Sunday 9 August 2015

अमेरिका में जज न्याय नहीं करते, अपितु पंचायती करते हैं; जज सिर्फ प्रेक्षक का काम करते हैं!

वीकेंड पे भारत के समकक्ष विभिन्न देशों में न्यायपालिका कैसे कार्य करती है इस बारे इंटरनेट सर्फिंग कर रहा था और संयोग हुआ कि साथ ही अमेरिका से मेरे एक अजीज मित्र भरत ठाकरान से भी वॉइस चैट हो रही थी। इस पोस्ट के टाइटल के हिसाब से जो कुछ इंटरनेट पे सर्च करके पढ़ा तो उसका प्रैक्टिकल रिफरेन्स पाने हेतु उनसे बात की। उनकी और इंटरनेट की सर्च का निष्कर्ष अमेरिका और भारत की न्याय-प्रणाली में क्या समरूप है और क्या भिन्न, उसके इस प्रकार तथ्य सामने आये:

1) अमेरिका के किसी भी गांव या शहर में जब भी कोई विवाद या अपराधिक मामला सामने आता है तो उसको जिला कोर्ट में पेश किया जाता है जहाँ दोनों पक्षों के वकीलों को एक जज की निगरानी में मामले की प्रकार के अनुसार आमजन में से 11 लोगों का ट्रिब्यूनल यानी जुडिशियल बॉडी चुननी होती है। इन चुने हुए 11 लोगों को दोनों वकील एकांत में इंटरव्यू करते हैं और जो सही नहीं लगता उसको निकाल के उसकी जगह उसी शहर-गांव का कोई दूसरा सदस्य लिया जाता है। दोनों वकीलों के पास इन 11 में से किसी को निकालने या रखने के 3 तक चांस होते हैं।

इसके समरूप भारत में क्या है: भड़कना और बोहें मत चढ़ाना परन्तु इससे मिलती-जुलती या इसके नजदीक लगती प्रक्रिया है खाप पंचायतों की। फर्क सिर्फ इतना है कि भारत में खाप की प्रक्रिया को वकील और जज से नहीं जोड़ा गया है। अमेरिका में जहां वकील और जज केस की स्थानीय लोकेशन के 11 सामाजिक लोगों का ट्रिब्यूनल चुनते हैं, वहीँ खाप में यह काम उस विशेष खाप पंचायत का प्रेजिडेंट करता है और वो 11 की जगह 5 सामाजिक लोगों को पंचायत में ही पब्लिक की उपस्थिति में चुनता है। अमेरिका में इस बॉडी में से किसी सदस्य को बदलने के जहां 3 चांस होते हैं, वहीं खाप में पब्लिक उपस्थिति में पूछा जाता है कि इनमें से किसी नाम पे किसी पक्ष को आपत्ति है तो कहें। कोई आपत्ति आती है तो उस सदस्य को बदल के उसपे फिर पब्लिक राय ले के आगे की कार्यवाही शुरू की जाती है। ध्यान रहे यहां मैं खाप के आदर्श विधान की बात बता रहा हूँ, उनकी नहीं जो खापों की आड़ या उनको बदनाम करने हेतु उनके नाम से पंचायतें बुला लेते हैं या मीडिया में दिखा देते हैं। ऐसे लोगों पर खापों को निगरानी रखनी चाहिए। और एक बात यह प्रोसेस पूरे भारत में और कहीं की भी गांव-नगर-सोसाइटी पंचायतों में नहीं है, सिर्फ खाप पंचायतों में है।

2) पूरे मामले को यह 11 लोग सुनते हैं, जज और वकील सिर्फ यह सुनिश्चित करते हैं कि सारी कार्यवाही अमेरिकन कानूनी धाराओं के अनुसार हुई है। दोनों पक्षों को सुनने के बाद यह 11 सदस्यीय टीम ही न्याय करती है, जिसको फिर जज दोनों पक्षों को पढ़ के सुनाता है। अगर किसी भी पक्ष को निर्णय पसंद नहीं आया तो उसपे अपील लगती है| जज को लगे कि और सबूत व् तथ्य चाहियें तो जज उसी 11 सदस्यीय पैनल को पुलिस की सहायता से सब जरूरी सबूत उपलब्ध करवाता है और फिर से पंचायत बैठती है और नए या छूट गए तथ्यों की उपस्थिति व् रौशनी में फिर से केस सुना जाता है। इसमें कोई तारीख-पे-तारीख सिस्टम नहीं होता क्योंकि जज और वकीलों पर प्रेशर रहता है कि 11 सदस्यीय ट्रिब्यूनल के वक्त बरबादी के साथ-साथ न्याय में देरी ना हो।

खाप-पंचायतों में इसके जैसा क्या है: 5 सदस्यीय पंचायती मंडल दोनों पक्षों और उनके गवाहों को सुनने के बाद, पंचायत के प्रेजिडेंट को अपना फैसला सौंपता है, जिसको प्रेजिडेंट पंचायत में बैठी पब्लिक व् दोनों पक्षों को सुनाता है। अगर दोनों पक्ष फैसले से संतुष्ट हुए तो 'ग्राम-खेड़ा' की जय बोल के पंचायत उठ जाती है अन्यथा दूसरी सुनवाई हेतु खाप-पंचायत उसी गाँव/शहर/लोकेशन पे ठहरी रहती है और अपनी निगरानी में छूटे हुए या अभी तक सामने नहीं आये तथ्यों को खोजवाती है अथवा ढुँढवाती है। और फिर नए पर्याप्त तथ्य जुटाने पर पहले वाली प्रक्रिया दोहराई जाती है और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक दोनों पक्ष संतुष्ट ना हों। अमेरिकन लॉ और कोर्ट की तरह खाप पंचायत के यहां भी कोई तारीख-पे-तारीख नहीं होती। एक बार किसी मुद्दे पर खाप पंचायत बैठ गई तो खाप का आदर्श विधान कहता है कि वो फैसला करके ही वहां से उठेगी, फिर फैसला करने में कितनी ही सिट्टिंग्स क्यों ना लग जावें।

3) भारत भी अमेरिका की तर्ज पर खाप पंचायतों के फार्मूला को जज व् वकील से जोड़ ले तो हम भी 'फेडरल स्टेट' बन जावें: इसकी जरूरत व् महत्वता को समझने के लिए हमें अमेरिकी प्रोसेस के फायदे देखने होंगे:

3.1) "न्याय में देरी, न्याय को ना" क्योंकि अमेरिका की कानून व्यवस्था ने सामाजिक पंचायत और कानूनी पंचायत को ऊपर बताये तरीके से जोड़ रखा है, इसलिए वहाँ इसकी नौबत नहीं आती। जबकि भारत में एक-एक मुकदमा 20-20 साल चलता रहता है।

3.2) "कोई-तारीख-पे-तारीख" नहीं, हर फैसले को खाप-पंचायतों की तरह निबटाता है अमेरिका| यानी एक बार ट्रिब्यूनल बैठ गया तो बैठ गया, फिर लगातार उस मुकदमे की सुनवाई चलेगी, देरी हुई तो ट्रिब्यूनल के सदस्य प्रेशर देंगे। एक अध्यन के अनुसार आज भारत में 3 करोड़ से अधिक मामले सिर्फ इस 'तारीख-पे-तारीख' की बला की वजह से लटके पड़े हैं।

3.3) सामाजिक लोगों की भागीदारी होने से रिश्वतखोरी और गवाहों के तोड़ने-मरोड़ने की गुंजाइस कम रहती है क्योंकि ट्रिब्यूनल के सारे सदस्य स्थानीय होते हैं और वो अधिकतर मामलों में दोनों पक्षों के लोगों को निजी स्तर तक जानते होते हैं।

3.4) वकील-जज नियंत्रण में रह के और अपनी जिम्मेदारी समझ के कार्य करते हैं।

3.5) जनता-जनार्धन का राज चलता है, यानी वकील और जज न्याय नहीं करते वो न्याय करवाने वाले होते हैं, न्याय करती है सामाजिक जनता की पंचायत।

लेकिन जब हमारा देश आज़ाद हुआ तो किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि न्याय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए। अधिकतर मामलों में जज ना ही तो दोनों पक्षों को जानता होता है, और ना ही उनकी भाषा बोलता-समझता होता है। सामाजिक ट्रिब्यूनल की अनुपस्थिति में फिर रिश्वतखोरी और गवाह तोड़ने-मरोड़ने का जो खेल चलता है वो तो हर भारतीय जानता ही है।

और भारतीय परिवेश में मैं इसका सबसे बड़ा दोषी मानता हूँ हमारे यहां की जातीय-व्यवस्था को। खापों में तो फिर भी प्राचीनकाल से सब जातियों की भागीदारी रही है (हालाँकि आज मीडिया और एंटी-खाप लोग इसको जाति विशेष की बता, जाति और वर्ण व्यस्था बनाने वाले लोगों से ध्यान हटाना चाहते हैं, ताकि समाज में लिखित तौर पर जाति-पाति फ़ैलाने का उनका घुन्नापन ढंका रहे और खाप उनके फैलाये इस जहर को हजम करने हेतु सॉफ्ट-टारगेट बानी रहें) परन्तु जाति-पाति को लिखित तौर पर बनाने वाले समुदायों से आने वाले न्यायपालिका में भी इसको कायम रखना चाहते हैं और इस मार्ग में वो खाप जैसी संस्थाओं को सबसे बड़ा रोड़ा पाते हैं इसीलिए एकमुश्त इन पर जहर उगलते और उगलवाते हैं। परन्तु यह उनसे ज्यादा खापों की नाकामी है जो ऐसे सॉफ्ट-टार्गेटों से बचने हेतु कोई भी शील्ड व कवच नहीं रखते या बनाते।

इसलिए अगर हमको हमारे लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार लोकतान्त्रिक न्याय चाहिए जो यह गुलामों वाली न्यायप्रणाली को बदल खाप पंचायतों जैसी व्यवस्था में जरूरी सुधार डाल इसको अमेरिका के पैटर्न पे जज-वकील व्यवस्था के साथ जोड़ना होगा। न्यायपालिका को न्याय करने वाली नहीं अपितु करवाने वाली बनना होगा।

As per Mrs. Urmy Malik, resident of Canada, "Similar jury trials procedures prevails in Canadian judicial system also." She further adds, "In serious criminal cases, accused has the choice to be tried by single judge or jury. 12 members are selected from the community from different backgrounds. They find the facts and give their verdict separately. .The trail judge cannot ignore verdict made in majority. And you are right less or more they work like panchâyat.

As per Mrs. Krishna Chaudhary, resident of Australia "यहँ भी ऐसा ही है आम नागरिक की भी जूरी duty लगती है एक बार मेरी भी आई थी|"

Source: http://www.uscourts.gov/services-forms/jury-service/types-juries

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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