दिन किसी बाह्मण मीडिया एंकर, पत्रकार, पंडत-पुजारी, महंत-संत को किसी बनिए या बनिया जमात की कोई बुराई करते हुए, उनके आंतरिक अथवा सामाजिक पहलुओं पर ऐसे ही टीवी डिबेट्स करवाते हुए, जैसे तुम्हारी खापों की मीडिया ट्रायल चलती आती हैं?
सवाली: हाँ, यह तो सही कही!
मैं: तो मखा थम कौनसा, धर्म के नाम पर बनिए से कम दान देते हो? मेरे ख्याल से कौम के स्तर पर देखो तो इंडिया की सबसे ज्यादा दान देने वाली कम्युनिटी हो?
सवाली: सो तो है|
मैं: तो फिर यही काम तुम भी ऐसा ही समझौता बना के क्यों नहीं करते? थारे पुरखों ने इसी शर्त पर तो इनके साथ 1875 में रहना स्वीकारा था, जब बाह्मणों ने तुम्हें "जाट जी", "जाट देवता" लिख गा कर तुम्हारी सोशल रेपुटेशन की ब्रांड की प्रमोशन करी थी| या तो यह कर, अन्यथा कम्युनिटी से बाहर दान नहीं देने पे कट लगाने का प्रचार चला लो|
सवाली: वह तो छलावा था हम से, हम को सिख धर्म में जाने से रोकने का| मूर्ख हो तुम फुल्ले जाट तुम्हें इतनी भी अक्ल नहीं| तुम तो वाकई में फ्रॉड आदमी हो|
मैं: मैंने कब कहा कि वह छलावा नहीं था; इसीलिए तो ऊपर लिखा "मजबूरीवश" किया गया था; तो यही तो वह मजबूरी बनाओ अपने पुरखों की तरह वाली| इनको डर नहीं बना के रखोगे अपने इनके जीवन में योगदान का व् उसकी जगह खुद को "फॉर-ग्रांटेड" इनके आगे परोस दोगे तो झेलोगे ही 35 बनाम 1|
पड़ रही है कुछ पल्ले या नहीं? ना बस तुम तो "जाटड़ा और काटड़ा, अपने को ही मारे" की तर्ज पर मेरे खस लो पहले|
सवाली: न्यू ना मानिये मेरे सवाल खत्म हो लिए; तुझे तो फ्रॉड साबित करके ही रहूँगा| तू यह बता इस नए त्यौहार का क्या फंडा निकाल के लाया है?
मैं: मखा नया कोनी, अधिक से उदारता के चलते; हमने अपने कीर्तिमानों को मनाने की रीत ही भुला दी थी; बस उसी को वापिस खड़ी करने की बात कहता हूँ; सर्वखाप अनुकम्पा दिन मना के| इससे वह जो तुम्हें 35 बनाम 1 में घोंट के चले हैं, उनके चंगुल से भोले लोगों को तो अपने पक्ष में निकाल लोगे अन्यथा न्यूट्रल कर लोगे; जो इस ड्रामे में बहके हुए तुमसे छींटकाये जा रहे हैं|
सवाली: मुझे नहीं लगता इससे कुछ हासिल होगा|
मैं: साइकोलॉजिकल वॉर गेम्स पढ़ो; वह ऐसे ही जीते जाते हैं|
सवाल: हम तो लठ की भाषा जानें, तेरी यह गपोड़-गप्प म्हारे पल्ले ना पड़ती|
मैं: मखा, मेरे होमवर्क की कॉपी फ्रीफंड में चेक करने वाला, मुझे तुझसे बेहतर कौन मिलेगा? इस रोल में ही रहना उम्र भर, व् अपनी इस आदत पर ही कायम रहना; फिर तुम्हें खुद अस्तित्व को मिटाने हेतु किसी लठ की भी जरूरत नहीं पड़नी; अगर तुम दिखती दिखाती हकीकत में हुई लड़ाइयों से जुड़े किस्से भी गपोड़-गप्प लगते हैं तो|
सवाली: बात्तां म्ह तो तू किसी ने जाने ना दे!
जय यौधेय! - फूल मलिक

14 जनवरी 1761 - सर्वखाप अनुकम्पा दिवस की आपको लख-लख बधाई!

(आप इसको अनुकम्पा की जगह दयालुता, उदारता, मानवता या जो भी शब्द ज्यादा जचे वह बोल-लिख सकते हो) जीते हुए पक्ष की परवाह ना करते हुए युद्ध में घायल हारी हुई सेना की मरहमपट्टी करने व् उनको आसरा देने का विश्व का सबसे बड़ा उदाहरण है यह| शायद ही अन्यत्र कोई इतना बड़ा उदाहरण विश्व में देखने को मिलता है| तारीख थी 14 जनवरी 1761, लड़ाई का मैदान था पानीपत, लड़ने वाले दो पक्ष थे पेशवा व् अब्दाली; लगभग दोपहर 2 बजे तक युद्ध का फैसला हो गया था; हारने वाला पक्ष था पेशवा, जीतने वाला पक्ष था अब्दाली; अब्दाली के भय से कोई विरला ही घायल-बदहवास माह-पोह की ठंड में ठिठुरते-भागते-पनाह ढूंढते सैनिकों को, मैदान में घायल पड़े सैनिकों को मदद देने की हिम्मत जुटा पा रहा था| ऐसे में सब अटकलों को विराम देते हुए, सामने आई तो उदारवादी जमींदारों की विश्व की सबसे प्राचीनतम सामाजिक संस्थाएं यानि खापें व् इन्हीं जमींदारों की सबसे मजबूत रियासत यानि लोहागढ़ जाट रियासत| कहते हैं महाराजा सूरजमल ने अकेले राज-खजाने से उस जमाने में 10 लाख रूपये इन घायल पेशवाओं की फर्स्ट-ऐड पर खर्च कर दिए थे; आज के दिन उस वक्त के 10 लाख रूपये कितने अरब-खरब बैठेंगे; किसी CA से पूछ लीजिये| इसके अतिरिक्त मुज़फ्फरनगर से ले कर धुर लोहागढ़ तक फैली खाप व् पालों ने गाम-गेल कितनी मदद की थी उसकी गिनती तो शायद कोई विरला ही कर सकता है| कुल मिलाकर इतनी ज्यादा कि शायद ही विश्व में आज तक ऐसी मदद हुई हो और वह भी तब जब जीतने वाला अब्दाली वहीँ सर पर बैठा था यानि दिल्ली में था| परन्तु पेशवाओं को हराने वाले की उसकी हिम्मत न पड़ी कि जाटों व् खापों को हारी हुई सेना की मदद करने से रोक देता| यह दिखाता है क्या रूतबा-रूआब रहा उदारवादी जमींदारों के सिस्टम का| यह तो पेशवाओं ने अपने अहम् में आ के मदद को आये महाराजा सूरजमल को ही बदनीयती दिखाई व् बंदी तक बनाने की हिमाकत की परन्तु महाराजा सूरजमल बच निकले उनके षड्यंत्र से; इसीलिए इतिहासकारों द्वारा एशिया के ओडीसूस व् प्लेटो कहलाये, लिखे गए| खैर, अपनी पीढ़ियों को यह गर्व का पन्ना जरूर पास करें; व् कुछ इसी अंदाज में पास करें कि वह अपनी किनशिप-कौम-कल्चर पर विजडम से भर जाएं! जय हो खाप-खेड़े-खेतों के इस सिस्टम की, जो ऐसे वक्तों में बैरी के भय से डर के दुबकने की बजाये, खापलैंड यानि दर पे पड़े घायलों की मदद को दौड़े| क्यों नहीं इस अध्याय को किताबों में पढ़ाया जाता? क्यों नहीं इस अध्याय पर फ़िल्में बन सकती व् क्यों नहीं इस अध्याय को भारत की संस्कृति की उच्चतम प्राकाष्ठा के उदाहरणों में जगह दी जाती?

🌳🌳शक की रात यानि शकरात💐के पावन पर्व, जो कि 14 जनवरी 1761 को🌲 खापों व भरतपुर रियासत (रोहतक-मेरठ से ले भरतपुर-मैनपुरी तक फैली)  के 💐महाराजा सूरजमल जी द्वारा 💐💐पानीपत की तीसरी लड़ाई में अब्दाली से हारे हुए पेशवाओं की घायल सेना की अब्दाली से भी ना डर खाते हुए फर्स्ट-ऐड करने की इंसानियत से शुरू हुआ, व् आज भी उसी नेक भावना के प्रतीक बड़ों को कंबल-शॉल दे के मनाया जाता है; उस वक्त यह कंबल-शाल पेशवाओं की घायल सेना को दिए गए थे खापों व् जाट रियासत भरतपुर द्वारा; जो कि प्रतीकात्मक तौर पर फिर घर-रिश्तेदारी के बड़े बुजुर्गों को दिए जाने लगे इसी दिन के अवसर पर| 


💐💐💐आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ

जय यौधेय! - फूल मलिक

14 जनवरी यानि "सर्वखाप अनुकम्पा दिवस", जिसको 'सकरात' के लबादे में ढांपने की कोशिश हुई है; वो क्यों व् कैसे?

सकरात को एक तरफ तो होली व् दिवाली जितना धार्मिक त्यौहार बना के दिखाया जाता है, परन्तु जब इनसे पूछो कि अच्छा ऐसा है तो बताओ फिर यह अंग्रेजी कैलेंडर की तारीख के अनुसार क्यों मनता है; होली-दिवाली की भांति देसी महीनों की तारीखों में क्यों नहीं? तब सभी की नानी मर जाती है| 


जवाब इधर है: 14 जनवरी 1761; पुणे-पेशवाओं की पानीपत की तीसरी लड़ाई के मैदान में हार का दिन| वही दिन जिस दिन अब्दाली से हारे घायल-बदहवास पेशवे आसरे-आशियाने तलाश रहे थे, इस जनवरी यानि पोह-माह की ठिठुरती ठंड में| व् अब्दाली और मुग़लों के डर से कोई विरला ही इनको आसरा देने की हिम्मत कर रहा था| इसीलिए सकरात को शक-की-रात भी कहते हैं; क्योंकि कोई भी इनकी मदद करने हेतु आगे आने से डर रहा था, शक-शुबा में था कि इनकी मदद करना यानि मुग़लों से पंगा लेना| तब यह पंगा लिया "हरयाणा देश" (उस वक्त हरयाणा-दिल्ली-वेस्टर्न यूपी एक ही थे व् "हरयाणा देश" कहलाते थे) की खापों व् रोहतक-मेरठ-मैनपुरी-ब्रज-भरतपुर तक फैली लोहागढ़ की जाट रियासत ने अपनी उदारता के दर घायल-थके-ठिठुरते हुए पेशवाओं व् इनकी सेना के लिए खोले थे व् इनको खाना व् ओढ़ने-पहनने को कपड़े-लत्ते और कंबल दिए थे; मरहम-पट्टियां की थी| 


वैसे तो "देश हरयाणे" का हर गाम-नगरखेड़ा मानवता के इस मूल-सिद्धांत पर बसा हुआ है कि, "इतनी मानवता गाम का हर बासिन्दा पालेगा कि गाम में कोई भूखा-नंगा ना सोये'; और इसी वजह से यह कहावत चलती आई कि, "खापलैंड के गाम-नगरखेड़ों में आपको कोई भिखारी नहीं मिलेगा" (आशा है कि पिछले दशकों में हुए अंधाधुंध माइग्रेशन के बावजूद भी यह कहावत बरकरार रह पाई हो) परन्तु जब 14 जनवरी को इस मानवता की थ्योरी की अच्छाई बुलंदी पर थी तो इसको हर साल मनाया जाने लगा| 


परन्तु एक अनकहा सा कम्पटीशन वह लोग खाप-खेड़े-खेतों की इस डेमोक्रेटिक सोच से रखते हैं कि इसके यहाँ से जब भी कोई ऐसी अच्छाई की बहार बहती है तो हमारे सर छोटूराम की थ्योरी वाले फंडी या तो उसको मिटाने पे लग जाते हैं अन्यथा उसको किसी अन्य शब्द व् कांसेप्ट से ढांप के ओरिजिनल कांसेप्ट डकारने की कोशिश करते हैं| और यह सकरात शब्द इसी तरह की एक कोशिश है जो लोगों यह भुलवाना चाहता है कि किन्हीं वक्तों जाटों व् खापों ने क्या-क्या मानवतायें स्थापित की हुई हैं| 


खैर, हमारे लिखने व् बताने से यह अपनी आदत नहीं छोड़ने वाले| ऐसे में हम इतना तो कर ही सकते हैं कि अपनी पीढ़ियों व् समाजों को इन कॉन्सेप्ट्स की ओरिजिनालिटी से अवगत करवाते चलें| बाकी सकरात भी सुथरा शब्द है इसको भी जारी रखो परन्तु इस दिन "सर्वखाप दयालुता/अनुकम्पा दिन" होता है यह जरूर अपनी पीढ़ियों कन्फर्म से बतावें| वरना फंडी तो लगे ही हुए हैं आपको धूर्त-क्रूर व् अन्यायकारी स्थापित करने पे; अब यह आपकी सक्रियता पर निर्भर है कि आप इनकी हरकतों से अपने असल-नस्ल को कैसे दुरुस्त सुनिश्चित रख सकते हैं|  


कोई-कोई इस वास्तविक तथ्य से इस तिथि को मोड़ने हेतु एक तर्क और जोड़ते हैं कि इस दिन सूर्य उत्तरार्ध होता है; बड़ा दिन होता है| बड़ा दिन 25 दिसंबर को मनता है, अंग्रेजी तिथि वाला; और 14 जनवरी अंग्रेजी तिथि ही है| तो अंग्रेजी तिथि में साल में दो बड़े दिन थोड़े ही हो जाएंगे| 


Discussion: आज चारों और मकर सक्रांति की धूम मची है। लोग बधाईयाँ दे रहे हैं, नदियों में स्नान कर रहे हैं ,पूजा पाठ और दान पुण्य कर रहे हैं। पर यह सब पाखण्डियों के कहे अनुसार हो रहा है। लोगों को शायद ही पता हो कि सक्रांति का अर्थ क्या है। वास्तव में सक्रांति का अर्थ सूर्य के द्वारा अपनी स्थिति बदलने से है। अर्थात जब सूर्य उत्तरी गोलार्ध से दक्षिणी या दक्षिणी गोलार्ध से उत्तरी गोलार्द्ध की ओर अपनी स्थिति बदलता है तो उसे सक्रांति कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में दो सक्रान्ति होती हैं। गर्मियों में 21 जून के बाद 22को तथा सर्दियों में 22 दिसम्बर के बाद 23 को। ये जो राशियां बनाई गई हैं ये फंडियों द्वारा बनाई गई हैं जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। फंडियों के अनुसार आज सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर गया है। तो सूर्य तो हर महीने नई राशि में प्रवेश करता है फिर आज कौन सी नई बात हो गई। इसके लिए वे तर्क देते हैं कि सूर्य आज उत्तरायण हो गया अर्थात सूर्य दक्षणी गोलार्द्ध से उत्तर की ओर बढ़ गया है। जबकि यह सरासर झूठ है क्योंकि सुर्य तो आज से 23 दिन पहले अर्थात 23 दिसम्बर को उतर्यायन हो चुका है। अतः यह सही बात लगती है कि पेशवाओं की हार पर जो अनुकम्पा महाराज सूरजमल ने मदद करके दिखाई थी उसी को फंडियों ने अपने ढंग से राशियों के चक्कर में उलझा कर लोगों को बेवकूफ बनाया है।

विशेष: हम मानवता के पालक हैं, हम ना किसी समाज से नफरत कर सकते ना हेय चाहे वह पेशवा हों या कोई अन्य, सभी का आदर व् स्थान यथावत रहे; परन्तु अपनी पहचान को भी यूँ किसी के द्वारा कुचलता नहीं देख सकते; इसीलिए बैलेंस की लाइन लेते हुए; इनका भी आदर-रखिये व् अपनी पहचान अगली पीढ़ियों को पास कीजिये!


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Wednesday, 11 January 2023

Jat DNA Composition

 देश विदेश के scientists जाटो पर रिसर्च करते है इनके DNA लाईन देखे तो इनमे मे L1a लगभग 25% है मतलब 25% जाट उनके वंशज हे जिन्होने सिन्धु घाटी मे खेती पशुपालन और व्यापार किया.यह इरानी किसानो के कबिले थै पहले सिन्धी पंजाबी कह सकते हो.

जाटो मे 10% J 1भी है यह वो कबीले है जिन्होने Mesopotamia मे खेती किया मतलब जाटो मे इराकी मैसोपोटामिया के किसानों का 10% DNA है..
बाकि जाटो मे बडा हिस्सा steppe R1a1 कबिलो का है जिन्होंने तुर्की मेसोपोटामिया से लेकर युरोप औरसप्तसिंधु ( पंजाब ) सिन्ध हरियाणा पश्चिमी युपी मे सबसे पहले जमीनो को जीता गाव बसाये और खेती शुरू किया...सभी जाट इन कबिलो की संतान है यह लडाकु कबिले थे ..इनसे कोई नही जीत पाया और यही जाट पाकिस्तान पंजाब हरयाणा पश्चिमी युपी पर हमैशा राज करते रहै.
इसलिए पोरस हो या चन्दरगुप्त या हर्षवर्धन या यशौधरमण या अनगपाल तोमर या महाराज रणजीत सिह या महाराज सुरजमल सब जाट है...राज करना युद्धों मे जीतना खेती करना और हर सता से लडना इनके खुन मे है तभी मुगल काल मे भी आजाद जाट खापो का जाटलैंड पर राज था और 6 आजाद स्टेट जाटो की थी..

Friday, 6 January 2023

जैनी बनाम सनातनी लड़ाई खुल के सामने आने लगी है!

सलंगित वीडियो देखें, ना गुजरात में, ना दिल्ली में, जैनियों को संघ ने जा के छिड़वाया है झारखण्ड में| संघ मोदी को तीसरी बार नहीं चाहता व् इसको रोकने के लिए, मोदी के बैक-अप यानि जैनियों को हिला-डुला के टेस्ट करना शुरू कर दिया गया है| 


यह जब 2014 में आये थे, तब से मैंने कहना-लिखना शुरू कर दिया था कि जंग जैनी बनाम सनातनी है; उभर के अब आ रही है| परन्तु आप देखेंगे कि अगर 2024 में बीजेपी सेण्टर में रिपीट हुई तो आएगा तो मोदी ही या फिर किसी और ही पार्टी-अलायन्स ही सरकार होगी| परन्तु बीजेपी जीती तो बनना मोदी  ही है व् 2024 जैन धर्म के नए उद्भव का तगड़ा आगाज होगा| 


आर्य-समाजियों को वक्त रहते यह बात भांप लेनी चाहिए! सनातनी यानि मूर्तिपूजा करने वाले हिन्दू व् आर्य-समाजी मूर्ती-पूजा विरुद्ध हिन्दू (इस पद्द्ति का उद्गम मूर्ती-पूजा रहित दादा खेड़ों से निकलता है)! 


जय यौधेय! - फूल मलिक  


वीडियो सोर्स: https://www.youtube.com/watch?v=_-rIuevHCFQ

Monday, 2 January 2023

Jat Customary Law in United Punjab in 1872

 जाटों का अलग अपना सिस्टम था। जाटों के रिवाज ही उसका कानून और संविधान थे, जिसके तहत उसकी कबीलदारी चलती थी। हमारी खाप इसका उदाहरण हैं, जिन्हें धीरे धीरे समाप्त कर सिर्फ नाम नाम की खाप छोड़ दी। ब्रिटिश हुकूमत ने भी माना कि जाटों की अपनी शासन प्रणाली है, जो उसके रिवाजों के आधार पर है न कि किसी धार्मिक आधार पर। The Punjab Past And Present, Vol-XI, Part I-II, Page no. 257 पर लिखा है कि - 


वास्तव में, 'पंजाब लॉ एक्ट, 1872,' 24 और 25 विक्ट..सी. 67, इंपीरियल पार्लियामेंट द्वारा अधिनियमित, महारानी विक्टोरिया के शासनकाल के 24वें और 25वें वर्ष में, इसकी धारा 5 द्वारा, विशेष रूप से मान्यता दी गई है कि पंजाब के जाट अपने विशिष्ट रीति-रिवाजों द्वारा शासित होते हैं - न कि किसी व्यक्तिगत या धार्मिक कानून, जैसे हिंदू कानून द्वारा। पंजाब में बाद के न्यायिक फैसलों ने दोहराया है कि कस्टम (रिवाज) पंजाब में फैसलों का पहला नियम है। मूल रूप से जाट पक्ष होने पर न तो हिंदू कानून और न ही मुस्लिम कानून लागू होता था। इस प्रकार सीथियन (जाट) न केवल अपने मवेशियों और घोड़ों के झुंडों को पंजाब क्षेत्र में लाया, बल्कि वह अपने अजीबोगरीब और प्राचीन रीति-रिवाजों को भी लाया, जिसने दूसरों को सम्मान और मान्यता देने के लिए मजबूर किया।


-राकेश सिंह सांगवान




Sunday, 1 January 2023

जब आप अपनी पुरखाई पहचान, वंशानुगत इतिहास फंडियों की कह-सुन के निर्धारित करते हो!

जब आप अपनी पुरखाई पहचान, वंशानुगत इतिहास फंडियों की कह-सुन के निर्धारित करते हो या फंडियों के सुपुर्द कर देते हो तो आपके साथ यही बनती है जो आजकल कुंवर अनिरुद्ध के साथ बनी हुई है| इनके किले में एक लोह-स्तम्भ है व् अभी पिछले दशक ही पट्टिकाएं लगवाई हैं; जिनमें इनको यदुवंशी बताया गया है| और अभी की कुंवर अनिरुद्ध की एक नई ट्वीट में यह फंडियों के बहकावे में आ के खुद को कोई जादों क्लैन (आदर-सम्मान है इस सम्प्रदाय का भी) से बता रहे हैं| यानि दोनों ही लाइन इनको जाति से बाहर ले जाती हैं|


मुश्किल से युदवंशी वाली लैन को जाटों की स्थापित किया था इस राजघराने से चिपका के फंडियों ने, वह भी कई पीढ़ियां लगा के; परन्तु कुंवर की ताज़ी ट्वीट वाली नादानी इनको खुद ही उस क्लैन से हटा रही है| क्या यह कोई मजाक है कि जब मन किया यदुवंशी बन जाओ व् जब मन किया जादों|

यह ऐसा क्यों कर रहे हैं, यह इनका निजी विषय हो सकता है; परन्तु समाज यह समझ ले कि बहकावे में सिर्फ अनपढ़, कमअक्ल आदि ही नहीं आ सकते; पढ़े-लिखे शाही घराने वाले सबसे ज्यादा आते हैं|

दूसरा अर्थ यह है कि अपनी आइडेंटिटी अपनों से जानों, फंडियों से नहीं; फंडियों के लिखे गपोड़ों से नहीं; वरना खुद की जाति छोड़ कभी उस जाति से निकले बताओगे तो कभी उससे|

हालाँकि इस विषय पर अच्छा ख़ास बड़ा पोस्ट व् वीडियो तक बन सकता है, इतना कंटेंट है; परन्तु अपने हैं तो इतना ही लिखा जितने से बाकी की जनता उनकी पोस्ट देख के हताश ना हो व् अपने आपको स्पष्टीकरण दे सके, कुंवर की नादानी का|

इसलिए ना रियासत का नाम लिख रहा हूँ, ना और कोई अन्य बात; बस उतनी आइडेंटिटी से बात कह दी, जिससे पढ़ने वाला बात पकड़ जाए व् किसी को ठेंस भी ना लगे|

जय यौधेय! - फूल मलिक  

Saturday, 24 December 2022

वह कहावतें, लोक्कोक्तियाँ व् छंद-चौपाईयाँ जो महाराजा सूरजमल व् उनके लोहागढ़ साम्राज्य के चलते मिली!

एशियाई प्लेटो अफ़लातून महाराजाधिराज सूरजमल महाराज की 25 दिसंबर, 1763 पुण्य तिथि पर विशेष। 


आगे बढ़ने से पहले सलंगित पोस्टर में महाराजा सूरजमल की लेफ्ट साइड वाली फोटो नोट करें; खासकर उनकी मूछें! 

अब कहावतें व् किस्से:

1 - "बिना जाटां किसने पाणीपत जीते!" - पेशवा जब पानीपत हारे, तब से यह कहावत चली!

2 - "जाट को सताया तो ब्राह्मण भी पछताया!" - पानीपत में हार के बाद घुटनों पे बैठ जब सदाशिवराव भाऊ पेशवा रोया था, तब यह चली!

3 - " गैर-बख्त" बाहर मत जाईयो, हाऊ चिपट ज्यांगे! - खापलैंड की माओं ने अपने बेटी-बेटियों को यह कहावत कहनी शुरू कर दी थी, उनको गैर-बख्त बाहर निकलने पे! भाऊओं की वैचारिक व् व्यवहारिक अस्थिरता देख, खापलैंड की उस वक्त की औरतों ने यह कहावत चलाई थी; व् इनको हाऊ के समकक्ष बता दिया था! हरयाणवी में हाऊ, सफेद रंग का गोलाकार उड़ने वाले कीट को कहते हैं जो छूने में चिरपडा व् छूते ही सिमट के आपके हाथों-कपड़ों पर चिपट जाता है व् उल्टी हो जाने जैसी यक्क वाली भावना पैदा करता है|  

4 - "दोशालों पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो, रह्यो जाट गो जाट!" - यही वह तंज था, जिसके चलते सदाशिवराव भाऊ पेशवा, जब जाट महाराजा सूरजमल उनके मुताबिक अंटी में उतरते नहीं दिखे तो अपने छद्म रूप से बाहर आते हुए, अपनी वर्णवादी परवर्ती दिखाते हुए, महाराजा सूरजमल पर बिफर के बोले थे; व् इनकी मिल के लड़ने की ग्वालियर की संधि होते-होते टूट गई थी! दूसरी वजह यह थी कि दिल्ली जीतने के बाद पेशवा दिल्ली, मुग़लों के पास ही रखना चाहते थे, जाटों को नहीं देना चाहते थे!

5 - "बाज्या हे नगाड़ा, म्हारे रणजीत का"! - पंजाब वाले व् लोहागढ़ वाले दोनों रणजीतों के शौर्य के सम्मान में खापलैंड के ब्याह के बानों में यह गाया जाता है! 

6 - "लेडी अंग्रेजन रोवैं कलकत्ते में" - 1804 में जब अंग्रजों ने लोहागढ़ सीज कर, 13 बार हमले किये परन्तु जीत नहीं पाये, तब यह कहावत चली थी क्योंकि जाट सेना ने अंधाधुंध अंग्रेज मारे थे!

7 - “तुम पगड़ी बांधे फिरते हो और वहां शाहदरा के झाऊओं में तुम्हारे पिता की पगड़ी उल्टी पड़ी है!” - महारानी किशोरी ने जब यह तंज उनके बेटे जवाहरमल को मारा था तब वह दिल्ली चढ़ाई को तैयार हुए व् दिल्ली जीती गई| 

8 - "दिल्ली जाटों की बहु है" - लोहागढ़ व् सिख रियासतों ने उस दौरान दिल्ली इतनी बार जीती थी कि आम जनता यह कहावत कहने लगी कि "दिल्ली तो जाटों की बहु हो ली, जब चाहे लेने चढ़े आते हैं व् जीत के जाते हैं! ताजा उदाहरण किसान आंदोलन की जीत का भी इसी तर्ज पे रहा!

9 - गाँधी जी से पहले महाराजा सूरजमल बरतते थे, "अपराध का जवाब अपराध नहीं" की थ्योरी!

10 -  "अरे आवें हो लोहागढ़ के जाट, और दिल्ली की हिला दो चूल और पाट!" - जब गुड़गाम्मा पड़ाव डाला था, गरीब की बेटी हरदौल को मुग़ल-कैद से छुड़वाने के लिए!

11 - भारतीय इतिहास का इकलौता महाराजा जिसका खजांची एक रविदासी दलित हुआ, सेनापति गुज्जर हुआ।

12 -  "जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो ले" - जब महाराजा सूरजमल मारे गए तो मुग़लों को यकीं ही नहीं हुआ व् यह बात कही!

13 - महाराजा सूरजमल धर्मनिरपेक्ष इतने धर्मनिरपेक्ष थे कि एक पाले मस्जिद बनवाते थे तो दूसरे पाले मंदिर|


इनके अतिरिक्त, कई सारी छंद-चौपाईयाँ सलंगित पोस्टर में पढ़ें!


जय यौधेय! - फूल मलिक





Saturday, 10 December 2022

क्या 2024 लोकसभा चुनाव मोदी-शाह की जोड़ी आरएसएस को ऐसे ही दरकिनार करके लड़ेगी जैसे गुजरात लड़ा व् जीता?

सबसे पहले गुजरात जीतने के फैक्टर्स:

1) JNU में "ब्राह्मण-बनिया देश छोडो" नारों के पोस्टर्स लगवाना मोदी-शाह का प्लान था; इससे इनसे नाराज चल रहा यह तबका थोड़ा घबराया व् काफी हद तक इनसे आन जुड़ा!
2) आप पार्टी को वोट कटुवा के तौर पर ही गुजरात लाया गया था, जिसने कांग्रेस के 13% वोट्स छीन लिए; बदले में आप को MCD दी गई है (परन्तु इसका कण्ट्रोल भी काफी हद तक मोदी-शाह के हाथ में ही रहना है) व् गुजरात में 6% वोट्स शेयर का क्राइटेरिया पार करवा 13% करवा के इनको नेशनल पार्टी का दर्जा दिलवाने में मदद हुई है|
3) कांग्रेस का उग्र हो के गुजरात में ना उतरना, दलित-ओबीसी-मुस्लिम वोटर्स में विश्वास नहीं भर पाया व् वह काफी हद तक वोट देने ही नहीं निकले! इस अविश्वास को अमित शाह के "2002 दंगों बारे" आचार सहिंता तोड़ते हुए भड़काऊ बोलना और बढ़ा गया| कांग्रेस को इस बयान को तुरंत काउंटर करना था पर नहीं किया|
4) वोटिंग के दिन वोटिंग के बाद अचार सहिंता तोड़ते हुए मोदी का 2.5 घंटे का मार्चपास्ट वह भी टीवी से लाइव|
5) मोदी-शाह द्वारा आरएसएस को खुलकर दरकिनार करना, गुजरात में उन लोगों को रास आया जो हिन्दू तो हैं परन्तु आरएसएस को पसंद नहीं करते| साथ ही जैन तबका इसमें सबसे सक्रिय था| आरएसएस के लिए खतरे की घंटी है उसको ऐसे खुलकर दरकिनार किया जाना| ऊपर से मीडिया में व् भाजपा के पोलिटिकल गलियारों में कहीं भी आरएसएस के योगदान का जिक्र ना होना| क्योंकि मोदी-शाह की दर्किनारी के बाद भी "इनको नहीं तो किनको" के सूत्र पर आरएसएस ने वोट्स तो बीजेपी को ही डलवाये हैं|

2024 की शुरुवात जैन-युग की प्रारम्भ:
आरएसएस अब मोदी-शाह समेत जैनी लॉबी के उस दूरगामी प्लान में दरकिनार करने का सबसे मजबूत ध्येय बन चुका है जिसको "काबू सच्चा, झगड़ा झूठा" कहते हैं| जैनी, एक के बाद एक आरएसएस यानि सनातनियों (हिन्दू धर्म में मुख्यत: दो लॉबी तो हैं ही सनातनी व् आर्य समाजी) की मेहनत चट करते जा रहे हैं; जिससे अब वह एजेंडा साफ़ देखा जा रहा जो 2024 में जीत के बाद "जैन युग" से प्रारम्भ होगा व् सनातनी बुरी तरह से इस दिमागी लड़ाई में जैनियों से मात खाने जा रहे हैं|

हरयाणा की राह व् कांग्रेस:
"राहुल-गाँधी जी" की यात्रा को भुनाने का वक्त व् मौका दोनों हैं परन्तु अगर मुद्दों के साथ भुनाई गई तो, तो ही फायदा देगी| वरना गुजरात की तरह खाली बाई-पास दे दिया तो ज्यादा कुछ हासिल होगा इससे, इसमें संदेह है (गुजरात में कहाँ हुआ)| कांग्रेस को इस यात्रा के हरयाणा में एंटर होने से ले और आगामी लोकसभा व् विधानसभा चुनावों तक हर ब्लॉक लेवल तक अपना एजेंडा फिट करके उसको इतना पकाना होगा कि मोदी-शाह की तिगड़मबाजियां मंद पड़ जाएँ| इस यात्रा के तुरंत बाद ही बूथ-मैनेजमेंट, बूथ-कैडर ट्रेनिंग के निरंतर अभियान चलाने होंगे! बीजेपी-आरएसएस के भीतर के असंतोष बाहर लाने होंगे, मीडिया, सोशल मीडिया में उनपे चर्चे करवाने होंगे, ताकि इनका मानसिक बल तोडा जा सके! 35 बनाम 1 पर नब्ज टटोलनी होगी समाज की, जो कि अभी शांत है, परन्तु एलेक्शंस आते ही, बीजेपी इसको ऐसे उठाएगी, जैसे वेस्ट यूपी में किसान आंदोलन के बावजूद भी "मुस्लिम भय" उठाया व् उसके चलते इनसे नाराज होते हुए भी कुछ किसान बीजेपी को ही वोट दे गए; यह यही हरयाणा में करने वाले हैं , ऐन इलेक्शन के वक्त इस भूत को फिर भुनाने की कोशिश करेंगे| इससे निबटने के लिए लोगों की नब्ज टटोल के रखना होगा उनको मानसिक तौर पर उनके रोजगार-महंगाई-भलाई-हित-हितार्थ के मुद्दों से खिसक के इस नफरत की लाइन पे जा के वोट करने से रोकना होगा; जो बीजेपी ने भुनानी ही भुनानी है| असर कितना करेगी, कांग्रेस की सजगता व् ग्राउंड वर्क पर निर्भर करेगा|

फूल मलिक