Saturday 22 August 2015

हरयाणा का दलित, उसकी जमींदारी और उस जमींदारी का अल्पकालिक चरमोतकर्ष!

1980 और 1990 के दशक की बात है, उस वक्त की सरकारी योजनाओं के तहत हरयाणा के गाँवों के दलितों के कई समुदायों को 1.75 एकड़ (हरयाणवी में किल्ले) के हिसाब से मालिकाना हक वाली जमीनें मिली थी| मेरी निडाना नगरी (हिंदी में गाँव) जिला जींद हरयाणा में भी इस योजना के तहत करीब 48 दलित परिवारों को 1.75 एकड़ प्रति परिवार मालिकाना हक के तहत 84 एकड़ जमीन मिली थी|

जिसमें से तीन दलित परिवारों की करीब 5 एकड़ जमीनें तो मेरे पिता जी जब खेती किया करते थे और हम बच्चे हुआ करते थे तब करीब 20 सालों तक ठेके और हिस्से पर बोते रहे थे| यानी दलित एक जमींदार की भांति एक जाट को उसकी जमीन पट्टे पे कहो, हिस्से पे कहो, बाधे पे कहो या ठेके पे कहो, इसके तहत दिया करते थे और जाट उसको एक खेतिहर की तरह बोया करते थे| और दलित, जमींदार होने का अनुभव और आनंद दोनों उठाया करते थे|

यह पांच एकड़ जमीन हमारे खेतों से लगती थी जो कि आज भी यथावत वहीँ है| मैं जब विद्यार्थी होता था तो इन जमीनों में पानी भी लगाता था और इन पर ट्रेक्टर से खेत भी जोतता था| और दलित फसल पकने के वक्त आते और अगर हिस्से का कॉन्ट्रैक्ट होता तो अपना हिस्सा तुलवा कर या तो फसल ले जाते या कॉन्ट्रैक्ट अगर बाधे का होता तो उसके पैसे कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों के हिसाब से चुकाए जाते थे|

करीब 20 साल हमने यह जमीनें बोई, इसका जिक्र करना इसलिए जरूरी है क्योंकि कई दलित भाई कह देते हैं कि क्योंकि दलित जाटों-जमींदारों के कर्जदार होते थे इसलिए अपना कर्ज वसूलने को दलितों की जमीन हड़प ली या दलितों ने खुद ही जाटों को बेच दी| ऐसे भाइयों को कहना चाहूंगा कि 20 साल का वक्त कोई कम नहीं होता है 20 साल में आप 1.75 एकड़ जमीन की कमाई से अगर किसी का कर्जा था तो वो भी उतार सकते थे और नई कमाई से खेती करके 1.75 एकड़ को 4-5 या इससे भी ज्यादा बना सकते थे| परन्तु आप लोगों में से अधिकतर ने उस जमीन के ठेके का जो पैसा मिलता था उस पैसे से पहले अगर किसी का कर्ज था तो उसको चुकता करने की बजाय लैविश लाइफ का आनंद लेना बेहतर समझा, दारु-मीट-मांस में उड़ाना बेहतर समझा|

दो तीन दलित भाइयों को मैंने यह तर्क रखे तो आगे से उनके तर्क आये कि जाट-जमींदार के खेतों के बीच दलित के खेत पड़ें तो जाट उनको रास्ता ही ना देवें| उन भाइयों की जानकारी में रहना चाहिए कि अगर मेरे गाँव को औसत मान के चलूँ (मेरा गाँव 4500 की जनसंख्या का मध्यम आकार का गाँव है, जबकि हरयाणा में इससे छोटे और बड़े बहुत सारे गाँव हैं) जहां कि 84 एकड़ जमीन दलितों को मिली थी और जैसा कि पूरे हरयाणा में 6841 गाँव बताये जाते हैं तो ऐसे 574644 यानी पांच लाख च्वहतर हजार छ: सौ चवालीस एकड़ जमीन के तो दलित एक मुस्त मालिक बने थे| तो जरा आप लोग बताएँगे कि ऐसे कितने मामले हरयाणा में आये जहां जाट या अन्य जाति के जमींदारों दवारा अगर आपकी जमीन उनके खेतों के बीच पड़ी तो आपको रास्ता नहीं दिया गया? हालाँकि खुद जाट-जमींदारों के यहां दो भाइयों में आपस में सैंकड़ों मामले सुनने को मिलते हैं जब पता लगता है कि एक भाई ने दुसरे भाई को उसकी जमीन में से आने-जाने के लिए रास्ता नहीं दिया, बावजूद इसके आप जरा बताएं कि ऐसे कितने मामले हुए दलितों के केस में? और आपने क्या लगा लिया कि कोई जाट-जमींदार रास्ता ना देता और दलित चुप रहते?

खैर 1980-1990 के दशक में जो दलित जमींदार हो गए थे, (हाँ जमींदार ही कहूँगा क्योंकि जब 80% से ज्यादा का जाट 2 एकड़ या इससे भी कम का मालिक होते हुए भी जमींदार कहलाया जाता है तो इतने ही का मालिक दलित जमींदार क्यों नहीं कहा जायेगा?) तब से 2000-2010 आते-आते 75-80% के करीब ने अपनी जमीनें बेच दी (मेरे गाँव में तो 95% बेच चुके)| कारण ऊपर बताया कि बजाय अपनी किसानी दक्षता को सिद्ध करने का मौका हाथ में होते हुए, उन जमीनों को जाट-जमींदारों को हिस्से-बाधे पे दे दलित भाइयों ने उस हिस्से-बाधे की कमाई से लैविश लाइफ जीना ज्यादा पसंद किया| और ऐसे अपनी जमीनें बेचते गए|

और इस तरह दलितों की उस सुखदायी परन्तु अल्पकालिक जमींदारी का अंत हुआ जिसमें एक जाट-जमींदार उनकी जमीनों पे एक खेतिहर की तरह खेती करने लगे थे| इसलिए मेरा मानना है कि 1980-1990 से पहले के दलित तो यह कह सकते थे कि वो कभी जमीनों के मालिक नहीं रहे, परन्तु उसके बाद के दलित यह बात कैसे कह सकते हैं जबकि यह चीज भारतीय दस्तावेजों में कानूनी तौर से रिकार्डेड है और धरातलीय सच्चाई है?

यह एपिसोड ठीक 1926-34 वाले वक्त की तरह है| उस वक्त रहबरे-आजम-दीनबंधु सर छोटूराम जी के अटूट इरादों की वजह से उस वक्त के पंजाब प्रान्त के जाट-गुज्जर-अहीर-राजपूत किसानों समेत गौड़-ब्राह्मण, सैनी (माली), जांगड़ा (खाती) जातियों {इन तीनों जातियों को अंग्रेजों ने किसान मानने व् जमीनों के मालिकाना हक देने से मना कर दिया था, परन्तु सर छोटूराम ने उनकी सरकार के तमाम एम. एल. सी. (आज की भाषा में एम. एल. ए.) से हस्ताक्षर करवा इन जातियों को भी इस सूची में शामिल करवाया} को उन जमीनों के मालिकाना हक दिलवाये|

इन हस्ताक्षर करने वाली एम. एल. सी. में 34 जाट थे| वो भी आज के राजकुमार सैनी की भांति सोच लेते तो शायद आज सैनी समाज जाटों से मतभेद में ना उलझ उनकी जमीनों के मालिकाना हक के लिए ही लड़ रहा होता| कुछ नेता कितने स्वार्थी हो जाते हैं कि दो जातियों के आपसी प्रेम-प्यार और प्रतिबद्धता के इस अटूट लगाव भरे इतिहास को दांव पे रख, दोनों में जहर घोलने पे तुल जाते हैं, राजकुमार सैनी साहब इसी की जीती-जागती मिसाल हैं|

खैर, तो इन जातियों ने इन जमीनों की जोत को जोत-जोत के इनमें और जमीन जोड़ते गए और अब तक जमीनों को कायम रखा हुआ है| तब किसी जाट ने यह बहाना नहीं बनाया कि उसपे किसी साहूकार का कर्जदार था तो उसको कर्ज के ऐवज में मैंने जमीन दे दी या साहूकार ने छीन ली, जैसे कि मैंने दलित भाई जाटों पर यह इल्जाम लगाते सुने हैं|

दलित भाई भी चाहते तो ऐसे ही कर सकते थे| परन्तु आपने जो रास्ता चुना वो भी अपनी मर्जी से चुना|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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