Saturday, 16 January 2016

चढ़ गई धाड़ जाट की, गूँज उठा ललकारा!

1620 में दादा चौधरी बिछाराम गठ्वाला, डबरपुर के नेतृत्व में सर्वखाप ने अपनी लाड़ली समाकौर की आन हेतु जब कलानौर रियासत तोड़ के कौला पूजन की प्रथा समाप्त करवाई तो उस वक्त यह सूक्ति बहुत मशहूर हुई थी:

कुंडू चढ़ गया, सांगवान बंध गया,
पाला मलिक सिरोही, सहरावत चढ़े नरवल लठवाला,
चढ़ गई धाड़ जाट की, गूँज उठा ललकारा!
ढोला चढ़ गया मालका गैल, माँझु और गठ्वाला!


पुस्तक: जाट इतिहास - समकालीन संदर्भ,
लेखक: श्री प्रताप सिंह शास्त्री, पत्रकार

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आमिर खान की दंगल के विरोध से आरएसएस, एक पंथ दो काज साध रही है!

वैसे आमिर खान भी बड़ा राजी हो के मंडी-फंडी के प्रोपेगैंडों पर चलते हुए कभी सत्यमेव जयते में खापों को बदनाम करता था तो कभी जाटों को असभ्य बोलता था| आज जब इससे मतलब सिद्द गया तो देखो मंडी-फंडी अब कैसे एक्सपोज करने पे लगे हुए हैं इसको| चलो इस बहाने आमिर खान को अहसास तो हो गया होगा कि समाज के असली असभ्य लोग कौन हैं|

मंडी-फंडी आमिर खान की 'दंगल' फिल्म तक का बहिष्कार करवाने जा रहे हैं और ऐसा करते हुए वो यह भी नहीं सोच रहे कि कुछ भी हो आखिर इस फिल्म के जरिये चार हिन्दू जाट लड़कियों और उनके पिता के संघर्ष व् सफलता की गौरवगाथा को पर्दे पर लाया जा रहा है| इसलिए तुम्हें विरोध करना है तो इसकी किसी और फिल्म का कर लेना| एक तो वैसे ही हरयाणवियों और जाटों पर कम सकारात्मक फ़िल्में बनती हैं ऊपर से जो बढ़िया ढंग की आएगी, उसका यह कच्छाधारी विरोध करवाएंगे|

यानि मुस्लिमों का भी विरोध, हरयाणवियों और जाटों का भी विरोध, हो गए एक पंथ दो काज|

वर्ना आमिर खान का ब्यान इतना बड़ा तो नहीं था जितना बड़ा ब्यान नरेंद्र मोदी ने विदेश में 'भारत में उनका जन्म लेना पिछले कर्मों का दुष्परिणाम" या ऋषि कपूर का यह कहना कि "मैं खाता हूँ बीफ, रोक लो मुझे" थे? और वैसे भी यह लोग आमिर खान की बीवी जिसका यह बयान था उसपे तो कुछ नहीं बोल रहे? हालाँकि अच्छा है आमिर की अक्ल ठिकाने आ जाएगी इससे, कि मंडी-फंडी खुद के सिवाय किसी के नहीं होते और वह शायद आगे ऐसे काम ना करे|

भाई मैं तो यह फिल्म जरूर देखूंगा और इसका प्रचार भी करूँगा, फिर किसी कच्छे वाले को मेरे खिलाफ मोर्चे निकालने हों या पुलिस में केस करना हो तो, करता फिरे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 15 January 2016

राजकुमार सैनी बड़े बोल मत बोलिए!

याद करिये वो जमाना जब महात्मा ज्योतिबा फुले को माली (सैनी) कम्युनिटी को फंडियों के चंगुल और शूद्र उत्पीड़न से बचाने हेतु आवाज उठानी पड़ी थी| इतनी जल्दी भूल गए क्या सैनी समाज की दुर्दशा? ऐसा क्या दे दिया है आपको मंडी-फंडी ने जो आज उन्हीं परम्परागत दुश्मनों की शय पर एक ऐसी जाति के खिलाफ जहर उगलते हो, जिनके सर छोटूराम की वजह से आपकी कम्युनिटी को किसानी स्टेटस मिला था और जमींदार कहलाये थे? लाहौर कोर्ट के दस्तावेज निकलवा के पढ़ लो जब अंग्रेजों ने ब्राह्मणों-मालियों-धोबियों-खातियों को किसानी स्टेटस देने से मना कर दिया था तो इस जाट के जाम ने दिन के दिन लाहौर विधानसभा से बिल पास करवाया था और तब आपके समाजों को जमीनें मिली थी|

मैं यह तो नहीं कहता कि जाट कोई खुदा हैं, बहुत सी खामियां हैं इस समाज में भी परन्तु याद रखना जिस दिन जाट रुपी दिवार बीच से हट गई, उस दिन मंडी-फंडी रही-सही खाल भी बेच खाएंगे आपके समाज की| ना यकीन होता हो तो एक बार महाराष्ट्र घूम के देख आओ, कि वहाँ आज भी क्या दशा और स्टेटस बना के रखते हैं फंडी लोग आपके समाज का|

आप जैसे लोगों की वजह से ही वो कहावतें चलती हैं कि लम्हों ने खता की और सदियों से सजा पाई| मत खेलिए इनके हाथों में कठपुतली बनके, वर्ना किसान कौम की बर्बादी की जब दास्ताँ लिखी जाएगी तो आपका नाम सबसे ऊपरी नामों में आएगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

कौनसा राजा जी को 'भारत-रत्न' दे दिया?

एक भाई ने कही कि "मोदी ने अफगानिस्तान में जाट राजा महेंद्र प्रताप जी की तारीफ करनी पड़ी, वो खबर पढ़ी क्या?"

मैंने कहा' "और मखा आप इतने पे ही कूदने पड़ रहे हो, कौनसा राजा जी को 'भारत-रत्न' दे दिया, अगर जिक्र कर दिया या करना पड़ा तो? यहीं तो जाट भोले रह गए।"

मोदी तो जब फ्रांस गया था तब वहाँ प्रथम विश्व युद्ध के उसी वॉर-मेमोरियल पर शीश भी नवा के आया था जिसमें सबसे ज्यादा सैनिक रहबरे-आज़म सर छोटूराम के भर्ती करवाये हुए गए थे? तो मखा लिया वहाँ सर छोटूराम का नाम?

यें व्यापारी हैं, इनको जो करने में दो पैसे का भी फायदा दिखे, वहाँ यह नाम ही क्या, पूरी वंशावली तक बाच के सुना देवें, परन्तु असली बात तो तब मानूँगा जब राजा महेंद्र प्रताप और सर छोटूराम को "भारत-रतन" देवें।
मखा यें थाळ की बची-खुची खुरचन वाली बाकळियों में आप राजी हो सको, मैं नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट-जट्ट-जुट्ट की साँझी संस्कृति!

जाट-जट्ट-जुट्ट की साँझी संस्कृति सिद्ध करती है कि जाट एक ऐसी नश्ल है जो अपने अंदर हर धर्म को समाहित किये हुए है। जाट वो शब्द नहीं जो किसी धर्म में समाहित हो जावे| जाट वो हस्ती है जिसमें सब धर्म किसी संगम की भांति समाहित होते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक










































 

Thursday, 14 January 2016

जाट को अपने ऊपर से धार्मिक नहीं होने का टैग हटवाना होगा!

अक्सर सोचा करता हूँ कि जिस जाट और सहयोगी जातियों के यहां परम्परा रही कि जब भी नया गाँव-नगर-नगरी बसाई तो सबसे पहले उसका "दादा खेड़ा" पूजन किया गया| यानी उस बसासत की मिटटी और सर्वप्रथम पुरखों को देवता माना गया| तो फिर भला वास्तव में हुए भगवानों को पूजने वाले जाट अधार्मिक कैसे हो जाते हैं?

मेरे विचार से यह काल्पनिक भगवानों को पुजवाने वालों का फैलाया हुआ चोंचला है जिनको चाहिए कि जाट और सहयोगी जातियों का अपने वास्तविक भगवान "दादा खेड़ा जी" से ध्यान हटे और इनकी उल-जुलूल कोरी काल्पनिकताओं की परिकल्पनाओं को ढोता रहे|

मैं यहां यह बात कहते हुए इतना भी संवेदनशील हूँ कि किसी की काल्पनिकता को भी समाज में स्थान मिले, पहचान मिले परन्तु इस स्तर की नहीं कि वो भगवान बना के समाज में जड़ता पैदा करने लगे| उदाहरण के तौर पर डिज्नीलैंड| अब डिज्नीलैंड को कल को भगवान बना के पुजवाने लगे तो क्या यह व्यवहारिक है? हाँ उस काल्पनिकता को सम्मान देते हुए उसके एम्यूजमेंट पार्क बना दो, परन्तु कृपया करके उसको भगवान मानने की गलती मत करो|

बस यही छोटा सा खेल है सारा जाट और सहयोगी जातियों को विचलित किये रखने का, उसको बिचलाये रखने का| अब क्योंकि वास्तविकता को सबसे ज्यादा पूजने वाली जाति जाट है तो यह सबसे पहले अधार्मिक होने का ठीकरा जाट पे फोड़ते हैं, ताकि इससे अन्य जातियों में यह संदेश जाए कि देखो जाट तो अधार्मिक है या जब जाट ही अधार्मिक है तो फिर तुम किधर जाओगे| और उस जाने के चककर में समाज हो लेता है इनके पीछे|

"दादा खेड़ा" भगवान की थ्योरी समाज में फैलो (fellow) बनाने की है जबकि इनकी थ्योरी सिर्फ और सिर्फ फोल्लोवेर (follower) बनाने की| "दादा खेड़ा" पे कभी कोई पुजारी नहीं बैठाया गया और ना ही मूर्ती रखी गई क्योंकि यह स्थल पूरे गाँव-नगर-नगरी की नींव का प्रथम स्मारक स्थल होता है| जबकि इनके यहां सब तामझाम चाहियें, क्योंकि इनको फोल्लोवेर (follower) जो बनाने होते हैं| जबकि "दादा खेड़ा" की भक्ति उन्मुक्त होती है, जाओ पुरखों को शीश नवाओ, उस स्थल की साफ़-सफाई सुनिश्चित करो और हो गया|

बस यही मूल है जिसको जाट को बचाना होगा| अन्य समाज आपके साथ है और रहा है, परन्तु तब तक जब तक आपने अपनी राह नहीं छोड़ी| 'फैलो' बनाने की राह है जाट की 'फोल्लोवेर्स' बनाने की नहीं|

ताकि फोल्लोवेर्स बनाने वालों का प्रभाव ज्यादा ना बढ़ पाये, इसलिए जाट को जरूरी है कि उसके और सहयोगी जातियों के इतिहास में जो ऐतिहासिक हुतात्मा और युगपुरुष हुए हैं उनकी जीवनियों पर गाथाएं बनवा के उनका प्रचार करे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बन जाओ फ़ौज भी तुम ही, बोल दूंगा तुम्हें राष्ट्रभक्त!

मैंने एक कथित सनातनी कट्टर राष्ट्रवादी से पूछा कि भाई तुम लोग मुस्लिम पाकिस्तानी कट्टरवादियों की भांति जैसे वो भारत में घुस के हमारे लोगों को मारते हैं, ठीक ऐसे ही तुम लोग क्यों नहीं घुसते पाकिस्तान में?
महाशय बड़ा घुन्ना व् सदियों का रटा-रटाया तर्क लिए, चले आते हुए फरमाने लगा कि सनातन धर्म की रीत रही है कि हमने शांति से जीना सीखा है और देश की सीमा से बाहर आक्रमण करना हमारी रीत नहीं रही|

मखा चोखा ओ पहाड़ी बुच्छी, देश की सीमा से बाहर जा के तुम्हें आक्रमण करने नहीं और देश के अंदर किसी को चैन से रहने देना नहीं| वैसे भी वर्ण और जाति व्यवस्था से ही तुम्हारा मन जो भर जाता है समाजों में उथल-पुथल मचाये रखने का| और फिर तुम्हारी इस नीति को भारत से बाहर कोई झेलेगा भी नहीं, इसलिए बहाना अच्छा है कि हम शांतिप्रिय और देश की सीमा से बाहर आक्रमण करने वालों में नहीं है|

शायद तुम्हारी इसी शांतिप्रियता का ही तो नतीजा है कि ईरान से ले के कम्बोडिया तक कभी एक बताये जाने वाला यह भू-भाग आज वर्तमान भारत के रूप में सिकुड़ के रह गया| चीन-जापान तक जिस बुद्ध ने भारत का झंडा फहराया उसको तुमने भारत से उखाड़ फेंकने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी| अच्छा मजाक है शांतिप्रिय और देश की सीमा के भीतर|

अनोखे लोग हैं यह, जो धर्मभक्ति को ही देशभक्ति मनवाने पे तुले हैं| यह तो वो धक्के की माँ वाली हो रखी है कि एक बहुत ही बिगड़ैल भाभी थी, जिद्द पे अड़ गई और देवर से बोली कि मुझे माँ बोल| देवर बोला भाभी माँ| तो वो बोली कि नहीं सिर्फ माँ बोल| वो बोला कि सिर्फ माँ कैसे बोलूं? वो बोली कि ले मैं बुलवा के दिखाती हूँ| करके के त्रियाचरित्र, लगा के देवर पे छेड़खानी का आरोप और डलवा दिया जेल में| थाने में जा के बोली कि अब भी वक्त है बोल दे माँ| बोला कि नहीं| फिर पड़े पुलिस के डंडे और हुआ दर्द तो बेचारा लाचार हो के चिल्लाया "हाय रे धक्के की माँ"! यही कुछ इन तथाकथित राष्ट्रवादियों के साथ हो रखी है कि बोलो हमें राष्ट्रभक्त| धंधा धर्म का करते हैं, टैग इनको राष्ट्रभक्ति का चाहिए, तो देश की फ़ौज क्या भाड़ फोड़ने के लिए है? बन जाओ फ़ौज भी तुम ही, बोल दूंगा तुम्हें राष्ट्रभक्त|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 13 January 2016

जाटों को सबके मसीहा बनने के ढोंग से अब बाज आना होगा!

मेरा सवाल है दादरी कांड पे अवार्ड लौटने वालों से भी और अभी मालदा कांड पे दादरी कांड पे अवार्ड लौटने वालों की चुप्पी पे सवाल उठाने वालों से भी कि यह हरयाणा में "जाट बनाम नॉन-जाट" पे क्यों नहीं तुम लोग अवार्ड लौटाते; मालदा पे रोने वाले तुम लोग क्यों नहीं पहले हरयाणा के जाट बनाम नॉन-जाट पे रोते?

और इनसे भी बड़ा सवाल उन जाटों से है जो दादरी कांड पे भी दुःख मनाते हैं और मालदा के लिए भी रोते हैं| तुम इन अपने ही धर्म वाले कहलाने वालों द्वारा जाट कौम को दिए दुखों, उत्पीड़नों और भेदभावों पे कब रोवोगे? बाज आ जाओ सबके मसीहा बनने का ढोंग करने से ऐ नादाँ जाटो, वर्ना ढूंढी ना मिलेगी तुम्हारी जाटू सभ्यता और जाटू बोली| और यह नहीं बचे तो फिर तुम्हारा कोई नामलेवा ना होगा; शायद तुम खुद भी खुद को जाट कहने से डरा करोगे|

इसलिए सुनो ओ सबके मसीहा बनने वालो, अब तो रुक के साँस ले लो; आज तुम्हारी मसीहाई की सबसे ज्यादा जरूरत तुम्हारी अपनी कौम की जाटू सभ्यता और जाटू बोली को है| इनके यह कभी दादरी तो कभी मालदा के रुदाली विलाप तो तब भी चलते रहेंगे जब तुम इनके दर पे अपनी चमड़ी भी बेचने लग जाओगे या बेचने की नौबत तक पहुंच जाओगे; परन्तु क्या उससे तुम्हारी अपनी सभ्यता संस्कृति बच पायेगी? आज खड़ा करो जाटों का कोई तक्षिला या नालंदा; जिसमें सिर्फ जाट-खाप-हरयाणा शब्दों और इनसे जुडी काल्पनिकता से दूर वास्तविक और व्यवहारिक थ्योरियों पर ही शोध-विमर्श-मंथन और चर्चे होवें|

दिखती सी बात है जो खुद की कौम की मसीहाई करने से डरता हो, वो बाकी के समाज की मसीहाई भी उसी हद तक कर पाता है जहां तक उसको अकेले पड़ जाने का डर ना सताने लग जाए| और ज्यूँ ही डर सताने लगता है तो इनसे जुड़ने का कारण बस वही डर ही रह जाता है और यही बैठा दिया गया है आपके दिलों में कि कहीं हम अकेले तो ना पड़ जावें इसलिए इनके सुर-में-सुर मिलाने में ही भलाई|

कैसी पीढ़ी हो आप आज के जाट कि "जाट बनाम नॉन-जाट" के अखाड़े सजे खड़े हैं, आपको अकेला छोड़ दिए जाने के पुख्ता इंतज़ाम हो चले हैं और आप फिर भी सबकी मसीहाई का ठेका लिए टूल रहे हो| जरा ठहरो, लौटा दो इनके ठेके और पहले अपनी कौम-सभ्यता रुपी घर की मसीहाई का धर्म पुगाओ|

याद करो अपने पुरखों का जमाना, जिनकी चाल पे चल के उत्तरी भारत ने सभ्यता जी है| यह जो आज आपसे छींटक के जाते से प्रतीत होते हैं इनको हमारे पुरखे पकड़ के नहीं लाये थे या इनकी मानमनुहार नहीं किया करते थे कि आप जाटू सभ्यता से जियो या जाटू उर्फ़ हरयाणवी बोली बोलो| यह लोग बोला करते थे क्योंकि वो हमारे पुरखे जाट अपनी सभ्यता और बोली को गर्व से पकड़ के रखा करते थे| जी हाँ, सामाजिक परिदृश्य में सभ्यता और बोली का गर्व ही वो अस्त्र है जिसको पकड़े रहने पर ही दूसरे लोग आपसे जुड़े रहते हैं|

ग्लोबल सोच की कौम है हमारी, इसको जाट बनाम नॉन-जाट के षड्यंत्र से हो सकने वाले अलगाव के भय के चलते मत त्यागो| हिंदी-हरयाणवी-अंग्रेजी को सीखते और काम में लेते हुए हमें अपनी सभ्यता-संस्कृति और बोली की मसीहाई करनी है अब|

अत: "तुम अपनी जगह राजी, हम अपनी जगह राजी" उर्फ़ "ना इनसे से बैर ना इनसे से दोस्ती" की नीति पे चलना ही आज की घड़ी में अपनी सभ्यता-संस्कृति बचने का सर्वोत्तम रास्ता होगा| कारोबारी राह पर आंच ना आवे और हमारी सभ्यता-संस्कृति भी जीवंत-अनंत चलती रहे, ऐसी राह और ऐसे सूत्र निकालने होंगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 12 January 2016

मखा ओ सुन जाट की अक्ल घुटनों में बताने वाले!

मैंने भी कह दिया उसको उस दिन, "मखा ओ सुन जाट की अक्ल घुटनों में बताने वाले"! जाट के बच्चे को कोई खरोंच भी मार दे तो जाट अगले ही पल अगले का चाम उतार दे और मखा तुम्हारे तो वंश के वंश 21-21 बार मारे बताये और तुमको फिर भी दर्द नहीं, वरन उन्हीं की स्तुति और भक्ति करते नहीं थकते| मखा मुझे हंसा मत, पहले अपनी अक्ल ढूंढ कि तेरी कहाँ खोई है| इन द्वारा मारे अपने उन पुरखों के लिए कोई दर्द या सम्मान नहीं जिसमें, वो तू मुझे बताएगा कि मेरी अक्ल कहाँ है? जिनकी तुम स्तुति और भक्ति करते हो उनसे हम "जाट जी" कहलवाते और लिखवाते आये हैं| और इतनी अक्ल भतेरी हमनैं| कोई जवाब ना सूझ कहने लगा कि क्षत्रिय तो तुम भी हो, जो 21 बार मारे थे वो तुम्हारे भी तो थे| मैंने पड़ते ही जवाब दिया मखा हमें तो शूद्र बतावैं, हम इनके लिए क्षत्रिय कब से हो गए? हाँ वो अलग बात है कि हमारे शौर्य का डंका बिना इनके तमगों और टैगों के यूरोटनल से ले चाईना तक बजता आया और बजता है| और मखा इसी वजह से तुमको जाटों का तुम्हारे लिए भाईचारा ना कभी समझ आया और ना आएगा| - जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मीडिया वालो रहम करो 'हरयाणा' शब्द पर!

उत्तर प्रदेश में 2001 में लिंगानुपात जहां 916 था, वहां अब 2011 में 902, इसी तरह बिहार में 2001 में 942 जो घटकर 2011 में 935, मध्यप्रदेश में 2001 में 932 जो 2011 में घटकर 918 हो गया है| लेकिन मीडिया नें इन आकड़ों का कभी भी विश्लेषण करके नहीं दिखाया|

हरयाणा में 2011 में लिंगानुपात 879 है, जो कि 2001 में 861 था। हरियाणा में 2011 के जनगणना के अनुसार 0-6 वर्ष बच्चों का लिंगानुपात 1000 लड़कों पर सिर्फ 834 लड़कियाँ हैं| जो एक चिंता का विषय है| लेकिन हम यह क्यूँ भूल जाते हैं कि सन 2001 में यह आंकड़ा सिर्फ 819 था जो कि घटने के बजाय बढ़ा है; वो भी तब जब यहाँ सन 47 से ले के अब तक लगातार ऐसे सम्प्रदायों का शरणार्थी आ के बसा है जिनके यहाँ 24 लड़कों पर 9 लड़कियाँ होने की औसत रही है| वो भी तब जब पूर्वोत्तर से आने वाला 70% शरणार्थी बिना बीवी-बच्चों के आता है, जिसमें वो अपना वोट तो हरयाणा में बना लेता है और बाकी परिवार का अपने मूल राज्य में| इनमें से औसतन 80% को औसतन दस साल लगते हैं अपना परिवार यहां लाने में, अन्यथा तब तक उसके परिवार के नाम पर हरयाणा में सिर्फ उसी का वोट और जनगणना काउंट होती है।

मीडिया ट्रायल में यह भी खूब दिखाया जाता हैं कि भूर्ण हत्या कि वजह से हरियाणा में 40.3% लोग अविवाहित हैं| लेकिन मीडिया नें यह कभी नहीं बतलाया कि क्या कारण है कि पूरे भारत में 49.8%, गुजरात में 40.98%, नागालैंड में 55.83%, अरुणांचल में 53.33%, जम्मू-कश्मीर में 51.64%, मेघालय में 47.96%, आसाम में 47.09% मणिपुर में 47.96%, लोग अविवाहित क्यों हैं?

किसी अज्ञात और अनिश्चित भय से पीड़ित यह मीडिया अगर यही बक्वासें मुंबई में बैठ महाराष्ट्र के बारे काट रहा होता तो अब तक तो मुम्बईया पेशवा-मराठाओं ने इनको पीट-पीट के इनकी जय बुलवा दी होती। और यह फिर भी कहते हैं कि हरयाणवी उददंड होते हैं| पता नहीं उस दिन क्या होगा जिस दिन इनकी इन बकवासों से परेशान हो हरयाणवी वास्तव में अपनी उददण्डता पर उतर आये तो; क्योंकि इतिहास गवाह है कि मराठी-पेशवा तो सिर्फ उनके यहां से मार कर भगाते हैं, जबकि हरयाणवी तो इससे भी आगे जाते हुए घर तक गया कि नहीं इस तक की भी तसल्ली किया करते हैं। इसीलिए तो हम अपने गुस्से से डरते हैं और यह वाहियात लोग हैं कि इस बात को समझते ही नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

नौनिहाल-ददकान-पितृसाल के वो गलियार-खेड़े याद आते हैं!

नौनिहाल-ददकान-पितृसाल के वो गलियार-खेड़े याद आते हैं,
हवेलियों-चौबारों-चौपालों की अटारियाँ और मंडेर याद आते हैं|

उन मुंडेरों की फिरकियों में जो घूमा करते थे, वो मोर याद आते हैं,
पिछवाड़े धूप लगे जो मारा करते थे, वो मरोड़े जी-तोड़ याद आते हैं|

खेतों को जाते रेवड़ों-रेहड़ों के घूं-चूं करते लारे आज भी जगा जाते हैं,
बंगले की बुर्जियों-हालों-पलंगों पर जो सजते थे, वो सभागार याद आते हैं|

पनघट की पौड़ियों पे छन-छम करते बजते-भिड़ते टूमों के टाल याद आते हैं,
कुँए की फिरकी से चर-चर-चूं-चूं करते चढ़ते-उतरते ढोल के राग याद आते हैं|

लीला-काका के साथ मिलके वो आक पे बर्तन चढाने याद आते हैं,
ददकाने में चलाने सीखे मेस्सी-फोर्ड-आयशर के हाल याद आते हैं|

उबलते घुड़ के कढ़ाहे में पकवा के खाए वो गजरैले याद आते हैं,
दादी-नानी के चरखे पे उतरती कुकडियों के घुमाव याद आते हैं|

घुड़चढ़ी के आगे धौंसे की ताल पे नाचती चलती घोड़ी के ढमढमे याद आते हैं,
बारिस के पतरालों में धुल के जो चमचमा उठती थी वो गलियाँ याद आते हैं|

चढ़ती-सिसकती शिखर दुपहरी में ट्यूबवेल पे वो नंग-धड़ंग नहाने याद आते हैं,
नहर के किनारे धुंए-धुआरें भून के जो खाते थे, वो चने के होळ याद आते हैं|

या फलाने नगर की लाड़ली, ब्याही फलाने गाम, के हल्कारे याद आते हैं,
चन्द्रबादी के सांग, आरों पे मुंह से सतहीर उठाने वाले जौहर याद आते हैं|

"दादा-खेड़ा" पे ज्योत लगाने जाती बीर-बानियों के गीत और बाणे याद आते हैं,
पिंडारे वाले झोटे के जोहड़ में नहाने से बच्चे जनने के हंसी-मखौल याद आते हैं|

'फुल्ले-भगत' लिल्ल-पेरिस की गलियों में भी तो मिलते हैं वही नज़ारे,
फिर क्यों तुझे वो ठोर-डहारे-कल्लर-कारे ही यूँ रह-रह याद आते हैं?

जय यौद्धेय!

Author: Phool Kumar Malik

Monday, 11 January 2016

अगर एक किलिंग और Mass किलिंग में से चुनना हो तो!

सुब्रमण्यम स्वामी जी, अगर आपकी बेटी को मुस्लिम ब्याह ले गया या उसने मुस्लिम से ब्याह किया; तो अब इसके खुंदक (गुस्से) में सारे देश को जलाओगे क्या? फिर भी जलाना ही है तो सैंकड़ों-हजारों की जगह अपनी बेटी को आग लगा दो; और हमें चैन से जीने दे| या अपने दामाद मियाँ के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटा लो|

हद है, कुम्हार की कुम्हारी पे तो पार बसावे ना जा के गधे के कान खींचें| अपनी बेटी तो समझा-बुझा के वापिस लाई नहीं जाती, देश को डंडा दिए हुए है खाम्खा!

देश-विदेश और जनता इतनी बावली-बूच ना है कि जो आपके घाघपने को ना समझे और यह ना देखे कि किसी धर्म से कौन कितनी नफरत कर सकता है के आधार पर लोगों को राष्ट्रवादिता और देशभक्ति के सर्टिफिकेट बांटने वाले, खुद उसी धर्म में अपनी बेटी दिए हुए घूमते हैं|

विशेष: मैं व्यक्तिगत स्तर पर किसी भी प्रकार की किलिंग के विरुद्ध हूँ, फिर वो Mass Killing हो या एक किलिंग| लेकिन अगर एक किलिंग और Mass किलिंग में से चुनना हो तो वाजिब है कि उस एक को मार के Mass को बचाओ| इसलिए अगर आपका गुस्सा अपनी बेटी से है, तो भाई हजारों-सैंकड़ों जाने खत्म करवाने की बजाये यही ज्यादा अच्छा है कि आप उसकी ही जान ले लें और देश का पिंड छोड़ दें| 

फूल मलिक

Saturday, 9 January 2016

शहीद राजा नाहर सिंह तेवतिया को उनके शहीदी दिवस पर नमन!

"1857 में जमकर जौहर दिखलाया था, फतेहपुर और पलवल से अंग्रेज़ो को दौड़ाया था"
 
हम जाट सर दे देते है पर पगड़ी नहीं, दाबे की जिंदगी से लाख गुना बढ़िया होती है मौत---

बुरी तरह हराया था अंग्रेजो को फरीदाबाद (बल्लभगढ़) के जाट राजा नाहर सिंह तेवतिया ने 1857 में---

जो भी असली जाट होगा वो शेयर करेगा, नॉन जाट हिन्दू तो जाट शहीदों का नाम उजागर नहीं होण देंगे

------सन् 1857 की रक्तिम क्रांति के समय दिल्ली के बीस मील पूर्व में जाटों की एक रियासत थी। इस रियासत के नवयुवक राजा नाहरसिंह बहुत वीर, पराक्रमी और चतुर थे। दिल्ली के मुगल दरबार में उनका बहुत सम्मान था और उनके लिए सम्राट के सिंहासन के नीचे ही सोने की कुर्सी रखी जाती थी। मेरठ के क्रांतिकारियों ने जब दिल्ली पहुँचकर उन्हें ब्रितानियों के चंगुल से मुक्त कर दिया और मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को फिर सिंहासन पर बैठा दिया तो प्रश्न उपस्थित हुआ कि दिल्ली की सुरक्षा का दायित्व किसे दिया जाए? इस समय तक शाही सहायता के लिए मोहम्मद बख्त खाँ पंद्रह हजार की फौज लेकर दिल्ली चुके थे। उन्होंने भी यही उचित समझा कि दिल्ली के पूर्वी मोर्चे की कमान राजा नाहरसिंह के पास ही रहने दी जाए। बहादुरशाह जफर तो नाहरसिंह को बहुत मानते ही थे।
ब्रितानी दासता से मुक्त होने के पश्चात् दिल्ली ने 140 दिन स्वतंत्र जीवन व्यतित किया। इस काल में राजा नाहरसिंह ने दिल्ली के पूर्व में अच्छी मोरचाबंदी कर ली। उन्होंने जगह-जगह चौकियाँ बनाकर रक्षक और गुप्तचर नियुक्त कर दिए। ब्रितानियों ने दिल्ली पर पूर्व की ओर से आक्रमण करने का कभी साहस नहीं दिखाया। 13 सितंबर 1857 को ब्रितानी फौज ने कश्मीरी दरवाजे की ओर से दिल्ली पर आक्रमण किया। ब्रितानियों ने जब दिल्ली नगर में प्रवेश किया तो भगदड़ मच गई। बहादुरशाह जफर को भी भागकर हुमायूँ के मकबरे में शरण लेनी पड़ी। नाहरसिंह ने सम्राट बहादुरशाह से वल्लभगढ चलने के लिए कहा, पर सम्राट के ब्रितानी भक्त सलाहकार इलाहिबख्श ने एक न चलने दी और उन्ही के आग्रह से बहादुरशाह हुमायूँ के मकबरे में रुक गए। इलाहिबख्श के मन में बेईमानी थी। परिणाम वही हुआ जो होना था। मेजर हडसन ने बहादुरशाह को हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया और उनके शाहजादों का कत्ल कर दिया। नाहरसिंह ने बल्लभगठ पहुँचकर ब्रितानी फौज से मोरचा लेने का निश्चय किया। उन्होंने नए सिरे से मोरचाबंदी की और आगरा की ओर से दिल्ली की तरफ बढनेवाली गोरी पलटनों की धज्जियाँ उड़ा दी। बल्लभगढ़ के मोर्चे में बहुत बड़ी संख्या में ब्रितानियों का कत्ल हुआ और हजारों गोरों को बंदी बना लिया गया। इतने अघिक ब्रितानी सैनिक मारे गए कि नालियों में से खून बहकर नगर के तालाब में पहुँच गया और तालाब का पानी भी लाल हो गया।
जब ब्रितानियों ने देखा कि नाहरसिंह से पार पाना मुश्किल है तो उन्होंने धूर्तता से काम लिया। उन्होंने संधि का सूचक सफेद झंड़ा लहरा दिया। युद्ध बंद हो गया। ब्रितानी फौज के दो प्रतिनिधि किले के अंदर जाकर राजा नाहरसिंह से मिले और उन्हें बताया कि दिल्ली से समाचार आया है कि सम्राट बहादुरशाह से ब्रितानियों की संधि हो रही है और सम्राट के शुभचिंतक एवं विश्वासपात्र के नाते परार्मश के लिए सम्राट ने आपको याद किया है। उन्होंने बताया कि इसी कारण हमने संधि का सफेद झड़ा फहराया है।
भोले-भाले जाट राजा धूर्त ब्रितानियों की चाल में आ गये। अपने पाँच सौ विश्वस्त सैनिकों के साथ वह दिल्ली की तरफ चल दिए। दिल्ली में राजा को समाप्त करने या उन्हें गिरफ्तार करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में पहले ही ब्रितानी फौज छिपा दी गई थी। राजा का संबंघ उनकी सेना से विच्छेद कर दिया और राजा नाहरसिंह को गिरफ्तार कर लिया। शेर ब्रितानियों के पिंजरे में बंद हो गया। अगले ही दिन ब्रितानी फौज ने पूरी शक्ति के साथ वल्लभगढ पर आक्रमण कर दिया। तीन दिन के घमासान युद्ध के पश्चात ही वे राजाविहीन राज्य को अपने आधिपत्य में ले सके।
जिस हडसन ने सम्राट बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार किया था उनके शहजादों का कत्ल करके उनका चुुल्लू भरकर खून पिया था, वही हडसन बंदी नाहरसिंह के सामने पहुँचा और ब्रितानियों की ओर से उनके सामने मित्रता का प्रस्ताव रखा। वह नाहरसिंह के महत्व को समझ सकता था। मित्रता का प्रस्ताव रखते हुए वह बोला- नाहरसिंह मैं आपको फाँसी से बचाने के लिए ही कह रहा हूँ कि आप थोड़ा झुक जाओ। नाहरसिंह ने हडसन का अपमान करने की दृष्टि से उनकी ओर पीठ कर ली और उत्तर दिया- नाहरसिंह वह राजा नहीं है जो अपने देश के शत्रुओं के आगे झुक जाए। ब्रितानी लोग मेरे देश के शत्रु हैं। मैं उनसे क्षमा नहीं माँग सकता। एक नाहरसिंह न रहा तो क्या, कल लाख नाहरसिंह पैदा हो जाएँगे। मेजर हडसन इस उत्तर को सुनकर बौखला गया। बदले की भावना से ब्रितानियों ने राजा नाहरसिंह को खुलेआम फाँसी पर लटकाने की योजना बनाई। जहाँ आजकल चाँदनी चौक फव्वारा है, उसी स्थान पर वधस्थल बनाया गया, जिससे बाजार में चलने-फिरने वाले लोग भी राजा को फाँसी पर लटकता हुआ देख सकें। उसी स्थान के पास ही राजा नाहरसिंह का दिल्ली स्थित आवास था। ब्रितानियों ने जानबुझकर राजा नाहरसिंह को फाँसी देने क लिए वह दिन चुना, जिस दिन उन्होंने अपने जीवन के पैंतीस वर्ष पूरे करके छतीसवें वर्ष में प्रवेश किया था। राजा ने फाँसी का फंदा गले में डालकर अपना जन्मदिन मनाया। उनके साथ उनके तीन और नौजवान साथियों को भी फंदों पर झुलाया गया। वे थे खुशालसिंह, गुलाबसिंह और भूरेसिंह। दिल्ली की जनता ने गर्दन झुकाए हुए अश्रुपूरित नयनों से उन लोकप्रिय एवं वीर राजा को फंदे पर लटकता हुआ देखा।
फाँसी पर झुलाने के पूर्व हडसन ने राजा से पूछा था - आपकी आखिरी इच्छा क्या है? राजा का उत्तर था - मैं तुमसे और ब्रितानी राज्य से कुछ माँगकर अपना स्वाभिमान नहीं खोना चाहता हूँ। मैं तो अपने सामने ख़डे हुए अपने देशवासियों से कह रहा हूँ क्रांति की इस चिनगारी को बुझने न देना।