Tuesday 8 September 2015

मधुमक्खी बनाम घरेलु मक्खी!

(डंक मारने (परन्तु शहद देने वाले) वाले लोग बनाम घूं खाने वाले लोग)

सार: जाट आरक्षण व् अधिकारों मामले पे नीचे लिखे स्टाइल वाले एक घूं खाने वाले से तक्कलुस हो गई|

टाइटल से आप समझ ही गए होंगे, कि मधुमक्खी इंसान को साफ़ जगह पे काट के उसका खून ले जाती है जबकि घरेलू मक्खी या तो घाव पे बैठेगी या घूं यानी टट्टी पे| उड़ती आस्मां में दोनों हैं परन्तु एक डंक वाली है और दूसरी फंकी चरित्र है| एक समाज और प्रकृति की सुगंधित चीजों जैसे कि फूलों का रस बटोर शहद बना देती है तो दूसरी अच्छे से अच्छा यानी घी को भी छोड़ के घाव या घूं पे ही जा के बैठती है|

यही कहानी उन लोगों की होती है जो अपनी सभ्यता संस्कृति के खुद को जमाई समझते हैं खसम नहीं| यह लोग जिंदगी में कितने ही आगे पहुँच जावें परन्तु घरेलु मक्खी की तरह जा के बैठेंगे घर के कूड़े पे, घूं पे| इनको जिंदगी भर कभी अक्ल नहीं आती कि घूं पे बैठ के घूं ही उगलोगे जबकि अगर मधुमक्खी बनके घर बाहर अच्छी चीजों से योगदान ले के चलो तो समाज को शहद दे सकते हो| मेरी संस्कृति में यह कमी, वह कमी, इसमें कल्चर नहीं, सिर्फ वल्चर हैं, यह रद्दी की टोकरी में फेंकने लायक है, इसका कुछ नहीं किया जा सकता, ऐसे लोग होते हैं जो सिर्फ मक्खी की तरह घाव पे बैठ उसको कुरेदने, उसको ले के समाज में भय और चिंता भरने के अलावा कुछ करने के नहीं होते|

अब घरेलु मक्खी की यह भी समस्या होती है कि वो भले ही घर में घी खुला रखा हो परन्तु उसपे कभी नहीं जाएगी, लिसलिसा-चिपचिपा गुड, कूड़ा अथवा इंसान का घाव खुला हो तो पहले झटके जा बैठेगी| और ऐसी मक्खियों और इनकी केटेगरी वाले लोगों के विधवा आलापों या हरयाणवी में कहूँ तो रंडी-रोणों (महिलावादी लोग-लुगाई मुझे माफ़ करें, परन्तु सामाजिक कहावतें हैं तो प्रयोग करूँगा ही) के सिवाय कुछ हासिल भी नहीं होता| इसलिए ऐसे लोगों से डरने की जरूरत नहीं, क्योंकि यह लोग उस बौराये हुए जमाई की भांति होते हैं कि जिसको सालियां बासी-खुस्सी (घूं तो नहीं कहूँगा) या खीर-दही के भळोखे में रूई गिटका देवें तो उसमें भी अपनी स्यानपत समझेंगे| इस केटेगरी के लोगों को 'रोड़े अटकाने वाले', 'कढ़ी बिगाड़', 'रायता फैलाऊ' या म्हारे हरयाणवी में कह्या करें 'होक्के में डीकडे तोड़ने वाले' भी कह देते हैं|

हुआ यूँ कि दो-तीन साल पहले एक मसहूर हरयाणवी टीवी चैनल के डायरेक्टर ने ताना मारा कि तुम हरयाणा और जाटों को ले के यह क्या उल-जुलूल भांडणे में लगे रहते हो, तुम्हारे लोग (खुद हरयाणवी होते हुए भी तुम्हारे बोल रहा है) तो इतने पिछड़े हुए हैं कि आज तक भी गाँव के कचरे से बाहर नहीं आये, मुंह से बोलने लग जावें तो जैसे पत्थर लगते हों| वही जनाब अभी पिछले ही महीने जाट आरक्षण पर मुझे एक जाटनी लड़की की पोस्ट दिखा के कहने लगे कि देखो तुमसे तो यह लड़की कितना अच्छा तर्क ले के आई है, "जाट में दलितों जैसे ना तो जातिसूचक सामाजिक सम्बोधन हैं और ना ही जाट गरीब-गंवार हैं, तो फिर जाट को आरक्षण किसलिए? तो मैंने कहा उस दिन जाटों को पिछड़ा और कचरे में धंसा हुआ बताने वाला, जाटों के पिछड़ेपन से इतनी अच्छी तरफ से वाकिफ इंसान भी उस लड़की को जवाब नहीं दे सका, ताज्जुब है| खैर कोई नहीं मुझसे सुनो और बताओ 'मोलड़' शब्द मुख्यत: किस जाति के लिए प्रयोग किये जाने वाला जातिसूचक शब्द है? थोड़ी देर को उसको सांस नहीं आया| मैंने कहा दो साले पहले तो बड़े कह रहे थे कि जाट गांव के कचरे में पड़े हैं, पिछड़े हुए हैं, क्यों नहीं दे दी थी यही दलीलें उस लड़की को समझाने और जाटों के साधनहीन, सुविधाहीन व् अवसरहीन वर्ग की परिस्थिति का सही आईना दिखाने हेतु?

अपनी बात को ऊपर रखने हेतु बोलता है कि जातिसूचक शब्द तो हर जाति में हैं जैसे बनियों के लिए 'किराड़', ब्राह्मणों के लिए 'ताता खाने वाले', 'लार टपकाने वाले', 'पोथी वाले' और हिन्दू अरोड़ा-खत्रियों के लिए 'रेफ़ुजी', 'झंगी' आदि| तो मैंने कहा तो जब सब जानते हो तो उसको जवाब क्यों नहीं दिया? अंत में यही कह के पीछा छुड़ा के भागा कि ठीक है आज के बाद मैं मेरे नाम में सरनेम की जगह 'मोलड़' शब्द प्रयोग करूँगा| वो दिन है और आज का दिन मुझे अभी तक इतंजार है कि वो कब इस शब्द को अपने नाम के साथ जोड़ेगा| खैर जाति और हरयाणवी भाई होने के साथ-साथ वो मेरा अच्छा शुभचिंतक, क्रिटिक और मित्र भी है इसलिए पब्लिक में नाम नहीं बताऊंगा|

एक बार अब्राहम लिंकन ने कहा था कि 'यह मत पूछो कि देश ने तुम्हारे लिए क्या किया, अपितु यह पूछो कि तुमने देश के लिए क्या किया?' यही बात मैं कौम के नाम पर कहता हूँ कि यह मत पूछो कि कौम ने तुम्हारे लिए क्या किया वरन यह पूछो कि तुमने कौम के लिए क्या किया?' इतना पक्का है कि तुम कौम के लिए कुछ करोगे तो देर-सवेर कौम तुमको जरूर पहचानेगी-जानेगी|

अत: घरेलू मक्खियों की तरह घूम फिर के, घर में रखे घी को भी छोड़ के, आस्मां में ऊँचे-से-ऊँचे उड़ने के बावजूद भी अंत में घूं (टट्टी) पे जा के बैठने वाले लोगों की फ़िक्र मत करो, फिक्र करो तो उन मधुमक्खियों की जो साफ़ जगह (वो भी भीं-भीं की वार्निंग दे के) पे काटती हैं परन्तु साथ ही समाज के अच्छे-अच्छे स्त्रोतों से रस जुटा के उसको शहद बना देती हैं| हालाँकि इस रास्ते में अणखद (कष्ट) बहुत हैं परन्तु मसला है कि आपको समाज में घी सामने होते हुए भी अपने लिए घूं खाने वाले की पहचान बनानी है या मधुमक्खी की तरह समाज-कौम की सकारात्मक चीजों को जोड़ उनसे शहद बना देने वाले की|

वैसे भी चिंता मत करना कि कितनी घरेलू मक्खियाँ घूं पे जा के बैठी हैं यानी समाज का शुभचिन्तक होने रुपी मुखौटा लिए कितने लोग आपको आपके समाज-संस्कृति का कचरा दिखा रहे हैं, भान रहे यह लीचड़ लोग सिर्फ उस कचरे को दिखाएंगे, उसी पे बैठ के अपना धंधा चलाएंगे परन्तु उसको खुद साफ़ कभी नहीं करेंगे; क्योंकि अटल सत्य है उन्होंने खुद ही उसको साफ़ कर दिया तो वो काहे पे बैठ के अपना रंडी-रोणा रोयेंगे? अपितु चिंता करना कि आपको शहद देने वाली मधुमक्खी काट ना ले, क्योंकि वो घरेलू मक्खी की तरह ना तो बार-बार अटैक करती है या बार-बार उड़ाने पर भी जिद्दी बालक की तरह वापिस आपके घाव पे आ के बैठने को आतुर रहती है, वह तो बस एक ही अटैक में अपना काम कर जाती है, थोबड़े पे काटे तो थोबड़ा सुजा जाती है| परन्तु समाज की अच्छे को जोड़ के शहद भी देती है| इसलिए किसी के साथ जुड़ने से पहले, उनके लोप-ललित निबंधों के प्रभाव में आने से पहले यह जानना और निर्धारित करना बहुत जरूरी हो जाता है कि वो घरेलु मक्खी है या मधुमक्खी|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

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