Monday, 28 December 2015

बताओ लोकतांत्रिकता को कर्ज चुकाने का नाम देना कोई इन मीडिया में बैठे एंटी-जाटों से सीखे!

जाट ऐसा करते रहते हैं। और भी बहुत से गाँव हैं जिनमें जाट मेजोरिटी में होने पर माइनॉरिटी जाति को सरपंची दी है। अभी भिवानी की तरफ एक गाँव में एक धोबी (छिम्बी) जाति की महिला को जाट-बाहुल्य गाँव ने सर्वसमत्ति से अपनी सरपंच चुना है, जबकि उस गाँव में धोबी समुदाय का एक ही घर बताया जा रहा है और वो भी सिवानी-मंडी में रोजगार करता है। पिछले हफ्ते ही यह खबर अखबारों में थी।

तो इसका मतलब यह हुआ कि जाटों ने कोई कर्ज उतार दिया, उस लेडी को सरपंच बना के? या यह मीडिया वाले यह कहना चाहते हैं कि सारे गाँवों में जाट ऐसी ही माइनॉरिटीज को सरपंच बना दें और खुद रास्ते से हट जाएँ। अच्छे से समझता हूँ कि तुम लोग कौनसा शब्द और किस मंतव्य में प्रयोग करते हो।

महानता को महानता और लोकतांत्रिकता को लोकतांत्रिकता कहने की कूबत जिसमें नहीं हुआ करती वो ऐसे ही "चूचियों में हाड" ढूँढा करते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Source: http://www.bhaskar.com/news/HAR-AMB-OMC-jat-community-gave-sarpanchi-post-to-road-community-5207085-NOR.html?pg=0

अगर यूँ ईमारत पूजने से भगवान मिलें, तो मैं चौपाल क्यों ना पूजूँ!

 

जिसमें हर जाति-सम्प्रदाय का आदमी बेरोकटोक आ-जा सकता है, उठ-बैठ सकता है, सदियों से अपने झगड़े-दुखों का हल और न्याय पाता रहा है| इन चढ़ावा चढ़ाने वाली इमारतों में क्या मिलता है सिवाय कहीं "दलित प्रवेश निषेध" की तख्तियों के या अपनी गाढ़ी कमाई एक वर्ग विशेष को चढ़ा आने के?

हालाँकि मैं ऐसी संस्कृति में पला-बढ़ा हूँ जहां "दादा खेड़ा" के बाद "चौपाल" को ही सबसे पवित्र स्थल माना जाता है| हमारे यहां "दादा खेड़ा" के बाद जहां पर सामूहिक रूप से विभिन्न त्योहारों पर साफ़-सफाई या दिए लगाए जाते हैं वो "गाँव की चौपाल यानी परस" ही होती है; इसलिए यह अपने आपमें ही पूजनीय है| फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें चढ़ावा नहीं चढ़ाया जाता| यहां तक कि इसमें बैठ के समाज के झगड़े निबटाने वाले कोई शुल्क भी नहीं लेते| देर-सवेर कोई राहगीर आ के इसमें ठहर जाए तो उसकी जाति-सम्प्रदाय नहीं पूछा जाता|

मुझे गर्व है हमारी संस्कृति पर जिसके तहत यह "चौपालें-परसें" बनी| पूरे भारत में यह संस्कृति सिर्फ प्राचीन विशाल हरयाणा क्षेत्र में ही मिलती हैं| और विदेशों में इनको बनाने के लिए किसी प्रधानमंत्री विशेष को स्पेशल कहना नहीं पड़ता, क्योंकि भारत में इस क्षेत्र के साथ-साथ पूरे विश्व में यह कहीं "सेंट्रल हॉल", तो कहीं "होटल-दु-विल" आदि के नाम से अमेरिका से ले के इंग्लॅण्ड-फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया तक फैली हुई हैं|

इसलिए हमारी संस्कृति को मानने वाले याद रखें कि आपकी संस्कृति स्वत: ही इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड की है| इसमें खामियां हो सकती हैं, परन्तु इतनी बड़ी नहीं कि आप उनको सुधार के आज के अनुसार एडिटिंग करके फिट बनाने की बजाये; इनको छोड़ने या त्यागने की सोचें|
 
सौरम नगरी की ऐतिहासिक चौपाल और चबूतरे की कुछ फोटोज:
 
सर्वखाप पंचायत के मुख्यालय, सौरम नगरी की ऐतिहासिक चौपाल और चबूतरे की बड़े भाई साहब रोहणीत फॉर के सौजन्य से मिली कुछ फोटोज| फोटोज में चौपाल एक छोटे किले के रूप में दिख रही है|

कोई मित्र वहाँ से या सौरम के आसपास से हो तो कृपया इस चौपाल की हर मुमकिन एंगल से फोटोज खींच के साझा करे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Saturday, 26 December 2015

मोदी जी, यह बजरंगी भाईजान पार्ट 2 था या ग़दर पार्ट 2?:

जब सुषमा बुआ पाकिस्तान गई तो मुझे फील आई थी कि वहाँ क्या "भात न्योंतने" गई है| परन्तु यहां तो एक और उल्ट बात हो गई, यह लोग तो भाति (नवाज की बेटी की शादी में मोदी) भी खुद ही बन के चले गए (और बर्थडे-विश भी)| अजीब खिचड़ी मामला है इन भगत लोगों का भी| मतलब मौका भी ऐसा भावुक चुना कि अगर वो अकस्मात स्वागत से मना भी कर देते तो वही बुरे थपते|

हमारी संस्कृति में जिसकी दौड़ आपके यहां शादी-ब्याह में शमिल होने तक होवे वो आपका सबसे करीबी या रिश्तेदार माना जाता है| वाह रे भगतो, बेपेंदी ले लोटो, खड़ी दोपहरी पोल फटने पे कुछ लज्जा तो जरूर आ रही होगी| जिनको दिन-रात कोसते नहीं थकते उन्हीं के बर्थडे-विश और ब्याह-शादियों तक में बधाईयाँ दी जा रही हैं| पिछले वालों को जो लव-लेटर ना लिखने के तंज कसते थे, वो सीधे भात भर-भर आ रहे हैं| निकल गई फूंक सारी राष्ट्रभक्ति की?

वैसे तो पाकिस्तान से इनको और इनसे पाकिस्तान को नफरत इस स्तर की, कि कहवें हम जो हारे (बिहार चुनाव) तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे, और अगले ही पल खुद ही वहाँ भात के थाल लिए खड़े मिलते हैं| थाल के बदले हेमराज का सर भी नहीं लाये? वाह रे नौटंकियों क्या हैलुसिनेशन है, तुमने तो भांड भी पीछे छोड़ दिए स्वांग रचने में|

वैसे एक राज की बात बता दूँ, राजनीति में अकस्मात और एकाएक कुछ नहीं होता, सब कुछ बहुत पहले से स्क्रिप्टड होता है| बस फर्क यह है कि यहां स्क्रिप्ट लिखने वाले राजनेता या बिजनेसमैन होते हैं| भारत में पहले से घोषणा करके जाते, तो जनता इनका मोर बना देती| इसलिए जनता को बोलने का मौका ही नहीं दिया और भगतों को भी कम सफाई देनी पड़ी|

और भगत इस मामले को ढंकने के चक्कर में ऐसे हवाबाजी मार रहे हैं जैसे गदर का तारा वहाँ से शकीना ले आया हो|

बाकी भारत में राजनीती-वाजनीति कुछ है नहीं, कोरा बिज़नेस है बिज़नेस| पता नहीं जी न्यूज़ (Z-News) वाले के दिल पे क्या बीती होगी, जब पाया होगा कि उसका घोर विरोधी ही इस ड्रामे का स्क्रिप्ट राइटर था| वैसे चिकने घड़ों पे गुजरा-वुजरा कुछ नहीं करती, इनपे हाथ ठहरे तो इनका स्टैंड ठहरे| हाँ, इस एपिसोड की वजह से भगत लोगों की चक-चक से कांग्रेसी थोड़ी राहत ले सकते हैं| वो क्यों, आप समझ ही गए होंगे?

फूल मलिक

इससे पहले कि जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी का कुछ और अर्थ बन जाए, सावधान!

कहीं इन दो टैग्स की आड़ में फंडी-मीडिया-एन.जी.ओ. आपके घर में मंडी के जरिये पाड़ तो नहीं लगाए हुए हैं?
ज्यादा नहीं आज से डेड-दो दशक पहले तक भी हरयाणा (वर्तमान हरयाणा, वेस्ट यूपी, दिल्ली) के हर एक गाँव में कुनबे-ठोळे के बुजुर्ग लोग पाखंड-ढोंग-आडंबर से अपने घरों के संस्कार और धन दोनों सुरक्षित रखने हेतु अपने घर की औरतों की पाक्षिक अथवा मासिक काउंसलिंग किया करते थे| इन काउंसलिंग में चर्चा के साथ निर्देश भी होते थे कि धर्म के नाम पर आडंबर फैलाने वालों से कैसे और क्यों के बचे रहना है| सतसंग-कीर्तन में नहीं जाना है क्योंकि यह पाखंडी वर्ग द्वारा घर के पिछले दरवाजे से फंडी और व्यापारी दोनों का धन कमाने के जरिये से फ़ालतू कोई प्रसाधन नहीं|

आजकल मर्द, गाँव की बैठक-चौपालों में या शहर के चाक-चौराहों-धर्मशालाओं में बैठते तो हैं परन्तु इन बातों पर विरले ही चर्चा करके, अपनी औरतों से इन मुद्दों पर एक स्थाई कम्युनिकेशन बनाये रखे हुए हैं| जबकि मंडी-फंडी समुदाय अपनी औरतों को इस बात पर पूरी तरह ट्रैंड करता है कि कैसे किसान-ओबीसी-दलित की औरतों को शीशे में उतारना है और उनके यहां यह पाखंड (डर-ईर्ष्या-द्वेष-लालच) नाम की तमाम उम्र दूध देने वाली दुधारू गाय बाँध के आनी है| इन समुदायों (किसान-ओबीसी-दलित) की शहरी हो या ग्रामीण, दोनों वर्गों की औरतों की सोच में पाखंड के झांसे में आने के मामले में रत्तीभर भी फर्क नहीं; बल्कि शहरी तो ग्रामीण से ज्यादा झांसे में आई बैठी हैं| क्योंकि गाँव के मर्द तो आज भी अपनी औरत को टोकते हुए इतने नहीं कतराते, परन्तु ऐसा लगता है कि शहरियों ने तो यह चेक्स करने ही छोड़ रखे हैं|

और इसका सारा श्रेय जाता है समाज के प्रति खुद का ठोर-ठिकाना ना रखने वाले फंडी-मीडिया-एन.जी.ओ. को| इन तीनों की तरफ से इस शील्ड को तोड़ने की एक बड़ी सिलसिलेवार तीन तरफ़ा शुरुवात हुई|

हमारे यहाँ जो कोई भी गाँव की बहु-बेटी को छेड़ता-बदतमीजी करता उसको पब्लिक हियरिंग के जरिये सार्वजनिक दंड दिया जाता था, जिनको सबसे पहले इन एनजीओ वालों ने मानवाधिकार का मुद्दा बनाते हुए, बैन करवाने का सिलसिला शुरू किया| फिर एनजीओ वाले खुद तो देखते ही क्यों, कि जिस महिला-औरत से छेड़खानी हुई है उसके भी कुछ मानवाधिकार होते हैं| और ना ही यह पहलु ग्रामीण उठा पाये, जबकि इसको उठाने से इन एनजीओ वालों को बड़े अच्छे से टैकल किया जा सकता था| इससे हुआ यह कि गाँव में बुजुर्गों का आत्मबल और विश्वास मंद पड़ा और उन्होंने इन कार्यों में रुचि लेनी बंद कर दी और साथ ही औरतों की क्रमिक काउंसलिंग भी बंद होती चली गई|

फिर रोल आया फंडी का, हर गाँव में दो-चार ऐसी औरतें होती हैं जो 'घर बिगाड़ू और घुमन्तु' श्रेणी में आती है या यूँ कह लो कि जिनके यहां सिर्फ उनकी चलती है| अब सतसंग-पाखंड-कीर्तन-जगराते वालों ने इन औरतों से सम्पर्क साध इनको उकसाना शुरू किया और ऐसे हमारे गाँवों में इनकी एंट्री होनी शुरू हुई| शहर में तो खैर गाँव से मॉडर्न दिखने और इसी को शहरीपन मानने की अंधी लत में जो भी ग्रामीण हरयाणवी औरत शहर निकलती गई वो इनमें धंसती चली गई| और यह इसकी भी एक बड़ी वजह है कि क्यों आज शहरी हरयाणवी खुद को हरयाणवी कहने में भी शर्मिंदा महसूस करते हुए पाये जाते हैं|

तीसरा किरदार आया मीडिया का, इसने इस जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के मुद्दे पे ऐसे ललित निबंध टाइप के कार्यक्रम किये, कि मर्द भी बावले हो गए|

और यहां सफल हुआ इन तीनों यानी फंडी-मीडिया-एनजीओ का षड्यंत्र, और इसको फाइनेंस कौन देता था या आज भी देता है, वो दो हैं एक आपका घर और दूसरा मंडी|

सफलता यह हुई कि आपको थोथी जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के नाम पर बौरा दिया गया और आपने अपनी औरतों को टोकना बंद कर दिया| यानि इन तीनों की वह साजिस कामयाब हुई जिसके तहत इनको आपकी औरतों को आपके नियंत्रण कह लो या डायलॉग से छींटकना था| ताकि इनकी बातें घर की औरतें आपको ना बताएं और आप इनको टोकें ना| यानि आपके मुंह पे टैबू लगा दिया गया "जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी" का|

दूसरा औरतों ने पुरुषप्रधान समाज में अपना औचित्य और अस्तित्व सिद्ध करने हेतु अपने घरों में इतने अंधाधुंध मोडे-आडंबर-पाखंड-कीर्तन-जगराते-भंडारे घुसा लिए कि आज हर दूसरे घर में खड़ताल बजती हैं| और इसमें जिस चीज ने और अच्छे से हेल्प करी वो है औरतों का कोमल और भावुक हृदय, जिसको डराना, परिवार के हित या पड़ोसन से जलन के चलते वश में करना इन पाखंडियों के दायें हाथ का खेल है|

देखा है ना कमाल, अगर इनको जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी से कुछ लेना-देना होता तो उस औरत के भी मानवाधिकार इनको दीखते, जिसको छेड़ने वालों को आप सार्वजनिक सजा दिया करते थे?

अब चिंतनीय बात है कि इन चारों मंडी-फंडी-मीडिया-एनजीओ को जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी से कुछ लेना-देना होता तो ना ही तो आज कोख में बेटियां मर रही होती, ना हॉनर किलिंग हो रही होती, ना दहेज़ उत्पीड़न हो रहे होते| और अगर हरयाणा से बाहर की धरती पर निकल के चलो तो इन मुद्दों के साथ-साथ वहां ना विधवाएं पतियों की प्रॉपर्टी से बेदखल कर आश्रमों में बिठाई जा रही होती, ना देवदासियां मंदिरों में बिठाई जा रही होती, ना बहु-पति प्रथा होती, ना सतीप्रथा होती, ना पहली दफा व्रजस्ला होने पर लड़की का मंदिरों में सामूहिक भोग लग रहा होता| दुकानों-मकानों-फैक्ट्रियों-शॉपिंग माल्स-मंदिरों-ट्रस्टों आदि में आधा हिस्सा औरतों को देते|

इसलिए कृपया जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के इस वाले झांसे में मत फंसिए जो सिर्फ इसको कहने वालों की जेबें भरे और आपके घरों में किसी जहाज की तली में फूटे हुए छेद की भांति आपके घर को आर्थिक और आध्यात्मिक तौर पर इतना खोखला कर दे कि वो गोते खाने लग जाए या फिर एक दिन डूब ही जाए|

आगे बढ़िए और अपनी औरतों को समझाईये और रोकिये कि तुझे जेंडर इक्वलिटी और सेंसिटिविटी के नाम पर फ्रीडम चाहिए तो जा नौकरी कर ले, अपना कारोबार कर ले, जितना चाहे उतना पढ़ ले, या आगे बढ़ के समाज की सड़क-गली को इतनी सुरक्षित करने हेतु संगठन बना ले कि कोई भी लड़की दिन ढलते ही घर से निकलते हुए घबराये ना|

यह होगी असली वाली जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी| इसलिए आज के समाज के मर्द अपने घरों के यह तामसिक बैक-डोर एंट्री बंद करवाएं और फ्रंट-डोर खोल के अपनी औरतों को सात्विक जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी पर आगे बढ़ने में को प्रेरित करें|

वर्ना इतना समझ लेना अगर आप यूँ ही इस झूठी जेंडर सेंसिटिविटी और इक्वलिटी के नाम पर अपने घरों में औरतों को हर उल-जुलूल पाखंड को घुसाने की मौन भरी चुप्पी दिए रखे तो इन चारों (मंडी-फंडी-मीडिया-एनजीओ) ने तो आपके घर की ना सिर्फ आर्थिक हैसियत वरन आध्यात्मिक और बौद्धिक हैसियत भी उस कंगाली और दिवालियेपन के स्तर तक ले जाने की ठानी हुई है, जहां आप सिर्फ इनके इशारों मात्र पे एक दुम हिलाने वाले पालतू से ज्यादा कुछ नहीं रह जाओगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

चौधरी छोटुराम जी की सोच व संघर्ष:

चौधरी छोटुराम जी की सोच व संघर्ष चौधरी छोटुराम जी की सोच व संघर्ष:

1)     औरतों पर अत्याचार बंद करें| चौधरी छोटूराम ने औरतों पर अत्याचार बंद करवाने के लिए 'जेण्डर इक्विटी एक्ट-1942 बनाकर उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिलाए। पंचायती राज स्थापित कर औरतों को 50 प्रतिशत सीटों पर भागीदारी दी। विधानसभा में 20 प्रतिशत सीटें प्रथम बार 1943 के चुनाव में तथा पांच वर्ष बाद 50 प्रतिशत सीटें देने का प्रावधान किया। औरतों को शिक्षित करने के लिए नारी-शिक्षा को अनिवार्य करने का प्रस्ताव पास कराया। परन्तु यह काम इसलिए अधूरे रह गए, क्योंकि चौधरी छोटूराम का देहान्त 1945 में ही हो गया। और विरला समाज सुधारक इस दुनिया से विदा हो गया।

2)     मुलतान जिले (हाल पाकिस्तान) में दलितों को कृषि भूमि देना दीनबंधू सर छोटूराम का दीनबन्धू नामकरण दलितों द्वारा किया गया, क्योंकि इन्होंने कहा था कि दलित शब्द समाप्त करना जरूरी है नहीं तो शोषित वर्ग समाज में बराबरी पर नहीं आ सकता। 13 अपे्रल 1938 को जब ये कृषिमंत्री थे तब भूमिहीन दलितों को खाली पड़ी सरकारी कृषि भूमि 4 लाख 54 हजार 625 एकड़ (किले) जो मुलतान जिले में थी भूमिहीन दलितों को रु. 3/- (तीन) प्रति एकड़ जो 12 वर्षों में बिना ब्याज, प्रतिवर्ष चार आने किश्तों पर चुकाने की शर्तों सहित अलॉट कर दलितों को भू-स्वामी बनाया। दलितों ने सर छोटूराम को दीनबन्धू का नाम देकर इन्हें हाथी पर चढ़ा कर ढोल-नगाड़ों से जुलूस निकालकर जलसा किया। ऐसे पड़ा था इनका नाम दीनबन्धू।

3)     छुआछूत बुराई कानून राज्य में 1 जुलाई 1940 को सर छोटूराम ने यह कानून बनाकर सख्ती से लागू कर दलित शब्द मिटाने का वचन निभाया। एक सरकुलर जारी किया गया, जिसके अनुसार सारे पब्लिक कुएं सारी जातियों के लिए खोल दिए गए। इससे दलितों को इंसानी हकूक कानूनी तौर पर मिल गए, जिससे वह सदियों से रिवाज और जाति-पाति के चक्करों से वंचित कर दिए गए थे। जमींदारा पार्टी का यह फैसला लागू होने पर मोठ गांव में स्वर्णों ने दलितों को कुओं पर चढऩे से रोकने पर खुद चौ. छोटूराम ने वहां जाकर समझाइश कर दलितों को कुएं पर चढ़ाकर पानी भरवाकर घड़े दलित महिलाओं के सिर पर चकवाकर उनका सम्मान बढ़ाया।

4)     इसके अतिरिक्त सरकारी हुक्म जारी कर दिए कि कोई ऑफिसर किसी दलित या पिछड़ी जाति के आदमी से किसी प्रकार की 'बेगारनहीं लेगा। सरकारी दौरे पर दलित से अपना सामान नहीं उठवाएगा। हिदायत दी कि बेगार लेना कानूनी जुर्म है। इन्सान की बेकदरी है।

5)     मुस्लिम समाज से भाईचारा सर छोटूराम ने नेशनल यूनियनिस्ट जमींदारा पार्टी वर्ष 1923 में बनाई, परन्तु सर फजली हुसैन जिन्होंने इंग्लैण्ड से वकालत की थी को इसका अध्यक्ष बनाया। जब जमींदारा पार्टी वर्ष 1935 में सत्ता में आई तब सर सिकन्दर हयात खां एक मुस्लिम को वजीरे आला (मुख्यमंत्री) बनाया। सर सिकन्दर हयात खां लन्दन स्कूल ऑफ इकनोमिक्स से पढ़े विद्वान थे जो उस समय रिजर्व बैंक - दिल्ली में इसके गवर्नर थे। सर सिकन्दर हयात खां के देहान्त के बाद इन्होंने उसके पुत्र सर खीजर हयात खां को वजीरे आला बनाया। सन् 1945 में चौधरी छोटूराम के देहान्त के बाद सर खीजर हयात खां को इतना सदमा लगा कि वह देश छोड़कर इंग्लैण्ड यह कहते हुए चला गया कि जब चाचा ही नहीं रहे तो अब शासन किसके सहारे करूंगा।

6)     राजपुताना में कुम्हारों पर लगी 'चाक लागको समाप्त कराया दीनबन्धु सर छोटूराम ने राजपुताने के राजाओं तथा ठिकानेदारों द्वारा कुम्हारों के घड़े व मिट्टी के बर्तन बनाकर बेचने पर 'चाक लागलगा रखी थी जो रु. 5/- वार्षिक अदा करनी पड़ती थी। राजाओं का कहना था कि जिस मिट्टी से कुम्हार बर्तन व घड़े बनाकर बेचते हैं वह मिट्टी राजाओं की जमीनकी है, इसलिए यह लाग देनी पड़ेगी। सर छोटूराम ने 5 जुलाई 1941 को बीकानेर में कुम्हारों को इक्ट्ठा कर महाराजा गंगासिंह से बातचीत कर इन्हें इस 'चाक लागसे मुक्ति दिलाई। कुम्हारों ने खुश होकर सर छोटूराम को एक सुन्दर 'सुराहीजिसमें पानी ठण्डा रहता हंै भेंटकर सम्मान किया। सर छोटूराम ने मरते दम तक वह सुराही अपने पास रखी।

7)     'कतरन लागसे नाइयों तथा नायकों को मुक्तिनायक तथा बावरी जातियां भेड़-बकरियां पालती थी। भेड़-बकरियों के बाल तथा ऊन कतरने पर ठिकानों ने 'कतरन लागलगा रखी थी। इसी प्रकार नाइयों द्वारा बाल काटने का धन्धा करने पर इस कतरन लाग का भुगतान करना पड़ता था। सर छोटूराम ने 26 जुलाई 1941 को मारवाड़ के गांव रतनकुडिय़ा तथा पहाड़सर में भेड़-बकरी पालकों को इक्ट्ठा कर 'कतरन लागके विरूद्ध प्रदर्शन कर इस 'कतरन लागसे इन्हें मुक्ति दिलाई।

8)     'बुनकर लागका उन्मूलन कर बुनकरों को राहतबुनकर जो अधिकतर जुलाहे मेघवाल समाज से होते थे जो डेवटी की रजाई का कपड़ा, खेस, चादर तथा मोटा कपड़ा रोजी-रोटी कमाने के लिए बुनकर बेचते थे। सूत गृहणियां कातकर उन्हें देती थी और वे उस सूत से उनकी इच्छानुसार वस्तुएं बुनकर दे देते थे। शेखावाटी तथा मारवाड़ और विशेषतौर पर जयपुर, पाली तथा बालोतरा में यह काम जोरों पर था। ठिकानेदारों न इस काम पर 'बुनकर लागरखा रखी थी। जिसका विरोध 4 वर्षों तक सन् 1937 से 1941 तक सर छोटूराम ने अपनी अगुवाई में करके समाप्त कराया। बालोतरा में 9 अगस्त 1941 को ठिकानेदारों ने जुलाहों के घरों को लाग नहीं देने पर आग लगा दी जिससे सारा कपड़ा जल गया। सर छोटूराम वहां गए और 8 दिन भूख हड़ताल की तब जाकर जोधपुर के राजा का सन्देश आया कि यह लाग समाप्त कर दी गई है। सर छोटूराम ने 28 मेघवाल परिवारों को नुकसान की भरपाई के लिए रु. 1500/- प्रत्येक परिवार को राजा से दिलवाने की मांग पर अड़ गए। तीन दिन बाद राजा ने प्रत्येक परिवार को रु. 1500/- देने की घोषणा की। ऐसे संघर्ष सर छोटूराम ने मंत्री पद पर रहते हुए किसानों और दलितों की भलाई के लिए किए जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।

9)     जागीरदारी प्रथा - लगान वसूली व बेगारों में निर्दयता रियासती काल में ठिकानें जागीरदारों के अधीन थे। जागीरदार उनसे अनेक प्रकार की श्रमसाध्य और जानलेवा बेगारें लेते थे। ये जागीरदार बड़े ही निरंकुश और अत्यन्त मनमानी करने वाले माने जाते थे। जागीरदार की मर्जी ही कानून था। यदि किसान से लगान वसूली नहीं होती तो किसान को पकड़कर ठिकाने के गढ़ या हवेली में लाया जाता और उसके साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया जाता था, जैसे - काठ में डाल देना, भूखा रखना आदि दण्ड - उपाय, जो एक जघन्य अपराधी के खिलाफ भी प्रयोग में नहीं लिए जाते थे। गरीब किसान के लिए यह अत्यंत लज्जाजनक किन्तु आक्रोश पैदा करने वाली स्थिति थी। इन सजाओं की कोई सीमा न थी, कोई कानून न था, कोई व्यवस्था न थी और कोई विधि-विधान भी न था। खड़ी खेती कटवा लेना, पशु खुलवाकर हांक ले जाना, घर-गृहस्थी के बर्तन, कपड़े लते उठा लेना और किसान की मुश्कें कसवा देना साधारण बात थी। दाढ़ी-मूछें उखाड़ लेना, भूमि से बेदखल कर देना कोई बड़ी बात न थी। किसान तथा उसके परिजनों को गोली का निशाना तक बनाया जाने लगा था। जागीरदार की हवेली में हाथ का पंखा दलितों से खिंचवाया जाता था और थोड़ी चूक करने पर अपशब्द बोले जाते थे।

10)  सामाजिक दमनचक्र सामाजिक दमन का चक्र कितना गम्भीर था, इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ पिछड़ी जातियों के लोग वहां के सवर्ण जातियों के लोगों के सामने चारपाई पर नहीं बैठ सकते थे। उनके सामने पांचों कपड़े नहीं पहन सकते थे। यह लोग किसी तीर्थ में स्नान भी नहीं कर सकते थे। जागीरदार के घर बेटी पैदा हो गई तो एक मण अनाज की लाग किसान पर थी जिसे 'बाई जामती की लागकहते थे और लड़की की शादी होने तक हर साल गाजर, मूली, शकरकन्द की एक क्यारी किसान को देनी पड़ती थी। नाच-गानों का मेहनताना 5 सेर अनाज ढाढ़ी का व 5 सेर भगतण को किसान को ही देना पड़ता था।

11)  किसान की जाति क्या है चौधरी छोटूराम ने कहा था कि किसान की जाति उसकी पार्टी है। आज से जो किसान होगा चाहे वह दलित हो या सवर्ण, अगर वह जमींदारा पार्टी से जुड़ा है तो वह जमींदार कहा जाएगा। वह जमींदारा पार्टी का सच्चा सिपाही और जमींदार होगा।

12)  युवा वर्ग व नारियों को उचित प्रतिनिधित्व चौधरी छोटूराम ने युवावर्ग तथा महिलाओं को राजनीति में उचित स्थान दिया। वे कहते थे कि युवावर्ग तथा महिलाओं के बगैर राजनीति सारहीन है। प्रत्येक चुनावी वर्ष में उम्मीदवारों का बदलाव जरूरी है ताकि अन्य उम्मीदवारों को आने का मौका मिले। बार-बार एक ही व्यक्ति या एक ही परिवार के व्यक्तियों को उम्मीदवार बनाने से समाज में आक्रोश पैदा हो जाता है। जिस प्रकार फसलें फेर-बदल कर बोनी चाहिए, राजनीति भी इस सिद्धान्त से अछूती नहीं। योग्य तथा योग्यता के सिद्धान्त के आधार पर उम्मीदवारी तय की जाए। पढ़े-लिखे उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाए।

13)  बदलाव करना नितान्त आवश्यक है। स्टूडेन्ट्स कान्फे्रंस सन् 1934 के दिसम्बर महीने में 'अखिल भारतीय जाट स्टूडेन्ट्स कान्फे्रंसका आयोजन मास्टर रतनसिंह के संयोजकता में पिलानी कस्बे में किया गया। कॉलेज के विद्यार्थी तथा प्रोफसरों ने भारी परिश्रम किया। कॉन्फे्रंस का प्रधान सर छोटूराम को बनाया गया व कुंवर नेतराम सिंह स्वागताध्यक्ष थे। सर छोटूराम का जुलूस हाथी परसज-धज के निकला जिसे देखने को सारा शहर उमड़ पड़ा। चौधरी रामसिंह, ठाकुर झम्मनसिंह, ठाकुर देशराज, सरदार हरलाल सिंह आदि गणमान्य व्यक्ति भी पधारे। विभिन्न प्रान्तों एवं देहातों से बड़ी तादाद में किसान शरीक हुए थे। इस सम्मेलन में युवाओं ने नई जान फूंक दी। सर छोटूराम ने उस वक्त यातायात के साधन ना होते हुए भी जगह-जगह घूमकर किसानों में जागृति पैदा की जिसे यह सामाज कभी भूल नहीं सकेगा। आज भी किसानी और किसान को बचाने के लिए युवा वर्ग हिचकोले ले रहा है। अब वह दिन दूर नहीं कि किसान क्रांति आकर रहेगी।