Saturday 30 April 2016

मॉस-मुद्दों की तरफ मुड़ना होगा, हरयाणवी फिल्मों के कहानीकारों को!

हरयाणवी फ़िल्में इसलिए नहीं चल पा रही हैं क्योंकि इनमें कॉमन मुद्दों की जगह एक्सेप्शनल और व्यर्थ के सेंसेशनल टॉपिक्स घड़ के धक्के से हरयाणवी परिवेश में फिट करने की कोशिश की जाती है| ऐसे मुद्दे उठा के लाये जाते हैं, जिनको हरयाणवी समाज रद्दी की टोकरी में डाल के रखता है या ऐसे विषय जो कभी हुए ही ना हों हरयाणा में| जैसे 'सांझी', 'लाडो' फिल्मों में एक्सेप्शनल मुद्दे उठाये गए, बावजूद इसके कि इनमें उठाये मुद्दों का मॉस-पहलु उतना ही जबरदस्त था जितना कि इनका एक्सेप्शनल पहलु| इनके मॉस पहलु पे फिल्म बनती तो जरूर इनसे बेहतर नतीजे देती|

और यही हश्र अभी आई 'पगड़ी- दी ऑनर' के साथ हुआ| यह फ़िल्में ईमानदारी से ज्यों-की-त्यों स्थिति दिखाने से ज्यादा लेक्चर झाड़ने टाइप की ज्यादा बन जाती हैं, या फिर एक एक्सेप्शनल सिचुएशन को आइडियल बना के समाज पे थोपती हुई सी प्रतीत होती हैं| नेचुरल फ्लो नहीं हो पाता ऐसे में| फिल्म के बाकी पहलुओं में कुछ हो या ना हो परन्तु संदेश देने की हर कहानीकार/डायरेक्टर कोशिश करता है| और जिस भी फिल्म में संदेश सीधे तौर पर दिया जाता है वो फ्लॉप होती ही होती है| हरयाणवी तो क्या हिंदी हो या इंग्लिश मूवी, लेक्चर टाइप मूवीज स्पेसिफिक ऑडियंस से आगे जगह नहीं बना पाती|

प्रभाकर फिल्म्स ने एक मुद्दा दिया था बढ़िया वाला, चंद्रावल पार्ट वन में| यह फिल्म ऑडियंस में जबरदस्त जगह बना सकी, क्योंकि इसमें हॉनर किलिंग होने के बावजूद भी, यह लेक्चर नहीं झाड़ा गया कि हॉनर किलिंग ना करो| बल्कि अंदर-ही-अंदर महसूस करवाया गया कि ऐसा नहीं होना चाहिए था| यही वजह है कि जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तो उत्तरी भारत में बॉलीवुड की शोले भी इसको पछाड़ नहीं सकी थी, इसके रिकॉर्ड नहीं तोड़ सकी थी|

पता नहीं, कहानीकार हरयाणवी सिनेमा को एक आर्ट की तरह लेना कब शुरू करेंगे| जिसको देखो हर फिल्म में अप्राकृतिक प्लेटफार्म पर फ्रेम्ड कहानी लिख रहे हैं; जबकि विशाल हरयाणा यानि हरयाणा+दिल्ली+पश्चिमी यूपी+उत्तराखंड के हर गली-गाँव में इतने किस्से बिखरे पड़े हैं कि जितनी चाहे उतनी हिट निकाल लो| लगता है सबको एक खुन्नस सी होती है कि हमें हरयाणवियों को उन पर अपना टैलेंट दिखाना है, हुनर दिखाना है| तभी तो फ़िल्मकार तो फ़िल्मकार मोदी सरकार तक अपना गुजरात मॉडल यहां घुसेड़ने पे उतारू रहती है| भाई हम बावली-बूच ना हैं, हमें दिखाना है तो कुछ हमारे बीच से ही निकाल के दिखाओ, वर्ना यह गुजरात मॉडल टाइप चीजों के तो हम ही डंडा दे देते हैं| आप कहानीकारों को ऐसा डंडा ना चाहिए और हरयाणवी फ़िल्में नहीं चलती की कुंठा नहीं चाहिए, तो ज़रा विचारें इन बिंदुओं पर|

वैसे लाल-रंग फिल्म का प्लेटफार्म और पटकथा, दोनों जबरदस्त रही; सिवाय एक बात को छोड़ के कि इसका हीरो अपनी प्रेमिका से तो शारीरिक संबंध बनाता हुआ दिखाया नहीं और वैसे लैब-अटेंडेंट तक से हाजिरी लेने में आगे था| और वो प्रेमिका भी गज़ब थी कि प्रेमी कहीं मुंह मारे उसको कोई फर्क नहीं| इसके अलावा फिल्म की कहानी जबरदस्त, एक्टर्स की एक्टिंग जबरस्त|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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