Friday 21 August 2015

राजकुमार सैनी साहब, जाट लठ उठा ले तो लठतंत्र और यह आर.एस.एस. जो 1925 से लाठी उठाये फिर रही; यह क्या?

वैसे तो जाट ने कभी किसी लठ वाले की चिंता नहीं की, फिर चाहे वह 1925 से कंधों पे लाठी रख बिना वजह यदाकदा गलियों में पैर पीटते आर.एस.एस. वाले हों या कोई और| परन्तु जैसे ही जाट ने जाट आरक्षण मामले पे लठ उठाने की बात कह दी तो राजकुमार सैनी, सांसद कुरुक्षेत्र उठ चले आये कि जाट तो लठतंत्र चलाते हैं| सैनी साहब मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि यह आरएसएस 1925 से हाथों में लाठी ले जो चला रही है यह कौनसा तंत्र है?

बड़ी जल्दी याद आ गई आपको लठ की? 60 साल के करीब होने को हुए आप, परन्तु तब से ले के अब तक तो आपको कोई लठ/लाठी नहीं दिखी, एक जाट ने लठ उठाने की बात मात्र क्या कही कि आपकी भौहें भी खुली और हिया भी हिलने लगा?

और तो और तमाम शंकराचार्य तक लाठी हाथ में ले के चलते हैं, तमाम नागा साधु जैसी कतार तो त्रिशूल-भाले तक ले के चलती है, यह कौनसा तंत्र है राजकुमार सैनी जी, क्या बताने की कृपया करेंगे?

कमाल है राजकुमार सैनी साहब! जाट के लठ उठाने मात्र से इतना खौफ! खैर, इससे बैठे-बिठाए एक बात तो साबित हो जाती है कि आर.एस.एस. की लाठी से समाज के दिलों-दिमागों में कोई उबाल या उफान नहीं आ सकता, 90 साल से लगे हुए थे किसी ने इनके लठ नोट तक नहीं किये, पर जब जाट ने उठाने की घोषणा कर दी तो मात्र घोषणमात्र से ही कैसे रातों-रात लठतंत्र स्थापित हो गए|

आर.एस.एस. वालो सीखो कुछ जाटों से, एक बार राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद की कमान दो किसी जाट को फिर देखो कैसे आर.एस.एस. मार्का रातों-रात अनछुई बुलंदियों को छूता है| या फिर छोड़ दो इन लाठियों को, यह उन्हीं को फब्ती हैं जिनको भगवान ने इनका बाई-डिफ़ॉल्ट टैलेंट दिया है| आप लोग नब्बे साल लठ उठा के भी 'लठतंत्र' का मार्का नहीं पा सके और एक जाट हैं कि उठाया भी नहीं था सिर्फ उठाने की कहा ही था इतने में ही 'लठतंत्र' स्थापित|

वाह रे जाट क्या हस्ती है तेरी, अंगड़ाई लेने की भाषा में सिर्फ लठ उठाने की ही कही (अभी उठाया नहीं) और इतने में ही मीडिया हाउस से ले सांसद तक हिलने लगे| वो आर.एस.एस. और शंकराचार्यों की भाषा में क्या कहते हैं "शिवजी की तीसरी आँख का खुलना" यही ना? भाई जाट प्लीज सच्ची में मत उठाना, अपितु असहयोग आंदोलन चला लेना|

मैं वैसे ही थोड़े कहता हूँ कि लठ तो जाट का जन्मजात फिक्स्ड एसेट है इसको तो कभी भी आजमा लिया जायेगा, फ़िलहाल जरूरत इसकी नहीं, क्योंकि यह विदेशी लुटेरों और आक्रान्ताओं का जमाना नहीं है (वो अलग बात है कि आरएसएस को अभी तक ध्यान नहीं आया कि विदेशी लुटेरे और आक्रांता जा चुके तो तुम क्यों कन्धों पे लाठी टाँगे फिर रहे?)। खैर वो टांगें फिरें हमें उनसे क्या, हमें तो अपनी सदियों-सदियों पुरानी लोकतान्त्रिक व् गणतांत्रिक मर्यादा को कायम रखते हुए यह लड़ाई लड़नी चाहिए ताकि समाज ना बिखरे| और इसका एक सुयोग्य मार्ग है "बाजार व् धर्म से असहयोग आंदोलन"।

बाकी सैनी, साहब कभी आर.एस.एस. की लाठियों के खिलाफ भी आवाज बुलंद करो तो जान पड़े कि आप वाकई में लठतंत्र के कितने निष्पक्ष और सच्चे विरोधी हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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